RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#68
“उसी नजर से डर लगता है मुझे, ये जो ख्वाब दिखा रहे हो तुम , शीशे का महल है किसी ने मारा पत्थर बिखर जायेगा ” प्रज्ञा ने कहा
मैं- अपनी धडकनों से कहो फिर की मेरे दिल से झूठ बोलना छोड़ दे ,
प्रज्ञा मुस्कुराई, -
“थोड़ी देर बाहर जाओ, अब यार की हसरत तो पूरी करनी होगी ही, मैं तैयार होती हु ”
मैंने उसके गाल चूमे और वापिस पहले चोबारे में आ गया. मैं वापिस से खिड़की के पार देखने लगा . बेशक प्रज्ञा मेरे साथ थी पर दिल के किसी कोने से आवाज आई की मेघा अगर मेरे साथ होती तो मैं उसे बाँहों में भर लेता, वो समा जाती मुझमे, अपने प्रेम से रंग देती मुझे,
हताशा में मैंने टेबल पर हाथ मारा, एक किताब निचे गिर गयी मैं झुका उसे उठाने को की तभी मेरी नजर टेबल की निचली दराज पर गयी. उत्सुकता वश मैंने उसे खोल कर देखा . दराज में कुछ ऑडियो कैसेट थी और एक तस्वीर थी .
मैंने उसे हाथ में लिया, और वो हाथ में ही रह गयी .आज का दिन मुझ पर बहुत भारी था मैंने क्या देख लिया था क्या देखना बाकि था, पर इतना जरुर था की मुझे अब अंदाजा हो गया था की मेरी नियति क्या थी . बड़े गौर से मैंने तस्वीर देखि, उसके पीछे कुछ लिखा था .
“इतने करीब आके सदा दे गया मुझे , मैं बुझ रही थी आके हवा दे गया मुझे “
कहने को तो बस ये दो लाइन और एक तस्वीर भर थी पर इसकी हकीकत जो थी वो मेरे आने वाले कल की एक नयी इबारत लिखने वाली थी
“कबीर, आओ ” मेरे कानो में प्रज्ञा की आवाज आई
“हाँ अभी आया ” कांपती आवाज में मैंने जवाब दिया
उस तस्वीर को मैंने जेब में रखा मैंने और प्रज्ञा के पास गया . जिस नजर मैंने उसे उस रूप में देखा बस देखता ही रह गया, मेरे दिल को या तो उसने उस दिन धड्काया था जब वो काली साडी में थी या आज .
चाँद की चांदनी, आसमान की परी , सूरज की लाली या किसी दोपहर में पेड़ की छाया मैं क्या लिखू उसके बारे में , क्या कहूँ , क्या बताऊ बस इतना था की वो जो सुनना चाहती थी , मैं जो कहना चाहता था, वो बात उसके लाल हुए गालो ने कह दी थी .
“अब यूँ न देखो मुझे ,मैं पिघल जाउंगी ”
मैं- काबू नहीं मेरा खुद पर , मेरा बस चलता तो समय को यही रोक देता , अगर कुछ होता तो बस मैं और तुम
मैं आगे बढ़ा, प्रज्ञा की कमर में हाथ डाल कर मैंने उसे अपनी तरफ खींच लिया किसी कटी पतंग सी वो मेरी डोर में उलझती गयी . मेरे सीने से लगी उसने आहिस्ता से अपना चेहरा मेरी तरफ उठाया. बेहद सुर्ख लिपस्टिक से सजे उसके होंठ जो हल्का सा खुले कसम से लाख बोतल भी उतना नशा नहीं दे सकती थी मुझे.
कमर से होते हुए मेरे हाथ उसके नितम्बो पर पहुँच गए मैंने नितम्बो को सहलाया प्रज्ञा ने गर्दन थोड़ी सु ऊँची हुई, महकती सांसे, मेरी गरम सांसो से जो टकराई, हमारे होंठ आपस में जुड़ गए. प्रज्ञा ने अपनी बाँहों में मुझे थोडा जोर से कस लिया . सकूं से मेरी आँखे बंद हो गयी. प्रज्ञा ने दांतों से मेरे होंठ को हलके से काटा, पर इसमें मजा था .
ऐसा नहीं था की हमारे जिस्म प्यासे थे पर उस से मेरा नाता ही कुछ ऐसा जुड़ा था . जब वो चुम्बन टुटा तो मैंने उसे घुमा कर आईने के सामने खड़ा कर दिया .
प्रज्ञा- क्या
मैं- मैं देखो खुद को .
प्रज्ञा- रोज देखती हूँ
मैं- मेरी नजर से देखो,
मैंने प्रज्ञा के मुलायम पेट को सहलाया. उसने एक आह भरी , मेरी उंगलिया उसके ब्लाउज के निचले बोर्डर तक पहुच गयी थी .मैंने उसके सर की क्लिप को खुल दिया, जुल्फे आजाद हो गयी . ब्लाउज के ऊपर से मैं हौले हौले प्रज्ञा के उभारो को दबाने लगा. और वो कबूतर भी फद्फदाने को मचलने लगे. उसकी नितम्बो की थिरकन मैंने अपने अंग से गुजरते महसूस किया .
“क्या इरादा है ” पूछा उसने
मैं- बस तुम्हे देखने का
“पर हरकते तो कुछ और कह रही है ” उसने अपना हाथ मेरे लिंग पर रखते हुए कहा
मैं- ये वक्त फिर न आएगा , इस दो पल ठहरे वक्त में मैं रुकना चाहता हूँ जीना चाहता हूँ तुम्हारे साथ, इन बाँहों की पनाहों में मैं अपने लिए थोडा सकून चाहता हूँ ,
मैं कुर्सी पर बैठ गया , प्रज्ञा मेरी गोद में आ गयी, मेरे सर के बालो को सहलाते हुए बोली- इतनी संजीदगी क्यों
मैं- मालूम नहीं,
प्रज्ञा ने मेरे माथे को चूमा और बोली- मैं हर कदम साथ चलूंगी ,मैं वो उम्मीद की डोर बनूँगी,
मैंने उसके ब्लाउज की डोर खोल दी. बड़े आहिस्ता से उसने उसे उतार कर पास में रख दिया. प्रज्ञा ने ब्रा नहीं पहनी थी .
“मदहोश हो जाता हूँ इस रूप को देखते हुए मैं ”
वो- रहने दो, अब वो कशिश बची नहीं मुझमे
मैं- सूरज को कम लगती है तपन अपनी, तपत उस से पूछो जो झुलसा है
मैंने उसे उठाया और लहंगे को उतार दिया. मेरी रानी पूरी नंगी मेरे सामने खड़ी थी , मैंने भी अपने कपडे उतार फेंके, बेशक ये ऐसी जगह नहीं थी जब हम ये खास पल बिता सके पर अब खुद पर काबू रखना कहाँ आसान था .
रात भर हम दोनों एक दुसरे में समाये रहे खोये रहे, जब तक बदन में उर्जा के कतरे बचे हम अपने जिस्मो की प्यास बुझाते रहे, न जाने कब फिर नींद आई पर किसे मालुम था की आने वाला वक्त हमारे नसीब में क्या लेकर आएगा. इसका अहसास सुबह हुआ जब मेरे कानो में वो आवाज पड़ी जिसे मैं भुला न सका था
“तो ये चल रहा है यहाँ पर , ”
|