RE: Free Sex Kahani लंड के कारनामे - फॅमिली सागा
दादाजी : "अरे बेटा, याद तो तेरी बहुत आती थी...पर काम भी इतना था न खेतों में ..अब आया हूँ 15 -20 दिनों के वास्ते, तेरे पास ही रहूँगा..चल जा , तू अभी थक कर आई है स्कूल से, मुंह हाथ धो कर कुछ खा ले..जा.."
और ऋतू ऊपर चल दी, उसके पीछे-२ मम्मी भी चली गयी, उसे बताने की दादाजी के सामने उसे किस तरह के कपडे पहनने है... ऋतू थोड़ी देर बाद नीचे आई, उसने पीले रंग का सलवार कुरता पहना हुआ था, और साथ में सफ़ेद रंग के दुप्पट्टे से उसने अपनी छाती ढकी हुई थी, बड़ी ही प्यारी लग रही थी वो उस ड्रेस में, पर मुझे अब उसे इस तरह के कपड़ो में देखने की आदत नहीं रही थी, इसलिए थोडा अजीब सा लग रहा था. ऋतू भी मेरी नजरों में नजरें डालकर कुछ पूछने की कोशिश कर रही थी, जैसे कह रही हो "ये कहाँ फंस गयी...भैय्या कुछ करो..."
अगले दिन, मैं कॉलेज नहीं गया, सन्नी और विशाल भी मेरे साथ ही थे, हमने मार्केट से अपनी योजना के अनुसार जरुरत का सामान लिया, और उसके फार्म हॉउस पर गए और सब कुछ सेट किया,
वहां काम करते-२ काफी देर हो गयी, मैं वापिस घर गया तो दादाजी पार्क में टहलने गए हुए थे, मैंने जल्दी से सभी को इकठ्ठा किया और उन्हें अपनी योजना बताई, जिसे सुनकर मम्मी-पापा के तो होश ही उड़ गए, उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ की मैंने ऐसी योजना बनायीं है, पर उन्हें मालुम था की यही एक रास्ता है जिसपर चलकर सभी लोग खुलकर पहले की तरह चुदाई कर सकते हैं.
ऋतू तो मेरा प्लान सुनकर ख़ुशी से पागल हो गयी और सभी के सामने मेरे से लिपट कर मुझे किस करने लगी, मम्मी ने उसे बड़ी मुश्किल से मुझसे अलग किया, क्योंकि दादाजी के आने का समय हो चूका था..
रात को खाना खाते समय
मैं : "दादाजी, कल तो सभी की छुट्टी है, गुड फ्रायडे की.क्यों न कहीं घुमने चले..
दादाजी : "अच्छा...ठीक है...कहाँ चलना है"
ऋतू (मेरे प्लान के अनुसार बोली) : "क़ुतुब मीनार देखने चलते हैं..मैंने दिल्ली में रहते हुए उसे आज तक नहीं देखा...प्लीस दादाजी...वहां चलो न...प्लीस प्लीस...." वो बच्चो की तरह उनसे जिद्द करने लगी.
दादाजी : "अच्छा ठीक है...कल वहीँ चलते हैं..."
पापा : "पर मेरे ऑफिस की छुट्टी नहीं है...मैं नहीं जा पाउँगा..."
दादाजी : "फिर हम कैसे जायेंगे, वो तो बड़ी दूर है "
पापा : "आप ऐसा करना, आशु सभी को कार में ले जाएगा, मैं मेट्रो से चला जाऊंगा कल के दिन, ठीक है..."
और सभी अगले दिन का प्लान बनाने लगे, प्लान तो मेरा बन चूका था..
पापा ऑफिस चले गए, सभी लोग तैयार होकर चल दिए, ऋतू ने सलवार कुरता पहना था, और मम्मी ने साडी, मैंने जेंस और टी शर्ट और दादाजी ने धोती कुरता.
सभी क़ुतुब मीनार की और चल दिए, हमने पुरे दिन वहां मस्ती की, खाना खाया, घुमे, फोटो खिंची, शाम को जब हल्का अँधेरा होने लगा तो दादाजी ने चलने को कहा, हम सभी बाहर निकल आये.
मुझे मालुम था की इस समय बाहर रोड पर गुडगाँव से दिल्ली आने वालों का ट्रेफिक काफी होगा, ऑफिस का ऑफ टाइम हो चूका था, इसलिए मैंने कहा की थोडा आगे से घुमाकर दुसरे रास्ते से निकल जायेंगे, दादाजी को दिल्ली के जाम के बारे में मालुम था, इसलिए उन्होंने कुछ नहीं कहा.
काफी आगे आकर मैंने गाडी रोक दी,
दादाजी : "क्या हुआ बेटा, गाडी क्यों रोक दी, ये तो बड़ा सुनसान सा इलाका लग रहा है.."
मैं : "दरअसल दादाजी, मुझे लगता है की मैं रास्ता भूल गया हूँ, मैंने गलत रोड ले लिया है, किसी से पूछना पड़ेगा..."
मैंने गाडी धीरे-२ आगे लेनी शुरू कर दी, आगे मोड़ पर एक आदमी खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था, अँधेरा होने की वजह से उनका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था..
मैंने उससे पूछा : "अरे सुनो भैय्या, ये लाजपत नगर जाने के लिए कोनसा रास्ता है..."
उसने कोई जवाब नहीं दिया, दादाजी ने पीछे का शीशा नीचे किया और उससे कड़क कर पूछा : "ओये...बहरा हे क्या..सुनाई नहीं पड़ा तुझे...लाजपत नगर का रास्ता कोण सा है..."वो अपनी ठेठ गाँव वाली भाषा में उससे पूछ रहे थे..
वो आगे आया, कोई कुछ समझ पाता, उसने अपनी जेब से एक बोतल निकाली और उसमे से स्प्रे करके पूरी कार में फेला दिया, कोई कुछ न समझ पाया, क्योंकि अगले ही पल सबकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया, और हम सभी बेहोशी के आगोश में जा पहुंचे..
मैं गहरी बेहोशी में था, दादाजी मुझे झंझोड़ रहे थे" ....आशु......ओ आशु....उठ बेटा..."
मेरा सर दर्द से फटा जा रहा था, मैंने अपनी आँखें खोली, सामने दादाजी की धुंधली सी शक्ल आई, उन्होंने फिर से मुझे जोर से पुकारा...
"आशु...जल्दी उठ...ये देख..हम कैसी मुसीबत में है.."
मैंने अपनी आँखें मली और उठ कर बैठ गया, वो एक बड़ा सा कमरा था जिसमे काफी अँधेरा था , पर ऊपर रोशनदान से आती चाँद की हलकी रौशनी की वजह से शक्ल तो दिखाई ही दे रही थी..
मैंने चारों तरफ देखा, मम्मी और ऋतू एक कोने में बेहोशी की हालत में थी, पर एक बात गौर करने वाली थी, उन्होंने सिर्फ ब्रा पेंटी पहनी हुई थी... मैंने अपनी शरीर पर नजर दौडाई तो पाया की वहां भी सिर्फ मेरा जोक्की है और दादाजी भी अपने धारीदार कच्छे में ही थे..
अब मैं आपको बताता हूँ, ये सब मेरा ही प्लान था, मैंने ही सन्नी और विशाल के साथ मिलकर ये योजना बनायीं थी, की हम सभी को इस तरह से उठा कर सन्नी के फार्म हाउस में ले आये, और इस बड़े कमरे में, जिसपर सिर्फ एक बड़ा सा दरवाजा था, और एक छोटा सा रोशनदान और वो भी काफी ऊपर था, मैंने और उन दोनों ने मिलकर इस कमरे में एक कैमरा और स्पीकर लगा दिया था, जिसका कण्ट्रोल सन्नी के कमरे में यानी वहीँ फार्म हाउस के दुसरे बड़े कमरे में था,
सन्नी ने चार पांच दिनों के लिए वहां के नौकरो को छुट्टी दे दी थी, और सन्नी और विशाल दुसरे कमरे में बैठकर वहां से सभी चीजों को कण्ट्रोल कर रहे थे, मैंने पापा को भी इस प्लान में शामिल कर लिया था, वो भी सन्नी और विशाल के साथ ही बैठकर टीवी स्क्रीन पर देख सकते थे की यहाँ क्या हो रहा है.. और पापा के कहने पर ही मैंने सोनी और अन्नू को भी वहीँ आने को कह दिया था अगले चार-पांच दिनों के लिए...ताकि वो दोनों बहने मिलकर इन तीनो के अच्छी तरह से "सेवा" करती रहें..वैसे भी इस तरह की मुफ्त की चुदाई की बात जब उन्होंने सुनी तो दोनों बहने फूली नहीं समायी.. और वहां रोड पर सन्नी ही खड़ा था जिसने स्प्रे करके हम सभी को बेहोश कर दिया था, और फिर पास ही खड़े विशाल ने और सन्नी ने मिलकर हम सभी को यहाँ फार्म हाउस के इस कमरे में पहुंचा दिया,
पापा पहले से ही यहाँ पर थे, उनके सामने ही इन दोनों ने मम्मी और ऋतू के कपडे उतारे, बस उनकी ब्रा और पेंटी नहीं उतारी, फिर दादाजी और मेरे कपडे भी उतार दिए..ये सब प्लान के अनुसार ही हो रहा था.
अब हमारा आधा काम तो हो ही गया था, दादाजी के साथ-२ मम्मी और ऋतू भी यहाँ आ चुकी थी, अब देखना यह था की दादाजी कब तक अपने पर काबू रख सकते हैं, क्योंकि मम्मी और ऋतू को मैंने पहले ही समझा दिया था की उन्हें यहाँ पर आकर क्या करना है...
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