Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा
11-28-2020, 02:40 PM,
RE: Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा

“आह्ह, आह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, इस्स्स्स, इस्स्स्स, आह्ह्ह्ह, आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह।” ये सिसकियां और कामुकता से भरपूर आहें उबली जा रही थीं मेरे लबों से।

“आह्ह्ह्ह आह्ह्ह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, वाह वाह, अब आ रहा है, आ रहा है न मजा।” मुझे कुत्ते की तरह दबोचे, चोदने में मशगूल दास बाबू आनंदित हो कर बोले।

“हां, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, हां रज्ज्ज्जा, ओह मेरे रसिया, आह्ह्ह्ह आह्ह्ह्ह, आ रहा है, ओह्ह्ह्ह्ह्ह बड़ा मजा आ रहा है।” मैं अपनी असंयमित सांसों को संयमित करती बोली। दास बाबू को और भला क्या चाहिए था। मेरी चूचियों को पीछे से बड़ी ही बेदर्दी से अपने पंजों से दबोच कर गचागच चोदने लगे।

“नाईस, दैट्स लाईक अ गुड गर्ल (बढ़िया, यह एक अच्छी लड़की जैसी बात हुई), अब मजा दे और मजा ले, ले ले ले, आह, आह।” वे खुशी से बोले।

“अब नहीं आह, अब अच्छी लड़की नहीं उफ्फो्ओ्ओ्ह्ह, बुरी लड़की बोल बेटीचोद आह्ह्ह्ह, बुरी औरत बोल मादरचोद ओह मा्ं्मां्मां्आं्आं्आं, चोद ही डाला तो बुरचोदी बोल ओह्ह्ह्ह्ह्ह, कुत्ते की तरह चोदते समय कुत्ती बोल साले कुत्ते आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह।” अब मैं पूरे रंग में आ चुकी थी। दास बाबू नें शायद इसी की कल्पना की थी, जो साकार हो गया था।

“साली रंडी्ई्ई्ई्ई्ई, अब आई असली रंग में लंडखोर कुतिया, यही तो चाहता था हरामजादी। अब ले, ये ले, ये ले, हुं हुं हुं हुं हुं।” अब धमाल मच गया था।

“हां साले चोदू, चोद लौड़ू चोद, चोद चूत के चटोरे चोद, चोद झांट के झोले चोद।” मैं न जाने क्या क्या बोले जा रही थी। थपाक थपाक की आवाज आ रही थी। यह आवाज थी उसके झोले जैसे लटके बड़े बड़े अंडकोश के मेरी चूत के ऊपर पड़ने वाली थपेड़ों की। करीब आधे घंटे तक वह मुझे नोचता रहा, खसोटता रहा, झिंझोड़ता रहा, निचोड़ता रहा और मैं स्वर्गीय सुख में डूबी, नुचती रही, छिलती रही, झिंझुड़ती रही, निचुड़ती रही। उस भीषण चुदाई का अंत भी उतना ही आनंददायक था। उन्होंने मेरी चूचियों को पूरी शक्ति से भींच कर अपना मदन रस उंडेलना आरंभ किया। गरमागरम लावा का पान कर मेरी कोख निहाल हो उठी। मेरी योनि उनके विशाल लिंग को चूस रही थी। एक एक कतरा चूस कर ही मानी मेरी लंडखोर चूत।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह।” वह खलास होकर भैंस की तरह डकारने लगा।

“ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ मांआंआंआंआं।” मैं भी गयी्ई्ई्ई्ई्ई्ई। ओह्ह्ह्ह्ह्ह क्या ही आनंददायक स्खलन था वह मेरा। थक कर निढाल हो गयी। तभी दास बाबू का लिंग भीगे चूहे की तरह सिकुड़ कर ‘फच्च’ की आवाज के साथ मेरी योनि से बाहर आया। मैं अपने स्थान में खड़ी न रह पायी। वहीं पास के सोफे पर लुढ़क कर निढाल हो गयी। दास बाबू भी किसी भैंसे की तरह लुढ़क गये।

“बड़ा मजा आया।” दास बाबू बोले।

“मुझे भी।”

“ऐसी औरत जिंदगी में पहली बार मिली।”

“मुझे भी ऐसा मर्द पहली बार मिला।”

“वाह रे रानी, सच?”

“हां राजा सच्ची।”

“तो अब तू मेरी लंडरानी बन गयी ना?”

“हां मेरे राजा, मेरे चूत के लौड़े।”

“हाय, तेरी इसी अदा को तो देखना चाहता था।”

“तो देख लिया?”

“हां। पसंद आया।” कहकर मुझे बांहों में भर कर चूम लिया। मैं भला कहाँ पीछे रहती। लिपट गयी अमर बेल की तरह उधकी मोटी, भैंस जैसी नग्न देह से और चुम्बन दे बैठी, तृप्ति की, प्रसन्नता की, समर्पण की। निहाल हो उठे दास बाबू। फिर मैं अपने कपड़े पहन, मुदित मन, पुनः मिलते रहने के वादे के साथ विदा हुई।

आगे की कथा अगली कड़ी में।

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11-28-2020, 02:40 PM,
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पिछली कड़ी में आपलोगों नें पढ़ा कि किस तरह मैं हर्षवर्धन दास, जो एक आर्किटेक्ट सह सिविल अभियंता सह बिल्डर थे, हमारे नये भवन के निर्माण की जिम्मेदारी निभा रहे थे, की कामुकता का शिकार बनी। बाप रे बाप, बड़ा ही डरावना अनुभव था। उसके लिंग की भयावहता से में आतंकित हो गयी थी। किंतु प्रथमतः जो तकलीफ हुई सो हुई, एक बार समर्थ हुई और मेरी लचीली यौन गुहा अपने आकार को बढ़ा कर आराम से गपागप दास बाबू के लिंग का रसपान करने लगी तो मैं आनंद से सराबोर हो उठी। उसपर उनके कामक्रीड़ा की नवीनता तथा अदम्य स्तंभन क्षमता की मैं कायल हो गयी। कहां तो बड़े बेमन से गयी थी दास बाबू की बांहों में खुद को सौंपने और कहां बड़े प्रफुल्लित हो कर लौटी। दास बाबू का डरावना भीमकाय लिंग का दर्शन मात्र ही जहां आम स्त्रियों की घिग्घी बंधा देने के लिए काफी था, जैसा कि मेरे साथ भी हुआ, लेकिन अंततः जब एक बार अपनी योनि में समाहित करने में सफल हुई तो मजा ही आ गया। अपने अधीन कार्यरत कामुक कामगरों का मालिक तो था ही, बॉस की खूबी भी थी उनमें। न सिर्फ काम के सिलसिले में उनके बॉस थे बल्कि औरतखोरी में भी। तभी तो सभी कामगर उसे बॉस मानते थे। उनकी रग रग से वाकिफ थे सभी। सभी रेजाएं उनके सम्मुख बिछ जाने को सदैव तत्पर रहती थीं।

खैर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि भवन निर्माण में योगदान देने वाले ऊपर से नीचे, सभी लोगों नें मेरे जिस्म का स्वाद चखा और क्या ही रोमांचक ढंग था उनके चखने का, विभिन्न तरीके, विभिन्न मुद्राओं में तथा पूरी स्वतंत्रता के साथ। मजदूर, मिस्त्री, ठेकेदार और बिल्डर, कोई नहीं छूटा। खुद को उन रेजाओं से भी गयी गुजरी बना बैठी। जबतक भवन का कार्य चलता रहा, निरंतर तन की भूख मिटाती रही, मर्द बदल बदल कर, सभ्य असभ्य तरीके से, एकल अथवा सामूहिक रूप से। कहां तो मुझ जैसी संभ्रांत महिला को प्रतिस्पर्धा करनी थी अपने समकक्ष सभ्य, संभ्रांत महिलाओं से और कहां मेरी प्रतिस्पर्धा हो रही थी इन गरीब गुरबा गंदी रेजाओं से। यहां तक कि अपनी गंदी शारीरिक भूख के वशीभूत अनचाहे ही इन रेजाओं की ईर्ष्या की पात्र बन बैठी।

उस दिन दास बाबू नें मेरे तन का जो स्वाद चखा तो दीवाना ही बन बैठा, पागल दीवाना। एकाध हफ्ते तो अपनी पसंदीदा रेजाओं, रूपा और सुखमनी को भूल ही बैठा था। ऑफिस से लौट कर घुसते न घुसते दास बाबू ही कामलोलुप दृष्टि से स्वागत करते मिलते। । वैसे भी बाकी सभी कामगर भी दीवाने ही बन बैठे थे। मैं भी कमीनी, कामुकता की मारी, उदारतापूर्वक अपने तन को परोसने में कोई कोताही नहीं बरत रही थी। यह सब निर्बाध चलता रहा। घर में तीन और नमूने मौजूद थे ही। रामलाल तो रम ही गया था। इन तीनों को भी निपटा दिया करती थी। हमारे भवन के निर्माण का कार्य काफी प्रगति पर था। छत की ढलाई हो चुकी थी। फर्श पर संगमरमर और टाईल्स का कार्य चल रहा था। दरवाजे और खिड़कियों का कार्य भी साथ ही साथ चल रहा था। दीवारों पर वॉल पुट्टी का काम भी साथ ही साथ चल रहा था।

इस दौरान एक के बाद एक घटनाएं घटती गयीं। नये नये मर्दों के संपर्क में आती गयी। मैंने अपनी वासना की भूख मिटाने का कोई भी ऐसा उपलब्ध मौका नहीं छोड़ा। मेरे शरीर की गरमी के आगे मैंने अपने मन से अंकुश लगाना बहुत पहले छोड़ दिया था। जब इतने सारे मर्द अपने ही परिसर में सहज उपलब्ध हों तो फिर चिंता किस बात की थी। इतना ध्यान अवश्य रखती थी कि हालात बेकाबू हो कर मेरे नियंत्रण से बाहर न चले जाएं। गिर तो चुकी ही थी मैं, लेकिन मेरा गिरना होता था सोच समझ कर, ठोक बजा कर।
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11-28-2020, 02:41 PM,
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उस दिन शनिवार था। हमारा ऑफिस शनिवार को सिर्फ आधे दिन का ही होता था। उस दिन मैं ऑफिस से आकर खाना वाना खाकर भवन निर्माण के कार्य की प्रगति का निरीक्षण करने गयी। सभी लोग बड़ी तन्मयता के साथ अपने अपने कार्य में मशगूल थे। जिन लोगों नें मुझ पर सवारी गांठी थी वे तो ललचाई दृष्टि से मुझे घूर रहे थे, जिनपर मैंने अपनी मादक मुस्कान फेंक कर आगे बढ़ गयी। बड़े से हॉल के उत्तर की ओर एक कमरा था, जिसपर दरवाजे का कार्य चल रहा था। दरवाजे का पल्ला लगाने की तैयारी चल रही थी। मेरी दृष्टि उस बढ़ई पर गयी, जो दरवाजे के पल्ले को तराश कर अंतिम रूप देने में व्यस्त था। वह उकड़ू बैठ कर काम कर रहा था। वह एक करीब पचास पचपन की उम्र का दुबला पतला, कोयले की तरह काला व्यक्ति था। लंबी बेतरतीब दाढ़ी और लंबे अधपके खिचड़ी बाल थे उसके। पूरे कद का तो अंदाजा नहीं था, किंतु उसकी लंबी पतली टांगें बता रही थीं कि अच्छे खासे कद का व्यक्ति था। दुबला पतला होने के बावजूद उसके हाथ पैर काफी मजबूत दिखलाई पड़ रहे थे। लगातार शारीरिक श्रम करने वाले ऐसे व्यक्तियों के अंग प्रत्यंग स्वभाविक तौर पर सशक्त व कठोर हो जाते हैं। हाथ पैरों की नसें उभरी हुई थीं। वह फर्श पर बैठे लकड़ी की छिलाई में व्यस्त था। एक बनियान और हाफपैंट पहने हुए बड़ा अजीब लग रहा था। उसके बैठने का अंदाज बड़ा अटपटा था। मेरी नजरें उसके हाफपैंट से झांकते काले नाग पर पड़ी तो मैं सनसना उठी। अंडरवियर भी पहना था तो वही पुराने जमाने का धारीदार, गंदा सा, ढीला ढाला। अंडरवियर पहनना और न पहनना बराबर था। हे भगवान, कहां कहां से तूने ऐसे मर्दों को इकट्ठा किया था? इस भवन के निर्माण में लगे सारे मर्द एक से एक, सारे नमूने। सुशुप्तावस्था में भी इस बढ़ई का लिंग कम भयावह नहीं था। मैंने चोर नजरों से ईर्द गिर्द देखा कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा है। ऐसा लग रहा था मानो उसका लिंग उसके शरीर का अंग न हो, बल्कि एक स्वतंत्र काला नाग उसके हाफ पैंट के अंदर से मुझे झांक रहा हो। उस कमरे में और कोई नहीं था, सिवाय उसके। मैं बड़ी खामोशी से वहां आई थी, जिस कारण मेरे आने का आभास उसे नहीं हुआ। मैं दरवाजे से एक कदम अंदर थी, अपने स्थान पर मंत्रमुग्ध, बुत बनी उसके विशाल काले लिंग को चमत्कृत देखे जा रही थी। वह बढ़ई अपने ही धुन में था, मेरी उपस्थिति से बेखबर। तभी शायद उसे अपने गुप्तांग के पास खुजली होने लगी। काम करते करते अपना बायां हाथ हाफ पैंट के अंदर डालकर खुजलाने लगा। इस क्रम में उसका लिंग अपने पूरे जलाल के साथ मेरी आंखों के समक्ष प्रकट हो उठा। मेरी आंखें फटी की फटी रह गयीं। सिकुड़ कर लुंज पुंज अवस्था में भी उसका लिंग कम से कम छ: इंच तो अवश्य था। लिंग के सुपाड़े के ऊपर का चमड़ा पलटा हुआ था या कटा हुआ था स्पष्ट नहीं था, लेकिन गुलाबी सुपाड़ा बड़ा खूबसूरत दिख रहा था। जहां मेरी पैंटी भींगने लगी थी वहीं मेरे मुंह में भी पानी आ रहा था।

अनायास ही शायद उसे किसी की उपस्थित का अहसास हुआ और उसने सर उठा कर मुझे देखा। जहाँ मेरी दृष्टि जमी हुई थी, उसनें ताड़ लिया कि मैं क्या देख रही हूं। शर्मिंदा बिल्कुल नहीं हुआ, अपने लिंग को ढंकने का कोई प्रयास भी नहीं किया। उल्टे उसकी आंखें चमक उठीं। होंठों पर कुटिल मुस्कान नृत्य करने लगी।

खामोश दृष्टि से देख रहा था मानो पूछ रहा हो “अरे मैडमजी आप?”

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11-28-2020, 02:41 PM,
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“ह ह ह हां।” कुछ बोल नहीं पायी मैं। मेरी चोरी पकड़ी गयी थी। हड़बड़ा गयी मैं। फर्श पर टाईल्स लग ही चुका था, जिसपर लकड़ी का बुरादा पाऊडर के रूप में फैला हुआ था। हड़बड़ाहट में मैं एक कदम पीछे हटी कि उस सूखे टाईल्स पर ही लकड़ी के बुरादे रुपी पाऊडर पर मैं फिसल गयी। फिसली ऐसे कि सीधे उस बढ़ई पर ही गिरी। लकड़ी का पल्ला एक तरफ, बढ़ई दूसरी तरफ और लाख संभलते हुए भी उसके ऊपर मैं लद गयी। अकस्मात हुए इस दुर्घटना या सुखद घटना में बढ़ई नें मुझे रोकने की कोशिश की और इस कोशिश में या जानबूझ कर मेरे उन्नत स्तनों पर हाथ साफ कर लिया। जहां वह चौंका, वहीं मैं भी चौंक उठी। क्यों? क्योंकि मैंने ब्रा नहीं पहनी थी। सिर्फ एक ढीली सी कमीज पहनी थी। नरम, गुदाज स्तनों को बिना ब्रा के महसूस कर बांछें खिल गयीं थीं शायद उसकी। स्थिति बड़ी विचित्र थी। समझ ही नहीं पाई कि क्या बोलूं। किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ पल मैं उसी अवस्था में पड़ी रही। अबतक बढ़ई का मन भी बढ़ गया। एक भरपूर मदमस्त जवान जिस्म की मालकिन खुद उसकी गोद में पके आम की तरह टपक पड़ी थी। मैंने महसूस किया कि मेरी जंघाओं के मध्य कोई कठोर वस्तु दस्तक दे रही है। समझते देर नहीं लगी कि यह वही सोया हुआ नाग है जो अब जाग रहा है। उसके ऊपर से हटना चाह रही थी लेकिन शरीर मेरे मस्तिष्क के आदेश की अवहेलना कर रहा था। मेरी स्थिति उस बढ़ई से छिपी नहीं थी। अब उसनें अपनी भुजाओं से मुझे बांध लिया। मैं झिड़क देना चाह रही थी लेकिन मेरे होंठों पर मानो ताला लग गया था। अब उसका दायां हाथ मेरी पीठ से होता हुआ मेरी कमर तक पहुंच चुका था। मेरा सारा शरीर सनसना उठा। मुझे यह बढ़ई बहुत अच्छी तरह से जानता था कि मैं यहां की मालकिन हूं, लेकिन इसकी हिम्मत तो देखो, यह धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। इसका कारण भी स्पष्ट था, मेरी ओर से कोई प्रत्यक्ष विरोध भी तो नहीं था। यह बढ़ई दास बाबू के अधीन, उन्हीं के निर्देश में कार्य कर रहा था। आज तक हमारे बीच सीधा संवाद कभी नहीं हुआ था, न संबंधित कार्य के संबंध में और न ही किसी और कार्य के संबंध में। यह पहला मौका था जब मेरा इस बढ़ई से इस तरह एकांत में सामना हो रहा था और वह भी इतने अटपटे अंदाज में। अब तक हमारे बीच कोई संवाद नहीं हुआ था। अब जब महारे बीच आमना सामना हुआ और वह भी एकांत में, तब भी मैं संवाद विहीन थी। मेरे मुख से कोई अल्फाज नहीं निकल रहे थे। मेरी इस अल्पावधि के असमंजस की स्थिति में ही उस बढ़ई का मन काफी बढ़ गया था। उसकी हरकतों नें यह तो तय कर दिया था कि वह औरतखोर एक नंबर का था, स्त्रियों का रसिया, लेकिन उसकी हिम्मत तो देखो, मालकिन पर भी हाथ साफ करने के कुत्सित इरादे को छुपा नहीं पाया। जहां मेरा शरीर अवश था वहीं मेरे अंतरतम की विरोध क्षमता को भी मानो लकवा मार गया था। मन में नियंत्रण भी खोती जा रही थी। इधर बढ़ई अपनी हरकतों से मुझे धीरे धीरे अपने वश में करता जा रहा था। मैं मानो गूंगी हो गयी थी। मेरी इस स्थिति को शायद उसनें मेरी सहमति मान ली, हालांकि मैं अब भी अनिश्चितता की स्थिति में थी। अब उस बढ़ई के काले काले होंठ सिकुड़ कर मेरे रसभरे अधरों की ओर बढ़ रहे थे। साला खड़ूस दढ़ियल, मुझे चूमने वाला था। मन में वितृष्णा सी पैदा हो रही थी, किंतु अपनी इस असामान्य स्थिति में चाहकर भी अपने चेहरे पर इनकार का भाव नहीं ला पा रही थी। उसके बदन से उठते पसीने के दुर्गंध का भभका मेरे नथुनों से टकरा रहा था किंतु मेरे चेहरे पर कोई शिकन तक न थी। उस बढ़ई के काले काले होंठ अब मेरे रसभरे अधरों से चिपक चुके थे।
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11-28-2020, 02:41 PM,
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उफ्फ्फ, यह मुझे क्या हो रहा था। मैं इतनी कमजोर तो कभी नहीं थी। मेरे साथ क्या कुछ नहीं हुआ था, लेकिन सब कुछ मेरी मर्जी से हुआ था, एकाध घटनाओं को छोड़कर, लेकिन इस वक्त की तो बात ही कुछ और थी। मन में कोई समर्पण का भाव नहीं था, लेकिन मानो सम्मोहन की स्थिति थी। चेहरा निर्विकार, मानो मुझ पर जादू की छड़ी फिरा दी गयी हो। खैनी का आदी वह गंदा दढ़ियल अपने बदबूदार होंठों से मेरे होंठों का रसपान करने में मग्न हो गया। घिन आ रही थी मुझे, मगर न मेरे चेहरे पर कोई वितृष्णा थी न ही मेरे शरीर से कोई विरोध। आश्चर्य चकित थी मैं, खुद की इस अवस्था पर। बढ़ई का एक हाथ अब बड़ी बेशर्मी से मेरे वक्षस्थल पर खेल रहा था और दूसरा हाथ मेरे नितंबों के ऊपर पहुंच चुका था। चिहुंक उठी मैं, क्यों? क्योंकि मैंने सलवार के अंदर पैंटी पहनने की आवश्यकता नहीं समझी थी। कारण? कारण स्पष्ट था, पता नहीं कब किस कामगर पर मेरा दिल आ जाए या कोई कामगर उपयुक्त अवसर देख कर खुद ही मुझ पर चढ़ दौड़े, जिसके लिए मैं सदैव तैयार रहती थी। सलवार के ऊपर से मेरे चूतड़ों पर हाथ रखते ही उस बढ़ई को इस बात का आभास हो गया कि अंदर से मैं नग्न हूं। मन ही मन मुसक उठा होगा वह। अब उसका उत्साह बढ़ गया था। उसकी हिम्मत दुगुनी हो उठी। वह मेरे चूतड़ों को सहलाते सहलाते दबाने लग गया। मैं अंदर ही अंदर सुलग उठी।

“उं्उउंं््उउंं््उउंं््गग्ग्ग्गूं्गूं्गूं्गूं।” एक लंबी घुटी घुटी आह निकल पड़ी मेरी। शरीर से कोई विरोध नहीं, बल्कि अकड़ने लगा मेरा शरीर। मैं भीतर ही भीतर शर्मिंदा भी हो रही थी कि बिना ब्रा और पैंटी के मुझे अपनी बांहों में पाकर पता नहीं मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा। और क्या सोच रहा होगा? निश्चय ही समझ गया होगा कि मैं निकली हूं शिकार करने, मर्द का शिकार करने। लेकिन उसे क्या पता था कि इस वक्त मेरी क्या हालत हो रही है। यहां तो खुद ही शिकार हो रही थी, अपना सारा नियंत्रण खो कर असहाय पंछी की भांति। अनिश्चय की स्थिति अधिक देर नहीं रही मेरे अंदर, लेकिन इतनी ही देर में उस बढ़ई नें मेरे अंग प्रत्यंग, खासकर नाजुक, कामोत्तेजक अंगों को छेड़ दिया था। वासना की चिंगारी सुलगा दी थी उसने, जिसे शोले बनने में कितनी देर लगनी थी भला। सब कुछ खामोशी से हो रहा था। मैं नि:शब्द थी। बढ़ई को भी बातों में समय जाया करना नागवार लग रहा था। उसके होंठ अपने चुंबनों से बोल रहे थे, उसके हाथ अपनी कामुक क्रियाओं से बोल रहे थे और मैं? मेरी तो जुबान मानो तालू से चिपक गयी थी। उसके हाथों की कठपुतली बनी उसकी कामुकता भरी हरकतों से हलकान होती जा रही थी। पिघलती जा रही थी उस बूढ़े, गंदे, खुरदुरे, अटपटे, दढ़ियल बढ़ई की बांहों में। उसका दाहिना खुरदुरा हाथ मेरी कमीज के भीतर प्रवेश कर चुका था। ओह्ह्ह्ह्ह्ह मांआंआंआंआं। उसकी खुरदुरी हथेलियों का स्पर्श ज्यों ही मेरे स्तनों पर हुआ, मैं सन्न रह गयी। दिमाग नें मानो काम करना बंद ही कर दिया, या यों कहें कि मेरा तन मस्तिष्क विहीन हो गया था, मात्र एक शरीर, वासना की अग्नि में धधकती एक बेबस पुतली। इधर बढ़ई को तो मानो कुछ भी कर गुजरने का पूर्ण अधिकार मिल गया हो। पूरे अधिकार के साथ मेरे तन से खेलने लगा। मेरे स्तनों को सहला रहा था, हौले हौले दबा रहा था और उत्तेजना के मारे मेरे बड़े बड़े चुचुक तन गये थे, जिन्हें वह अपनी चुटकियों से मसल भी रहा था। इस्स्स्स इस्स्स्स, ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ अम्माआ्आ्आ्आ, उस बढ़ई की हरकतों से मैं पगलाई जा रही थी।

मेरे अंदर अब भी अंतरद्वंद्व का झंझावत चल रहा था। समर्पण करूँ या मना। वैसे भी मना करने की हद तो पार हो चुकी थी, फिर भी उस गंदे आदमी के साथ यह सब? कामुकता का शैतान उकसा रहा था, “अब ये कैसी दुविधा?”
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11-28-2020, 02:41 PM,
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“न न, यह गंदा है।” मन के किसी कोने से आवाज आई।

“यह पहला गंदा आदमी है क्या?”

“गंदा शरीर।”

“पहला गंदा शरीर है क्या तुम्हारे लिए?”

“बदबूदार।”

“बदबू तो तेरी कामुकता बढ़ाती है ना?”

“ऐसी जगह।”

“और कैसी जगह चाहिए तुझे? ऐसी जगहों से परहेज तो नहीं तुझे?”

“फिर भी।”

“फिर भी क्या?”

“ऐसे खुले में?”

“एकांत तो है।”

“दरवाजा कहां है?”

“कोई नहीं आने वाला यहां।” शैतान आश्वस्त कर रहा था। मेरा हाथ यंत्रवत बढ़ई की जंघाओं के मध्य चला गया। चौंक उठी मैं। यह क्या है? लिंग? मानव का लिंग? नहीं, यह किसी मानव का लिंग तो कतई नहीं था। इतना्आ्आ्आ्आ विशाल? सख्त, गर्म और लंबाई, बा्आ्आ्आ्आप रे्ए्ए्ए्ए्ए बा्आ्आ्आ्आप, कम से कम ग्यारह इंच तो अवश्य होगा। और मोटाई? उफ्फ्फ भगवान, पकड़ कर देखा मैंने, मेरी मुट्ठी काफी नहीं थी। भयभीत हो उठी मैं।

“नहींईंईंईंईंईंईंईंई।” मन ही मन बोली। विचलित हो उठी मैं।

“क्या नहीं?” शैतान मेरे मन के अंदर बोला।

“इतना्आ्आ्आ्आ बड़ा््आआ?”

“इससे पहले देखी नहीं? भूल गयी सरदार का लंड? भूल गयी हब्शी बॉस का लंड? क्या हुआ, चुदी ना?”

“हां हां, चुदी थी, मगर उनके भी लंड इस खड़ूस लिक्कड़ दढ़ियल से उन्नीस ही रहे होंगे। इतना्आ्आ्आ्आ बड़ा्आ्आ्आ्आ् लिंग! बाप रे बाप। यह तो बिल्कुल अविश्वसनीय तौर पर बड़ा है। एक मनुष्य का तो कत्तई नहीं। गधे से भी बड़ा।”

“बड़ा है तो क्या? तुझे तो लंड से मतलब है ना?”

“लंड से मतलब अवश्य है लेकिन इस तरह का दानवी लंड? न बाबा न। मुझसे न होगा।”

“क्यों न होगा?”

“मेरी तो क्या, किसी भी नारी की योनि में ग्रहण करना असंभव है।”

“कुछ असंभव नहीं है, सब कुछ प्रथम बार असंभव लगता है, फिर सब कुछ आसान हो जाता है, एक बार अभ्यस्त हो जाओ फिर आनंद न मिले तो कहना”

“प्रथम बार में ही प्राण निकल गयी तो?”

“कैसे निकलेगा प्राण? याद करो प्रथम बार उस हब्शी का लंड, याद करो उस सरदार का लंड, याद करो रामलाल का लंड।”

“यह तो उन सबसे बड़ा है।”

“हां बड़ा तो है, लेकिन तू चुद लेगी?”

“कैसे?”

“तेरी करामाती चूत के लिए सब संभव है”

“लेकिन यह तो असामान्य व्यक्ति है।”

“कैसे पता?”

“इतनी देर में कुछ बोल नहीं रहा।”

“पागल तो रामलाल भी है।” मेरी हर शंकाओं का निराकरण करता रहा मन का शैतान। उसके हर तर्क के आगे मैं निरुत्तर होती गयी।

“अच्छा बाबा अच्छा।”

“क्या अच्छा?” अपनी जीत पर शैतान मुसक उठा।

“मान गयी।”

“क्या मान गयी?”

“चुदने को, और क्या?”

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11-28-2020, 02:41 PM,
RE: Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा

“गुड, दैट्स लाईक अ गुड लेडी। चुद जा, चुद जा।” मेरी सारी आशंकाएं और दुविधा तिरोहित हो चुका था। अब मैं तैयार थी। बढ़ई मेरे नाजुक अंगोंं पर हाथ चला रहा था। जो कुुुछ हो रहा था उसपर मेरा कोई वश नहीं था, मेरे मनोनुकूल हो रहा था, शारीरिक मांग के अनुरूप हो रहा था, समर्पण, पूर्ण समर्पण और यही उस समय की मांग थी और मैं डूबती जा रही थी उस आनंदमय क्रीड़ा के सुखद समुंदर में। वह एक बेहद शातिर शिकारी की भांति मेरे मन के असमंजस का, मन के किसी भी कोने में छिपे विरोध का नामोनिशान मिटाता जा रहा था। मेरे तन पर से मन के नियंत्रण को चरणबद्ध तरीके से कमजोर करता जा रहा था, साथ ही साथ वासना की सुलगती भट्ठी को हवा देता जा रहा था। उसका बांया हाथ मेरे सलवार के नाड़े को न जाने कब खोल चुका था। सलवार मेरी कमर से नीचे सरकता जा रहा था। सरकता सरकता मेरे घुटनों तक पहुंच चुका था। अब मैं कमर से नीचे पूर्ण रुपेण नंगी थी। उसके बांये हाथ की जादुई खुरदुरी हथेलियां पहले मेरे चिकने मांसल नितंबों पर नृत्य करता रहा, फिर, फिर, ओ्ओ्ओ्ओह्ह्ह्ह मेरे ईश्वर, मेरी चिकनी, पनिया उठी योनि की तरफ आने लगा। आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, ज्योंहि मेरी योनि पर उसकी उंगलियों का स्पर्श हुआ मैं चिहुंक कर अमरबेल की तरक्ष बेसाख्ता चिपट गयी उसके पसीने से लतपत, दुर्गंधयुक्त शरीर से। पसीने और उस दुर्गन्ध मेें एक नशा था। यही तो चाहता था वह कमीना। मैं अब पूरी तरह उसके हवाले थी। कर ले जो करना है। एक दस्तक मेरी चूत पर महसूस कर कंपकंपा उठी मैंं। यह दस्तक थी उसके भीमकाय लिंंग की जो तलाश रहा था प्रवेश द्वार। मेरी लंंडखोर योनि लसलसी हो चुकी थी। अबतक वह अपने पैंट से मुक्त नहीं हुआ था। मेरे हाथ मेरे नियंत्रण में नहीं थे। खुद ब खुद उसके पैंट को खोलने में जुट गये थे, यह सब अपने आप हो रहा था, नि:शब्द, खामोशी से। न वह बात करने में कोई रुचि दिखा रहा था, न मेरे मुंह से कोई अल्फाज निकल रहे थे। मैं तो मानो गूंगी ही हो गयी थी। मेरा अंग प्रत्यंग तरंगित हो रहे थे, बेकाबू हो रहे थे। बढ़ई का पैंट खिसक कर नीचे आ चुका था। अब कमर से नीचे हम दोनों नंगे थे। मेरी योनि और उसके बेलन जैसे लिंग के मध्य रही सही दीवार सरक चुकी थी। अब कोई व्यवधान नहींं था।

बेताबी दोनों तरफ थी, आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई थी। जहां बढ़ई बिल्कुल सोचे समझे तरीके से मुझ पर हावी हो रहा था वहीं मैं अवश उसके वश में आती जा रही थी और अब तो पूरी तरह से उसके वश में आ ही चुकी थी। एक तरफ था बढ़ई का अतिमानवीय बेताब लिंग, जिसे ग्रहण कर पाने में धधकती वासना की भट्ठी में झुलसती मेरी योनि कितनी समर्थ थी, इस बात से बेपरवाह लंडखोर मेरी फकफकाती यौन गुहा को शायद अपनी औकात का पता नहीं था, जिस बात का भय अब भी मेरे मन के किसी कोने में था, वह पल आ चुका था। मैं अब भी उसके ऊपर लदी थी। बढ़ई चाहता तो इसी स्थिति में हमला कर सकता था, किंतु उसने ऐसा नहीं किया। मुझे लिए दिए पलट गया, उस नीचे पड़े दरवाजे के पल्ले पर। अब मैं नीचे थी और वह मेरे ऊपर। मेरे पांव खुद ब खुद फैल गये थे, मेरी चमचमाती जंघाएँ खुल गयीं थीं, मेरी योनि ठीक उसके दानवी लिंग के निशाने पर, स्वागत हेतु प्रस्तुत थी। अब इससे उपयुक्त आसन की कोई आवश्यकता नहीं थी। अविश्वसनीय, वृहद, अमानवीय, पाशविक, हौलनाक लिंग ठीक मेरी योनि के ऊपर, सामने था, योनिद्वार स्वागत के लिए प्रस्तुत था, रसीली योनि, लसीले रस से नहाई हुई। मेरी कमर को उस खड़ूस बूढ़े के सख्त हाथ पूरी सख्ती से थामे हुए थे। उसकी कमर नीचे हो रही थी, ऐसे मानो मेरी चुंबकीय योनि खींच रही हो अपनी ओर और मैं निश्चल पड़ी थी आने वाले आक्रमण का सामना करने को तत्पर, दांतों को भींचे। उसके भीमकाय लिंग के सुपाड़े का संपर्क मेरी योनिद्वार पर हुआ और मैं सनसना उठी। शरीर का पोर पोर झंकृत हो उठा। भयमिश्रित रोमांच से कंपकंपा उठी मैं।
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11-28-2020, 02:41 PM,
RE: Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा
आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, ओ्ओ्ओ्ओह्ह्ह्ह, उसके लिंग का अग्रभाग मेरी योनिद्वार में प्रवेश कर रहा था, योनि मार्ग को फैलाता हुआ, फैलाता हुआ नहीं, फाड़ता हुआ, उफ्फ्फ आ्आआ््आआ््आआह, पीड़ा, असीमित पीड़ा में डूबी आर्तनाद मेरे हलक से उबलने वाली थी, किंतु कंठ नें साथ देने से इंकार कर दिया। बेआवाज, मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। आंखें फटी की फटी रह गयीं। बढ़ई का गधे सरीखा अमानवीय लिंग घुसता जा रहा था, घुसता जा रहा था, घुसता जा रहा था, मेरी योनि को चीरता हुआ। मेरी आंखों से अश्रु की धारा बह निकली। उस मर्मांतक पीड़ा से हलकान, छटपटाना चाहती थी, मगर शरीर सम्मोहित, नि:शक्त हो चुका था। पीड़ा का अनुभव कर रही थी किंतु विरोध करने में अक्षम, नि:शक्त था मेरा शरीर। ऐसी स्थिति में मैं पहले कभी नहीं पड़ी थी। ओह्ह्ह्ह्ह्ह लिंग के प्रवेश होने की वह अंतहीन क्रिया। जब थमा वह, पूरे जड़ तक घुस चुका था उसका वह अविश्वसनीय लंबा और मोटा बेलन। मैं पूरी तरह उसके कब्जे में थी, उसके लिंग से बिंधी, हिलने डुलने से लाचार। चीखना चाहती थी, पीड़ा से त्रस्त, कातर स्वर में आर्त विनय करना चाहती थी, किंतु हलक सूख चुके थे, जिह्वा तालू से चिपक चुकी थी, नि:शब्द, खामोशी से पीड़ा को पीती जाने को वाध्य थी। उसने अब मेरे उरोजों का मर्दन आरंभ किया। अपनी रुखड़ी हथेलियों में भर भर कर निचोड़ने लगा मेरे स्तनों को। अपने बदबूदार मुंह को पास लाकर अपने गंदे होंठों से मेरे रसीले होंठों का रसपान करने लगा। अपनी मोटी जिह्वा को मेरे मुंह में चुभलाने लगा। मेरी योनि के अंदर खलबली मची थी। गर्भाशय के अंदर तक पहुंच चुका था उसका लिंग। कुछ देर तक स्थिर रहा वह उसी स्थिति में और मेरी चूचियों का मर्दन करते हुए मेरे होंठों को चूसता रहा। लेकिन वाह रे मेरे तन में जाग उठी अदम्य शैतानी भूख, वासना की अग्नि में झुलसता अंग अंग, चुदास में तड़पता तन, जरा देखो तो कैसे शनैः शनैः मैं अपनी चूत का दर्द भूलने लगी। मुझमें वासना का शैतान हावी हो चुका था। उसका विकराल लंड मेरी क्षत विक्षत हो चुकी चूत में कसा हुआ था, मेरी योनि की सख्त गिरफ्त में था।

बढ़ई की विजय हो चुकी थी। किला फतह कर चुका था वह। मेरे अंतरतम का शैतान विजयी भाव से मुस्कुरा रहा था। चमत्कारी ढंग से मेरी पीड़ा गायब हो रही थी। मैं वासना के सागर में हिलोरें ले रही थी। इससे पहले कि वह बढ़ई अपनी कमर में और हरकत करता, मेरी अनियंत्रित कमर खुद ब खुद हरकत में आ गयी। मेरे पैर खुद ही उसकी कमर से लिपट गये। अब उस गलीज चुदाई के कीड़े को और क्या चाहिए था। कचकचा कर पिल पड़ा मुझ पर। धपा धप धक्कम धक्के में लीन मेरे तन की सारी गरमी उतार डालने में आमादा, मूक जंगली पशु की तरह चोदने लगा। मेरे होठों को चूसने के बदले अपने पीले पीले दांतों से काटने लगा। मैं विचलित हो उठी। जो बढ़ई इतनी देर सबकुछ बड़ी शांति पूर्ण ढंग से कर रहा था, यकायक वहशी दरिंदा बन गया। उसके दुबले पतले शरीर में मानो चीते सी फुर्ती आ गयी। उसके हाथों की लंबी लंबी उंगलियों में जो लंबे लंबे नाखून थे वे मेरे पीठ पर, कमर पर, सीने के उभारों पर लाल लाल निशान छोड़ते जा रहे थे, जिसका आभास उस कामुकता के तूफान में मुझे जरा भी नहींं हुआ। इन निशानों को तो बाद में अपने दर्पण में मैंने देखा। यही हाल उसनें अपने पीले पैने दांतों से मेरे होंठों का, मेरे गालों का, मेरी गर्दन का और मेरी चूचियों का कर दिया। वासना के नशे में डूब कर पूरे जंगलीपन पर उतर आया था। चोदते चोदते मेरी गुदा में भी उंगली करता जा रहा था। उफ्फ्फ उफ्फ्फ उस जानवर नें मुझे बड़ी बुरी तरह रौंदना आरंभ कर दिया था। दुबला पतला अवश्य था, किंतु शारीरिक श्रम नें मानो उसके पूरे शरीर को लोहे सदृश कठोर बना दिया था। जिस ताकत से मुझे चोद रहा था, जिस रफ्तार से मुझे चोद रहा था, मुझे आतंकित हो जाना चाहिए था, किंतु उसके विपरीत मुझे इन सब में एक अनजाना सा सुख प्राप्त हो रहा था। आज से पहले मैं ऐसी न चुदी थी। पांच मिनट में ही मैं झड़ गयी,
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11-28-2020, 02:41 PM,
RE: Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा
आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह नहीं, एक सुखद सिसकारी, एक सुखद नि:श्वास निकला मेरे मुंह से। चिपट गयी उसके शरीर से और स्खलन की गहरे सुखद समुंदर में डूब गयी। उधर उस बढ़ई की गाड़ी बड़ी तेज गति से फर्राटा भरती रही, गचागच, फचाफच, धपाधप। हम एक दूसरे से गुंथे उलट पलट होते रहे, इधर उधर लुढ़कते रहे, दरवाजे की पल्ले से फर्श पर, लकड़ी के बुरादों से सनते हुए लगे रहे। मेरे स्खलन से बेखबर, वह बढ़ई कूटता रहा मुझे, चोदता रहा मुझे, गुलाटियां खा खा कर, गुलाटियां खिला खिला कर, रौंदता रहा मुझे। करीब तीस चालीस मिनट की अथक चुदाई के दौरान मैं तीन बार स्खलित हुई। अंततः पूरी तरह मुझे निचोड़ कर जब उसका स्खलन आरंभ हुआ तो ऐसे दबोचा मुझे मानो मेरी सांसें थम गयी हों। पूरे दो मिनट तक फर्र फर्र अपने वीर्य की पिचकारी छोड़ता रहा सीधे मे गर्भ में।

आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, उफ्फ्फ, गजब, अद्भुत, तृप्ति के सुख की अथाह गहराई में डूब कर ग्रहण करती रही उसके वीर्य का कतरा कतरा। चूत की गहराइयों में पीती गयी, जज्ब करती गयी एक एक बूंद। पसीने से लतपय, चोद चाद कर, थक कर कुत्ते की तरह हांफता हुआ मुझ पर ढल गया। उसका लिंग जबतक लुंज पुंज होकर फच्चाक से मेरी चूत से बाहर नहीं आया, तबतक लदा रहा वह मुझ पर। उस गंदे फर्श पर हांफती कांपती, पूर्ण तृप्ति के सुखद अहसास से परिपूर्ण थी, निहाल थी, इस बात से बेपरवाह कि मेरे तन के अलग अलग हिस्सों में कहीं दातों से काटे जाने के निशान बन गये थे तो कहीं कहीं नाखूनों के खरोंचों के निशान। आंटे की भांति गुंथे गये मेरे स्तनों में दर्द की कसक समा चुकी थी। अपनी वहशियाना नोच खसोट से मेरे शरीर के पोर पोर में मीठा मीठा दर्द भर दिया था उस कामुक जंगली जानवर नें। मेरी गुदा में उंगली घुसेड़ घुसेड़ कर चोदने के क्रम में मलद्वार को ढीला कर डाला था और मेरी योनि का? उफ्फ्फ भगवान, योनि तो फूल कर कचौरी बन गयी थी। रगड़़ घसड़ कर बड़ी बेरहमी से चोदा जो था। सब कुछ हुआ, दरिंदगी हुई, नोची गयी, भंभोड़ी गयी, निचोड़ी गयी, लेकिन उस रोमांचक चुदाई से जो आनंद मुझे प्राप्त हुआ, वह अकथनीय था। लकड़ी के बुरादों पर लोटपोट होकर अपने तन की दुर्गति कराते हुए भी मुझे मजा आ रहा था। मैं बेसाख्ता उस बढ़ई के शरीर से पुनः चिपक कर उसके पिचके दढ़ियल गालों पर चुंबनों की बौछार कर बैठी। बढ़ई बेचारा, गंदा गरीब मजदूर, इतनी खूबसूरत औरत जिस पर निछावर हुई जा रही थी, अपने स्वप्न में शायद इस बात की उम्मीद न थी। अबतक हमारे मध्य जो कुछ हुआ, बिना किसी संवाद के। हमारे बीच कोई वार्तालाप नहीं हुआ था। ऐसा लग रहा था कि हम एक दूसरे के मन को पढ़ रहे थे। एक दूसरे के मनोभावों को स्पष्ट समझ रहे थे और उसके अनुरूप सब कुछ अपने आप होता चला गया।

अब मुझे वहां से जाना था। मैं किसी प्रकार अपने आप को संभालती उठी। उस बढ़ई की आंखों में मैंने जो अहसानमंदी का भाव देखा, अपने प्रति आसक्ति देखी, मैं उसकी ताब न ला सकी। हां, जाते जाते मैंने अपने चेहरे के हाव भाव से जता दिया कि मैं भी उस पर फिदा हो गयी। एक नि:शब्द आश्वासन था मेरे चेहरे पर कि मैं फिर मिलूंगी, फिर चुदुंगी, गरीब ही सही, गंदा ही सही, मजदूर ही सही, आखिर मुझ जैसी कामुक औरत हेतु मनलुभावन, अविश्वसनीय विशाल लिंगधारी पुरुष जो ठहरा और चुदक्कड़ तो अव्वल दर्जे का। छि: छि: यह मैं कैसे गर्त मेेंं गिरती जा रही थी। एक संभ्रांत महिला ऐसी होती है क्या? होती है, होती है। मैं हूं ना, कामुकता की ज्वाला में धधकती, किसी भी मर्द की अंकशायिनी बनने को आसानी से बिछ जाने को उपलब्ध कामिनी।

आगे की कथा अगली कड़ी में।
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11-28-2020, 02:41 PM,
RE: Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा
पिछली कड़ी में आपलोगों नें पढ़ा कि किस तरह अपने निर्माणाधीन भवन में कार्यरत एक पचास पचपन की उम्र के एक दुबले पतले, काले दढ़ियल बढ़ई से मैंने अपनी कामाग्नि शांत की। एक निहायत ही अनाकर्षक व्यक्ति था वह। गंदा था वह। खिचड़ी दाढ़ी थी उसकी और खिचड़ी लंबे बाल। पता नहीं कितने दिनों से नहाया नहीं था, बदबूदार व्यक्ति। पसीने की बदबू से भरे उस बदशक्ल, कृशकाय, किंतु अद्भुत शक्तिशाली शरीर के स्वामी को अपनी कमनीय देह अर्पित कर बैठी। उसके अविश्वसनीय भयावह लिंग से अपनी योनि की दुर्दशा करा बैठी। जितना बड़ा पाशविक लिंग था उसका, उतनी ही पाशविकता थी उसके संभोग में। आरंभ में तो सचमुच मैं आतंकित हो उठी थी। असहनीय पीड़ा सहती हुई बड़ी हिम्मत से उसके लिंग को ग्रहण किया। समा लिया, समा क्या लिया, ठूंसा था उसनें बड़ी बेरहमी से, और मेरी योनि फटती चली गयी, फैलती चली गयी, रुका सीधे मेरे गर्भ में घुसा कर। लेकिन एक बार लिंग घुसने की देर थी, फिर तो मैं खुद ही मस्ती में भर कर, अपनी कमर उछाल उछाल कर खाती चली गयी, मजे लेती चली गई। उस गंदे फर्श पर, लकड़ी के बुरादे पर लोटपोट होती, उस गंदे जंगली आदमी के साथ गुत्थमगुत्था होती रही। पूरी तरह नुच भिंच कर बेहाल अवस्था में जब मैं वहां से निकल रही थी तो मेरे कदम साथ नहीं दे रहे थे। थरथरा रही थी, लड़खड़ा रही थी। योनि की तो चटनी बन चुकी थी। यौनगुहा का दरवाजा बन चुका था।

जब मैं वहां से निकल कर घर की ओर बढ़ रही थी तो सारे मजदूर अजीब सी नजरों से मुझे घूर रहे थे। शायद उन्हें आभास हो चुका था कि अंदर मेरे साथ क्या हुआ था। लेकिन कौन था वह खुशनसीब, जिसनें मेरी यह हालत की थी? यह रहस्य था, लेकिन कब तक? कुछ ही देर में सबको पता चल ही जाना था। वही हुआ भी। इधर मैं अपने कमरे में दाखिल हो कर सीधे बाथरूम में घुसी। रगड़ रगड़ कर नहाई, लेकिन दर्पण में खुद को देख कर बड़ी कोफ्त हुई। गालों पर, होंठों पर, गले पर, स्तनों पर लाल लाल निशान उस हरामी बढ़ई की दरिंदगी चीख चीख कर बयां कर रहे थे। योनि तो सूज कर पावरोटी बन गयी थी। मैं खुद ही चकित थी कि यह सब इतना अचानक मेरे साथ कैसे हो गया। एक ऐसे अनाकर्षक गंदे आदमी से, जिस आदमी से पहले कभी मेरी बात तक नहीं हुई थी, किसी अबूझ सम्मोहन में बंधी यह सब कर बैठी, वह भी इतनी खामोशी के साथ। बेआवाज लुटती रही। ताज्जुब हो रहा था मुझे। अभी नहाने के बाद जैसे मैैं पूर्ण चेेेतन अवस्था मेें आई। ऐसा लगा मानो जो कुछ हुआ वह सब मेरे अर्धचेतन अवस्था मेेंं हुुुआ हो। खैर एक मीठी सी कसक तो भर गयी ही था मेेेरे तन मेें। नहा धो कर मैंने एक चमत्कारी लोशन अपने जख्मों पर लगाया, जिससे मुझे काफी राहत मिली। दो दिनों बाद उन निशानों से मुझे निजात मिली।

दूसरे ही दिन जब मैं ऑफिस के लिए निकल रही थी कि गेट के पास सलीम मिल गया। वह बड़े ही अर्थपूर्ण दृष्टि से मुझे घूरता हुआ धूर्तता से मुस्कुरा रहा था।

मैं उससे नजरें मिलाए बगैर बगल से निकल ही रही थी कि उसकी आवाज मेरे कानों से टकराई, “मैडम, ओह सॉरी, चांदनी, ओह नहीं नहीं चोदनी, कैसा रहा कल कोंदा का?”

थमक कर रुक गयी, “ककककौन कोंदा?”

“वही, गूंगा बढ़ई?”

“ओओओह, वह बबबबढ़ई?” तो पता चल गया इन सबको भी।

“हां हां वही।”

“गूंगा है?” चकित थी मैं। तो एक गूंगे से चुद गयी थी मैं।

“हां। गूंगा है कोंदा। मगर लंड तो है बड़ा मजेदार ना।”

“हट।” लाल हो गयी मैं।

“हट क्या? हम तो तेरी चाल देख कर ही समझ गये थे।” अबतक बोदरा भी पहुंच चुका था।

“फाड़ तो नहीं दिया ना?” बोदरा मुस्कान के साथ शरारत से बोला। हरामी कहीं का। बेशर्म। सवेरे सवेरे ये लोग मेरी खिंचाई कर रहे थे।

“चुप साले मां के ….।” मैं भी कम थोड़ी थी। अपने को कमजोर कैसे दिखाती।
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