RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#31
तारो की छाँव में मैं वापिस पहुंचा , थोडा बहुत खाया पिया और सोने की कोशिश करने लगा. पर आँखों में बार बार उस दादी की तस्वीर आ रही थी , उसका मुझसे मिलना , बाते करना , आखिर उसका क्या मकसद था , मेरा सर फटने को था , कभी इधर करवट बदलू तो कभी उधर पर चैन न मिले करार न मिले, इस समय मुझे एक ही चीज़ थोडा सकूं दे सकती थी वो थी चूत , और उसका मिलना इस समय ना मुमकिन था , ताई से मेरा मन उचाट हो गया था अब करू तो क्या करू, मैं तमाम बातो पर विचार कर रहा की मेरे दिमाग में सविता मैडम की कही बात ध्यान आई
“तुम तो जानते हो तुम्हारे पिता पैसो के मामले में केवल मास्टर जी पर भरोसा करते है , ”
मास्टर जी को सब कुछ मालूम होगा. कहाँ कहाँ हमारी जायदाद है , मैंने भूसे के ढेर में सुई तलाशना शुरू कर दिया था. उसी समय मैंने साइकिल उठाई और गाँव की तरफ चल पड़ा.
“मास्टर जी कहा है ” मैंने सविता से पूछा
सविता- क्या हुआ , और हांफ क्यों रहे हो तुम
मैं- मास्टर जी कहाँ है , कुछ जरुरी काम है
सविता- अन्दर आओ
मैं- अन्दर गया .
सविता- वो शहर गए हुए है, परसों तक लौटेंगे
मैं- मिलना जरुरी था
सविता- तुम्हारे पिता से सम्पर्क करो, उनके साथ ही गए है, तुम्हारे पिता एक नयी फैक्ट्री लगा रहे है उसी के चक्कर में , पर तुम मुझे बता सकते हो शायद मैं कुछ मदद कर सकू
मैं- मुझे जानना था की हमारी कहाँ कहाँ जमीं जायदाद है , हर एक छोटी से छोटी जानकारी
सविता- क्या इरादे है, बंटवारे का तो नहीं सोच लिया है
मैं- नहीं मैडम जी, मेरे कुछ सवाल है जिसका जवाब चाहिए मुझे
सविता- कबीर, देखो मैं नहीं जानती तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, पर मैं तुम्हे इतना कहूँगी की अभिमन्यु मत बनो, वर्ना उलझ कर रह जाओगे इस सब में, अर्जुन की तरह सोचो .
“अर्जुन के पास तो माधव थे मेरे पास कौन है ” मैंने कहा
मैडम- कबीर, ऊपर वाला जब बहुत से दरवाजे बंद कर देता है तो एक नया दरवाजा खोलता भी है ,
मैं थोड़ी देर और वहां बैठा और फिर चल दिया . पर जाऊ कहाँ , किस दर पर जाके फरियाद करू की मेरे इन सवालों के जवाब दे कोई तो हो जो मुझ को थाम ले, अपने घर के पास से गुजरते हुए एक बार फिर मेरे कदम डगमगा गए, एक ऐसी डोर जो रोक लेती थी मेरे कदमो को, ये दहलीज जिसे पार करने से मुझे मेरा अहंकार रोक लेता था , उस बड़े से दरवाजे के सामने खड़ा मैं बस देखता रहा .
अपने ही घर की देहरी पार ना करने की बेबसी क्या होती है कोई मुझसे पूछे, मेरी आँखों से आंसू गिरने लगे, मेरा दर्द आंसुओ के बहाने बहने लगा.कापते कदमो से मैं हवेली के दरवाजे की तरफ बढ़ा और खोल दिया उसने, जानी पहचानी हवा ने मेरे माथे को चुमते हुए इस्तकबाल किया मेरा. एक कदम आगे बढ़ाते हुए मैंने उस जंजीर को तोड़ दिया. बरसो बाद कबीर ने उस आँगन को देखा था .
आंगन में लगा वो तुलसी का पौथा आज भी वैसा ही था, बल्कि कुछ भी नहीं बदला था , मेरे होंठो पर एक मुस्कान आ गयी
“कौन है वहां ”
मैंने मुड कर देखा , भाभी थी .....
“माँ माँ बाहर आओ जरा ” भाभी जोर से चिल्लाई
और फिर मैंने रसोई से बाहर निकलते उसे देखा, दुनिया का सबसे खूबसूरत चेहरा, वो चेहरा जिसे देखते देखते मैं बड़ा हुआ था, जिसके आंचल तले परवरिश हुई थी मेरी
माँ ने जैसे ही मुझे देखा, हाथो से थाली छूट गयी , सब कुछ भूल कर दौड़ते हुए वो मेरे सीने से आ लगी. ज़माने भर का करार था उस आगोश में , मैंने भी हाथ आगे करके माँ को अपने आगोश में भर लिया. इस पल ने मुझे अहसास करवाया की औलाद के लिए असली भगवान कौन होता है, बहुत देर तक वो सुबकती रही .
“बहुत इंतजार करवाया बेटे, ” रुंधे गले से बोली वो.
और मेरे पास कोई जवाब नहीं था, मेरी तमाम मजबुरिया, मेरा अहंकार, मेरा दंभ सब कुछ उस के एक सवाल ने चूर चूर कर दिया था. मैं क्या कहता उसे, कुछ नहीं कह पाया. माँ ने मेरे माथे को चूमा
“बहुत कमजोर हो गया है ” बोली वो
मैं- तबियत ठीक नहीं है थोड़े दिन से
माँ- चल अन्दर आ
मैं- जाना है , रात बहुत हुई
माँ- दो घडी रुक ,खाने का समय हुआ है खाना खा ले पहले, आ मेरे साथ आ.
मैं ना नहीं कर पाया.
“क्या मैं अपने कमरे में हो आऊ ” मैंने पूछा
माँ- इजाजत की जरुरत नहीं कबीर,
मैं पहली मंजिल पर अपने कमरे में आया. कुण्डी खोली , सब कुछ वैसा ही था जैसे मैं छोड़ गया था . खिड़की के पास रखी मेज पर मेरी किताबे आज भी वैसी ही रखी थी, मैंने अलमारी खोली, मेरा हर सामान आज भी हिफाजत से था. कमरे को देख लगता ही नहीं था की मैं बरसो से यहाँ नहीं आया.
“माँ, घंटो बैठी रहती है यहाँ, आपको बहुत याद करती है ” ये भाभी थी , जो कमरे के दरवाजे में खड़ी थी.
“कबीर, मैं माफ़ी चाहूंगी उस दिन मैं आपो पहचान नहीं, पायी, मैं मिली जो नहीं थी आपसे ” भाभी ने कहा
मैं- कोई बात नहीं भाभी, होता है और बताओ मन लग गया यहाँ
भाभी- हाँ मन लग गया
कुछ देर बाद मैं निचे आ गया. जल्दी ही खाना भी आ गया
माँ ने खाना परोसा .
“मेरे भेजे खाने को वापिस क्यों भेज देता है तू ” पूछा उसने
मैं- तुम क्यों नहीं आई कभी, बेटे की याद नहीं आई
माँ- बहुत आई पर पैरो में पति की बेडियां भी थी, भंवर में छोड़ दिया मुझे तो किस किनारों को पकडू
ये कहकर वो खामोश हो गयी, पर हमारे रिश्ते की हकीकत ही यही थी, खाने के बाद मैं चलने को उठ खड़ा हुआ
“ये सब तेरा ही हैं ये घर, हम लोग सब तेरे ही हैं, आ जाया कर , ” वो बस इतना बोली
मैंने सर झुका लिया
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