RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#58
बेसब्री से मुझे इंतजार था प्रज्ञा का , और जब वो आई तो मैंने उस से पहला सवाल यही किया “अनपरा के बारे में तुम क्या जानती हो ”
प्रज्ञा- गाड़ी में बैठो जल्दी
उसने दरवाजा खोलते हुए कहा , मैं अन्दर बैठा . उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी
मैं- कहाँ जा रहे है
वो- जहाँ तुम जाना चाहते थे
मैं- अनपरा
वो- हाँ
“पर तुम्हे तो तुम्हारी माँ के पास जाना था न ” मैंने कहा
प्रज्ञा- वहीँ जा रहे है , मेरा मायका है अनपरा
मेरे लिए ये एक और हैरान करने वाली खबर थी ,
मैं- तुमने कभी बताया नहीं
“कभी जिक्र हुआ ही नहीं ” उसने जवाब दिया
मैं- प्रज्ञा, मेरा दिल बहुत जोर से धडक रहा है
प्रज्ञा- मेरा भी , अब तो मुझे भी लगने लगा है की कुछ तो है , तुम्हारा और मेरा रिश्ता वैसा नहीं है जैसा हम जानते है , हम दोनों का यु पास आना, जरुर कोई तो बात है , कल रात जब तुम मेरे गाँव पहुच गए मैंने इस बात पर बहुत ज्यादा विचार किया .
मैं- तो किस नतीजे पर पहुची तुम
प्रज्ञा- नतीजे के लिए ही तो तुम्हे वहां ले जा रही हु
मैं- पर प्रज्ञा, तुम वहा जाकर कहोगी क्या, मेरा मतलब ...
प्रज्ञा- तुम्हे उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए.
मैं- तो तुम भी अब मानती हो की प्रीत की डोर वाली कहानी सच है
प्रज्ञा- कुछ कुछ मानने लगी हूँ
मैं- एक सवाल और पुछू
प्रज्ञा- हूँ
मैं- तुमने कहानिया तो सुनी ही होंगी की कैसे कुछ लोग खजाने को बाँध दिया करते थे ताकि असली वारिस की जगह कोई और न उसे चुरा सके
प्रज्ञा- तंत्र बहुत गूढ़ विषय है कबीर, कोई मानता है कोई नहीं , ठीक जैसे दुनिया में अच्छे है बुरे है , वैसे ही तंत्र मन्त्र है दुनिया में हर चीज़ की अपनी अपनी उपयोगिता है .
मैं- प्रज्ञा, तुम्हे वो याद है मंदिर में हम दोनों के खून से दिए का जलाना.
प्रज्ञा- मैं हैरान हु उस बात को क्यों हुआ ऐसा.
मैं- शायद हम शारीरिक रूप से एक हो चुके है इसलिए
प्रज्ञा- मुझे नहीं लगता
मैं- तो फिर मेरा क्या नाता है तुमसे, क्या तुम मेरा नसीब हो .
जैसे ही मैंने प्रज्ञा से ये सवाल किया उसके पैर ब्रेक पर दबते गए, गाड़ी रुक गयी.
“मैं कैसे, मैं तुमसे १६-१७ साल बड़ी हु,मेरे बच्चे भी तुमसे बड़े है , मैं कैसे ” उसने उल्टा मुझसे सवाल किया
और मेरे पास कोई जवाब नहीं था, उसकी बात एक हद तक सही थी
“कहीं तुम मुझसे प्यार तो नहीं करने लगे ” उसने सवाल किया
मैं- तुम्हे क्या लगता है
प्रज्ञा- यही की हमारे रिश्ते की सीमाए है , सब कुछ हमारी मर्ज़ी से होते हुए भी हम अपनी अपनी डोर से बंधे है
मैं- जब सब मालूम है ही तो फिर क्यों पूछा तुमने, तुमने अपने जीवन में मुझे इतना स्थान दिया मैं तो शुक्रिया करता हु तुम्हारा .
प्रज्ञा ने मेरे सर पर हाथ फेरा और गाड़ी आगे बढ़ा दी, जल्दी ही हम उसी बोर्ड के पास से गुजरे , मैंने नजर घुमा कर कच्चे रस्ते को भी देखा , गाड़ी आगे बढती रही . कुछ देर बाद हम प्रज्ञा के घर पहुच गए. उसके घर को देखते हुए मुझे दो ख्याल आये एक तो ये की बेंचो इन ठाकुरों को इतने आलिशान महल बनाने का क्या शौक रहता है , दूसरा ये था की प्रज्ञा के घर के पास ही एक बड़ा सा खंडहर था ,किसी ज़माने में शायद ऐसी ही की आलिशान हवेली रही होगी.
उसके घरवाले पढ़े लिखे लोग थे, एक दम सभ्य सबने जाते ही प्रज्ञा को सर माथे पर ले लिया. प्रज्ञा ने सबसे मेरा परिचय करवाया उसके मेनेजर के रूप में,
“कुछ देर परिवार के साथ रहना पड़ेगा. तुम मेहमान खाने में आराम करो ” उसने किसी को बुलाया और मैं उसके साथ मेहमान खाने में आ गया.
“हुकुम आराम करे, किसी चीज़ की जरुरत हो तो आवाज दीजिये, वैसे नाश्ता बस अभी पेश करू, आपकी आज्ञा हो तो ” नौकर ने कहा
मैं- हाँ ठीक है .
मैंने थोडा बहुत नाश्ता किया और फिर मेरी आँख लग गयी. उठा तो हल्का हल्का अँधेरा हो रहा था , मेरे उठते ही नौकर फिर आ गया. मैंने हाथ मुह धोये,
“क्या नाम है तुम्हारा ” मैंने पूछा
“हरिराम, हुकुम ” उसने जवाब दिया
मैं- हरिराम जी, ये सामने खंडहर कैसा है
हरिराम को उम्मीद नहीं थी की मैं उसे ऐसे इज्जत दूंगा, वो बहुत खुश हो गया .
मैं- बताओ
वो- जी ये पुराणी हवेली है मालिक लोगो के परिवार से ही बड़ी ठकुराईन रहती थी वहां,
मैं- अब नहीं रहती
हरिराम- हुकुम बरसो पहले की बात है वो. तब इधर बहुत कम आबादी थी , गाँव थोडा दूर था बस हवेली ही थी , ये मालिक लोग भी पहले दुसरे छोर पर रहते थे पर फिर समय बदलता गया आबादी बढती गयी
मैं- क्या नाम था बड़ी मालकिन का
वो- जी कामिनी माँ सा .
मैं हरिराम से कुछ और बातचीत कर पाता उससे पहले ही प्रज्ञा का भाई आ गया मेरा हाल चाल पूछने, मालूम हुआ वो भी होटल और शराब का व्यापर करता था ,पर स्वाभाव का सरल था प्रज्ञा जैसा , कोई अहंकार नहीं काफी देर तक वो बाते करता रहा , मैं बस उसका साथ देता रहा .
रात को मेरी मुलाकात खाने के टेबल पर प्रज्ञा की माँ से हुई, बुजुर्ग औरत थी , रक्त नहीं बनता था इस उम्र में वो ही दिक्कत थी , खाने पीने और बातो में आधी रात हो गयी . मैं वापिस आ गया मेहमान खाने में जहाँ हरिराम मेरा इंतज़ार कर रहा था .
“पेग लेते हो हरिराम जी ” पूछा मैंने
वो बेचारा तो हैरान था,
“जी कभी कभी ” बड़े संकोच से उसने उत्तर दिया
मैंने उसे दो पेग बनाने को कहा एक उसका और मेरा
मैं उस से बाते करने लगा. उसके काम के बारे में परिवार के बारे में दो पेग के बाद वो भी थोडा खुल गया
मैं- यार हरिराम, अब तो वो हवेली में कोई नहीं जाता होगा
वो- नहीं हुकुम कोई नहीं जाता, बंद पड़ी है , जबसे बड़ी मालकिन की मौत हुई तबसे ही
मैं- तुमने देखा कभी बड़ी मालकिन को
वो- नहीं हुकुम, मैं तो तब पैदा भी नहीं हुआ था , मेरे बाप- दादा से सुनी बाते है .
मैं- हम्म ,
मैं उस से और बात करता की तभी प्रज्ञा का फ़ोन आ गया तो मैंने उसे जाने को कहा
प्रज्ञा- कैसे हो
मैं- सोयी नहीं तुम अभी
वो- बस सो ही रही थी सोचा दो बात कर लू तुमसे
मैं- कौन सा दूर हूँ मिल ही लेती
वो- अभी कैसे
मैं- खैर छोड़ो, मुझे न कामिनी की हवेली देखनी है
वो- पर क्यों
मैं- शायद तक़दीर उसी के लिए मुझे यहाँ लायी है
वो- सुबह देखते है सो जाओ अभी
मैं मुस्कुरा दिया .
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