RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#23
बरसती रात में एक साया टूटे चबूतरे के पास खड़ा था , बारिश हो या न हो जैसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था , वो आँखे बस उस चबूतरे को घूरे जा रही थी ,
“मेरी हर तलाश बस इस जगह आकर खत्म हो जाती है , कुछ तो है जो यहाँ से जुड़ा है , पर यहाँ से आगे कोई कड़ी नहीं मिल पाती , आखिर क्यों हर बार निराशा ही हाथ लगती है मुझे, ” अपने आप पर जैसे चीख ही पड़ा था वो साया.
पर सब कुछ खामोश था सिवाय बारिश के, उसके सवालो का जवाब देने के लिए कोई नहीं था , या कोई था , कोई थी, एक कहानी जो बरसो पहले इस रेत में खो गयी थी जिसे वक्त ने भुला दिया था , उस कहानी के सिरे क्या यही कही पर थे,
“हे, मा तारा ये कैसी परीक्षा है मेरी , रात की नींद गयी दिन का करार, मेरे तमाम सपने खो गए है, कोई तो राह दिखाओ मुझे , कोई तो सूत्र हाथ लगे जो उलझन मेरी सुलझाये, मुझे इतना तो भान है की मैं शायद एक कड़ी हूँ इस उलझन की ,पर कोई राह नजर नहीं आती, ये तो सत्य है की इस कहानी की अपनी हकीकत है , तो क्या अब मैं अर्जुन्गढ़ जाऊ,” साए ने अपने आप से सवाल किया.
पर अफ़सोस सवाल बस सवाल ही रह गया. वो साया चबूतरे पर बैठ कर अपनी बेबसी और हताशा में डूब गया . और ठीक उसी वक्त टूटे चबूतरे से बहुत दूर हम दोनों भी भी एक उलझन में उलझे थे ,जिस्मो की उलझन में, बार बार मैं प्रज्ञा की दोनों चुचियो को चूस रहा था, चाट रहा था बेताबिया थी, बेचैनिया थी , आग थी ,बादल था जो उसके तन पर बारिश बन कर बरस जाता था .
अपने हाथो से उसकी चूत को टटोला मैंने तो पाया की एक नदी सी बह रहीथी उसकी जांघो के बीच, बेचैन प्रज्ञा ने मेरे लिंग को पकड़ा और उसे अपने छेद पर रगड़ने लगी, अब बारी मेरी थी, मैंने थोडा सा जोर लगाया और मेरा सुपाडा अन्दर की तरफ धंस गया. मैंने महसूस किया की प्रज्ञा की चूत ताई की तुलना में थोड़ी सी खुली थी , पर गर्म उतनी ही थी. धीरे धीरे मैं उसके अन्दर समाता चला गया .
“ओह कबीर, बच्चेदानी तक ठोकर जा रही है ओह ओह ” प्रज्ञा बुदबुदाने लगी. उसके नाखूनों की रगड़ मैंने अपने कंधो और पीठ पर महसूस की. जंगल में जैसे शेरनी खुली दौड़ लगा रही हो, ऐसा हाल था उस का जैसे जन्मो की प्यासी थी वो , उसने मुझे निचे गिरा दिया और खुद मेरे ऊपर आ गयी, अदा पसंद आई मुझे.
मेरे खूंटे को एक बार फिर से अपने बिल में डालने के बाद वो उस पर ऊपर निचे होने लगी, मैंने उसके नितम्बो को थाम लिया. वो अपना हाथ पीछे ले गयी और अपने बालो को खोल दिया. हुस्न को इस तरह मैंने कभी नहीं देखा था , और मुझे आभास हुआ की मैंने क्यों उस दिन कहा था की बोतल बेशक हाथ में है पर नशा सामने है
धीरे धीरे हमारी सांसे फूलने लगी थी, चेहरे पर लाल रंगत छाई थी पर किसे परवाह थी , नसों में खून के साथ साथ हवस दौड़ रही थी . फिर वो मुझपर झुकते चली गयी , मेरे होंठो को पीने लगी और मैं उसके , ये पहली बार था जब कोई औरत मुझ पर इस तरह से चढ़ी थी . प्रज्ञा की चूत का पानी बहते हुए मेरी जांघो को भी गीला कर चूका था .
बहुत देर तक वो अपनी मनमानी करती रही और फिर उसने मेरे गले पर काटना शुरू किया , उसकी उत्तेजना अंतिम चरण में थी, मेरे ज़ख्मो पर बेहद दवाब महसूस किया मैंने और फिर वो चीखते हुए निढाल हो गयी. . चूत ने अपना सारा रस उड़ेल दिया और मैं भी उस गर्मी को सह नहीं पाया. एक के बाद एक झटके लेते हुए मैंने अपने पानी से उसकी चूत को भर दिया.
एक बरसात बाहर रुक गयी थी, एक तूफान अन्दर गुजर गया था. वो मेरे ऊपर ही लेटी रही . उसकी आँखे बंद थी , सांसे अभी भी बेकाबू थी .
मैं- हट जाओ ऊपर से
वो उतर कर पास में लेट गयी , मैंने एक चादर हमारे जिस्म पर डाल ली, कुछ देर बाद उसने अपनी आँखे खोली, बड़े प्यार से वो मेरी तरफ देख रही थी .वो मुस्कुराई मैं भी . मेरी तरफ देखते देखते उसकी आँख लग गयी मैंने भी आँखे मूँद ली,
जब आँख कही तो बिस्तर पर मैं अकेला था , कपडे पहन कर बाहर आया तो वो आँगन में एक कुर्सी पर बैठी थी, हमारी नजरे मिली
प्रज्ञा- चाय पियोगे
मैं- हाँ पर बनाएगा कौन
वो- मैं और कौन
मैं- तुम,
वो- हाँ मै
मैं- जिसके हर हुक्म के लिए न जाने कितने नौकर हो, वो मेरे लिए चाय बनाएगी ,
वो- रसोई में आओ ,
खिड़की सी हलकी की धुप आ रही थी ,उसे चाय बनाते देखना भी एक सुख था, बार बार वो अपनी जुल्फों को सहलाती , उबलती चाय की भाप जो उसके चेहरे से टकराती कसम से मेरी धडकने बेकाबू हो गयी .
“ऐसे क्या देख रहे हो.” बोली वो
मैं- दिन के उजाले में चाँद
वो- ऐसी बाते न किया करो, उम्र रही नहीं मेरी
मैं- तो फिर मैं क्या कहूँ, काश मैं कोई कवी होता तो न जाने कितनी कविता लिख देता, कोई शायर होता तो गजल लिख देता.
प्रज्ञा- तुम साथ हो , मेरे लिए यही बहुत है , लो चाय पियो
चाय की चुसकिया लेते हुए, हम खामोश थे पर आँखे गुस्ताखिया कर रही थी , हलकी धुप में चमकता उसका जिस्म किसी ताजे गुलाब सा खिल रहा था और मैं फिर काबू नहीं रख पाया. मैंने कप साइड में रख दिया और उसे बाँहों में भर लिया.
“चाय तो पि लो ” बोली वो
मैं- इन होंठो का रस पीना है मुझे.
थोड़ी देर की चूमा चाटी के बाद हम फिर से तैयार थे मैंने उसे वाही दिवार के सहारे घुटनों पर झुका दिया और सलवार निचे करते हुए अपना लंड चूत में डाल दिया.एक बार फिर हम बहक गए थे, खैर, उस चुदाई के बाद हमें अलग होना ही था तो हम वापिस चल दिए. जैसे ही गाड़ी मंदिर क पास आई मैं बोला- इधर रोक दो
वो- मैं छोड़ आउंगी तुम्हे, जंगल सुरक्षित नहीं है
मैं- मुझे यहाँ एक काम है , यही रोको
प्रज्ञा- कबीर, समझो मेरी बात
मैं- प्रज्ञा, यही उतार दो मुझे,
प्रज्ञा- ठीक है , पर अपना ध्यान रखना तुम, फ़िक्र है मुझे तुम्हारी ,जल्दी ही मिलूंगी तुमसे
मैंने सर हिलाया और गाड़ी से उतर गया . वो आगे बढ़ गयी मैं मंदिर की तरफ . मंदिर के प्रांगन में मैंने उसे देखा, मां के श्रृंगार के लिए माला तैयार कर रही थी वो.
“मेघा ” पुकारा मैंने
उसने मुड कर देखा,
“मुसाफिरों को भटकना नहीं चाहिए, ” उसने कहा
मैं- मुसाफिर का नसीब मंजिल है
वो मुस्कुरा पड़ी, बोली- बारिशे आने वाली है तूफ़ान की दस्तक है
मैं- तुम हो न खे लेना मेरी पतवार
वो- इसी बात का तो मुझे डर है , आओ नाश्ता करवाती हूँ तुम्हे
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