RE: Thriller Sex Kahani - कांटा
“वही। और सूत्र चुगली कर रहे हैं कि कल गोपालम् जब बाहर निकला था तो एक चमचमाती हुई बत्तीस लाख की लम्बी-चौड़ी कार उसे रिसीव करने के लिए जेल के फाटक पर पहुंची थी, जिसमें खुद श्री-श्री मौजूद थे।"
“य...यानि कि ग..गोपाल को रिसीव करने खुद लाल साहब जेल पहुंचे थे।"
“सौ फीसदी दुरुस्त समझे जजमान।"
“म...मगर यह कैसे हो सकता है? लाल साहब तो अस्पताल में हैं?"
"ताजा समाचारों के मुताबिक उन्हें कल सुबह के दस बजे डिस्चार्ज कर दिया गया था और गोपाल एक बजे के लगभग रिहा हुआ है।”
“यानि कि वह जेल से छूटते ही उसे रिसीव करने जेल पहुंचे थे।"
“कर दिया न हैरान?"
"त...तुमने खुद उन्हें जेल के फाटक पर देखा था?"
“सब कुछ आंखों से देखा जाना ही जरूरी नहीं होता श्रीमान। सूत्र भी तो आखिर कोई चीज होते हैं, जिनकी बदौलत हम पुलिस वालों की दुकान चलती है।”
“तुम्हारे सूत्र गलत भी हो सकते हैं।"
"पुलिस के सूत्र बहुत विश्वस्त होते हैं जजमान। उनके गलत होने की संभावना का परसेंट बहुत कम होता है। और फिर यह कोई पहला मौका थोड़े ही न है अपने उस चहेते से उनकी मुलाकात का। उससे पहले भी तो उनका मिलाप हो चुका है।”
“प..पहले कब उनका मिलाप हो चुका है और कहां?"
"तिहाड़ में। वहां का रिकार्ड जाकर चेक कर लो। पिछले पन्द्रह सालों में एक नहीं. दो नहीं तीन नहीं परे पांच बार श्री-श्री के चरण कमल तिहाड़ में पड़े हैं और वहां आज तक उन्होंने केवल एक ही आदमी के दर्शन लाभ किए हैं, जिसका नाम गोपालम् है।"
“अगर तुम सच कह रहे हो इंस्पेक्टर तो यह सचमुच बहुत चौंकाने वाली बात है।"
“तभी तो मैं बहुत जोर से चौंका हूं। और आपको भी पुरजोर चौंकने की सलाह दे रहा हूं। मगर साथ ही इसके पीछे छिपे उस इशारे को भी समझने की दरयाफ्त कर रहा हूं, जो तुमसे, मुझसे और श्री-श्री की मौत के तमन्नाई हर भद्र पुरुष से कह रहा है।"
"क्या..क्या कह रहा है?"
"तुम्हारे इस सवाल का जवाब दे रहा है कि श्री-श्री अभी तक खामोश क्यों बैठे रहे सिर से ऊपर पानी निकलने का इंतजार क्यों करते रहे? खामोशी से जुल्म पर जुल्म क्यों सहते रहे? असल में जजमान, उन्हें मालूम था कि उनका हम प्याला, हम निवाला, जो कि जेल में बंद था, वह बहुत जल्द जेल से रिहा हो जाने वाला था। क्योंकि फिर उनके उन तमाम दश्मनों के सिर धड़ से अलग होने का सिलसिला शुरू हो जाने वाला था, जो श्री-श्री का ढाई किलो का सिर उनके धड़ से अलग करने के ख्वाहिशमंद हैं। वैसे...।” उसने पंजों के बल उचककर अजय के सिर को जरा गौर से देखा, फिर कुछ दुविधा में पड़ता हुआ बोला “आपका अपना सिर तो अभी तक अपनी जगह पर मौजूद मालूम पड़ता है।"
"क..क्या मतलब?" अजय ने चिंहककर पूछा।
“सही-सही मतलब तो मुझे भी नहीं पता। लेकिन मैं इस बात पर सख्त हैरान हूं कि अभी तक सब सही सलामत कैसे है कोई सिर धड़ से अलग क्यों नहीं हुआ? श्री-श्री की लाश देखने के तलबगार सारे के सारे लोग अभी तक साबुत कैसे मौजूद हैं?"
“मैंने कहा न कि मैं लाल साहब की मौत का तलबगार नहीं हूं इंस्पेक्टर।” अजय पुरजोर विरोध भरे स्वर में बोला। लेकिन अपनी आवाज में छिपा खोखलापन खुद उसे भी साफ महसूस हुआ था “अ...और फिर आखिर यह बेहूदा इल्जाम तुम मुझ पर कैसे लगा सकते हो? लाल साहब से अ...आखिर क्या अदावत हो सकती है मेरी? और जब उनसे मेरी कोई अदावत नहीं है तो मैं क्यों उनका बुरा चाहूंगा?”
“काफी अच्छा सवाल पूछा है जजमान।” बड़े ओज से मदारी बोला “मगर जरा देर से पूछा है।"
"पहले भी पूछ चुका हूं। मगर तुमने यह कहकर टाल दिया था कि मैं शायद तुम्हारा वक्तहान लेना चाहता हूं।"
"कोई बात नहीं भगवान। देर आयद दुरुस्त आयद। जो तब नहीं बताया था, अब बताए देता हूं।" वह एक क्षण ठिठका फिर आगे बोला “बात दरअसल यह है कि..।"
वह खामोश हो गया। क्योंकि ठीक तभी एकाएक उसका मोबाइल बजने लगा था।
"लगता है ब्रेक का वक्त हो गया जजमान।” मदारी उसकी ओर देखकर तनिक खेदभरे स्वर में उससे बोला “बस जरा सा इंतजार करो, मैं अभी जिन्न की तरह फिर हाजिर होता हूं।"
अजय ने सहमति में सिर हिलाया। जबकि इस आशंका ने उसे मन ही मन विचलित कर दिया था कि क्या वह इंस्पेक्टर वास्तव में सच जानता था, लेकिन प्रत्यक्षतः वह सुसंयत खड़ा रहा।
मदारी ने यह देखे बिना कि आने वाला फोन किसका था, उसने कॉल रिसीव किया।
“बम-बम भोले ।” उसने अपने अंदाज में फोन पर उपस्थिति दर्शाई। दूसरी तरफ से जल्दी-जल्दी कुछ कहा गया, जिसे अजय नहीं सुन सका। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मदारी के चेहरे के हाव-भाव एकदम से चेंज हो गए। उसकी आंखों में एक सहसा एक लहर सी आई और चली गई।
अजय अपलक उसे ही देख रहा था।
“क...क्या हुआ इंस्पेक्टर?" मदारी ने मोबाइल जैसे ही कान से हटाया, उसने उत्सुक भाव से पूछा “कोई खास बात है।"
"बहुत ही खास।" मदारी बोला। वह बेहद आंदोलित हो उठा था और जल्दबाजी में भी नजर आने लगा था।
“म...मगर हुआ क्या?" अजय का सस्पेंस बढ़ गया था। बात सचमुच ही खास थी, वरना पूरे दिन उसके सिर पर खम्भे की तरह खड़े रहने का इरादा बनाकर आया मालूम होता वह इंस्पेक्टर एकदम से जाने को पर नहीं तोलने लगता।
“खुद ही चलकर अपनी आंखों से देख लो।”
“व्हाट?” अजय चौंका और विस्मित होकर बोला “म...मैं चलकर देख लूं?"
“ऑफकोर्स । कम आन, मूव फास्ट। मैं नीचे आपका इंतजार कर रहा हूं।"
वह अजीबोगरीब फोन आने से पहले मदारी उसे क्या बताने जा रहा था, अब वह बिल्कुल ही भूल गया लगता था। अपने डमरू की ओर भी उसका ध्यान नहीं गया था।
वह फौरन पलटा और तेज-तेज कदमों से चलता हुआ सीढ़ियों की ओर बढ़ गया।
अजय के जवाब तक का भी सब्र उसने गंवारा नहीं किया था। गोपाल बदरपुर पहुंचा।
अभी सूर्यास्त नहीं हुआ था लेकिन सूर्यदेव ने अपने आरामगाह की ओर बढ़ना आरम्भ कर दिया था और वातावरण में सांझ की सुर्थी छाना शुरू हो गई थी।
गोपाल एक नई स्कार्पियो में वहां पहुंचा था। स्कार्पियो वह खुद चला रहा था।
वह एक पचास साल की उम्र का कद्दावर शख्स था, जो पन्द्रह बरस की जेल काटकर पिछले रोज ही बाहर आया था और जो उस भूखे की तरह था जिसे बरसों बाद खाना खाने को मिला था और अब वह मानो खाने से इंतकाम लेने पर आमादा था। अन्न के हर उस कतरे से इंतकाम ले लेना चाहता था जो इतने बरसों उससे दूर रहा था उसकी भूख शांत करने के लिए उसके पेट में नहीं गया था।
वह स्कार्पियो से नीचे उतरा। उसने अपने चारों ओर निगाह दौड़ाई। यह देखकर उसकी आंखें फट पड़ी कि हर ओर दूर-दूर तक केवल पक्की और ऊंची इमारतें ही नजर आ रही थीं। वहां का माहौल भी पूरी तरह से बदला हुआ था। हर तरफ आधुनिकता और सम्पन्नता की झलक नजर आ रही थी। निर्धनता, अभाव और हाड़तोड़ मेहनतकशों के लिए वहां कोई अब गुंजाइश बची ही नहीं मालूम पड़ती थी।
कच्ची सड़कें, बजबजाती नालियां, उड़ती धूल, सीलन व कूड़े के ढेर से भरी गलियों का नामोनिशान भी बाकी नहीं बचा था। जहां कभी फटे चीथड़ों में लिपटे बच्चों का हुड़दंग गूंजा करता था, वहां आज अभिजात्य वर्ग के बच्चों की मधुर किलकारियां सुनाई दे रही थीं।
सब कुछ कितना बदल गया था।
गुजरे पन्द्रह साल में दिल्ली कितनी बदल गई थी।
पन्द्रह साल पहले जहां इतनी विशाल स्लम आबादी थी, उसका अब नामोनिशान भी नहीं बचा था।
गोपाल ने शीघ्र ही अपने आश्चर्य पर काबू पा लिया। उसके जेहन में उसका मकसद ताजा हो गया। उसने अपनी जेब से कागज का एक पुर्जा निकालकर उस पर दर्ज नाम व पता पढ़ा, फिर उसे कंठस्थ करके उसने उस बाबत दरयाफ्त किया तो पता चला कि वहां पहुंचने के लिए अभी उसे और आगे जाना था। फिर उससे और आगे मुड़कर दाहिनी ओर जो गली जाती थी, उसी गली में जरा अंदर वह घर मौजूद था जिसका पता वह पूछ रहा था।
गोपाल वापस स्कार्पियो में सवार हो गया था। वांछित मोड़ तक वह निर्विन पहुंच गया।
लेकिन उससे आगे की गली इतनी चौड़ी नहीं थी, जिससे कि उसकी स्कार्पियो जा पाती। आगे उसे पैदल ही जाना था।
उसने स्कार्पियो सड़क के किनारे लगाकर रोक दी फिर उसे लॉक करके वह पैदल ही अंदर गली में दाखिल हो गया।
वह एक मकान के सामने पहुंचकर ठिठका। उसने असमंजस भरे भाव से सिर उठाकर मकान का मुआयना किया।
वह सौ गज के क्षेत्रफल में बना एक चार मंजिला मकान था, जिस पर बाहर लगी नेमप्लेट पर लिखा था एलसी दास।
“बहुत खूब।” वह होठों ही होठों में बुदबुदाया। उसके कुरूप चेहरे पर एकाएक व्यंग फैलता चला गया। उसकी खोज पूरी हो गई थी और क्या खूब पूरी हुई थी।
नेमप्लेट के नीचे चार कॉलबेल के बटन लगे थे, जो कि जरूर वहां मौजूद चार अलग-अलग फ्लोर के थे। मुख्य द्वार पर लोहे का औसत आकार का गेट लगा था, जो बंद था और बाहर कोई भी नजर नहीं आ रहा था। उसने एक क्षण सोचा। वह नहीं जानता था कि मकान मालिक एलसी दास किस फ्लोर पर रहता था। फिर भी उसने अंदाज से ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया।
अंदर कहीं कालबेल की मधुर धुन गूंजी, जो उसे भी सुनाई दी। अंदर फौरन हलचल हुई, फिर गेट खुला। वह एक तेईस चौबीस वर्षीया युवती थी, जिसने फंकी स्टाइल की टॉप तथा हॉफ कैफरी पहन रखी थी, जो उसके घुटनों पर ही खत्म हो जाती थी। घुटनों से नीचे उसकी दूध जैसी गोरी-गुदाज टांगें स्पष्ट नुमायां हो रही थीं।
लड़की बेहद हसीन थी इतनी ज्यादा कि गोपाल का मुंह भाड़ की तरह खुल गया था। वह पलकें झपकाये बिना अपलक उसे देखने लगा था।
"हैल्लो।” तभी हसीना की खनकती आवाज उसके कानों में पड़ी और उसकी तंद्रा भंग हुई। वह कह रही थी “फरमाइए।"
एक पल के लिए गोपाल बौखला गया, फिर वह लगभग फौरन ही संभला।
“द...दास ।” वह आंखों ही आंखों से लड़की की खूबसूरती को पीता हुआ बोला। उसके अंदर दबी हसरतों का एक धीमा-धीमा तूफान अंगड़ाइयां लेने लगा था जो शायद वासना का तूफान था। उसने अपने मनोभावों को दबाकर आगे जोड़ा दास साहब से मिलना है। क...क्या वे घर पर हैं?"
“आप कौन हैं?"
कमबख्त एक बार पहलू में तो आ, फिर मेरे बताए बिना खुद ही मालूम हो जाएगा कि मैं कौन हूं उसका दिल बोला, जिसमें वासना के ना जाने कितने कीड़े गिजबिजाने लगे थे।
“आ...आपने कुछ कहा?” हसीना की खनकती आवाज फिर उसके कानों में पड़ी।
"द..दास।” वह जल्दी से बोला। फिर उसने संभलकर फौरन आगे जोड़ा “गोपालदास ! मेरा नाम गोपालदास है। द...दास साहब का पुराना दोस्त हूं।"
उस बात ने माकूल असर दिखाया था। हसीना के चेहरे पर नरमी झलकने लगी।
“प..पापा घर पर ही हैं।” फिर वह जब इस बार बोली तो उसके लहजे में कोमलता आ गई थी “अंदर आ जाइए। मैं उन्हें बुलाती हूं।"
उसने गोपाल को ले जाकर करीने से सजे ड्राइंगरूम में बिठाया, जिसकी साज-सज्जा देखकर ही गोपाल की छाती पर सांप लोटने लगा।
हसीना अपने भारी नितम्ब झुलाती हुई चली गई।
गोपाल पीछे उसकी बलखाती कमर को तब तक घूरता रहा, जब कि कि वह कमरे से बाहर जाकर दिखाई देना बंद न हो गई।
उस वक्त उसने कैसे खुद को रोका था, वही जानता था । बड़ी मुश्किल से उसने अंदर उमड़ते जज्बातों पर काबू पाया था और अपने अंदर उमड़ते लड़की पर झपट पड़ने वाले वहशी ख्याल को झटका था।
लेकिन लड़की का बला का हसीन चेहरा रह-रहकर उसकी आंखों के सामने कौंध रहा था और उसकी धड़कनों को अनियंत्रित कर रहा था।
तभी एक कसरती जिस्म वाले शख्स ने वहां कदम रखा, जो गोपाल का ही हमदम था और जिसने ठेठ देहाती अंदाज में कुर्ता, लुंगी पहन रखा था।
पन्द्रह साल के फासले के बावजूद गोपाल ने उसे फौरन पहचान लिया।
वह वही आदमी था, जिसकी तलाश उसे थी। उसे पहचानते ही गोपाल के काले, भद्दे होठों पर एक अर्थपूर्ण मुस्कान फैलती चली गई। जबकि उसे देखते ही तहमदधारी ठिठक गया था और उसे पहचानने की कोशिश करने लगा था। उसके चौड़े चेहरे पर कशमकश के भाव आ गए थे।
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