XXX Sex महाकाली--देवराज चौहान और मोना चौधरी सीरिज़
03-20-2021, 11:41 AM,
RE: XXX Sex महाकाली--देवराज चौहान और मोना चौधरी सीरिज़
“ये कालचक्र है क्या?” सोहनलाल ने कहा।

कालचक्र के बारे में मैं ज्यादा नहीं जानती, परंतु ये पता है कि कालचक्र मुसीबतों का बेड़ा है। जिसे कालचक्र घेर ले तो उसका बच पाना आसान नहीं रहता। सारी जिंदगी कालचक्र से आई मुसीबतों से मुकाबला करता है।” नानिया ने गहरी सांस ली–“मैं तो कहूंगी कि कोई दुश्मन भी कालचक्र की छाया में न आए।”

सोहनलाल गम्भीर-सा सोचने लगा।

“तुम कहां खो गए?”

सोच रहा हूं कि हम कालचक्र से कैसे निकलेंगे।”

मुझे विश्वास है कि हम निकल जाएंगे।”

“कैसे?

“ये तो मैं नहीं जानती। परंतु उस किताब में लिखी सोबरा की बात गलत नहीं हो सकती कि धुआं उड़ाने वाला आएगा और मुझे कालचक्र से आजाद कराएगा। साथ में उसका साथी भी होगा।” ।

*और क्या-क्या लिखा था उस किताब में?”

बहुत कुछ परंतु वो बातें मुझे समझ नहीं आईं। या यूं कह लो कि उन्हें समझने की चेष्टा नहीं की मैंने। जब-जब किताब को खोला तो अपने काम की बात पढ़ी और किताब बंद कर दी।” नानिया ने कहा।

“मुझे जगमोहन के पास जाना होगा।” सोहनलाल बोला।

क्यों?”

रात तुमने किताब उस तक पहुंचा दी थी। मुझे जानना है कि उसने किताब में क्या-क्या पढ़ा।”

“जल्दी मत करो। उसे किताब पढ़ लेने दो। रात के चंद घंटों में उसने किताब नहीं पढ़ी होगी।”

लेकिन मैं उसके पास जाना चाहता...।” ।

“जरूर चलेंगे। मैं भी चलेंगी। लेकिन पहले चिमटा जाति की तरफ से संदेश आने दो।”

“संदेश?”

किताब में कोई खास बात हुई तो तुम्हारा दोस्त अवश्य तुम्हारे लिए कोई संदेश भेजेगा। अभी इंतजार करो।” कहने के साथ ही नानिया कमरे के कोने में पहुंचीं और वहां लटकता रस्सा खींचा तो कमरे के बाहर कहीं घंटा बजा।।

सोहनलाल सोचों में था।

तभी दरवाजे पर लटका पर्दा हटाकर, एक युवती ने भीतर प्रवेश किया।

हुक्म रानी साहिबा।”

हमारे लिए कहवा ले आओ।”

“जी ।”

*और मंत्रीजी से मालूम करें कि रात चिमटा जाति के सब सेवकों को आजाद कर दिया था। वो किताब भी क्या वहां भिजवा दी थी?”

अभी मालूम करती हूं।” युवती ने कहा और पलटकर बाहर निकल गई।

नानिया ने मुस्कराकर सोहनलाल से कहा।

हम आज के दिन की शुरुआत गुलाब जल से नहाने से शुरू करेंगे। उसके बाद कुछ खाएंगे। उसके बाद तुम्हें नगरी दिखाने ले चलूंगीं । तुम खुद को नगरी का मालिक समझना। मालिक हो भी तुम, क्योंकि तुम मेरे मालिक बन गए हो। हर कोई तुम्हें सलाम करेगा। ये सब तुम्हें जरूर अच्छा लगेगा। तुम खुद को शानदार महसूस करेंगे।”

“जो आराम तुम्हें यहां है, वैसा आराम तुम्हें मेरी दुनिया में नहीं मिलेगा।” सोहनलाल मुस्करा पड़ा।

“मैं समझी नहीं ।”

वहां नौकर-दासियां नहीं होंगे। हर काम तुम्हें खुद ही करना पड़ेगा।”

वो मेरा घर होगा।” नानिया मुस्कराई।

हां।" तो अपने घर में मैं अपना काम क्यों नहीं करूंगी। ये सब तो कालचक्र के ठाठ-बाट हैं। सोबरा ने किसी को रानी बना दिया तो किसी को नौकरानी। यहां कोई भी अपना असली जीवन नहीं जी रह्म। ये तो शीशे में दिखने वाली छाया जैसा नकली जीवन है। जब तक हम कालचक्र में रहेंगे। ये ही जीवन जिएंगे।”

“तुम कालचक्र से मुक्त क्यों होना चाहती हो। यहां हर चीज़ की सुविधा है तुम्हें ।” ।

“मुझे अपने बचपन की याद आती है। जब मैं पांच साल की थी और मुझे कालचक्र में डाल दिया गया। कितना अच्छा लगता था तब। पेड़ों पर झूला डालकर मैं अपनी सहेलियों के साथ झूला झूला करती थी। पेड़ों पर पत्थर मारकर पके आमों को गिराती और उन्हें खाती थी। बहुत मजा आता था। वो मैं कभी नहीं भूल सकती।” नानिया उदास भी हो उठी–“अब वो जीवन तो वापस नहीं आ सकता, परंतु आजादी पा लेना चहाती हूं, कालचक्र से निकलकर ।”

“जरूर।” सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा “मैं तुम्हें कालचक्र से बाहर निकालने की चेष्टा करूंगा।”

तभी उसी युवती ने भीतर प्रवेश किया। हाथ में पकड़ी चांदी की ट्रे में दो चांदी के प्याले थे।

रानी साहिबा, कहवा?”

सोहनलाल और नानिया ने कहवे का एक-एक गिलास उठा लिया।

मंत्रीजी कहते हैं कि रात आपने जैसे कहा उन्होंने वैसे ही काम कर दिया है।” युवती बोली।

“ठीक हैं—जाओ तुम।” युवती बाहर निकल गई।

सोहनलाल कुर्सी पर जा बैठा और कहवे का घूट भरा। नानिया भी बैठ गई।

नगरी घूमना जरूरी नहीं है।” सोहनलाल ने कहा “मैं जगमोहन के पास जाना चाहता हूं।”

“अगर तुम जरूरी समझते हो तो ऐसा ही करेंगे।”

ये जरूरी है नानिया। हमें कालचक्र से बाहर निकलने का रास्ता तैयार करना है।” ।

“ठीक है। हम चिमटा जाति के पास चलेंगे। जगमोहन से मिलेंगे। उस किताब में लिखा है कि तुम्हें खुश रखने पर ही, मैं कालचक्र से निकल पाऊंगी। इसलिए तुम्हारी हर बात मैं मानूंगी।” नानिया बोली ।।

चिमटा जाति की बस्ती में चहल-पहल जारी थी।

रोज की तरह ही, सारे काम हो रहे थे।

परंतु जिस झोंपड़े में जगमोहन को रखा गया था, वहां के जैसे सारे काम रुके हुए थे। जगमोहन सोबरा की लिखी किताब पढ़ने में व्यस्त था। इसके अलावा जैसे उसे कोई होश ही नहीं था। अब किताब के कुछ आखिरी पन्ने ही बाकी बचे थे। दो पहरेदार झोंपड़ी के उसी कमरे में थे। दिन निकलते ही रात के पहरेदार चले गए थे और उनकी जगह नए पहरेदार आ गए थे। परंतु जगमोहन को तो जैसे आसपास की सुध ही नहीं थी।
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