RE: hot Sex Kahani वर्दी वाला गुण्डा
“म-मेरे कमरे में?” गोविन्दा चकराया—“मेरे कमरे में आपको क्या मिलेगा साब?”
“हरामजादे … हमसे जुबान लड़ाता है?” दहाड़ने के साथ देशराज ने उसके गाल पर जो चांटा मारा, वह इतना जोरदार था कि हलक से चीख निकालता हुआ गोविन्दा लॉन में जा गिरा, देशराज पुनः दहाड़ा था—“सरकारी काम में बाधा डालने की कोशिश करता है साले?”
सारे नौकर कांप गए।
छमिया चीखती हुई लॉन पर पड़े गोविन्दा से जा लिपटी, पलटकर इंस्पेक्टर से बोली—“इन्हें क्यों मार रहे हो इंस्पेक्टर साब?”
“मारूं नहीं तो क्या आरती उतारूं इसकी?” देशराज गुर्राया—“हमें अपने कमरे की तलाशी लेने से रोकना चाहता है उल्लू का पट्ठा।”
सहमे हुए गोविन्दा ने अपने मुंह से बहता खून साफ किया।
छमिया बोली—“ये रोक कहां रहे थे, इतना ही तो कहा था कि हमारे कमरे से आपको क्या मिलेगा?”
“अगर ज्यादा जुबान-जोरी की तो खाल में भूसा भर दूंगा—इस हवा में रही तो धोखा खायेगी कि औरत होने के कारण बच सकती है!”
छमिया चुप रह गयी—बड़ी-बड़ी आंखों में सहमे हुए भाव लिये देशराज की तरफ देखती भर रही—इसके अलावा कर भी क्या सकती थी वह?
कोई भी क्या कर सकता था?
सारे नौकर, सलमा और देशराज के साथ आये पुलिसियों के अलावा वहां कोई न था—एकाएक देशराज ने हवलदार से कहा—“देख क्या रहा है पांडुराम, इसके कमरे की तलाशी ले।”
“यस सर!” कहने के साथ वह मशीनी अंदाज में लॉन के उस पार एक पंक्ति में बने सर्वेन्ट्स क्वार्टर्स की तरफ बढ़ गया, मदद हेतु सिपाही भी पीछे लपका।
“आइये सलमा जी।” कहने के साथ देशराज भी उस तरफ बढ़ा।
सलमा उसके पीछे थी।
खामोश!
उसके पीछे नौकर थे, सभी डरे-सहमे।
गोविन्दा और छमिया भी।
गोविन्दा ने अपनी चाल तेज की, सलमा के नजदीक पहुंचकर फुसफुसाया—“आप कुछ कीजिए न मालकिन, मालिक के सामने कोई पुलिस वाला हमसे ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता था।”
“मैं क्या कर सकती हूं?” सलमा इतनी जोर से बोली कि आवाज देशराज के कानों तक पहुंच जाये—“इंस्पेक्टर साहब को तुम पर शक है।”
“क्या शक है हम पर?” गोविन्दा के रूप में मानो ज्वालामुखी फट पड़ा—“क्या ये कि मालिक को हमने मार डाला—हमने … जो उन्हें देवता समझता था—जो उनके चरण धोकर पानी पीता था—जरा सोचो मालकिन, क्या मालिक की हत्या हम करेंगे—हम।”
“ज्यादा नाटक किया तो जबड़ा तोड़ दूंगा उल्लू के पट्ठे।” देशराज गुर्राया—“सारी जिन्दगी मैंने तेरे ही जैसे मालिक-भक्त नौकर देखे हैं।”
बेचारा गोविन्दा!
कर भी क्या सकता था?
और फिर!
एक पुराने सन्दूक की तलाशी ले रहे पांडुराम के मुंह से निकला—“मिल गए साब।”
“क्या?” देशराज तेजी से उसकी तरफ लपका।
“खून से सने कपड़े, ये देखिये!” कहने के साथ जो उसने खून से सना गोविन्दा का कुर्ता उठाकर हवा में लहराया तो एक चाकू उसमें से निकलकर जमीन पर गिर पड़ा।
पांडुराम ने कुर्ता छोड़कर उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि देशराज चीख पड़ा—“नहीं पांडुराम, चाकू को छू मत—इस पर अंगुलियों के निशान होंगे।”
पांडुराम ठिठक गया।
सभी अवाक्!
गोविन्दा और छमिया की रूह कांप रही थी।
“क्यों बे!” इन शब्दों के साथ देशराज गोविन्दा पर यूं झपटा जैसे बाज कबूतर पर झपटा हो—गोविन्दा के बाल पकड़ लिए उसने और पूरी बेरहमी के साथ घसीटता हुआ सन्दूक के नजदीक लाकर गर्जा—“ये क्या है?”
“म-मुझे नहीं मालूम—मैं सच कहता हूं इंस्पेक्टर साहब, मुझे कुछ नहीं मालूम …।” गोविन्दा दहाड़ें मार-मारकर गिड़गिड़ा उठा—“मुझे नहीं मालूम कि ये …”
“ये कुर्ता और सन्दूक में पड़ी वह धोती क्या तेरी नहीं है?”
“य-ये कपड़े तो मेरे ही हैं साब, मगर मुझे ये नहीं मालूम कि इन पर खून कहां से लग गया—मैं सच कहता हूं, भगवान की कसम खाकर कहता हूं, मुझे नहीं मालूम।”
“और ये चाकू … ये चाकू भी तेरा है?”
“न-नहीं साब, ये चाकू मेरा बिल्कुल नहीं है।”
“अब भी झूठ बोलता है हरामजादे?” कहने के साथ देशराज ने उसके चेहरे पर जोरदार घूंसा मारा—एक चीख के साथ गोविन्दा खाट के पाये से जा टकराया।
छमिया ऐसे खड़ी थी जैसे लकवा मार गया हो।
देशराज नौकरों की तरफ पलटकर बोला—“देखा तुम लोगों ने—अपनी आंखों से देखा, इसके खून से सने कपड़े और चाकू इसके अपने सन्दूक से निकले—और फिर भी ये हरामी का पिल्ला कहता है इसे कुछ नहीं मालूम।”
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