RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#67
दाई तरफ वाले चोबारे का दरवाजा जैसे ही मैंने खोला , मैं और प्रज्ञा दोनों एक पल के लिए घबरा से गए.
“असंभव , ये नहीं हो सकता ” मैंने कहा
मेरी निगाह जैसे सामने दिवार पर जम सी गयी थी , बेह्सक उस तस्वीर पर धुल थी पर फिर भी मैं लाखो में उसे पहचान सकता था , वो तस्वीर मेरी थी , क्या कहा मैंने मेरी तस्वीर हाँ ये मेरी ही तस्वीर थी . या मेरे जैसी थी
“कबीर ये क्या है , तुम्हारी तस्वीर यहाँ कैसे ” प्रज्ञा ने सवाल किया
मैं- मेरी नहीं है ,
मैंने तस्वीर दिवार से उतारी और शर्ट की बाहं से धुल साफ़ की , वो आधी तस्वीर थी , शायद बाकि के हिस्से को किसी ने फाड़ कर फेक दियाथा
“आधा हिसा कहा गया इसका ” बोली प्रज्ञा
मैं- मुझे क्या मालूम दिवार पर दो तीन तस्वीरे और थी पर पहचानने लायाक बस वो एक ही थी , मैं पास रखी कुर्सी पर बैठ गया और गौर से तस्वीर को देखने लगा. सर का दर्द और बढ़ गया था .
मैं- प्रज्ञा क्या मेरा कोई नाता है इस जगह से.
प्रज्ञा- नहीं जानती पर नियति अगर हमें यहाँ लायी है तो कोई बात होगी ही .
मैंने चोबारे की खिड़की खोली. ठंडी हवा ने मुझे ऐसे छुआ की मेरा बदन कांप गया
“बारिश ,” मेरे मुह से ये शब्द निकला
“कहाँ है बारिश ” प्रज्ञा ने पूछा
मैं उसे देता तो क्या जवाब देता . पास ही एक मेज थी, एक टूटा लैंप रखा था , पास के आलीये में एक स्पीकर, डेक, . मैंने अलमारी खोली, एक खाना किताबो का भरा था , मैंने उन्हें बाहर निकाल का फेका, फिर कपडे , एक बड़ा बक्सा जिसमे ढेरो ऑडियो कसेट , एक पैकेट जिसमे एक लाल चुन्नी थी . और ताज्जुब जिस हिफाजत के साथ साथ इसे रखा था नयी सी लगती थी ये.
मैंने वो किताबे देखि, एक छोटी सी डायरी मिली
“इस बारिश में जब तुम्हे छज्जे पर नाचते हुए देखा ,बस देखते ही रह गया , वो चुन्नी जो कल आ लिपटी थी मुझसे गलियारे में चुरा लाया था तुम्हारी छत से उसे, ये बारिश जो तुम्हारे गालो को चूम रही है, महसूस कर रहा हूँ तुम्हारी सांसो को इस खिड़की से देखते हुए . जानता हु हर शाम छज्जे पर खड़ी रहती हो ताकि खेत जाते मुझे देख सको. तुम्हारा वो मेरी पीठ पीछे शर्माना सीने में हलचल मचा देता है , मेरी गली से जब तुम साइकिल पर घंटी बजाते निकलती हो कसम से सब छोड़ कर दरवाजे की तरफ भाग आता हूँ मैं . ”
मैं पढ़ ही रहा था की एक छोटा सा कागज़ जो पीला हो गया था डायरी से गिर गया .
“हमें कुछ पता नहीं है हम क्यों बहक रहे है राते सुलग रही है दिन भी दहक रहे है जबसे है तुमको देखा बस इतना जानते है तुम भी महक रहे हो हम भी महक रहे है ”
मैंने प्रज्ञा को दिया वो कागज़ उस शेर को पढ़ कर उसके होंठो पर हंसी आ गयी .
“इजहार है ये किसी का ” बोली वो
मैं- तुम्हे कैसे पता
प्रज्ञा- बस जानती हु
मैंने उस कमरे की हर एक चीज़ को देखा , कुछ भी नहीं था फिर भी सब अपना लग रहा था , दिल पर जैसे किसी ने वजन रख दिया हो
प्रज्ञा- तबियत ठीक नहीं लग रही तो चले यहाँ से
मैं- नहीं , दुसरे कमरे को खोलते है
दुसरे कमरे पर कोई ताला नहीं था बस कुण्डी लगी थी, प्रज्ञा ने कुण्डी खोली और हम अन्दर आये. सामने दो अलमारिया थी , मैंने पहले वाली खोली, बहुत कपडे थे, श्रृंगार का सामान था . , ऐसे ही दूसरी अलमारी थी , पर एक चीज़ जो मुझे खटक गयी थी वो था बिस्तर , बिस्तर ऐसा था जैसे की सुबह ही किसी ने बिछाया हो. साफ सुथरा,
मेरे कहने से पहले ही प्रज्ञा शायद समझ गयी थी उस बात को ,”बिस्तर ” बोल पड़ी वो
मैं- जिंदगी क्या कहना चाहती है प्रज्ञा मुझसे
प्रज्ञा- एक मिनट कबीर , ये छोटा बक्सा दिखाना मुझे
मैं - ये सिंगारदान
प्रज्ञा- हाँ
प्रज्ञा ने उसे खोला और उसकी आँखे चमक उठी
“जिसका भी ये है उसकी पसंद बहुत उच्च कोटि की थी ” बोली वो
मैं- औरतो के सामान की परख तुम ही कर सकती हो .पर हमारे यहाँ आने का मकसद कुछ और हैं न प्रज्ञा
प्रज्ञा- हाँ कबीर, मुझे लगता है इस पुरे घर को अच्छे से खंगालने की जरुरत है क्योंकि ये जो तस्वीर मिली है ये एक सुराग है , और मुझे लगता है ऐसे सुराग और मिलेंगे यहाँ
सीढियों से उतरते हुए मुझे एक कमरा और दिखा जिस पर पहले शायद हमारी नजर नहीं गयी थी , उसे भी खोला हमने और यहाँ आकर लगा की प्रज्ञा का कहना बिलकुल सही था. वहां हमें बहुत सी तस्वीर मिली एक बहुत बड़ी तस्वीर थी जिसमे मैं था , हुकुम सिंह था , एक लड़का और था एक औरत हुकुम सिंह के साथ खड़ी थी .
“लगता है परिवार के साथ वाली तस्वीर है ” प्रज्ञा ने कहा
मैं- पर मेरा हुकुम सिंह से क्या सम्बन्ध
प्रज्ञा- मालूम हो ही जायेगा.
पास में ही एक तस्वीर और थी उसी लड़के की पर आधी थी जैसे ऊपर मेरी थी .
मैं- किसी ने आधा हिस्सा फाड़ा हुआ है
प्रज्ञा- शायद कोई नहीं चाहता की किसी को मालूम हो , जरा इधर देखना ये तस्वीर
प्रज्ञा ने पास वाली दिवार की तरफ ऊँगली की , ये और तस्वीरो से बड़ी थी, चेहरे वाले हिस्से पर शायद पानी गिरने से ख़राब हुआ था पर बाकि हिस्से से बड़ी आभा लगती थी .
मैं- हु ब हु कपडे हमने ऊपर देखे थे न
प्रज्ञा- हाँ
मैं- आओ मेरे साथ .
मैं प्रज्ञा को ऊपर ले आया
वो- क्या हुआ
मैं- देखो ये वही कपडे है न
प्रज्ञा- हाँ बाबा हाँ
मैंने एक नजर बाहर बदलते मौसम पर डाली और बोला- मेरी एक छोटी सी गुजारिश है
प्रज्ञा- क्या
मैं- तुम्हे इस रूप में देखना चाहता हूँ मैं
मैंने वो कपडे प्रज्ञा के हाथ में रख दिए.
प्रज्ञा- तुम भी न मैं कैसे
मैं- मेरे लिए , मैं तुम्हे आज किसी और नजर से देखना चाहता हु
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