RE: Thriller Sex Kahani - कांटा
वह भी अपनी सहेलियों के साथ एक ग्रुप में टूर पर लखनऊ गई थी और एक सप्ताह का टूर खत्म करके दिल्ली वापस लौट रही थी तो बस का पहिया अचानक पंक्चर हो गया था।
वह रास्ते में एकदम सुनसान सड़क थी, जहां चारों तरफ पेड़-पौधों के जंगल के सिवा कुछ भी नजर नहीं आता था। सूरज बस अस्त होने ही वाला था।
बस का पहिया बदलने में आधा घंटा लग गया था, तब तक सारी सवारियां प्रवृत्ति के नजारों का लुत्फ लेने के लिए नीचे उतर आई थीं।
वह भी प्रकृतिप्रेमी थी। पक्षियों से तो उसे कुछ ज्यादा ही लगाव था। अन्य जीव-जंतुओं में खरगोश उसे बहुत प्रिय था और नीचे उतरते ही उसे एक प्यारा सा खरगोश दिख गया था। फिर क्या था, वह उसके पीछे दौड़ पड़ी थी और इतनी दूर निकल गई थी कि वापस लौटने में उसे एक घंटा लग गया था।
वापसी पर उसने पाया था कि उसकी बस वहां से जा चुकी थी और सुनसान व सपाट सड़क के अलावा वहां अब और कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। उसके पैरों तले जमीन खिसक गई थी।
उसका ट्रेवल बैग भी बस के साथ ही चला गया था। उसी बैग में उसका अपना मोबाइल भी रखा हुआ था।
उसकी ट्रेवल की सारी मस्ती हवा हो गई थी। उसे अपने ऊपर खीझ पैदा होने लगी थी कि उसे ऐसी बेवकूफी करने की क्या जरूरत थी? खरगोश तो उसके हाथ आया नहीं था, बस भी हाथ से निकल गई थी। उन लोगों ने उसका इंतजार तो जरूर किया होगा, मगर उसके इंतजार में आखिर कब तक वहां खड़े रहते, लिहाजा बस वहां से चली गई थी।
अब क्या हो सकता था।
किसी दूसरी बस के आने का इंतजार करने के अलावा और रास्ता भी क्या था, जो कि पता नहीं कितनी देर में वहां आने वाली थी।
ऊपर से रात होने वाली थी।
इस दरम्यान एक-दो कारें भी उधर से गुजरी थीं, लेकिन उनसे लिफ्ट लेने की उसकी मजाल नहीं हो सकी थी। नामालूम कौन किस मिजाज का आदमी होता और एक अकेली जवान, खूबसूरत लड़की की मजबूरी का क्या फायदा उठाता।
एक बस उधर से गुजरी।
लेकिन ड्राइवर ने बस नहीं रोकी और उसी रफ्तार से आगे भगा ले गया।
वह अपना सा मुंह लेकर रह गई थी।
“कमबख्त रोक देता तो उसका क्या चला जाता।” वह झुंझलाई। उसने बस के ड्राइवर को भी जी भरकर कोसा अब वह क्या करेगी। रात भी बस घिरने ही वाली थी।
अब उसे डर भी लगने लगा था। अगली बस पता नहीं कब आने वाली थी? आने वाली भी थी या नहीं। अब तो बस एक ही रास्ता था, जो वह नहीं अपनाना चाहती थी और वह रास्ता वहां से आते-जाते वाहन से लिफ्ट लेना ही था, फिर भले ही कुछ भी होता।
आखिर महफूज तो वह वहां सुनसान सड़क पर भी नहीं थी। एक कार उधर से गुजरी, मगर उसने उसे लिफ्ट नहीं दी। दूसरी और तीसरी कार भी उधर से गुजरी मगर उसमें किसी ने भी लिफ्ट नहीं दी।
वह परेशान और फिक्रमंद हो उठी कमबख्तों ने एक जवान, हसीन और मुसीबतजदा लड़की पर जरा सा भी रहम नहीं खाया था। जरूर उन्होंने उसे डाकुओं की कोई संगी-साथी समझा होगा, जो ‘चारे' के तौर पर उसका इस्तेमाल कर रहे थे। जमाना ऐसा ही तो खराब था इसीलिए जमाने वाले इतने होशियार हो गए थे। अब वातावरण में अंधेरे की कालिमा छा गई थी और वाहनों की हैडलाइटें जल गई थीं। उसकी परेशानी दोगुनी हो गई।
एक बार फिर कोई वाहन आता नजर आया, जो कि इत्तेफाक से अजय की कार थी और जो उस वक्त यूपी से अपना काम निबटाकर वापस दिल्ली लौट रहा था।
वह लपककर आगे आई और सड़क पर लगभग बीचोबीच खड़ी होकर वह कार को रुकने का इशारा करने लगी।
उसे अंदेशा था कि कहीं वह कार वाला भी उसे डाकू-लुटेरों की संगी-साथी न समझ बैठे और बदस्तूर फर्राटें भरती कार आगे निकल जाए।
अजय ने हैडलाइट की रौशनी में दूर से ही उसे देख लिया था,
और फौरन पहचान लिया था।
पहचानता भी कैसे नहीं। वही तो वह चेहरा था, जिसने उसका सारा सुकून छीन रखा था और ना चाहते हुए भी वक्त-बेवक्त उसके दिलो दिमाग पर दस्तक देने लगता था। जिससे दो-दो इतनी खुशगवार मुलाकातें हो चुकी थीं, लेकिन उस कमबख्त ने अभी तक उसे अपना नाम भी नहीं बताया था।
क्योंकि वह कहती थी कि वह दोनों मुलाकातें इत्तेफाक भी हो सकती थीं। मगर तीसरी मुलाकात इत्तेफाक नहीं हो सकती थी, इसलिए वह तीसरी मुलाकात पर ही उसे अपना नाम बताने वाली थी। और तीसरी मुलाकात की घड़ी आ पहुंची थी। लेकिन जिस लम्हें और जिन हालात में वह घड़ी आई थी उस पर वह चकित हुए बिना नहीं रह सका था।
लेकिन वह सुखद आश्चर्य था अद्भुत संयोग था। उसने कार को इस तरह उसकी बगल में जाकर रोका कि उसकी ड्राइविंग विंडो ठीक लड़की के सामने आ गई और अब वह दोनों एक-दूसरे को भली भांति देख सकते थे।
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