rangeeladesi
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युसूफ मेरा बचपन का दोस्त था. बड़े होने के बाद हम पहले जितने नज़दीक नहीं रहे थे पर हम एक ही शहर में रहते थे इसलिए हमारा मिलना होता रहता था. युसुफ़ को आप एक आम आदमी कह सकते हैं. वो दिखने में आम आदमी जैसा है, आम किस्म का बिजनेस करता है और औसत आर्थिक स्तर का है. लेकिन उसके मुताल्लिक एक बात आम आदमियों से अलग है और वो है उसकी बीवी वहीदा. देखने में वो उतनी ही खूबसूरत है जितनी किसी ज़माने में फिल्म एक्ट्रेस वहीदा रहमान हुआ करती थी. जब युसुफ़ से उसकी शादी हुई तो मैं हैरान रह गया कि इस युसूफ के बच्चे को ऐसी हूर कैसे मिल गई!
क्रमशः
वहीदा को देखते ही मेरे दिल की धडकनें बेकाबू हो जाती थीं, मेरे मुंह में पानी आ जाता था और मेरे दिल में एक ही ख़याल आता था – किसी तरह ये मुझे मिल जाए! मेरा ही क्या, और सब मर्दों का भी यही हाल होता होगा. एक बार उसके चेहरे पर नज़र पड़ जाए तो वहां से नज़र हटाना मुश्किल हो जाता था. उसके होंठ तो चुम्बन का मौन निमंत्रण देते प्रतीत होते थे. चेहरे से किसी तरह नज़र हट भी जाए तो उसके सीने पर जा कर अटक जाती थी. उसके सुडौल, पुष्ट और उठे हुए स्तन मर्दों को दावत देते लगते कि आओ, हमें पकड़ो, हमें सहलाओ, हमें दबाओ और हमारा रस पीयो. अगर नज़र थोड़ी और नीचे जाती तो ताज्जुब होता कि इतनी पतली और नाज़ुक कमर सीने का बोझ कैसे उठाती होगी. मैं कभी उसके पीछे होता और उसे चलते हुए देखता तो उसके लरजते, थर्राते और एक-दूसरे से रगड़ते नितम्ब देख कर मैं तमाम तरह की नापाक कल्पनाओं में खो जाता!
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि वहीदा जैसी हसीन औरत बनाने के पीछे ऊपर वाले के दो ही मकसद रहे होंगे – पहला, कमबख्त युसूफ की ख्वाबगाह को जन्नतगाह बनाना और दूसरा, बाकी सब मर्दों के ईमान का इम्तेहान लेना. मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि इस इम्तेहान में मैं फेल साबित हुआ था. मैं जब-जब वहीदा को देखता, मेरा लंड कपड़ों के अन्दर से उसे सलामी देने लगता था. अपने मनचले लंड को उसकी चूत की सैर करवाने के ख्वाब मैं सोते-जागते हर वक़्त देखा करता था.
युसूफ का दोस्त होने के कारण मुझे वहीदा से मिलने के मौके जब-तब मिल जाते थे. मैं अपनी मर्दाना शख्सियत से उसे इम्प्रेस करने की पूरी कोशिश करता था. अपनी तारीफ सुनना हर औरत की आम कमजोरी होती है. वहीदा की इस कमजोरी का फायदा उठाने की कोशिश भी मैं हमेशा करता रहता था. पर इस सब के बावजूद मैं अपने मकसद में आगे नहीं बढ़ पाया और मेरी कामयाबी सिर्फ उसके जलवों से अपनी आंखें सेकने तक ही सीमित रही.
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एक दिन युसूफ मेरे ऑफिस में मेरे से मिलने आया. वो निहायत परेशान लग रहा था पर अपनी बात कहने में झिझक रहा था. मेरे बार-बार पूछने पर उसने बड़ी मुश्किल से मुझे बताया, “एहसान, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं. मुझे मदद की जरूरत है लेकिन ऐसे मामले में तुम्हारी मदद मांगने में मुझे शर्म आ रही है.”
“युसूफ, हम एक-दूसरे के सच्चे दोस्त हैं,” मैंने कहा. “अगर मुझे मदद की जरूरत होती तो मैं सबसे पहले तुम्हारे पास ही आता. तुमने ठीक किया कि तुम मेरे पास आये हो. अब मुझे बताओ कि मसला क्या है.”
“मसला मेरे बिज़नेस से ताल्लुक रखता है,” युसूफ ने सर झुका कर कहा. “एक पार्टी के पास मेरे पैसे अटक गए हैं. वे दो-तीन हफ़्तों का वक़्त मांग रहे हैं. लेकिन उससे पहले मुझे अपने सप्लायर्स को दस लाख रुपये चुकाने हैं. बैंक से मैं जितना लोन ले सकता हूं उतना पहले ही ले चुका हूं. अगर मैंने ये दस लाख रुपये फ़ौरन नहीं चुकाए तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाऊंगा.”
युसूफ की बात सुन कर मेरी आंखों के सामने वहीदा की तस्वीर घूमने लगी. मुझे अपने नाकाम मंसूबे पूरे करने का मौका नज़र आने लगा. दस लाख रुपये काफी बड़ी रकम थी, खास तौर से युसूफ के लिये. मैं सोच रहा था कि अगर मैं युसुफ़ को यह रकम दे दूं और वो इसे वक़्त पर न लौटा पाए तो क्या मैं अपने मकसद में कामयाब हो सकता हूं! मैंने यह रिस्क लेने का फैसला किया और युसूफ से कहा, “इस मुसीबत के वक़्त तुम्हारी मदद करना मेरा फर्ज़ है पर दस लाख की रकम बहुत बड़ी है.”
“मैं जानता हूं,” युसूफ ने जवाब दिया. “इसीलिए मैं तुमसे कहने में झिझक रहा था. लेकिन बात सिर्फ एक महीने की है. अगर किसी तरह तुम इस रकम का इंतजाम कर दो तो मैं हर हालत में एक महीने में इसे लौटा दूंगा.”
मेरे शातिर दिमाग में तरह-तरह के नापाक खयाल आ रहे थे. मेरी आँखों के सामने घूम रही वहीदा की तस्वीर से कपड़े कम हो रहे थे. मैं उम्मीद कर रहा था कि युसूफ की कारोबारी मुश्किलें कम नहीं हों और वो वक़्त पर मेरा क़र्ज़ न उतार पाए. उस सूरत में युसूफ क़र्ज़ अदा करने की मियाद बढाने की गुज़ारिश करेगा और मेरे वहीदा तक पहुँचने का रास्ता खुल सकता है. वैसे यह दूर की कौड़ी थी. मुमकिन था कि युसुफ वक़्त पर पैसों का इंतजाम कर ले. और इंतजाम न भी हो पाए तो लाजमी नहीं था कि वहीदा मेरी झोली में आ गिरे. पर उम्मीद पर दुनिया कायम है. फिर मैं उम्मीद क्यों छोड़ता!
मैंने युसूफ को कहा, “दस लाख रुपये देने में मुझे कोई दिक्क़त नहीं है पर तुम जानते हो कि बिजनेस में लेन-देन लगातार चलता रहता है. मुझे भी अपनी देनदारियां वक़्त पर पूरी करनी होंगी. इसलिए मैं एक महीने से ज्यादा के लिए क़र्ज़ नहीं दे पाऊंगा.”
यह सुन कर युसूफ खुश हो गया. उसने कहा, “तुम उसकी चिंता मत करो. मैं एक महीने से पहले ही यह रकम लौटा दूंगा.”
“मुझे तुम पर पूरा यकीन है,” मैंने सावधानी से कहा. “लेकिन मेरे पास कोई ब्लैक मनी नहीं है. मुझे पूरा लेन-देन अपने खातों में दिखाना होगा.”
“हां, हां! क्यों नहीं? मुझे कोई एतराज़ नहीं है.” युसूफ ने कहा.
मैंने कहा, “ठीक है, तुम कल इसी वक़्त यहाँ आ जाना. तुम्हारा काम हो जाएगा.”
युसूफ खुश हो कर वापस गया. मैं भी खुश था क्योंकि अब मेरा काम होने की भी सम्भावना बन रही थी.
जब युसूफ अगले दिन आया तो वो कुछ चिंतित दिख रहा था, शायद यह सोच कर कि मैं रुपयों का इंतजाम न कर पाया होऊं! जब मैंने मुस्कुरा कर उसका स्वागत किया तो उसकी चिंता कुछ कम हुई. अब मुझे होशियारी से बात करनी थी. मैंने थोड़ी ग़मगीन सूरत बना कर कहा, “युसूफ, रुपयों का इंतजाम तो हो गया है लेकिन ...”
युसूफ ने मुझे अटकते देखा तो पूछा, “लेकिन क्या? अगर कोई दिक्कत है मुझे साफ-साफ बता दो.”
“दिक्कत मुझे नहीं, मेरे ऑफिस के लोगों को है,” मैंने अपने शब्दों को तोलते हुए कहा. “मुझे तुम्हारे पर पूरा भरोसा है लेकिन मेरे ऑफिस वाले कहते हैं कि पूरी लिखा-पढ़ी के बाद ही रकम दी जाए.”
“तो इसमें गलत क्या है?” युसूफ ने फौरन से पेश्तर जवाब दिया. “इतनी बड़ी रकम कभी बिना लिखा-पढ़ी के दी जाती है! तुम्हारे ऑफिस वाले बिलकुल ठीक कह रहे हैं. तुम उनसे कह कर कागजात तैयार करवाओ.”
अब मैं उसे क्या बताता कि कागजात तो मैंने पहले से तैयार करवा रखे हैं और उनमे वक़्त पर क़र्ज़ अदा न होने की सूरत में कड़ी पेनल्टी की शर्त रखी गई है. खैर अपने आदमियों को एग्रीमेंट बनाने की हिदायत दे कर मैंने चाय के बहाने कुछ वक़्त निकाला.
कुछ देर बाद मेरा आदमी एग्रीमेंट ले कर आया. मुझे डर था कि उसे पढ़ कर युसूफ अपना इरादा न बदल दे. पर मुझे यह भी मालूम था कि उसे कहीं और से इतना बड़ा क़र्ज़ नहीं मिलने वाला था. बहरहाल उसने सरसरी तौर पर एग्रीमेंट पढ़ा और बिना झिझक उस पर दस्तखत कर दिए. जब युसूफ ने चैक अपनी जेब में रखा तो मुझे अपनी योजना का पहला चरण पूरा होने की तसल्ली हुई.
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मेरे अगले एक-दो हफ्ते बड़ी बेचैनी से गुजरे. मैं लगातार युसूफ के बिजनेस की यहां-वहां से जानकारी जुटाता रहा. जैसे-जैसे मुझे खबर मिलती कि उसके पैसे अब भी अटके हुए हैं, मेरी ख़ुशी बढ़ जाती. आम तौर पर क़र्ज़ देने वाला उम्मीद रखता है कि उसके पैसे वक़्त पर वापस आ जायें पर मैं उम्मीद कर रहा था कि यह क़र्ज़ वक़्त पर न लौटाया जाए. जब तीन हफ्ते गुजर गए और मुझे युसूफ की मुश्किलें कम होने की खबर नहीं मिली तो मेरे अरमानों के पंख लग गए. अब मेरी कल्पना में वहीदा लगभग नग्न दिखने लगी थी. जब क़र्ज़ की मियाद पूरी होने में सिर्फ तीन दिन बचे थे तब युसूफ का फ़ोन आया. उसने मुझे शाम को डिनर की दावत दी तो मुझे आश्चर्य के साथ-साथ ख़ुशी भी हुई.
मेरी ख़ुफ़िया जानकारी के मुताबिक युसूफ अब तक पैसों का इंतजाम नहीं कर पाया था. मुझे यकीन था कि वो क़र्ज़ की मियाद बढाने की बात करेगा. मुझे इसका क्या और कैसे जवाब देना था यह मैंने सोच रखा था. क्योंकि युसूफ ने मेरी बेग़म को नहीं बुलाया था, मुझे लगा कि आज की रात मेरी किस्मत खुल सकती है! मैं रात के आठ बजे उसके घर पहुँच गया. मैं वहीदा के लिए एक कीमती गुलदस्ता ले गया था.
युसूफ ने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया और मुझे ड्राइंग रूम में बैठाया. कुछ मिनटों के बाद वहीदा मुझे सलाम करने आई. उसको देखते ही मुझे लगा कि आज का दिन कुछ अलग किस्म का है. उसकी चाल, उसकी मुस्कुराहट, उसका पहनावा ... सब कुछ अलग और दिलनशीं लग रहा था. उसने एक बहुत चुस्त साटिन की कमीज़ पहन रखी थी. कमीज़ का गला काफी लो-कट था जिसमे से उसके एक-चौथाई मम्मे और उनके बीच की घाटी दिख रही थी. उसके दिलफरेब मम्मे तो जैसे कमीज़ से बाहर निकलने को अकुला रहे थे. आमतौर पर मेरी नज़र उसके हसीन चेहरे पर अटक कर रह जाती थी पर आज मैं उसके सीने से नज़र नहीं हटा पा रहा था.
जब वहीदा ने थोड़ी जोर से ‘सलाम, एहसान साहब’ कहा तो मैं अपने खयालों की जन्नत से हकीकत की दुनिया में लौटा. उसने देख लिया था कि मेरी निगाहें कहाँ अटकी थी. पर वो नाराज़ दिखने की बजाय खुश दिख रही थी. मैंने शर्मा कर उसके सलाम का जवाब दिया. जब वो बैठ गई तो मेरी नज़र उसके बाकी जिस्म पर गयी. वो एक नई नवेली दुल्हन की तरह खुशनुमा लग रही थी. अचानक मुझे गुलदस्ते की याद आई जो अभी तक मेरे हाथ में था. मैंने उठ कर गुलदस्ता उसे दिया तो उसके हाथ मेरी उँगलियों से छू गये. उस छुअन से मेरे शरीर में एक हल्का सा करंट दौड़ गया. युसूफ कुछ बोल रहा था जिस पर मेरा बिलकुल ध्यान नहीं था क्योंकि मेरा पूरा ध्यान तो वहीदा की खूबसूरती पर केन्द्रित था. वो भी बीच-बीच में मुझे एक मनमोहक अदा से देख लेती थी.
कुछ देर बाद वहीदा ने कहा कि उसे किचन में काम करना था और वो उठ कर चली गई. युसूफ और मैं बातें करते रहे पर मेरा दिमाग कहीं और ही था. हां, बीच-बीच में मैं उम्मीद कर रहा था कि युसूफ क़र्ज़ की बात छेड़ेगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैंने भी सोचा कि जल्दबाजी से कोई फायदा नहीं होगा. मुझे इंतजार करना चाहिए. तभी वहीदा ने आ कर कहा कि खाना तैयार है. हम उठ कर डाइनिंग रूम में चले गए. वहीदा खाना परोसने के लिए झुकती तो मुझे लगता कि वो जानबूझ कर मुझे अपने मम्मों की झलक दिखा रही है. मैं उसके मम्मों पर नज़र डालने के साथ-साथ यह भी कोशिश कर रहा था कि युसूफ को कोई शक न हो. मुझे यह भी लग रहा था कि वो या तो मेरी लालची नज़रों से अनजान है या फिर जानबूझ कर अनजान बन रहा है.
खाना परोसने के बाद वहीदा मेरे सामने की कुर्सी पर बैठ गई. मेज की चौड़ाई ज्यादा नहीं थी इसलिए मेरे घुटने एक-दो बार वहीदा के घुटनों से छू गये. उसने कोई नाखुशी जाहिर नहीं की तो मेरी हिम्मत बढ़ गई. मैं जानबूझ कर अपने घुटने उसके घुटनों से टकराने लगा. मुझे आशंका थी कि वो अपने घुटने पीछे खींच लेगी पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया. हां, उसकी नज़रें शर्म से झुक गई थीं. मैं युसूफ की तरफ देखते हुए उससे बात करने लगा और साथ ही मैंने अपने घुटने से वहीदा के घुटने को एक-दो बार सहलाया. उसने भी जवाब में मेरे घुटने को अपने घुटने से सहला कर जैसे इशारा कर दिया कि उसे कोई एतराज़ नहीं था. वो बीच-बीच में हमारी बातचीत में भी भाग ले रही थी और दिखा रही थी जैसे सब कुछ सामान्य हो. उसका व्यवहार मेरे शरीर में रोमांच पैदा कर रहा था. मेरी हिम्मत और बढ़ गई और मैंने उसकी समूची टांग को अपनी टांग से सहलाना शुरू कर दिया. अब मेरा ध्यान खाने से हट चुका था. मुझे कुछ पता नहीं था कि युसूफ क्या बोल रहा था. मेरा ध्यान सिर्फ उन तरंगों पर था जो मेरी टांगों से उठ कर ऊपर की तरफ जा रही थीं और जिनका सीधा असर मेरे लंड पर हो रहा था.
अचानक वहीदा की सुरीली आवाज ने मुझे जैसे नींद से जगाया. वो कह रही थी, “शायद एहसान साहब को खाना पसंद नहीं आया. ये तो कुछ खा ही नहीं रहे हैं!”
वहीदा ने ये बात युसूफ को कही थी पर मैंने फ़ौरन जवाब दिया, “यह कैसे हो सकता है कि तुम जो बनाओ वो किसी को पसंद न आये. तुम्हारे हाथों में तो जादू है. लेकिन मुश्किल ये है कि मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या खाऊं.”
जवाब के साथ-साथ वहीदा की तारीफ भी हो गई जो उसे जरूर अच्छी लगी होगी. मेज के नीचे मेरा पैर अब उसकी पिंडली की मालिश कर रहा था. उसकी सलवार ऊपर उठ चुकी थी. मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मैं युसूफ की मौजूदगी में उसकी बीवी की नंगी टांग को अपने पैर से सहला रहा था और वो इससे बेखबर था. मुझे यह शक भी हो रहा था कि कहीं वो जानते हुए अनजान तो नहीं बन रहा था.
मैंने अपना पैर पीछे खींचा तो वहीदा के चेहरे पर निराशा का भाव आया. पर वो जल्दी ही संभल गई और सामान्य तरीके से बात करने लगी. मैंने भी अपना ध्यान बातचीत और खाने की तरफ मोड़ दिया. कुछ देर में डिनर ख़त्म हो गया. हाथ धोने के बाद मैंने फिर वहीदा से खाने की तारीफ की. युसूफ ड्राइंग रूम की तरफ बढ़ चुका था. वहीदा ने धीरे से मुझे कहा, “आप बहुत दिलचस्प बातें करते हैं. मैं दिन में घर पर ही रहती हूँ. आप जब चाहें यहाँ आ सकते हैं.”
यह तो खुला निमंत्रण था. आज शाम वो नहीं हुआ जिसकी मुझे उम्मीद थी पर आगे के लिए रास्ता खुल चुका था. और मुझे नहीं लगा कि यह युसूफ की जानकारी के बिना हुआ होगा. मैं दिखने में बेशक युसूफ से बेहतर हूं पर इतना भी नहीं कि वहीदा जैसी दिलफ़रेब औरत मुझ पर फ़िदा हो जाए. यह कमाल तो उस क़र्ज़ का था जो वक़्त पर वापस आता नहीं लग रहा था. खैर, अगर वहीदा ब्याज देने के लिए तैयार है तो मैं इतना बेवक़ूफ़ नहीं हूँ कि यह सुनहरा मौका छोड़ दूं! यह सोचते-सोचते मैं अपने घर पहुँच गया. मेरे दिल-ओ-दिमाग पर पूरी तरह वहीदा का नशा छाया हुआ था. मुझे अपनी बेग़म में वहीदा का अक्स नज़र आ रहा था. सोने से पहले मैंने उनकी चूत को इतना कस कर रगड़ा कि वे भी हैरान रह गयीं.
अगली सुबह भी वहीदा का अक्स बार-बार मेरी नज़रों के सामने आ रहा था. मैं अपने दफ्तर पहुंचा तो मैं अपने काम पर कंसन्ट्रेट नहीं कर पाया. मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आ गए. जब मैं कॉलेज में नया-नया पहुंचा था तब मैं अपनी इंग्लिश की लेक्चरर पर इस कदर फ़िदा हो गया था कि मैं रात-दिन उनके सपने देखता रहता था. मुझे लगता था कि वे मुझे नहीं मिलीं तो मैं ट्रेन के आगे कूद कर अपनी जान दे दूंगा. सपनों में मैं न जाने कितनी बार उन्हें चोद चुका था. आज मेरी हालत फिर वैसी ही हो गई थी. उस लेक्चरर की जगह अब वहीदा ने ले ली थी. फर्क यह था कि वो लेक्चरर मेरी पहुँच से दूर थी जबकि वहीदा मुझे हासिल हो सकती थी. हो सकता था कि वो इस वक़्त मेरा इंतजार कर रही हो. उसने साफ़ कहा था कि मैं कभी भी उससे मिलने जा सकता था. मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि मैं आज ही उससे मिलूँ या दो दिन और इंतजार करूं. मेरा दिमाग कह रहा था कि दो दिन बाद युसूफ को मेरी हर बात माननी पड़ेगी. वो मजबूर हो कर वहीदा को मेरे हवाले करेगा. लेकिन मेरा दिल कह रहा था कि वहीदा तो आज ही मेरी आगोश में आने के लिए तैयार है. फिर मैं उसके लिए दो दिन क्यों तरसूं!
मैंने अपने दिल की बात मानने का फैसला किया. हिम्मत कर के मैं युसूफ के घर की तरफ रवाना हो गया. मैंने कार को उसके घर से थोड़ी दूर छोड़ा और पैदल ही घर तक पहुंचा. घंटी बजाने के बाद मैं बेसब्री से वहीदा से रूबरू होने का इंतजार करने लगा. दरवाजा खुलने में देर हुई तो मेरे मन में शक ने घर कर लिया. मैं सोचने लगा कि मैंने यहाँ आ कर कोई गलती तो नहीं कर दी! दो मिनट के लम्बे इंतजार के बाद दरवाजा खुला. वहीदा मेरे सामने थी पर उसके चेहरे पर मुझे उलझन नज़र आ रही थी. मैंने थोड़ी शर्मिंदगी से कहा, “शायद मैं गलत वक़्त पर आ गया हूं. मैं चलता हूं.”
“नहीं, नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है. आप अन्दर आइये.” उसने पीछे हट कर मुझे अन्दर आने का रास्ता दिया.
“लेकिन तुम कुछ उलझन में दिख रही हो,” मैंने अन्दर आते हुए कहा.
“नहीं, उलझन कैसी?” उसने कहा. “आप बैठिये. मैं फ़ोन पर बात कर रही थी कि दरवाजे की घंटी बज गई. मैं बात ख़त्म कर के अभी आती हूँ.”
अब मैंने इत्मीनान की सांस ली. मेरे आने से वहीदा की फ़ोन पर हो रही बात में खलल पड़ गया था इसलिए वो परेशान दिख रही थी और मैं कुछ का कुछ सोचने लगा था.
वहीदा दो मिनट में वापस आ गई. न जाने यह मेरा भ्रम था या हकीकत पर इस बार वो पहले से ज्यादा दिलकश लग रही थी. उसके व्यवहार में भी अब गर्मजोशी आ गई थी. उसने पूछा, “आप चाय लेंगे या कॉफ़ी ... या कुछ और?”
‘कुछ और’ सुन कर तो मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा. मैं ‘कुछ और’ लेने के लिए ही तो आया था पर थोडा तकल्लुफ दिखाना भी लाजमी था. मैंने कहा, “तुम्हे तकलीफ करने की जरूरत नहीं है. मैं तो सिर्फ तुम से मिलने के लिए आया हूं क्योंकि कल तुम्हारे साथ ज्यादा बात नहीं हो सकी थी.”
वहीदा ने कहा, “इसमें तकलीफ की क्या बात है! मैं तो वैसे भी चाय पीने वाली थी. लेकिन आप कुछ और लेना चाहें तो ...”
फिर ‘कुछ और’ सुन कर तो मेरा मन उसे दबोचने पर आमादा हो गया. पर मैंने अपने आप पर काबू करते हुए कहा, “तुम्हारे हाथ की चाय पीने का मौका मैं कैसे छोड़ सकता हूँ!”
“मैं अभी आती हूं,” उसने कहा.
वहीदा किचन में चली गई तो मेरे दिल में नापाक खयाल आने लगे. मैं सोच रहा था कि जो हाथ चाय बना रहे हैं वो मेरे लंड के गिर्द होते तो कैसा होता! मेरे होंठ चाय के प्याले के बजाय वहीदा के होंठों पर हों तो कैसा रहेगा! और वो दुबारा ‘कुछ और’ की पेशकश करे तो क्या मैं उसे बता दूँ कि मेरे लिए ‘कुछ और’ का मतलब उसकी चूत है? फिर मैंने सोचा कि मैं कहीं खयाली पुलाव तो नहीं पका रहा हूं! ऐसा न हो कि मैं जो सोच रहा हूं वो हो ही नहीं और मुझे खाली हाथ लौटना पड़े.
क्रमशः