RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
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“तुम कौन ” प्रज्ञा ने सवाल किया
“मैं कौन, मैं कौन, मैं बस एक याद हूँ तुम्हारी ,” जवाब आया
प्रज्ञा- कैसी याद
“तुम्हे जल्दी ही सब याद आ जायेगा,तुम्हे मेरे साथ चलना होगा खारी बावड़ी ”
प्रज्ञा- मैं तुम पर विश्वास कैसे करूँ , तुम्हे जानती भी नहीं और कहाँ है ये खारी बावड़ी
“विश्वास तो तुम्हे करना ही पड़ेगा , जानती हूँ तुम्हारी दुविधा पर वर्तमान इसलिए भी मुश्किल होता है की उसका एक अतीत होता है तुम्हारा भी अतीत है और अब वक्त आ गया है की तुम्हे तुम्हारे अतीत से रूबरू करवाया जाये चलो मेरे साथ ”
रुबाब वाली ने प्रज्ञा का हाथ पकड़ा और उसे अपने साथ खारी बावड़ी की तरफ ले चली.
देवगढ़,
अपनी उखड़ी साँसों को संभालते हुए मैं राणा की लाश के पास बैठे सोच रहा था की प्रज्ञा को क्या जवाब दूंगा, बेशक वो मेरे बहुत करीब थी पर पति तो पति ही होता है और उसे कितनी परवाह थी अपने परिवार की ये मुझसे बेहतर कौन जानता था .
कुछ देर बाद मैंने एक गाडी की आवाज सुनी तो मैंने दिवार के ऊपर से देखा, सविता और मास्टर आये थे,
“इतनी रात को ये दोनों क्या कर रहे है यहाँ पर ” मैंने अपने आप से सवाल किया और दिवार फांद कर उनके पीछे चल पड़ा वो लोग भी उसी घर में घुस गए जहाँ पर मेरा बाप और ताई थे. टूटी खिड़की से मैंने देखा की अन्दर का माहौल बहुत अलग था, गर्म था , अन्दर एक बड़ी सी भट्ठी चल रही थी जिसमे सोना पिघला हुआ था .
एक हवन वेदी थी , जिसमे आंच थी, ताई पूर्ण रूप से नग्न आँखे मूंदे किसी अजीब सी मुद्रा में खड़ी थी , मेरा बाप पास में बैठा था और एक औरत जो साधू की बेश में थी कुछ मन्त्र पढ़ रही थी .मास्टर जो सामान अपने साथ लाया था उसने पास में रखा और सविता को पीछे जाने का इशारा किया.
मैं देखता रहा , धीरे धीरे वो औरत ताई से पैरो पर पिघले सोने का लेप लगाने लगी, मैं हैरान था की गर्म सोने से ताई की त्वचा जल क्यों नहीं रही . मन्त्र अब तेजी से पढ़े जाने लगे थे , ताई की आँखे बंद थी सोना उसके बदन पर चढ़े जा रहा था , घुटने से होते हुए ऊपर जांघो तक ,
अजीब सा पागलपन था ये किसी हाड मांस वाले इन्सान पर गर्म सोने की परत चढ़ाई जा रही थी
फिर कुछ ऐसा हुआ जो नहीं होना चाहिए था , पिघले सोने में आग लग गई, उस साध्वी ने कुछ छिड़का ताई के बदन पर आग पल पल तेज होते जा रही थी , ताई चीखने लगी थी . साध्वी न जाने क्या कर रही थी पर इतना जरुर था की उसके उपाय कारगार नहीं थे, ताई के बदन में आग लग गयी. वो चीखती रही जलती रही और अंत में राख बनकर बिखर गयी.
कमरे में गहरा सन्नाटा छा गया था . सबकी जुबान को जैसे लकवा मार गया हो, कोई कुछ नहीं बोल रहा था बस कुछ देर बाद उन्होंने अपना सामान समेटा और वहां से निकल गए.मैंने पूरी तसल्ली की की अब मेरे सिवा और कोई नहीं है तो मैं कमरे में दाखिल हुआ. ये कोई तांत्रिक प्रयोग किया था जो सफल नहीं हुआ था .
पर मुझे एक बात का जरुर मालूम हुआ की सोना जो तमाम जगह था उसका उपयोग किसी ऐसे ही प्रयोग के लिए हुआ था . सामने एक मूर्ति थी , एक मिटटी की मूर्ति ठीक वैसी ही जैसे मंदिर में थी , मैंने उसे उठाया और मुझे जैसे बिजली का तेज झटका लगा. सुध बुध जैसे छीन ली किसी ने .
इधर रुबाब वाली प्रज्ञा को लेकर खारी बावड़ी पर आ पहुंची थी, प्रज्ञा हैरान थी इस जगह को देख कर उसके सर में दर्द होने लगा , आँखों के आगे कुछ छाया आने लगी, पायल का शोर, सर सर उडती चुनरिया. एक जलता चूल्हा , रोटी सेंकती प्रज्ञा. कच्ची सड़क पर नंगे पैर भागती वो और दूर से आती एक आवाज , “सरकार ”.
प्रज्ञा की आँखे झटके से खुल गयी , आँखों में आंसू थे कानो में वो शब्द अब तक गूँज रहा था “सरकार ”
“क्या हुआ था मुझे ” पूछा प्रज्ञा ने
“अतीत की दस्तक , अतीत ने पुकारा है तुम्हे ” रुबाब वाली ने जवाब दिया
प्रज्ञा- कैसा अतीत मुझे बताती क्यों नहीं तुम , क्यों पहेलियाँ बुझा रही हो.
प्रज्ञा के दिमाग में वो तस्वीर आ रही थी जो कबीर ने उसे दिखाई थी , जिसमे वो कबीर के साथ थी युवावस्था में, उसका दिल अनजाने डर से और जोर से धड़कने लगा था .
“बताती क्यों नहीं मैं कौन हु, तुम कौन हो ” चीख पड़ी प्रज्ञा
“मैं तो तुम्हारी ही छाया हूँ, तुम्हारा ही एक अंश, तुम्हारी एक याद जो बस इसलिए थी की तुम्हे सही वक्त पर खुद तुमसे रु ब रु करवा सकू,तुम्हे सब याद आ जायेगा , ” रुबाब वाली ने जवाब दिया
प्रज्ञा- मैं जानना चाहती हूँ सब
रुबाब वाली ने प्रज्ञा की आँखों से आँखे मिलाई और उसे अपनी बाँहों में भर लिया. रुबाब वाली के बदन में आग लग गयी, उसके बदन की आग ने प्रज्ञा को भी अपने लपेटे में ले लिया. प्रज्ञा का मांस जलने लगा. हवा में जलते मांस की दुर्गन्ध फैलने लगी, प्रज्ञा रोने लगी, चीखने लगी, पर रुबाब वाली ने उसे नहीं छोड़ा. नहीं छोड़ा.
जब मेरी आँख खुली तो मैंने खुद को उसी कमरे में पड़े पाया, बदन की हड्डिया अभी तक दुःख रही थी , मेरा फोन बज रहा था मैंने उसे उठाया और कान से लगाया, दूसरी तरफ से जो बताया दिल थोडा खुश हो गया था , कपडे झाड़ते हुए मैं अपनी गाड़ी के पास गया और शहर की तरफ चल दिया.
जब प्रज्ञा को होश आया तो उसने खुद को ऐसी जगह पाया की वो समझ नहीं पायी, दिमाग कुछ दुरुस्त हुआ तो उसे होश आया, वो एक राख के ढेर से लिपटी धरती पर पड़ी थी , खांसते हुए वो उठी , आँखे चकरा रही थी , पर आँखों में एक अजीब चमक थी ,
चलते हुए वो उस टूटे कमरे तक आई , दीमक खाए दरवाजे पर जो दिल बना था उस पर हाथ फेरा उसने , उसके निचे लिखे उन दो नामो पर उंगलिया फेरी उसने, “कुंदन ” उसके कांपते होंठो से एक ह्या निकली. और आँखों से आंसू, उस टूटे किवाड़ से लिपट कर जो रोई वो बस रोटी ही रही, दिल का दर्द आँखों से बहते हुए निकल रहा था , मोहब्बत लौट आई थी , वो लौट आई थी
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