RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#७७
मैं जानता था की रौशनी का कोई तो दरिया आसपास जरुर है पर कहाँ ये नहीं मालूम पड़ रहा था , अपने आप को जैसे जकड़ा हुआ महसूस करने लगा था मैं किसी जाल में . दो तीन दिन गुजर गए मैं सविता से मिलने जा भी नहीं पाया. प्रज्ञा का फोन बंद था , रुबाब वाली का भी कोई अता पता नहीं था .
देवगढ़ में अकेले रहना बहुत अलग था मेरे लिए, इस घर को मैंने न जाने कितनी बार छान मारा था पर कुछ नहीं मिला था सिवाय तन्हाई के शायद वक्त की मार के आगे यहाँ की कहानी ने दम तोड़ दिया था . पर क्या सच में ऐसा था . नहीं ऐसा नहीं था , मैंने एक बड़े से कागज़ पर नक्शा बनाया , ये कला मैंने मेघा से सीखी थी .
ठाकुर कुंदन की जिन्दगी के तीन स्तम्भ थे जो कुछ भी था इन सब के बीच ही था तो मैंने हर उस छोटी से छोटी बात को जोड़ा जो मुझे मालूम थी , एक प्रेम त्रिकोण , दो लुगाई, और जस्सी , सबसे ज्यादा मुश्किल थी तो जस्सी को समझना , वो किसकी तरफ थी कुंदन की तरफ या राणा हुकुम सिंह की तरफ या इस शतरंज की वो रानी थी, जिसने ये सारी बिसात बिछा दी थी .
कुंदन जब आयत के साथ अर्जुंग गढ़ आया था तो वो रहता कहाँ था क्योंकि इतने सालो में मैंने कभी ऐसा नहीं सुना था , मुझे एक वजह और मिल गयी थी वापिस गाँव जाने की , पर एक चीज और थी जिस पर मेरा ध्यान अभी तक नहीं गया था वो था मेरे दादा कमरा जो उनकी मौत के बाद ही बंद पड़ा था .
मैं तभी गाँव के लिए निकल पड़ा . पहुँचते पहुँचते दोपहर हो गयी थी , घर पर मुझे आया देख कर हैरान तो थे घर वाले पर जताया कुछ नहीं , मैंने सवाल पूछती भाभी की निगाहों को इग्नोर किया और दादा के कमरे की तरफ चल पड़ा. मुझे अच्छे से याद था की उनकी मौत के बाद ही इस दरवाजे पर ताला लगा दिया था , और किसी को भी इसे खोलने की इजाजत नहीं थी पर आज वो दरवाजा खुला था .
क्या मेरे बाप ने मुझसे पहले अपने कदम रख दिए थे , फिर भी मुझे तलाशी तो लेनी ही थी मैंने देखा कमरे में सफाई हुई पड़ी थी , जैसे किसी ने यहाँ से सारा सामान कही और शिफ्ट कर दिया हो .
“अब यहाँ कुछ नहीं है ”
मैंने देखा दरवाजे पर माँ खड़ी थी . हमेशा की तरह हाथो में खाने की थाली लिए. मेरी माँ न जाने कैसे जान जाती थी की बेटा भूखा है .
मैं- कहाँ गया दादाजी का सामान
माँ- तेरे बापू सा आये थे कुछ दिनों पहले यहाँ उन्होंने ही सफाई करवाई थी .
मैं- पर किसलिए
माँ- भूख लगी होगी आओ खाना खा लो
मैंने थाली माँ के हाथ से ले ली . वो मेरे पास बैठ गयी.
माँ- मेघा से झगडा हुआ
मैं- नहीं तो
माँ- मुझसे झूठ बोलेगा तू
मैं- झगडा नहीं बस नाराज है वो मैं मना लूँगा उसे
माँ- एक रोटी और ले
मैंने एक रोटी और उठा ली
माँ- तुझे मालूम तो होगा ही की दोनों गाँव एक हो गए है , भाई भाई वापिस मिल गए है
मैं- मुझे क्या फर्क पड़ता है इस से
माँ- मेघा और तेरे रिश्ते पर फर्क पड़ेगा न
मैं- उसके और मेरे रिश्ते के बारे में तुम जानती हो माँ, मैं प्यार करता हु उस से पत्नी है वो मेरी
माँ-कबीर, मेरे बेटे तक़दीर न जाने कैसा खेल खेल रही है तुम्हारे साथ .
मैं- चाहे कितने खेल खेल ले तक़दीर पर जीतूँगा मैं ही
माँ- मुझे फ़िक्र है तुम्हारी और मेघा की , तुम्हारे रिश्ते की
मैं- तू फ़िक्र मत कर, तयारी कर जल्दी ही तेरी छोटी बहु को यहाँ ले आऊंगा ,
माँ- इसी बात का डर है मुझे, इस खून खराबे से डरती हूँ मैं , अपने बेटे को इस हालत में नहीं देख सकती मैं
मैं- तो क्या करू, लोगो के लिए मेघा को छोड़ दूँ , उन लोगो के लिए जिनका मेरे जीवन से कोई लेना देना नहीं है
माँ- खून तो एक ही हैं मेघा और तेरा.
मैं- प्रीत भी एक है उसकी और मेरी, और किस खून की बात करती हो , बेशक मेरा जन्म अर्जुन गढ़ में हुआ है पर मेरी आत्मा देव गढ़ की है माँ. मैंने अतीत को देखा हैं माँ, मैंने ठाकुर कुंदन को देखा है माँ, मैंने देखा उनकी तस्वीर को हु ब हु उनके जैसा दीखता हु माँ
माँ ने आँखे मूँद ली .
मैं- तुम जानती थी न माँ, तुम जानती थी इस बात को पर फिर भी मुझसे छुपाया .
माँ कुछ नहीं बोली
मैं- बोलती क्यों नहीं , क्या मैं ठाकुर कुंदन का पुनर्जन्म हु
माँ- तुम बस कबीर हो मेरे बेटे मेरा अंश .
मैं- तो फिर क्या ये इत्तेफाक है की मेरी शक्ल कुंदन से मिलती है
माँ- मैं नहीं जानती
मैं- तो क्या जानती हो तुम
माँ- यही की मैं तुम्हे खोना नहीं चाहती
मैं- मैं ये तो नहीं जानता की मेरी नियति क्या है माँ, पर मैं मालूम करके रहूँगा की कुंदन को किसने मारा था , ऐसा क्या हुआ था की देवगढ़ बिखर गया .. कुंदन ने देवगढ़ छोड़ा तो क्यों, मेरे दादा ने वसीयत में मेरे लिए वो मिटटी का दिया क्यों छोड़ा
माँ - आयत का है वो दिया.
मैं- तो
माँ- वो गवाह है उस प्रीत का जब कुंदन और आयत पहली बार मिले थे . आयत ने कहा था की वो लौट आएगी , वो लौटेगी , उसने मरते हुए कहा था
मैं- तो दिए का क्या सम्बन्ध
माँ- मालूम नहीं पर तब से ही धरोहर है .
मैं- माँ, मैं वो दिया जला चूका हूँ
माँ- असंभव , ये नहीं हो सकता , संभव ही नहीं
मैं- तेरी कसम माँ ,
मैंने माँ के सर पर हाथ रख दिया, वो भी जानती थी की उसका बेटा उसकी झूठी कसम नहीं खायेगा.
माँ- कैसे , कौन था तेरे साथ ,
मैं- पर..
तभी मेरे दिमाग में जैसे एक साथ बहुत धमाके हो गए, एक तेज दर्द ने मुझे हिला कर रख दिया.
मैं - माँ मुझे जाना होगा , मैं जल्दी ही मिलूँगा अभी जाना होगा.
माँ- कबीर, सुन तो सही.
मैं - जाने दे मुझे माँ, जरुरी है , पर मैं वापिस आऊंगा , मैं आऊंगा
मैं कमरे से निकला ही था की सामने से आती भाभी से टकरा गया.
भाभी को देख कर मैंने अपने हाथ जोड़ दिए.
“उस दिन के लिए माफ़ी देना भाभी, मेरी मंशा तुम्हारा अपमान करने की नहीं थी , मेरी इतनी हसियत नहीं की इस घर की लक्ष्मी से ऐसा व्यवहार कर पाऊं, अपने देवर को छोटा भाई समझ कर माफ़ करना ” मैंने भाभी से माफ़ी मांगी और चल पड़ा. गाड़ी जल्दी ही गाडी उस मंजिल की तरफ दौड़ रही थी जो जिन्दगी का एक नया अध्याय लिखने वाली थी .
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