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5
तिलक के साथ रिश्ते की शुरूआत
अगले दिन तिलक राजकोटिया बहाना भरकर मुझे फिर घुमाने ले गया।
उसकी सफेद बी.एम.डब्ल्यू. कार मानो हवा में उड़ी जा रही थी।
मैं कार की फ्रण्ड सीट पर तिलक राजकोटिया के बराबर में ही बैठी थी।
“आज आप मुझे कहां ले जा रहे हैं?”
“आज मैं तुम्हें एक ऐसी जगह ले जा रहा हूँ, जहां जाकर तुम्हारी तबीयत खुश हो जाएगी।”
“ऐसी कौन—सी जगह है?”
“बस थोड़ा सब्र रखो, अभी हम वहां पहुंचने ही वाले हैं।”
मैं रोमांच से भरी हुई थी।
तिलक राजकोटिया के साथ गुजरने वाला हर क्षण मुझे ऐसा लगता, मानो वह मेरी जिन्दगी का सबसे खूबसूरत क्षण हो।
यह बात मैं अब भांप गयी थी कि तिलक राजकोटिया के दिल में मेरे लिए प्यार उमड़ चुका है, लेकिन मैं अपनी भावनाएं अभी उसके ऊपर जाहिर नहीं कर रही थी।
थोड़ी देर बाद ही कार एक ‘डिस्को’ के सामने पहुंचकर रुकी।
मैं चौंकी।
“यह आप मुझे कहां ले आए?”
“क्यों?” तिलक राजकोटिया बोला—”क्या तुम्हें इस तरह की जगह पसंद नहीं?”
“ऐसी कोई बात नहीं।”
अलबत्ता मेरा दिल धड़क—धड़क जा रहा था।
मैं तिलक राजकोटिया के साथ डिस्को के अंदर दाखिल हुई।
अंदर का दृश्य काफी विहंगमकारी था। वह एक बहुत बड़ा हॉल था, जिसकी छत और फर्श दोनों जगह रंग—बिरंगी लाइटें लगी हुई थीं। सामने मंच पर आर्केस्ट्रा द्वारा बहुत तेज, कान के परदे फाड़ देने वाला म्यूजिक बजाया जा रहा था। हॉल में जगह—जगह घूमने वाले स्तम्भ लगे थे, जिनके ऊपर मिरर फिट थे। हॉल में जलती—बुझती रंग—बिरंगी लाइटों का रिफलेक्शन जब उन घूमने वाले मिरर पर पड़ता- तो पूरे हॉल में ऐसी रंगीनी बिखर जाती, जैसे वह कोई तिलिस्म हो।
हॉल के कांचयुक्त फर्श पर लड़के—लड़कियां मदमस्त होकर नाच रहे थे।
वह मग्न थे।
मुझे घबराहट होने लगी।
“मैं डांस नहीं कर पाऊंगी।” मैं, तिलक राजकोटिया से धीमी जबान में बोली।
“क्यों?”
“क्योंकि मैं किसी ऐसे प्लेस पर जिन्दगी में पहली बार आयी हूं।”
तिलक राजकोटिया हंस पड़ा।
“इंसान हर काम कभी—न—कभी जिन्दगी में पहली बार ही करता है।”
“लेकिन...।”
“कम ऑन!”
तिलक राजकोटिया ने मेरा हाथ पकड़कर डांसिंग फ्लोर की तरफ खींचा।
“नहीं।”
“कम ऑन शिनाया- कम ऑन! डोन्ट फील नर्वस!”
मैंने एक सरसरी—सी दृष्टि पुनः लड़के—लड़कियों पर दौड़ाई।
उनमें आधे से ज्यादा नशे में थे।
एक लड़का—लड़की तो बिल्कुल अभिसार की मुद्रा में थे।
वह दोनों एक—दूसरे से कसकर चिपके हुए थे।
बहुत कसकर।
दोनों के मुंह से आहें—कराहें फूट रही थीं।
तिलक राजकोटिया ने मुझे फिर डांसिंग फ्लोर की तरफ पकड़कर खींचा।
इस बार मैंने उसका अधिक विरोध नहीं किया।
मैं डांसिंग फ्लोर की तरफ खिंचती चली गयी।
वहां ज्यादातर लड़के—लड़कियां बेले डांस कर रहे थे।
लगता था—उन सबका मनपसंद वही नृत्य था।
फ्लोर पर पहुंचते ही तिलक राजकोटिया ने अपने दोनों हाथ मेरे हाथ में ले लिये और धीरे—धीरे थिरकने लगा।
मैंने भी उसका साथ दिया।
मैंने देखा- वह आज मेरे साथ कुछ ज्यादा ही फ्री हो रहा था।
फिर धीरे—धीरे थिरकते हुए उसने खुद को मेरे साथ सटा लिया।
उसका शरीर भभकने लगा था।
“माहौल में गर्मी बढ़ती जा रही है।” मैं मुस्कुराकर बोली।
“हां।” वह भी मुस्कुराया—”हल्की—हल्की गर्मी तो है, लेकिन इतनी गर्मी भी नहीं- जिसे बर्दाश्त न किया जा सके।”
जल्दी ही मुझे भी उस डांस में आनन्द अनुभव होने लगा।
मैं भी अब तिलक राजकोटिया का खूब खुलकर साथ दे रही थी।
फिर एक क्षण वह भी आया- जब तिलक राजकोटिया मेरे साथ डांस करता हुआ मुझे एक कोने में ले गया।
“क्या सोच रही हो?” वह फुसफुसाया।
“कुछ नहीं।” मेरे कदम थिरक रहे थे—”बृन्दा के बारे में सोच रही हूं।”
“क्या?”
“यही कि उसका क्या होगा, उसकी किस्मत में क्या लिखा है?”
“कुछ नहीं लिखा।” तिलक राजकोटिया ने मुझे अपने सीने के साथ और ज्यादा कस लिया—”अब उसकी मौत निश्चित है। अब कोई करिश्मा ही उसे बचा सकता है। फिलहाल थोड़ी देर के लिये उसे भूल जाओ शिनाया, मैं तुमसे आज कुछ कहना चाहता हूं।”
मैं चौंकी।
“बुरा तो नहीं मानोगी?”
“अगर कोई बहुत ज्यादा ही बुरी बात न हुई,” मैं बोली—”तो मैं बुरा नहीं मानूंगी।”
“नहीं- पहले तुम वादा करो।“ तिलक राजकोटिया बोला—”मैं आज चाहे तुमसे कुछ भी कहूं, तुम बुरा नहीं मानोगी।”
“क्या बात है तिलक साहब- आज बहुत मूड में नजर आ रहे हैं।”
“तुम इसे कुछ भी समझ सकती हो।”
“ठीक है- मैं आपसे वादा करती हूं।” मैं इठलाकर बोली—”आज आप मुझसे चाहे कुछ भी कहें, मैं आपकी बात का बुरा नहीं मानूंगी।”
“पक्का वादा?”
“पक्का!”
तिलक राजकोटिया ने इत्मीनान की सांस ली। फिर वह मुझसे कुछ और ज्यादा चिपक गया।
उस क्षण वो बहुत भावुक नजर आ रहा था।
“मेरी तरफ देखो शिनाया- मेरी आंखों में।”
मैंने कुछ सकपकाकर तिलक राजकोटिया की आंखों में झांका।
उसकी सांसें अब और ज्यादा धधकने लगी थीं।
“आई लव यू शिनाया!”
“क्या?”
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मैं हैरान रह गयी।
अचम्भित!
मुझे मानो अपने कानों पर यकीन न हुआ।
“आई लव यू!” तिलक राजकोटिया ने थिरकते—थिरकते अपना सिर मेरे कन्धे पर रख लिया—”मैं तुमसे प्यार करने लगा हूं शिनाया- क्या तुम भी मुझसे प्यार करती हो?”
मैं हवा में उड़ने लगी।
मेरी जिन्दगी में वो पहला पुरुष था। एक कॉलगर्ल की जिन्दगी में वो पहला पुरुष था- जो उससे ‘आई लव यू’ बोल रहा था।
“जवाब दो!” तिलक राजकोटिया ने मेरे कंधे पकड़कर झिंझोड़े—”क्या तुम भी मुझसे प्यार करती हो?”
मैं चुप!
मैं फैसला नहीं कर पा रही थी कि मैं क्या जवाब दूं।
मुझे उम्मीद भी नहीं थी कि तिलक राजकोटिया इतने अप्रत्याशित ढंग से मेरे सामने वो प्रपोजल रख देगा।
“तुम एक मिनट यही रुको- मैं अभी आता हूं।” तिलक राजकोटिया बोला।
“कहां जा रहे हो?”
“अभी आया।”
तिलक राजकोटिया मुझे वहीं डांसिंग फ्लोर पर अकेला छोड़कर चला गया।
मैंने देखा- वो बार काउण्टर की तरफ जा रहा था।
मेरी निगाहें अब उस लड़के—लड़की की तरफ घूमीं, जो अभिसर की मुद्रा में थीं।
वो अब हॉल में कहीं नजर नहीं आ रहे थे। जरूर वो अपने किसी ठिकाने पर चले गये थे।
तभी तिलक राजकोटिया वापस लौट आया।
उसके हाथ में दो पैग थे।
“यह सब क्या है?” मैंने आश्चर्यवश पूछा।
“एक तुम्हारे लिये- एक मेरे लिये।”
“लेकिन मैं शराब को छूती भी नहीं।”
मैंने सफेद झूठ बोला।
जबकि शराब मेरा प्रिय पेय था।
“कोई बात नहीं।” तिलक राजकोटिया बोला—”मैं तुमसे शराब पीने के लिये नहीं कहूंगा, लेकिन अगर तुम मुझसे प्यार करती हो- तो इस पैग में से एक बहुत छोटा—सा घूट भर लो। मैं समझ जाऊंगा- तुम्हारे दिल में मेरे लिये क्या है! जो बात शर्म की वजह से तुम्हारी जबान नहीं कहेगी, वो आज यह शराब कह देगी।”
मेरी आंखें चमक उठीं।
“प्यार के इजहार का तरीका अच्छा ढूंढा है तिलक साहब! यानि अगर मैंने शराब का एक घूंट पी लिया- तो उससे यह साबित हो जायेगा कि मैं तुमसे प्यार करती हूं।”
“बिल्कुल।”
“और अगर मैंने शराब के दो घूंट पीये, तो उससे क्या साबित होगा?”
“तो उससे यह साबित होगा,” तिलक राजकोटिया मुस्कुराकर बोला—”कि तुम मुझसे और ज्यादा प्यार करती हो।”
“ठीक है- तो लाओ, पैग मुझे दो।”
मैंने तिलक राजकोटिया के हाथ से शराब का पैग ले लिया।
उसके चेहरे पर अब जबरदस्त सस्पैंस के चिन्ह थे।
वो अपलक मेरा चेहरा देख रहा था। वो नहीं जानता था- अगले क्षण क्या होने वाला है!
मैं तिलक राजकोटिया की तरफ देखकर मुस्कुरायी।
फिर अगले ही पल मैं एक ही सांस में वह पूरा पैग पी गयी।
“और अब यह पूरा पैग पीने से क्या साबित हुआ?”
“ओह डार्लिंग!” वह एकाएक कसकर मुझसे लिपट गया—”तुम ग्रेट हो—ग्रेट!”
मैं बड़े समर्पित अन्दाज में उसके आगोश में समा गयी।
•••
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कार से वापस पैंथ हाउस लौटते समय मैंने अपनी तरफ से पहला पत्ता फेंका।
यानि शिनाया शर्मा उस वक्त नशे का जमकर नाटक कर रही थी। मैंने वो नाटक करना भी चाहिये था। आखिर मैंने जिन्दगी में पहली बार शराब पी थी।
वो भी पूरा पैंग भरकर।
मैंने देखा- बाहर अब हल्की—हल्की बारिश भी होने लगी थी, जो वातावरण को काफी रोमांटिक बना रही थी।
मैं बार—बार झूमकर तिलक राजकोटिया के ऊपर ढेर हो जाती।
तिलक राजकोटिया मुझे सम्भालता।
“लगता है- नशा तुम्हारे ऊपर कुछ ज्यादा ही हावी हो गया है।” वो मुस्कुराकर बोला।
“नशा होना भी चाहिये।” मैं बोली—”यह प्यार का नशा है।”
“अगर मुझे पहले से यह मालूम होता कि उस एक पैग से तुम्हारे ऊपर इतना नशा हो जायेगा, तो मैं तुम्हें कभी वो पैग पीने के लिये न देता।”
“यह आप और बुरा करते।” मैं बच्चों की तरह बोली।
“क्यो?”
“फिर यह साबित कैसे होता कि मैं भी आपसे प्यार करती हूं।”
तिलक राजकोटिया हंसे बिना न रह सका।
“सचमुच तुम काफी दिलचस्प हो।”
“सिर्फ दिलचस्प!”
“नहीं- काफी खूबसूरत भी।”
मैं नशे में झूमती हुई, फिर लहराकर तिलक राजकोटिया के ऊपर गिरी।
इस बार तिलक राजकोटिया ने मुझे अपने से अलग नहीं किया बल्कि मुझे कसकर अपनी बाहों के इर्द—गिर्द लपेट लिया और बाहों में लपेटे—लपेटे कार ड्राइव करता रहा।
बारिश अब तेज हो गयी थी। बारिश के तेज होने के साथ—साथ तिलक राजकोटिया ने कार की रफ्तार थोड़ी कम कर दी और विण्ड स्क्रीन के वाइपर चालू कर दिये।
वाइपर घूम—घूमकर विण्ड स्क्रीन का पानी साफ करने लगे।
मेरा शरीर भभक रहा था।
वैसी ही गर्मी तिलक राजकोटिया के शरीर में भी थी।
“लेकिन यह प्यार पाप है तिलक साहब!” मेरे हाथ तिलक राजकोटिया की पीठ पर सरसरा रहे थे।
मेरे रोम—रोम में सिरहन थी।
“क्यों- यह प्यार क्यों पाप है?”
“क्योंकि आप मेरी सहेली के हसबैण्ड हैं।”
“लेकिन तुम जानती हो।” तिलक राजकोटिया ने मुझे अपने शरीर के साथ और ज्यादा कसकर भींच लिया—”कि बृन्दा अब ज्यादा दिन की मेहमान नहीं हैं- बहुत जल्द उसकी मौत हो जायेगी, फिर मैं तुमसे शादी कर लूंगा। बोलो, करोगी मुझसे शादी?”
मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।
तिलक राजकोटिया खुद मेरे सामने शादी का प्रपोजल रख रहा था।
“बोलो शिनाया!” तिलक राजकोटिया बोला—”करोगी मुझसे शादी?”
“यह तो मेरा सौभाग्य होगा तिलक साहब- जो मुझे आप जैसा हसबैण्ड मिले।”
तभी एकाएक आसमान का सीना चाक करके बहुत जोर से बिजली कड़कड़ाई।
तिलक राजकोटिया ने कार वहीं एक पेड़ के नजदीक रोक दी।
वह एक बहुत निर्जन—सा इलाका था।
तिलक राजकोटिया की बाहें अब और ज्यादा कसकर मेरे शरीर के गिर्द लिपट गयीं तथा वह मेरे ऊपर ढेर होता चला गया।
उसके होंठ मेरे होठों से आ सटे।
मैं अभी भी नशे का अभिनय कर रही थी।
“त... तिलक साहब!” मेरी आवाज थरथरा रही थी—”आई लव यू!”
उसने मेरी गर्दन, पलकों, कपोलों, अधरों और बारी—बारी से दोनों कंधों पर चुम्बन अंकित कर दिया।
उसकी एक—एक हरकत मेरी रगों में बिजली बनकर दौड़ने लगी थी।
वह मेरे कंधों पर हाथ टिकाकर झुका।
हम दोनों अब कार की फ्रण्ट सीट पर ही आपस में गुत्थम—गुत्था हो रहे थे।
हालांकि मैं खूब खेली—खाई थी। परन्तु तिलक राजकोटिया के सामने ऐसा ‘शो’कर रही थी, मानो वह मेरी जिन्दगी का पहला अनुभव है।
“यह आप क्या कर रहे हैं तिलक साहब?”
“म... मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं।” तिलक राजकोटिया सचमुच बहुत उतावला हो रहा था—”और अब चाहता हूं- तुम भी मेरी दीवानी हो जाओ।”
“ओह!”
मेरे होठों से भी मादक सिसकारियां फूट पड़ी।
मैं अब फ्रण्ट सीट पर बिछती जा रही थी।
तभी तिलक राजकोटिया ने एक काम और किया।
उसने कार की ‘डोम लाइट’ बुझा दी।
वहां अब अंधेरा छा गया।
घुप्प अंधेरा!
ऐसा- जो हाथ को हाथ भी न सुझाई दे।
फिर मुझे निर्वस्त्र करने में उसने ज्यादा समय नहीं लगाया और उसके बाद आनन—फानन खुद भी निर्वस्त्र हो गया।
यही वो क्षण था, जब अंधेरे का सीना चाक करके एक बार फिर जोर से बिजली कड़कड़ाई।
मेरा पूरा शरीर एक पल के लिये तेज रोशनी में नहा उठा।
और!
तिलक राजकोटिया भौचक्का—सा मेरे शरीर को देखता रह गया।
कसूर उसका भी नहीं था।
आज से पहले उसने ऐसा शरीर देखा ही कहां होगा?
“तुम सचमुच बहुत सुन्दर हो।” वह मेरी प्रशंसा किये बिना न रह सका—”वैरी ब्यूटीफुल!”
मैं मन—ही—मन हंसी।
वह बेचारा कहां जानता था, आज के बाद वह मेरा गुलाम बन जाने वाला था।
बारिश अब और तेज हो गयी।
इस समय खूब जमकर मूसलाधार बारिश हो रही थी।
इतना ही नहीं- बिजली और ज्यादा जोर—जोर से कड़कड़ाई। लम्बा सफेद हण्टर बार—बार आसमान की गुफा को चीरने लगा।
मौसम एकाएक काफी खतरनाक हो उठा था।
ऐसा लग रहा था- मानो आज कोई तूफान आकर रहेगा।
तिलक राजकोटिया ने मेरे दोनों कन्धे कसकर पकड़ लिये।
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उस काम के लिये कार की फ्रण्ट सीट काफी छोटी पड़ रही थी।
मगर!
दोनों जोश से भरे हुए थे।
जल्द ही खेल शुरू हो गया।
खेल वही था।
वही पुराना, जो आदिकाल से स्त्री और पुरुष के बीच लगातार बार—बार खेला जाता रहा है। किन्तु आज तक इस खेल से दोनों में-से किसी का भी दिल नहीं भरा।
थोड़ी ही देर बाद हम दोनों कार की फ्रण्ट सीट पर निढाल से पड़े थे। हमारे शरीर पसीनों में तर—बतर थे और हम इस प्रकार हांफ रहे थे, मानो कई सौ मीटर लम्बी मैराथन दौड़ में हिस्सा लेकर आये हों।
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उस रात मैं बहुत खुश थी।
बहुत ज्यादा!
मुझे ऐसा लग रहा था- जैसे वह रात मेरी जिन्दगी में ढेर सारी खुशियां ले आयी हो। मैं अपने लिये जिस तरह के हसबैण्ड की कल्पना करती थी- बिल्कुल वैसा हसबैण्ड मुझे हासिल हो गया था और बड़ी सहूलियत के साथ हासिल हुआ था। मुझे उसके लिये कोई बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी थी। अब बृन्दा के मरने की देर थी, फिर मैं उसकी तमाम जायदाद की मालकिन बन जानी थी।
और!
बृन्दा के मरने में भी कितने दिन बचे थे।
तीन महीने!
यानि नब्बे दिन!
नब्बे दिन यूं ही पलक झपकते गुजर जाने थे। फिर नब्बे दिन तो उसके मरने की अंतिम सीमा थी, मर तो वह उससे कहीं ज्यादा पहले सकती थी।
मैं जितना सोच रही थी, उतनी ही मेरी उम्मीदों को पर लग रहे थे।
इसके अलावा मुझे अब यह सोच—सोचकर भी डरने की आवश्यकता नहीं थी कि मुझे कभी ‘नाइट क्लब’ में भी वापस लौटना पड़ सकता है।
सच बात तो यह है—‘नाइट क्लब’ में लौटने की बात ही मुझे सबसे ज्यादा भयभीत करती थी।
रात को भी जब मुझे यह ख्याल आ जाता कि मुझे कभी उस दुनिया में लौटना पड़ सकता है, तो मैं एकदम सोते—सोते उठकर बैठ जाती हूं।
मैं अपनी मां की तरह नहीं मरना चाहती थी।
आप सोच भी नहीं सकते, उस एक ही रात में मैंने बेशुमार सपने देख डाले थे। मुझे अपना होश सम्भालने के बाद ऐसी कोई रात याद नहीं आती, जब मैं इतना खुश रही होऊं।
लेकिन वो सारी खुशी, सारे सपने दिन निकलने के साथ एक ही झटके में फना हो गये।
वह बिल्कुल ऐसा था- मानो प्रचण्ड धमाके के साथ कोई किसी के तमाम सपनों को चकनाचूर कर डाले।
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खतरनाक टर्न
सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे।
पैंथ हाउस में उस दिन की शुरुआत दूसरे दिनों की तरह ही सामान्य ढंग से हुई थी।
मैंने तिलक राजकोटिया को नाश्ता दिया।
बृन्दा को सूप पिलाया और दवाई खिलाई।
तिलक राजकोटिया आज काफी जल्दी तैयार हो गया था। वैसे भी वो आज काफी खिला—खिला नजर आ रहा था।
तभी पैंथ हाउस में डॉक्टर अय्यर के कदम पड़े।
“नमस्ते तिलक साहब!”
“नमस्ते!”
डॉक्टर अय्यर भी आज काफी खुश था।
“क्या बात है डॉक्टर, आज आप सुबह—ही—सुबह कैसे दिखाई पड़ रहे हैं?”
“दरअसल हॉस्पिटल जा रहा था, मैंने सोचा कि आपको भी वह खुशखबरी सुनाता चलूं।”
“खुशखबरी?” तिलक राजकोटिया चौंका।
मैं भी वहीं थी।
‘खुशखबरी’ के नाम पर मेरी दिलचस्पी भी एकाएक उस वार्तालाप में बढ़ी।
क्या खुशखबरी ले आया था डॉक्टर अय्यर?
“ऐन्ना- खुशखबरी ऐसी है कि उसे सुनकर आपके चेहरे पर भी प्रसन्नता खिल उठेगी। मुरुगन की बहुत बड़ी मेहरबानी हो गयी है। मैं कह रहा था न, मुरुगन कोई—न—कोई करिश्मा जरूर करेगा। बस यूं समझो- मुरुगन ने करिश्मा कर दिखाया है।”
“कैसा करिश्मा?”
“दरअसल बृन्दा की दूसरी ब्लड रिपोर्ट आ गयी है।” डॉक्टर अय्यर बोला—”और रिपोर्ट काफी हैरान कर देने वाली है। आप दोनों को यह सुनकर बेइन्तहां खुशी होगी कि बृन्दा के ऊपर जो मौत की तलवार लटकी हुई थी, वो फिलहाल टल गयी है।”
“क... क्या कह रहे हैं आप?”
“मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूं तिलक साहब! उन्हें जो दवाइयां दी जा रही थीं, वो काम करने लगी हैं और इस बार उनकी ब्लड रिपोर्ट बेहतर आयी है।”
मेरे दिल—दिमाग पर मानो भीषण व्रजपात हुआ।
मेरे हाथ—पांव फूल गये।
“क्या बात है?” डॉक्टर अय्यर ने मेरी तरफ देखा—”यह खबर सुनकर तुम्हें खुशी नहीं हुई?”
“ए... ऐसा कैसे हो सकता है।” मैं बुरी तरह हकबकाई—”खुशी हुई- बहुत ज्यादा खुशी हुई।”
“मैं जानता था कि आप लोगों को जरूर खुशी होगी। इसलिए रिपोर्ट मिलते ही मैं फौरन यह खबर आप लोगों को सुनाने यहां दौड़ा—दौड़ा चला आया।”
मैंने तिलक राजकोटिया की तरफ देखा।
उसका भी बुरा हाल था।
उसके चेहरे की रंगत भी एकदम हल्दी की तरह पीली जर्द पड़ चुकी थी।
“यानि अब बृन्दा की तीन महीने के अंदर—अंदर मौत नहीं होगी?” तिलक राजकोटिया ने शुष्क स्वर में पूछा।
“नहीं- बिल्कुल नहीं, बल्कि अब तो मुझे इस बात की भी काफी उम्मीद नजर आ रही है कि अगर उनके ब्लड में इसी तरह इम्प्रूवमेंट होता रहा, तो वह बच जाएंगी।”
“ओह!”
“डॉक्टर- लेकिन मैं एक बात नहीं समझ पा रही हूं।” मैं बोली।
“क्या?”
“ब्लड रिपोर्ट में एकाएक इतना बड़ा परिवर्तन आया कैसे? क्योंकि जहां तक मैं समझती हूं- पिछले दिनों में दवाइयां भी नहीं बदली गयी हैं।”
“बिल्कुल ठीक कहा।” डॉक्टर अय्यर बोला—”दवाइयां तो पिछले काफी टाइम से नहीं बदली गयीं।”
“फिर यह करिश्मा कैसे हुआ?”
“सब मुरुगन की कृपा है।” डॉक्टर अय्यर बोला—”दरअसल जो दवाइयां उन्हें काफी दिन से खिलाई जा रही थीं, उन्होंने देर से असर दिखाया। अब जाकर असर दिखाया और यह उसी का परिणाम है।”
“ओह!”
मेरे होंठ भी सिकुड़ गये।
“बहरहाल जो हुआ- बेहतर हुआ।” डॉक्टर अय्यर बोला—”मैं अभी बृन्दा को भी जाकर यह खुशखबरी सुनाता हूं।”
डॉक्टर अय्यर तेजी के साथ सब बृन्दा के शयनकक्ष की तरफ बढ़ गया।
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डॉक्टर अय्यर तो वह खबर सुनकर पैंथ हाउस से चला गया था- लेकिन उस खबर ने मुझे कितनी बुरी तरह झंझोड़ा, इसका अनुमान आप सहज रूप से ही लगा सकते हैं।
मुझे लगा- एक बार फिर मैं हार गयी हूं।
जरा सोचिए।
दवाइयों ने भी अभी अपना असर दिखाना था।
मुझे एक ही झटके में अपने तमाम सपने चकनाचूर होते दिखाई पड़े।
मैं दौड़ती हुई सीधे अपने शयनकक्ष में पहुंची और औंधे मुंह बिस्तर पर लेट गयी।
तकिये में मैंने अपना मुंह छुपा लिया।
“क्या बात है?” तिलक राजकोटिया भी मेरे पीछे—पीछे ही वहां दाखिल हुआ—”तुम एकाएक उदास क्यों हो गयीं?”
मैं कुछ न बोली।
मैं बस जोर से सुबक उठी।
“शिनाया!” मेरी सुबकियां तिलक राजकोटिया के ऊपर बिजली—सी बनकर गिरीं—”तुम रो रही हो।”
तिलक राजकोटिया ने मेरे दोनों कंधे कसकर पकड़े और मुझे झटके के साथ बिस्तर पर पलट दिया।
मेरी आंखें आंसुओं से डबडबाई हुई थीं।
“क्या बात है?” तिलक राजकोटिया मेरे ऊपर झुका—”क्या हो गया है तुम्हें?”
“अ... अब मेरा क्या होगा तिलक साहब? म... मैं तो किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं रही।”
मेरे मुंह से पहले से भी कहीं ज्यादा जोर से सुबकी उबली।
“घबराओ मत- तुम्हारा कुछ नहीं होगा।”
“लेकिन... ।”
“एक बात याद रखो शिनाया!” तिलक राजकोटिया की आवाज में दृढ़ता कूट—कूटकर भरी थी—”और अच्छी तरह याद रखो। मैंने तुम्हारे इस शरीर को हासिल करने से पहले तुमसे जो वादा किया था, मैं वो वादा पूरा करके रहूंगा।”
“यानि आप मुझसे शादी करेंगे?” मेरे मुंह से तीव्र सिसकारी छूटी।
मैं चौंकी।
“हां।” तिलक राजकोटिया के मुंह से मानो भेड़िये जैसी गुर्राहट निकली—”हां- मैं तुमसे शादी करूंगा।”
एक क्षण के लिए मैं रोना मानो बिल्कुल भूल गयी।
मैं तिलक राजकोटिया को आश्चर्य से बिल्कुल इस तरह देखने लगी, मानो मेरी आंखों के सामने साक्षात् ताजमहल आकर खड़ा हो गया हो।
“आप जानते हैं- आप क्या कह रहे हैं?”
“हां- मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मैं क्या कह रहा हूं।” तिलक राजकोटिया बोला।
“लेकिन अब यह सब कैसे मुमकिन है तिलक साहब! एक पत्नी के रहते हुए आप मुझसे दूसरी शादी कैसे कर सकते हैं?”
“मुझे सोचने दो। मुझे अब यही सोचना है कि मैं तुमसे किस तरह दूसरी शादी कर सकता हूं?”
तिलक राजकोटिया बेचैनीपूर्वक कमरे में इधर—से—उधर घूमने लगा।
उस क्षण वह मुझसे कहीं ज्यादा परेशान दिखाई पड़ रहा था।
टाई की नॉट उसने ढीली कर ली।
फिर मैंने तिलक राजकोटिया को एक नया काम करते देखा।
बिल्कुल नया काम!
जो मैंने उसे पहले कभी नहीं करते देखा था।
उसने अपने कोट की जेब से सिगरेट का पैकिट निकाल लिया। उसमें से एक सिगरेट निकालकर लाइटर से सुलगाई तथा फिर धुएं के गोल—गोल छल्ले बनाकर हवा में उछालने लगा।
जिस तरह वो सिगरेट पी रहा था- उससे साबित होता था कि वो बेचैनी के आलम में कभी—कभार ही सिगरेट पीता है।
काफी देर तक तिलक राजकोटिया इधर—से—उधर मटरगश्ती करता रहा।
“क्या कोई तरीका सूझा?” मैंने लगभग आधा घण्टे बाद सवाल किया।
“नहीं।” तिलक राजकोटिया ठिठका—”अभी कोई तरीका नहीं सूझा है, लेकिन तुम मुझे सोचने के लिए थोड़ा वक्त और दो, मुझे उम्मीद है कि तब तक मैं कोई—न—कोई तरीका जरूर खोज निकालूंगा।”
“और अगर मान लो।” मैं डरते—डरते बोली—”फिर भी आपको कोई तरीका न सूझा, तब क्या होगा?”
“ऐसा नहीं हो सकता कि मुझे कोई तरीका न सूझे। मैं इस समस्या का कोई—न—कोई हल जरूर निकाल लूंगा।”
मेरे चेहरे पर व्यग्रता झलकने लगी।
“एक बात अच्छी तरह समझ लो शिनाया!” तिलक राजकोटिया ने सिगरेट का टोटा वहीं पड़ी एश—ट्रे में रगड़कर बुझाया और सीधे मेरी आंखों में झांकने लगा।
“क... क्या?”
“मैं अब सचमुच तुमसे बहुत प्यार करने लगा हूं। मैं बृन्दा के बिना जीवित रह सकता हूं, मगर अब तुम्हारे बिना किसी हालत में नहीं!”
तिलक राजकोटिया बड़ी तेजी के साथ मुड़ा और फिर आंधी की तरह उस शयनकक्ष से बाहर निकल गया।
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मैं बेचैन थी।
मैं समझ नहीं पा रही थी कि तिलक राजकोटिया अब क्या निर्णय लेगा?
वो किस तरह मुझसे शादी करेगा?
परन्तु तिलक राजकोटिया ने मुझसे शादी करने का जो तरीका सोचा, वह सचमुच अचम्भित कर देने वाला था।
दोपहर का समय था। मैं और तिलक राजकोटिया डायनिंग टेबल पर एक बार फिर मिले। मैंने अपने और तिलक राजकोटिया दोनों के लिए भोजन परोस लिया था, परन्तु खाने में दोनों में-से किसी की भी दिलचस्पी न थी।
“क्या शादी करने का कोई तरीका सोचा?” मैंने तिलक राजकोटिया से डरते—डरते वो सवाल किया।
मुझे भय था- कहीं तिलक राजकोटिया यह न कह दे कि उसे कोई तरीका नहीं सूझा है।
“हां।” तिलक राजकोटिया के चेहरे पर सख्ती के भाव उभरे—”एक तरीका सोचा है।”
“क्या?”
तिलक राजकोटिया ध्यानपूर्वक मेरे चेहरे की तरफ देखने लगा।
उसके हाव—भावों से लग रहा था, उसने कोई बहुत कठोर फैसला किया है।
“पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो।”
“पूछो।”
“सवाल का जवाब खूब सोच—समझकर देना शिनाया! क्योंकि उस एक सवाल के जवाब पर हमारे भविष्य का सारा दारोमदार टिका है।”
“मैं सोच—समझकर ही जवाब दूंगी।”
मेरा दिल धड़क—धड़क जा रहा था।
मेरी बेचैनी बढ़ने लगी थी।
“क्या तुम मुझसे शादी करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो?”
“क्या कुछ भी?”
“मसलन- कोई बुरे से बुरा काम। कोई ऐसा काम, जिसे करने के लिए तुम्हारा दिल भी गंवारा न करे।”
“हां- मैं कुछ भी कर सकती हूं।” मैंने पूरी दृढ़ता के साथ जवाब दिया।
“एक बार फिर सोच लो।”
“मैंने सोच लिया।”
“ठीक है।” तिलक राजकोटिया कोहनियों के बल टेबल पर मेरी तरफ झुक गया तथा बहुत सस्पैंसफुल आवाज में फुसफुसाया—”तो फिर हम दोनों की शादी होने का बस एक ही तरीका है शिनाया- एक आखिरी तरीका!”
“क्या?”
“हम बृन्दा को अपने रास्ते से हटा दें।”
“क्या कह रहे हो?” मेरे मुंह से तीव्र सिसकारी छूट पड़ी—”यानि हत्या- बृन्दा की हत्या!”
“धीरे बोलो!” तिलक राजकोटिया घबरा उठा—”धीरे।”
मैंने सकपकाकर इधर—उधर देखा।
शुक्र था!
वहां कोई न था।
किसी ने बौखलाहट में मेरी जबान से निकले वो शब्द सुन नहीं लिये थे।
परन्तु ‘हत्या’ के नाममात्र से ही मेरे माथे पर पसीने की नन्ही—नन्ही बूंदें चुहचुहा आयीं, जिन्हें मैंने रूमाल से साफ किया।
“ल... लेकिन किसी की हत्या करना इतना आसान नहीं होता तिलक साहब!” मैं इस बार बहुत धीमें से फुसफुसाई।
“मैं भी जानता हूं।” तिलक राजकोटिया बोला—”कि किसी की हत्या करना आसान नहीं होता है। लेकिन अगर हमने शादी करनी है, तो हम दोनों ने मिलकर बृन्दा को अपने रास्ते से हटाना ही होगा। इसके अलावा हमने बृन्दा की हत्या भी कुछ इस ढंग से करनी होगी, जो किसी को कानों—कान भी इस बात की भनक न लगे कि बृन्दा की हत्या की गयी है। सब उसे साधारण मौत ही समझें।”
“मगर हत्या का वो तरीका क्या होगा, जो सबको वह साधारण मौत दिखाई दे?”
“अब हमने यही सोचना है। फिलहाल तुम भी हत्या की कोई फुलप्रूफ प्लानिंग सोचो और मैं भी सोचता हूं। शाम को हम दोनों फिर इस बारे में बात करेंगे। मंजूर?”
“मंजूर।” मैंने कहा।
उस दिन हम दोनों में-से किसी ने भी दोपहर का भोजन नहीं किया।
तिलक राजकोटिया सिर्फ एक गिलास पानी पीकर डायनिंग हॉल से चला गया।
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मेरे हाथ—पैरों में कंपकंपी छूट रही थी।
हत्या!
वह एक शब्द ही मेरे होश उड़ा देने के लिए पर्याप्त था।
क्या बृन्दा को मार डालना उचित था?
मैं तिलक राजकोटिया के शयनकक्ष में जा घुसी और वहां एक के बाद एक व्हिस्की के कई पैग बनाकर पी गयी। लेकिन चार पैग पीने के बावजूद मुझे जरा—सा भी नशा नहीं हुआ।
मेरा दिमाग भिन्नोट होने लगा।
मैं जासूसी उपन्यास पढ़ने की जबरदस्त शौकीन रही थी। इसलिए मेरे दिमाग में ऐसी एक फुलप्रूफ प्लानिंग थीं, जिसके बलबूते पर बृन्दा की हत्या की जा सकती थी और किसी को पता भी नहीं लगना था कि उसे मार डाला गया है।
शाम के समय हम दोनों फिर एक जगह इकट्ठे हुए।
स्थान वहीं था- डायनिंग हॉल।
“क्या हत्या की कोई योजना सूझी?” मैंने डायनिंग हॉल में दाखिल होते ही तिलक राजकोटिया से सबसे पहला प्रश्न वही किया।
“अभी तो कोई योजना नहीं सूझी है।” तिलक राजकोटिया बोला—”अलबत्ता दोपहर से ही मैं इसी एक दिशा में अपने दिमागी घोड़े दौड़ा रहा हूं। क्या तुम्हें कोई योजना सूझी?”
“हां—मेरे दिमाग में एक योजना है।” मैंने निर्विकार ढंग से कहा—”और मैं समझती हूं, वह इस काम के लिए सबसे बेहतर योजना है।”
“सिर्फ सबसे बेहतर।”
“नहीं- सबसे फुलप्रूफ भी। मेरा मानना है, योजना आपको भी पसंद आएगी तिलक साहब!”
“क्या योजना है?”
“यह तो आप भी जानते हैं- बृन्दा न सिर्फ बीमार है, बल्कि बहुत बीमार है।” मैंने अपनी ‘योजना’ के पत्ते खोलने शुरू किये—”अगर ऐसी हालत में उसकी मौत हो जाती है, तो कोई भी नहीं चौंकेगा। यहां तक कि डॉक्टर अय्यर भी नहीं। शर्त सिर्फ एक है।”
“क्या?”
“उसकी मौत पूरी तरह स्वाभाविक दिखाई पड़नी चाहिए—उसके शरीर पर किसी जख्म या गोली का निशान न हो।”
“बिल्कुल ठीक कहा।” तिलक राजकोटिया की आंखें चमक उठीं—”अगर बृन्दा की हत्या इस तरह होती है, तो किसी को भी उसकी मौत पर शक नहीं होगा। मगर क्या तुम्हारी योजना ऐसी ही है- जो उसकी मौत इसी तरह हो?”
“एकदम ऐसी ही योजना है। मैं आपको योजना बताती हूं।”
फिर मैंने हत्या की योजना तिलक राजकोटिया को सुनानी शुरू की—मैं काफी धीमी आवाज में बोल रही थी।
जैसे—जैसे मैंने योजना सुनायी, ठीक उसी अनुपात में तिलक राजकोटिया के नेत्र आश्चर्य से फैलते चले गए।
योजना वाकई शानदार थी।
तिलक राजकोटिया ने फौरन ही वह योजना पास कर दी।
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अगले दिन से ही योजना पर काम शुरू हो गया।
तिलक राजकोटिया ‘डायनिल’ टेबलेट की एक पूरी स्ट्रिप खरीदकर ले आया था।
“यह लो—‘डायनिल’ टेबलेट तो मैं ले आया हूं।” तिलक राजकोटिया बोला—”अब इनका तुम क्या करोगी?”
“यह तो आप जानते ही हो तिलक साहब!” मैं फुसफुसाकर बोली—”कि यह ‘डायनिल’ टेबलेट उन व्यक्तियों को खाने के लिए दी जाती है, जो शुगर के पेशेण्ट होते हैं। जिनके शरीर में शुगर की मात्रा बढ़ जाती है।”
“बिल्कुल ठीक।” तिलक राजकोटिया बोला—”यह बात मैं काफी अच्छी तरह जानता हूँ।”
“दरअसल यह ‘डायनिल’टेबलेट शुगर को घटाने का काम करती है।” मैं उपन्यास में पढ़ी ‘योजना’ विस्तारपूर्वक बताती चली गयी—”इस ‘डायनिल’ से शुगर कण्ट्रोल होती है। बात ये है- इंसान के शरीर को एक निश्चित मात्रा में शुगर की जरूरत होती है। अगर शुगर बढ़ जाती है, तब भी वो खतरनाक है और अगर शुगर इंसान के शरीर में कम हो जाए- तो वह और भी ज्यादा हानिकारक है। बढ़ने से भी ज्यादा खतरनाक इंसान के शरीर में शुगर का कम हो जाना है, क्योंकि शुगर कम होने की स्थिति में इंसान तुरंत मर जाता है। अब एक दूसरी परिस्थिति पर भी गौर करो।”
“किस परिस्थिति पर?”
तिलक राजकोटिया की आवाज सस्पैंसफुल होती जा रही थी।
“बृन्दा शुगर की पेशेण्ट है या नहीं?”
“बिल्कुल भी नहीं है।” तिलक राजकोटिया ने जवाब देने में एक सैकेण्ड की भी देर नहीं लगायी।
“करैक्ट!” मैं प्रफुल्लित मुद्रा में बोली—”बृन्दा शुगर की पेशेण्ट नहीं है। यानि एक ठीक—ठाक इंसान के शरीर को जितनी शुगर की आवश्यकता होती है, ठीक उतनी ही शुगर बृन्दा के शरीर में है। न कम। न ज्यादा। अब जरा सोचिये तिलक साहब- अगर हम बृन्दा को ‘डायनिल’ टेबलेट खिलाना शुरू कर दें, तो क्या होगा?”
तिलक राजकोटिया चुप।
“मैंने आपसे एक सिम्पल—सा सवाल किया है।” मैं एक—एक शब्द चबाते हुए बोली—”अगर हम बृन्दा को ‘डायनिल’ टेबलेट खिलाना शुरू कर दें, तो क्या होगा?”
“उसके जिस्म की शुगर कम होने लगेगी।” तिलक राजकोटिया बोला।
“बिल्कुल ठीक- और उसकी शुगर कम होने से क्या होगा?”
एकाएक तिलक राजकोटिया के चेहरे पर जबरदस्त आतंक के भाव उभर आये।
उसका शरीर जोर से कांपा।
“त... तो वह मर जाएगी।” तिलक राजकोटिया हकलाये स्वर में बोला- “क्योंकि इंसान के शरीर में शुगर का ज्यादा होना इतनी बुरी बात नहीं है, जितना शुगर का एकदम से कम हो जाना- शुगर अगर एकदम से कम हो जाये, तो इंसान का फ़ौरन हार्टफ़ेल हो जायेगा।“
“और यही हम चाहते हैं।” मैंने चहककर कहा—”बृन्दा की मौत! बृन्दा की एक स्वाभावित मौत! जो कोई भी उसकी हत्या पर शक न कर सके। सबसे बड़ी बात ये है- हमारे इस तरह हत्या करने से बृन्दा के शरीर पर न कोई घाव बनेगा, न कोई गोली लगेगी। सब यही समझेंगे कि बृन्दा अपनी बीमारी के कारण मरी है, उसका सडनली हार्टफेल हो गया है।”
“रिअली एक्सीलेण्ट!” तिलक राजकोटिया मुक्त कण्ठ से मेरी प्रशंसा किये बिना न रह सका—”मारवलस! तुम्हारी योजना की जितनी भी प्रशंसा की जाए- वह कम होगी शिनाया!”
मेरे होंठों पर बहुत हल्की—सी मुस्कान आकर चली गयी।
“टेबलेट खिलाने का यह सिलसिला अब कब से शुरू करोगी?” तिलक राजकोटिया ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
“आज रात से ही। आज रात मैं बृन्दा को उसकी दवाई के साथ मिलाकर पहली ‘डायनिल’ टेबलेट दूंगी, फिर देखते हैं- उस टेबलेट का बृन्दा के ऊपर क्या असर होता है?”
“यानि आज रात से हमारा ‘हत्या का खेल’शुरू हो जाएगा।”
“बिल्कुल।”
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