RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#35
सड़क के बीचो बीच कोई पड़ा था, मैं दौड़ते हुए उसके पास गया. रौशनी कम थी फिर भी मैं उसे पहचान गया था, वो सुमेर सिंह था. हाँ, था. अब बस था , एक लाश के रूप में, उसकी लाश देख कर मेरे माथे पर पसीना बह चला, इस गंभीर हालत में मेरा इस लाश के पास होना बिलकूल भी ठीक नहीं था, कोई भी देखता तो यही सोचता की मैंने ही मार दिया उसे.
उसके बदन पर ज़ख्म थे, जैसे किसी कसाई ने काटा हो, बेहद गहरे और साफ़ कट के निशानों से भरा था उसका जिस्म, पर एक खास बात और थी तमाम गहरे जख्म ठीक उन्ही जगहों पर थे जहाँ जहाँ सुमेर ने उस दिन मुझे घाव दिए. थे
“क्या मेघा ने मारा है उसे, नहीं मेघा ऐसा नहीं कर सकती , नहीं मेरा ऐसा सोचना ठीक नहीं है ” मैंने अपने आप से कहा , पर एक चीज़ जो मेरे दिमाग में खटक गयी थी वो थी उस पायल की आवाज , उस आवाज को मैं हजारो में भी पहचान सकता था , मेरे कान मुझे धोखा नही दे सकते थे,
मेरे तमाम सवालों के जवाब अगर कोई दे सकता था तो बस केवल मेघा. पर मुझे उसका इंतजार करना था , फिलहाल तो मुझे यहाँ से खिसक लेना चाहिए था , और मैंने वैसा ही किया. अपने कंधो पर अनसुलझे सवालो का बोझ लिए मैं वापिस गाँव की तरफ चले जा रहा था, मैं सोच रहा था की काश उस दिन मैं मेले के लालच में रतनगढ़ नहीं आता तो सही रहता.
क्योंकि उस एक दिन के बाद से जो मेरे जीवन में घटनाये हो रही थी, असामान्य थी हर चीज़. मेले में सुमेर और उसके दोस्तों से टकराना, मेघा का अचानक से मुझे बचाना, ताई के साथ अवैध सम्बन्ध, प्रज्ञा का आना, और वो तमाम घटनाये जिन्होंने किसी मकड़ी का सा जाल बुन दिया था मेरे चारो और.
वापसी में मैं टूटे चबूतरे की तरफ से गुजर रहा था की मैंने देखा वो दिया बुझने को फडफडा रहा था, किसी भी पल उसकी लौ बुझ सकती थी , मैंने सर झटका और उसके पास से गुजर ही गया था की मेरी आँखों ने उस छिपी हुई चीज को देख लिया. चाँद की रौशनी में चमकती उस चीज की तरफ गया मैं .
वो कुछ गले में पहनने का था , पर इस से पहले के मैं उसे ठीक से देख पाता वो दिया बुझ गया. अँधेरा छा गया . बिना सोचे समझे मैंने उसे जेब में डाल लिया और तेजी से दौड़ लगा दी, अनजाना खौफ छाने लगा था मुझ पर.
ये रात न जाने क्या क्या दिखाने वाली थी मुझे, प्रज्ञा के साथ बिताये कुछ खास लम्हे, फिर मंदिर में पायल की आवाज, सुमेर सिंह की लाश और अब ये चीज़ को मेरी जेब में पड़ी थी. जब तक मैं खेत पर पहुंचा मेरी हालत ख़राब थी, सांस फुल रही थी, पैरो में दर्द था, मैंने थोडा पानी पिया और साँसे दुरुस्त की.
फिर मैंने उस सामान को जेब से बाहर निकाला और देखा, वो एक चेन थी, लॉकेट जैसी, सोने की चेन, पुराने सोने की चेन, जगह जगह से हरी हुई पड़ी थी, और वो लॉकेट सफ़ेद था, शायद चांदी का था. मैंने उसे खोला , अन्दर दो छोटी छोटी तस्वीरे थी, पर किसकी थी वो समझ नहीं आ रहा था क्योंकि न चेन की हालत ठीक थी और न तस्वीरों की , वक्त ने धुंधला दिया था उनको.
मैंने उसे सिराहने रखा और सो गया. अगले दिन आँख जरा देर से खुली , और जब खुली तो सबसे पहले मैंने जिस चेहरे को देखा वो मेरे बाप का था. जो शायद मेरे जागने का ही इंतज़ार कर रहा था.
“यहाँ कैसे ” मैंने बिना किसी लाग लपेट के पूछा
पिताजी- मेरे सवाल का सही सही जवाब देना , बिना कुछ छुपाये,
मैं- पर हुआ क्या
पिताजी- सुमेर सिंह को तूने मारा न
मैं- नहीं , बिलकुल नहीं
पिताजी- तू वहां था
मैं- हाँ , मैं वहां था पर किसी और कारण से , मैंने बस उसे जमीन पर पड़े देखा था, मैं उसके पास पहुंचा तो मुझे मालूम हुआ की वो सुमेर था .
पिताजी- तुम्हारे पास पर्याप्त कारण है उसकी जान लेने का , सब जानते है तेरी और उसकी दुश्मनी
मैं- पर्याप्त कारण तो मेरे पास तीज के दिन भी था , मारना होता तो तभी मार देता उसे,
पिताजी- उसकी मौत बस उसकी मौत नहीं है आने वाले समय मी दोनों गाँवो की नफरत और बढ़ेगी, रतनगढ़ वाले सबसे पहले तुम्हारा नाम लेंगे
मैं- मुझे फर्क नहीं पड़ता
पिताजी- मुझे पड़ता है, तू औलाद है मेरी, नालायक ही सही पर मेरा खून है
मैं- मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो न फिर, मैं देख लूँगा अपना
पिताजी- तेरा यही अहंकार तेरी मौत का कारन बनेगा एक दिन
मैं- वो मेरी समस्या है
पिताजी- नहीं तुम मेरी समस्या हो , मैं परेशां हूँ आखिर क्यों बार बार तुम रतनगढ़ जाते हो , क्या है तुम्हारा वहां , ऐसा क्या मिलता है तुम्हे वहां जो यहाँ इस गाँव में नहीं है
मैं- सकून मिलता है मुझे, वहां जाके, सुनना चाहते हो आप, तो सुनो आपकी होने वाली बहु रहती है वहां, आपके बेटे को मोहब्बत हो गयी है , प्रीत की डोर बाँध ली है मैंने, मैं बार बार उस से मिलने जाता हूँ और जाता रहूँगा, कोई नहीं रोक सकता मुझे,
मेरे बाप के चेहरे का रंग फीका पड़ गया मेरी बात सुनकर जैसे कोई दौरा सा आ गया उसकी आँखे फटने को आई ,
“ये कभी नहीं हो सकता कबीर, कबीर , तुझे ब्याह करना है तू बोल जिस भी लड़की से तू चाहेगा, मैं करवा दूंगा, एक से एक लडकिया आगे खड़ी कर दूंगा तेरे, पर रतनगढ़ की कोई लड़की हमारी बहु बने ये हो नहीं सकता मैं चाहू तो भी नहीं हो सकता और जरुर वो भी कोई मुर्ख ही होगी जिसने तुझसे प्रेम किया है ” पिताजी ने एक ही साँस में कितनी ही बाते कह डाली
मैं- मैंने कहा न मुझे फर्क नहीं पड़ता, मैं देख लूँगा.
पिताजी- तू कुछ नहीं देख पायेगा, जब हकीकत सामने आएगी तो तेरे होश उड़ जायेंगे, पैर कांप जायेंगे तेरे
मैंने कुछ नहीं कहा
पिताजी- तेरा नसीब , खैर, मास्टर से मिल लेना तुझे जो जानकारी चाहिए वो सब दे देगा और तुझे जहाँ भी हिस्सा चाहिए मैं दे दूंगा,
मैं- क्या लगता है मुझे जरुरत है
पिताजी- तो फिर क्यों जानकारी चाहिए तुझे
मैं- बस यूँ ही
पिताजी तो चले गए थे पर मैं ये नहीं जानता था की आज का दिन बेहद मुश्किल होने वाला था मेरे लिए, क्योंकि उनके जाने के बाद एक और गाड़ी आ रुकी मेरे दर पर जिसकी उम्मीद मुझे बिलकुल नहीं थी .
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