Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 12:58 PM,
#61
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"विनीत , मुझे अपनी बेइज्जती बर्दाश्त नहीं है। मगर आज मैं बहुत ही बेइज्जत महसूस कर रहा हूं। एक मैनेजर के साथ तुम्हारी वहन ने ऐसा ब्यबहार किया जैसा मैं अपने नौकर के साथ भी नहीं करता।"

"सॉरी सर। उसकी ओर में मैं माफी मांगने को तैयार हूं....मगर आप बता तो दीजिये आखिर क्या किया उसने....?"

“ये कहो क्या नहीं किया..." स्वर में शिकायत थी।

"फिर भी कुछ तो बताइये।"

"कुछ क्या बताऊं—उसने मुझे अन्दर तक नहीं बुलाया। दो ट्रक जवाब देकर-भइय्या घर में नहीं हैं....कहकर दरवाजा बंद कर दिया।" किशोर ने सफेद झूठ बोला।

"प्लीज, आप उसे माफ कर दीजिये। मैं उसे समझा दूंगा....। आगे से कोई ऐसी गलती नहीं होगी।"

"इट्स ओके।" वह चुप हो गया फिर बोला—"तुम जा सकते हो। जाकर अपना काम करो।"

“बैंक्यू सर।" वह कुर्सी से उठा और ऑफिस से बाहर निकल गया। अपना काम करने बैठा तो मन नहीं लगा। वह मन-ही-मन अनीता पर गुस्सा हो रहा था। अनीता को सर के साथ ऐसा नहीं करना चाहिये था....। घर लौटा तो सबसे पहले अनीता को अपने पास बुलाकर पूछा- "अनीता, यह क्या बदतमीजी है? तुमने सर के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया?" इतना सुनकर अनीता सकपका गई।

"क्या भइय्या, मैंने ऐसी क्या गलती की है?" वह विनीत के चेहरे पर आये नाराजगी के भावों को देखती हुई बोली।

"हमारे मैनेजर यहां आये और तूने उन्हें पानी तक के लिये नहीं पूछा?"

अपने भाई की यह बात सुनकर अनीता सोच में पड़ गई। आखिर किशोर ने ऐसा क्यों कहा भाई से—जबकि गलती तो उसने स्वयं की थी। "नहीं भइय्या।” अनीता आगे कुछ कहती तभी विनीत दहाड़ा-"खामोश! अनीता, तुम्हें ये तो सोचना चाहिये था कि वो कितने बड़े लोग हैं....हम जैसों के घर तो वे आना भी पसंद नहीं करते और मेरी दोस्ती के कारण वे हमारे घर आ जाते हैं। और आज तुमने उनके सामने मेरी गर्दन नीची करवा दी।" बड़े भाई के सामने उसकी कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। उसे लगा कि अगर वह सच बात बता भी देगी तो भी शायद अब भइय्या विश्वास नहीं करेंगे। बस यही सोचकर वह चुप रही और रोती हुई अन्दर चली गई।

परन्तु उस दिन....
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09-17-2020, 12:58 PM,
#62
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
अपने भाई की यह बात सुनकर अनीता सोच में पड़ गई। आखिर किशोर ने ऐसा क्यों कहा भाई से—जबकि गलती तो उसने स्वयं की थी। "नहीं भइय्या।” अनीता आगे कुछ कहती तभी विनीत दहाड़ा-"खामोश! अनीता, तुम्हें ये तो सोचना चाहिये था कि वो कितने बड़े लोग हैं....हम जैसों के घर तो वे आना भी पसंद नहीं करते और मेरी दोस्ती के कारण वे हमारे घर आ जाते हैं। और आज तुमने उनके सामने मेरी गर्दन नीची करवा दी।" बड़े भाई के सामने उसकी कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। उसे लगा कि अगर वह सच बात बता भी देगी तो भी शायद अब भइय्या विश्वास नहीं करेंगे। बस यही सोचकर वह चुप रही और रोती हुई अन्दर चली गई।

परन्तु उस दिन.... उसे उसी दोस्ती का एक और चेहरा देखने को मिला था। वह किशोर को अच्छा आदमी समझे हुये था। परन्तु जब वास्तविकता सामने आयी तो उसका रूप कुछ और ही था। किशोर पिछले दो दिनों से छुट्टी पर था। उस दिन वह भी दफ्तर से कुछ जल्दी ही घर आ गया था। बरामदे से उसने देखा था कि अनीता का कमरा अन्दर से बन्द था और कमरे में से अनीता के चीखने-चिल्लाने की आवाज आ रही थी। उसका हृदय किसी आशंका से धड़क उठा। उसने दरवाजे को थपथपाते हुये पुकारा था-"अनीता....." दरवाजा फिर भी नहीं खुला। अनीता भैया, भैया' चिल्ला रही थी। उसने एक बार फिर कहा था-"अनीता! दरवाजा खोलो! अन्यथा मैं दरवाजे को तोड़ दूंगा।" अनीता ने दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही वह तेजी से दूसरे कमरे में चली गयी थी। किशोर सामने खड़ा था। देखकर वह जैसे पागल हो गया था। गुस्से में उसने कहा था-"किशोर तुम....."

किशोर क्या उत्तर देता? उसने बिना कुछ कहे ही दरवाजे से बाहर निकलने के लिये अपने कदम उठाये थे। वह जैसे गरजा था-"रुक जाओ किशोर! आज मैं तुम्हारे नये रूप को अच्छी तरह से देखना चाहता हूं कि एक इन्सान कितनी जल्दी शैतान बन सकता है....एक देवता कितनी जल्दी बदल सकता है और एक दोस्त....एक दोस्त कितना नीचे गिर सकता है। तुम कमीने हो किशोर.....कुत्ते हो....." कहने के साथ ही उसने किशोर का गिरेहबान पकड़ एक साथ ही कई थप्पड़ उसके गालों पर जमा दिये थे।

“विनीत .....” किशोर भी जैसे चीख उठा था।

"मैं तुम्हें मार डालूंगा शैतान। तूने....तूने मेरी वहन की इज्जत से खेलना चाहा था...." इसके बाद जैसे वह पागल हो गया था। किशोर कुछ देर तक तो पिटता रहा था। तभी किशोर ने अपने कोट की जेब से एक लम्बे फल का चाकू निकाला। तुरन्त ही कहा था ____“यदि फिर मुझ पर हाथ उठाने की कोशिश की तो मैं तुम्हारा खून कर दूंगा।"

"तुम मेरा खून कर दोगे....तुम....तुम....?" उस समय उसने यह भी न सोचा था कि किशोर के हाथ में चाकू है और वह उसका खून कर सकता था। उसने आगे बढ़कर फिर उसके गाल पर थप्पड़ मारा। साथ ही उसकी चाकू बाली कलाई को पकड़ लिया। चाकू किशोर के हाथ से छूटकर गिर गया जिसे उसने तुरन्त ही उठा लिया। वह फिर जैसे चीख उठा— "कमीने....धोखेबाज....! मैं तेरा खून कर दूंगा....।" उस दिन वह जैसे आपे में नहीं रहा था। उसे इस बात का भी होश नहीं रहा था कि वह क्या कर रहा है अथवा उसे क्या करना चाहिये। पागल-सा हो गया था और वह....।। और उसने चाकू को किशोर के पेट में उतार दिया था। किशोर के मुंह से हृदय विदारक चीख निकली। वह तुरन्त ही फर्श पर गिरकर छटपटाने लगा। थोड़ी देर छटपटाने के पश्चात् उसने दम तोड़ दिया। वह एकदम ठंडा हो गया।

विनीत को जैसे अब होश आया। हाय! ये मैंने क्या कर डाला? यह तो मर गया। मैंने खून कर दिया है....। उसके हाथ से चाकू छूटकर गिर पड़ा। इतने में अनीता अन्दर आयी। अन्दर कदम रखते ही उसके पैरों से जमीन निकल गई। सामने किशोर की खून से लथपथ लाश को देखकर उसका मस्तिष्क चकरा गया। अनीता अपने भइय्या से लिपट गई—"भैया, तुमने यह क्या कर डाला?"

"खून! मैंने किशोर का खून कर डाला......"

"परन्तु भइय्या....।" शब्द अनीता के हलक में अटककर रह गये। विनीत भी उस समय अपने आप पर रो उठा। मस्तिष्क में केबल एक ही प्रश्न उभरता था— उसने किशोर का खून क्यों किया? इतने में ही सुधा वहां आ गई। वह लाश को देखकर डर गई। अनीता ने उसको बांहों में भर लिया। सुधा चीख उठी—“दीदी! यह क्या? किशोर सर को किसने मार डाला?"
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09-17-2020, 12:58 PM,
#63
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
अनीता सुधा को क्या बताती। वह चुप रही। विनीत ने जल्दी से बाहर की कुन्डी लगाई और अन्दर आकर सोचने लगा अब क्या किया जाये? अगर किसी ने पुलिस को खबर कर दी तो उसे पुलिस जेल भेज देगी—वह खून के जुर्म में गिरफ्तार हो जायेगा। मगर मेरी वहनों का क्या होगा-मेरे सिवा इनका इस दुनिया में है ही कौन? नहीं....नहीं! मुझे यह खून नहीं करना चाहिये था। इस गलती पर किशोर को माफ भी तो किया जा सकता था। मगर मैंने तो जज्बात में वहकर उसका खून ही कर डाला। मगर मैं जेल नहीं जाऊंगा। दनिया में रहने वाले दरिन्दे हैं। वे मेरी वहनों का खून पी जाएंगे। वे इनकी ऐसी हालत कर देंगे कि इनको अपने से ही नफरत हो जायेगी। मगर नहीं....मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।

अनीता और सुधा अब तक रो रही थीं। विनीत उनके पास आया—"रोओ मत मेरी वहनों। मैं कोई मरा नहीं हूं। मैं तो अभी जिन्दा हूं....सब ठीक हो जायेगा....सब ठीक हो जायेगा....।" अनीता को अपने पास बुलाकर विनीत धीरे से बोला-"हम ऐसा करते हैं इस लाश को बोरे में बंद करके....नदी में फेंक आते हैं। फिर पता ही न चलेगा। तुम जल्दी-जल्दी यहां से फर्श धो देना। घबराने की कोई बात नहीं....।" विनीत ने अपने मस्तिष्क में आया प्रोग्राम बताया।

“बात तो आप ठीक ही कहते हैं भइय्या।” वह आंसू साफ करते हुए बोली-“मगर भइय्या, आपने मेरे कारण इतनी बड़ी मुसीबत अपने सर मोल ले ली....."

"बस अनीता बस—अब आगे कुछ नहीं कहना। चुप कर। मुझे आज भी वह दिन याद है, जब मैंने इस कमीने इन्सान की वजह से अपनी फूल जैसी कोमल वहन का दिल दुःखाया था। मैंने इस कुत्ते की बात पर यकीन करके तुझे बिना गलती के डांटा था और तुने उफ तक नहीं की थी। बस रोती हुई अन्दर चली गई थी। इसने दोस्ती के नाम पर मेरी आंखों पर पट्टी बांध दी थी। दुनिया का सबसे अच्छा इन्सान समझता था मैं इसको! मगर इसने मेरे विश्वास को, मेरे जज्बात को, मेरी भावनाओं को कुचल डाला अनीता....।" "इस कुत्ते के लिये ये सजा तो क्या इससे भी बड़ी सजा होती तो मैं देने से नहीं चूकता।"

“मगर भइय्या, अब जो हुआ सोहुआ। अब जल्दी करो जो करना है। कहीं कोई आ गया तो अनर्थ हो जायेगा।" अनीता का चिन्ता से भरा स्वर उभरा।

"हां अनीता वहन! तुम ठीक कहती हो....।" वह अन्दर गया और एक बड़ी सी बोरी कहीं से हूंढ लाया। दोनों ने उस बोरी में किशोर की लाश और चाकू को डाला और उसका मुंह बांध कर विनीत उस बोरी को एक नदी में फेंक आया। जब तक विनीत वापस न आया, अनीता बड़ी बेचैन इधर-उधर टहलती रही। विनीत ने सबसे पहले बापस आकर पूछा- कोई आया तो नहीं था....।"

"नहीं भइय्या।"

"सुधा कहां है?"

“वह रोती-रोती अन्दर सो गई है। अब तुम आराम करो भइय्या। कुछ नहीं होगा।"

ठीक है।" विनीत ने गहरी सांस लेकर कहा—“मगर तुम यहां से ऐसी सफाई कर डालो....जो पुलिस आ भी जाये तो उसे भनक तक न लगे। जल्दी करो।"
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09-17-2020, 12:58 PM,
#64
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"तुम चिन्ता मत करो भइय्या....मैं सब ठीक से साफ-सफाई कर देती हूं।" अनीता ने घर को चमका दिया। फिनाइल से धोकर फर्श ऐसा कर दिया जिसको सूंघने पर भी न लगे कि इस पर खून गिरा है। अगले दिन वह ऑफिस भी नहीं गया। घर में खाली पड़ा रहा। रात भर सो भी नहीं पाया था। इसी विषय में सोच-सोचकर परेशान हो उठता था कि अगर पुलिस उसे पकड़कर ले गई तो मेरी वहनों का क्या होगा? जब उसका घर में बिल्कुल मन नहीं लगा तो वह उठकर बाहर को गया। जैसे ही बाहर निकला, सामने से प्रीति आती दिखाई दी। अब उसका मस्तिष्क घूम गया। उसने अपनी प्रेमिका के विषय में तो सोचा ही नहीं जो उसकी रात-दिन पूजा करती है। उसके बिना जिन्दा नहीं रह सकती है। इतने में प्रीति उसके बहुत निकट आ गई। प्रीति के हाथ में मुड़ा हुआ समाचार पत्र था। अखबार को खोलते हुए—"विनीत, तुम आज ऑफिस नहीं गये?"

"हां प्रीति....मगर क्यों?" विनीत ने तुरन्त पूछा। प्रीति ने विनीत की घबराहट को देखते हुए पहले एक और प्रश्न कर डाला-"विनीत , क्या बात है? कुछ परेशान से दिखाई दे रहे हो..."

"नहीं....प्रीति! कोई बात नहीं है।" प्रीति घर के बाहर थी इसलिये उसने प्रीति से झूठ बोला। कहते हैं, दीवारों के भी कान होते हैं। कभी कोई सुन लेता तो गजब हो जाता। "आओ प्रीति, अन्दर चलते हैं।" वह घर की ओर चलने लगा। प्रीति भी उसके पीछे होली।

"विनीत , यह देखो, मैं तुम्हें यह फोटो दिखाने के लिये लायी हूं।" अखबार खोलकर विनीत को दिखाती है-"यह तुम्हारे मैनेजर किशोर जी हैं ना।" किशोर का फोटो देखकर_"हां।" विनीत ने एक गहरी सांस लेकर कहा। प्रीति उसके चेहरे को देखकर असमंजस में पड़ गई कि विनीत के मालिक की लाश की फोटो....और इसको कोई भी दुःख नहीं? वह फिर बोली-"विनीत, पता है किशोर की लाश पुलिस बालों को....कोई थाने में देकर गया है। यह एक बोरी में बन्द निकली है....। साथ में बो चाकू भी निकला है जिससे खून किया गया होगा।"

यह सब सुनकर भी विनीत चुप बैठा था जैसे सांप सूंघ गया हो। प्रीति ने विनीत की ओर देखा और फिर बोली-"विनीत, पुलिस ने उस चाकू के ऊपर से उस हत्यारे के फिंगर प्रिन्ट उतार लिये हैं....."

यह सुनकर विनीत ने घबराई दृष्टि प्रीति पर डाली जो अखबार पर नजरें गड़ाये थी। "तुम्हारे ऑफिस में पुलिस आज पहुंच जायेगी। सभी लोगों के फिंगर प्रिन्ट्स लेगी, जितने भी लोग काम करते हैं....। मगर तुम तो आज दफ्तर गये ही नहीं। पता नहीं किसने किया होगा तुम्हारे सर किशोर का खून?" वह धीरे-धीरे बड़बड़ायी और अखबार को फिर से गोल-गोल मोड़ने लगी।

“मैंने किया है यह खून.....” विनीत ने सपाट स्वर में कहा।

"क्या?" प्रीति चीखी।

“हां! मैं खूनी हूं। मैंने ही यह खून किया है।” वह उदास हो गया। आंखें भर आईं।

“नहीं विनीत, तुम ऐसा नहीं कर सकते....कह दो ये सब झूठ है....।" प्रीति रो उठी।

"नहीं प्रीति नहीं।" 'सच्चाई छुप नहीं सकती कभी झूठे उसूलों से खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से।'

"नहीं विनीत! ऐसा नहीं है। ये सब बेकार की बातें हैं।" प्रीति ने भी विनीत की बात का जबाब उसी अन्दाज में दिया 'सच्चाई छुप भी सकती है अगर आपस में मेल हो खुशबू आ भी सकती है अगर कागज में तेल हो।'
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09-17-2020, 12:59 PM,
#65
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
जहां तक मेरा विचार है तबियत खराब हो और ऑफिस से भी इसीलिये छुट्टी की हो तो आदमी को आराम करना चाहिये, घूमना नहीं....." विनीत अपने ही ख्यालों में उलझ रहा था।

“ये कौन हैं?" प्रीति की ओर संकेत करते हुए।

"मेरी होने वाली पत्नी प्रीति है....."

“मगर ये यहां क्या कर रही हैं?" सन्दीप ने घुमा-फिराकर बात करनी शुरू कर दी।

“ये मेरी तबियत खराब होने की सुनकर मुझसे मिलने आयी थीं।" विनीत सिर में खुजाते हुए बोला।

"देखिये विनीत , ये हमें पता है कि किशोर का खून तुमने ही किया है, मगर बिना सबूत और गवाह के हम कह नहीं सकते। शक की बजह से तुम्हें खूनी नहीं कहा जा सकता। जुर्म स्वयं ही मान लो तो....कैसा रहेगा....?"

विनीत चुप रहा। फिर इंस्पेक्टर ने एक पुलिस बाले से कहा- इनके फिंगरप्रिंट ले लो।"

“यस सर।" वह विनीत के फिंगर प्रिन्ट उतारने लगा। चाकू के ऊपर से उतारे गये फिंगर प्रिन्ट्स से उनको मिलाया गया तो वे विनीत के जैसे ही थे। अब शक की कोई गुंजाईश नहीं थी। सबूत साफ मिल गया था। इन्सपेक्टर ने विनीत के हाथों में हथकड़ी डाल दी। और फिर....। उसे घर, दोनों वहनें, अपनी प्रेयसी प्रीति को....और सभी कुछ छोड़ देना पड़ा था।

विनीत के जाने के बाद दोनों वहनें रोती रहीं। प्रीति तो कितने दिनों तक आंसू बहाती रही। मिलने की एक आस में तो इतने दिन बिता दिये थे....और अब तो पता नहीं कब तक....|

उस समय विनीत अपने आप पर जैसे रो उठा था। मस्तिष्क में केवल एक ही प्रश्न उभरता था—उसने किशोर का खून क्यों किया? ऐसा करने से पहले इसका अन्जाम तो सोच लिया होता। विनीत पर मुकदमा चला। उसके बाद उसे सलाखों के पीछे ही खड़ा कर दिया गया। जेल में आकर उसका मस्तिष्क सदैव घर के विषय में ही सोचता रहता-पता नहीं अब क्या होगा? अगर अब फिर कोई किशोर जैसा व्यक्ति मेरी वहनों को परेशान करने आया तो बे क्या करेंगी? अब तो मैं उनका साथ भी नहीं दे सकुंगा....और प्रीति पता नहीं अपनी शादी कहीं करा लेगी या वह मेरी प्रतीक्षा करेगी? यही सब कुछ सोचते-सोचते विनीत रो पड़ा। निकट आते सन्तरीके बूटों की आवाज से विनीत की विचारधारा टूटी। कुरते की बांह से आंसू पोंछकर उसने अपनी गर्दन को उठाया। रात अब भी काली नागिन की तरह थी। काली जानलेवा रात की खामोशी उसको डसने को थी।

रात के आंचल में चांद-तारों की जगह उदासी के बादल थे। उदासी के बादल भी जैसे विनीत की बेबसी पर फूट-फूटकर रोने के लिये उतारू थे। खड़े-खड़े पैरों में दर्द होने लगा था। विनीत अपने उस स्थान से उठा जहां बैठा-बैठा वह अपने विचारों की गुत्थी सुलझाने में लगा था। फिर उसी कम्बल पर बैठ गया। मस्तिष्क में इस समय भी एक ही प्रश्न था—उसने किशोर का खून क्यों कर दिया था? न जाने इस समय उसकी दोनों वहनें कहां होंगी....? किस दशा में होंगी? जिन्दा भी होंगी या नहीं? वह एक बार फिर फूट-फूटकर रो पड़ा। उसकी हल्की-हल्की सिसकियां भी उदास खामोश रात में गूंज उठीं। सिसकियों की आवाज सुनकर सन्तरी ठीक उसकी कोठरी के सामने आकर रुक गया। सन्तरी को देखते ही विनीत और जोर-जोर से रोने लगा। उस पूरी जेल में उसका इस सन्तरी के सिवा कोई हमदर्द न था। सन्तरीको विनीत काका कहता था। "विनीत , सोये नहीं अभी तक?"

"नींद तो आंखों से रूठ गई है काका....। अब तो आंखों में सिर्फ ये आंसू ही हैं।"
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09-17-2020, 12:59 PM,
#66
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"बेटा, कब तक चलेगा ऐसे? बेटा, अगर ऐसे ही रोते रहोगे तो अपनी आंखों की रोशनी भी खो दोगे। अब तो रात ही अन्धेरी लगती है, फिर तो दिन भी रात की तरह अन्धेरा हो जायेगा....और इस दुनिया में....इस अन्धेरी दुनिया में तुम अपनी वहनों को कैसे ढूंढ पाओगे? बेटा, यूं रोकर अपनी आंखों को बेकार न करो।” काका भावुक हो गये।

सलाखों को पकड़े विनीत की रोई सुर्ख आंखों को देखने लगे। "आप सही कहते हैं काका....।" विनीत ने निःश्वांस भरी- मैं भी अपनी ये जेल की जिन्दगी हंस-हंसकर व्यतीत कर देना चाहता हूं। जब औरों को देखता हूं तो सोचता हूँ मैं औरों की तरह हंसू। दूसरों की ही तरह मुस्कराकर जीबन बिताऊं। मगर क्या करूं काका! वहनों की यादें आंखों में अश्कों का सागर बहाती हैं। मगर....काका अब मैं कोशिश करूंगा कि मैं नरोऊँ।"

“ओके। बेटा, तुमने मेरी बात रख ली। अब तुम सो जाओ, मैं चलता हूं।” सन्तरी आगे बढ़ गया। विनीत कम्बल ओढ़कर नीचे ही लेट गया।

सोने की तमाम कोशिशें नाकाम हो गई थीं। मगर वह आंखें बंद किये हए....सोने की कोशिश में लगा रहा। उसको रात के तीन बजे तक भी नींद न आयी। उसके बाद उसको कब नींद आयी पता नहीं।

बक्त ने कभी रुकना नहीं सीखा। बह अपनी समान गति से निरन्तर आगे की ओर बढ़ता ही चला जाता है। अतीत बहुत पीछे रह जाता है....वर्तमान उसमें पिसता रहता है और भविष्य दूर खड़ा हुआ कातर दृष्टि से उसकी ओर देखता रहता है। पता नहीं उसकी ओर बढ़ने वाला समय उसके साथ कैसा व्यवहार करे। दिन और रात के क्रम में बंधा हुआ किसी वक्त की प्रतीक्षा नहीं करता....कभी किसी के लिये नहीं रुकता। एक चीखता है....दूसरा आंसू बहाता है। कोई छटपटाता है....दूसरा चूंट भरके उस पीड़ा को पीता रहता है। एक ओर उल्लास है, दुनिया की हर खुशी है....दूसरी ओर जैसे सारे संसार के दुःख एक ही स्थान पर आकर जमा हो जाते हैं। सुख और दुःख....स्थान-स्थान पर हेरियां लग जाती हैं..... परन्तु बक्त! उसे इन्सानों से क्या बास्ता? उसका काम चलना है....निरन्तर आगे बढ़ते जाना....और वह बहुत आगे बढ़ गया था। विनीत की सजा के दिन पूरे हो चुके थे। उसके अच्छे व्यवहार पर उसकी कुछ दिनों की सजा भी माफ कर दी गयी थी। संतरी ने जब उसे यह समाचार सुनाया तो वह प्रसन्नता से झूम उठा। परन्तु उदास भी हो गया।

"जेलर साहब बुला रहे हैं...चलो..."

“काका।” विनीत ने संतरी से कहा- “क्या मैं जिंदगी भर इस कोठरी में नहीं रह सकता?"

"क्या तुम्हें इस बात से खुशी नहीं हुई कि तुम आज कैद से मुक्ति पा रहे हो?"

“हुई।” उसने का था-"परन्तु काका, गमों से तब छुटकारा मिला जब जिन्दगी में कुछ भी न रहा। कौन मुझे जीने देगा दुनिया में?"

"अपनी आत्मा।" संतरी ने कहा था-"अपना साहस....."

सुनकर वह धीरे से मुस्कराया। कुछ कहना तो चाहता था परन्तु कह न सका। थोड़ी देर बाद वह जेलर के कमरे में था। जेलर ने अपनी गरदन उठाकर उसकी ओर देखा, फिर कहा-"विनीत , तुम्हारे अच्छे व्यबहार के कारण तुम्हारी सजा के बाकी दिन माफ कर दिये गये हैं। आज तुम्हें मुक्ति मिल रही है।"

"थै क्यू सर......"

"तुम्हें मुझसे वायदा लेना होगा कि तुम अपनी उसी दुनिया में जाकर अपने चरित्र को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करोगे तथा किसी के भी प्रति बदले की भावना को मन में स्थान नहीं दोगे।"

"तुम जीवन में फिर कभी इस ओर नहीं आओगे।"

"मैं वचन देता हूं जेलर साहब।"

"ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दे। लो...इन कपड़ों को उतार कर इन्हें पहन लो।” जेलर ने आलमारी में रखी बुशर्ट और पैंट उठाकर उसे दे दी तथा कुछ रुपये भी मेज पर रख दिये। "इन रुपयों को भी रख लो।"

"जी....?"

"तुम्हारे ही हैं।” जेलर साहब ने कहा-"प्रत्येक कैदी की रिहाई के समय मिलते हैं।"

विनीत ने बे रुपये उठाकर जेब में रख लिये। आज वह इस जगह को छोड़ रहा था। इस जगह उसने जिंदगी के बहुत से दिन गुजारे थे। आज वह घुटन भरी इस जिंदगी से दूर जा रहा था। इस दुनिया में जहां घूमने-फिरने की आजादी होगी। न जाने क्यों विनीत का दिल भर आया था। उसने अभिवादन के लिये हाथ जोड़े। उसके अभिवादन का उत्तर देने के बाद जेलर ने एक बार फिर कहा-"उम्मीद है, तुम मेरी बातों को ध्यान में रखोगे।"

"मैं पूरी कोशिश करूंगा सर।" जैसे ही वह बाहर निकला, बाहर ही वह संतरी खड़ा था। ठिठककर उसने कहा-"जा रहा हूं काका।"

“जाओ बेटा....जाओ। ईश्वर तुम्हें खुश रखे।"
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09-17-2020, 12:59 PM,
#67
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
वह मुख्य द्वार से बाहर आ गया। अन्दर की घुटन और इस दुनिया में कितना अन्तर था? कितनी स्वतन्त्रता थी? उसने वर्षों के बाद संतोष की सांस ली थी। प्रसन्नता में डूबा हुआ वह घर की ओर चल दिया। रास्ते भर उसके मन में तरह-तरह के विचार चक्कर काटते रहे थे। वह सुधा और अनीता के बारे में ही सोचता रहा। दोनों ने किस प्रकार से अपने दिन काटे होंगे। सुधा भी अब तो बीस-इक्कीस वर्ष की हो गई होगी। अपने विचारों में खोये हुये विनीत ने लम्बा रास्ता तय कर लिया। बाजार में अपने बाल कटवाये....शेव बनवाई और थोड़ी देर बाद ही घर पहुंच गया। मकान के बाहर ही दो बच्चे खेल रहे थे। उसने किसी से कुछ नहीं पूछा और मकान के खुले दरवाजे के अन्दर दाखिल हो गया। आंगन में पहले इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। फिर पुकारा—“सुधा....। अनीता....."

हृदय बुरी तरह से धड़क रहा था। मन में बिभिन्न प्रकार की कल्पनायें चक्कर काट रही थीं। तभी उसने देखा कि एक बारह-तेरह वर्ष की लड़की उसकी ओर आ रही है। आते ही उसने प्रश्न किया—“आप कौन हैं?"

"मेरा नाम विनीत है।"

"किससे मिलना चाहते हैं आप?"

"सुधा से....” उसने कहा।

"सुधा....?" लड़की ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"हां....मेरी वहन।"

“यहां कोई सुधा नाम की लड़की नहीं रहती।"

"सुधा नाम की लड़की नहीं रहती?" उसने बुदबुदाया।

“जी....."

"और अनीता?"

"अनीता भी कोई नहीं।"

"ओह!" सुनकर विनीत का मस्तिष्क चकराकर रह गया। एक साथ कई प्रश्न उसके सामने आकर खड़े हो गये। सुधा और अनीता कहां गयीं? यह लड़की कौन है? उसके पास किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। उसकी समझ में नहीं आया कि वह किस प्रकार उससे कुछ और पूछ।

फिर भी उसने कहा-"तुम कौन हो?"

“मैं....मेरा नाम राखी है।”

राखी नाम की लड़की ने कहा और तुरन्त ही अन्दर चली गयी। विनीत आंगन में खड़ा रह गया।
उसने एक बार गहरी दृष्टि से चारों ओर देखा। यह देखने के लिये कि कहीं वह किसी दूसरे मकान में तो नहीं आ गया। परन्तु ऐसा नहीं था। सब कुछ बही था। तभी उसकी दृष्टि एक व्यक्ति पर पड़ी, जो उसी की ओर आ रहा था। विनीत के निकट आकर उसने कहा ____"कहिये....?"

“जी....जी....।" वह हकलाया।

“किससे मिलना है आपको?"

"सुधा.....अनीता से....मेरा नाम विनीत है।"

“विनीत।" वह व्यक्ति कुछ सोचने लगा और फिर धीरे से मुस्कराया-"अच्छा-अच्छा, प्रभु दयाल के लड़के....?"

"जी, ठीक पहचाना आपने।"

"आओ।" विनीत उस व्यक्ति के पीछे-पीछे चल दिया। उसने विनीत को कमरे में एक सोफे पर बैठने का इशारा किया और स्वयं भी एक सोफे पर बैठ गया। विनीत बड़े आश्चर्य से कमरे की सजावट को देख रहा था, जबकि उस समय कमरे में था ही क्या? उसे विचारों में मग्न देखकर उस व्यक्ति ने पूछा- क्या सोच रहे हो?"
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09-17-2020, 01:00 PM,
#68
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"ज....जी।" वह फिर हकलाया—"मैं आपके विषय में सोच रहा हूं।"

"तुम मुझे नहीं जानते।" उस व्यक्ति ने कहा- मेरा नाम किशन शर्मा है....."

"किशन शर्मा?"

"हां....तुम्हें ध्यान हो या न हो....किसी समय तुम्हारे पिता प्रभु दयाल ने सेठ रामनाथ जी से पांच हजार रुपये कर्ज लिये थे। वे मर गये परन्तु कर्ज को फिर भी न चुका पाये थे। गिरवी की मियाद खत्म होते ही सेठ जी ने अदालत का सहारा लिया और इस मकान पर उनका कब्जा हो गया। उस समय तुम जेल में थे। मैं सेठ जी का मुनीम हूं। उन्होंने यह मकान मुझे रहने के लिये दे रखा है।"

"ओह!” उसके सिर पर जैसे भारी-सा पत्थर आकर गिरा हो। उसके पीछे इतना सब हो गया और उसे पता भी न चला! किसी प्रकार अपने को संयत करके विनीत ने पूछा-“मेरी दोनों वहनें कहां हैं?"

"तुम्हारा मतलब, सुधा और अनीता?"

"हां....।"

"दोनों लड़कियां पढ़ी-लिखी जरूर थीं, परन्तु नासमझ थीं। इस मकान पर कब्जा होने के बाद भी मैंने उन्हें यहीं रोकना चाहा। मैंने उन्हें काफी हद तक समझाने की कोशिश की, परन्तु वे नहीं मानी और उसी दिन अपना सामान बटोरकर पता नहीं कहां चली गईं....।"

"लेकिन मुनीम जी....." विनीत कुछ कहता-कहता रुक गया। "

अब तुम्हीं बताओ... इसमें मैं क्या कर सकता था? मकान तो सेठजी का हो चुका था। कोई उसमें दखलही कैसे दे सकता था?"

"ठीक कहते हैं आप।" विनीत बोला-"परन्तु उन दोनों ने कुछ तो बताया होगा...वे कहां गईं....?"

"भैया, मुझे कुछ भी पता नहीं है।” मुनीम जी ने बिबशता का प्रदर्शन किया—“यदि मेरे योग्य कोई और सेवा हो तो बताओ.....।"

"बस इतनी ही कृपा काफी है सेठ जी।" विनीत ने एक गहरी सांस लेने के बाद कहा ___“जिस मकान में मेरा बचपन बीता, आपके बच्चे उस आंगन में खेलते हैं। घर में सूनापन तो नहीं है। अच्छा मैं चलता हूं....।" किशन शर्मा ने उससे कुछ नहीं कहा।

विनीत उछा और कमरे से बाहर निकलकर मुख्य दरवाजे पर आकर रुक गया। एक बार हसरत भरी निगाहों से उन दीवारों को देखा। अनायास ही उसकी आंखें छलछला उठीं। न जाने कितना बोझ हृदय पर आकर ठहर गया। जी नहीं चाहता था कि वह यहां से चला जाये। जिस आंगन में किलकारी मारकर उसने बचपन को देखा था, यही आंगन अब उससे हमेशा-हमेशा के लिये छूट गया था। जिन दीवारों के अन्दर उसने मां, पिता और वहनों के प्यार को देखा था, आज वे ही दीवारें मौन और उदास खड़ी थीं। उन दीवारों में इतनी शक्ति भी न रही थी कि वे उसे अपनी कहानी सुना देतीं। पैर बोझिल हो गये थे। काफी देर तक वह पागलों की तरह उन दीवारों को घूर-घूरकर देखता रहा। परन्तु जाना तो था ही। यह बस्तीतो अब उसके लिए वीरान हो चुकी थी।

क्या रह गया था उसके पास? मां-बाप ने छोड़ दिया,वहनें न जाने कहां चली गयीं और अब वह अकेला था....बिल्कुल अकेला। कोई भी तो नहीं था उसका। वह चल पड़ा। उसने इधर-उधर देखा, कितनी रौनक थी लोगों के चेहरों पर! इस संसार में उनके लिये कितनी खुशियां थीं और वह....जैसे जिन्दगी में वर्षों से संजोया हुआ सब कुछ बिखर गया सब कुछ लुट चुका था!
जी में आया कि वह इस दुनिया से बहुत दूर चला जाये। आखिर क्या रह गया है उसके लिये यहां? परन्तु वह जायेगा कहां? बेमन-सा वह एक ओर को चल दिया। जेब में पैसे थे। उसने बाजार में खाना खाया और फिर एक स्थान पर बैठकर सुस्ताने लगा। मन में बार-बार यही विचार आता कि उसकी दोनों वहनें कहां होंगी? किस अवस्था में होंगी? परन्तु वह उन्हें खोजेगा भी कहां? इतनी बड़ी दुनिया में उसे कहां पता चलेगा?

वह उठा और यूंही शहर की सड़कों के चक्कर लगाने लगा। वह पास से गुजरने वाली प्रत्येक लड़की के चेहरे को ध्यान से देखता और फिर एक आह भरकर रह जाता। सहसा ही उसकी दृष्टि एक लड़की के चेहरे पर पड़ी। वर्षों गुजर गये थे फिर भी चेहरा जाना-पहचाना-सा लगता था। लड़की एक परचून की दुकान से कुछ सामान खरीद रही थी। जब वह सामान लेकर चल दी तो उसने पुकारा—“सुधा....." अपने पीछे से किसी को पुकारता देखकर लड़की रुक गयी। उसने पलटकर विनीत की ओर देखा। वह कुछ कहती इससे पहले ही विनीत ने कहा- "सुधा....मुझे भूल गयीं क्या? मैं हूं तेरा भैया विनीत ।"

"विनीत!" लड़की ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- मेरे भैया का नाम तो मुकेश है। मेरा नाम रंजना है।"

"ओह....भूल हो गयी।” उसे अपनी गलती का अहसास हुआ—"माफ करना वहन।” कहकर विनीत फिर आगे बढ़ गया। एक सड़क से दूसरी सड़क। शहर की गलियों में चक्कर काटते हुये उसे शाम हो गयी। परन्तु सुधा अथवा अनीता उसे कहीं नहीं मिलीं। रात हो गयी। मन-सा मार कर वह सड़क के किनारे बने एक पार्क में लेट गया। गर्मी का मौसम था। किसी कपड़े की भी जरूरत न पड़ी। घण्टों वह अपनी पिछली जिन्दगी के विषय में सोचता रहा। अपने-पराये, रह-रहकर सभी याद आते रहे और उसे रुलाते रहे। कुछ देर सोया भी। और जब सुवह के कोलाहल से उसकी आंखें खुली तो उसकी जेब में रखे हुए सारे रुपये गायब थे। उसे पता भी न चला था और नींद की दशा में कोई उसकी जेब साफ कर गया था।

अभी तक तो जेब में कुछ रुपये थे। कुछ समय तक वह भूखा तो नहीं रह सकता था। परन्तु आज उसे रोटी के विषय में भी कुछ सोचना पड़ेगा। इतना सब चला गया, और वह जिन्दा रहा। आज कुछ रुपये चले गये तो क्या! जीना तो पड़ेगा ही। घण्टों वह फिर इसी प्रकार बैठा रहा....सोचता रहा। शाम जान-बूझकर खाना नहीं खाया था। आज जेब में पैसे नहीं थे। भूख लगने लगी थी। वह फिर उठा और चल दिया। भूखा कब तक चलता? कब तक घूमता? उसे महसूस हुआ कि दुनिया में जीने के लिये सबसे पहले रोटी चाहिये, बाद में कुछ और। परन्तु रोटी....आकार में गोल....जैसे उसने इन्सान की जिन्दगी को ही अपने आप में समेट रखा हो, उसके लिये है कहां? कौन उसे खाना देगा? उसकी विचार तन्द्रा जब टूटी तो उसने अपने आपको एक ढाबे के सामने खड़ा पाया। अन्दर बैठे हुये लोग खाना खा रहे थे, देखकर विनीत की भूख और भी प्रबल हो गयी। दूसरे ही क्षण वह अपने को न रोक सका और उसने अपने आपको एक मेज पर बैठा पाया। ढाबे बाले का छोकरा उसके पास आया और पानी का गिलास मेज पर रखकर पूछने लगा
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09-17-2020, 01:00 PM,
#69
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
- "सब्जी क्या लेंगे बाबू?"

"कुछ भी....कुछ भी ले आओ।" उसने कहा।

"आलू पनीर?" उसने कह दिया-"हां..." खाना आ गया और वह खाने में जुट गया। उसे इस बात की परवाह नहीं थी कि बाद में क्या होगा। ढाबे बाला उससे पैसे मांगेगा? फिलहाल तो पेट की भूख शान्त करनी थी।

खाना खाने के बाद वह उठा और चल दिया। हाबे का मालिक बाहर अपनी मेज डाले हए बैठा था। विनीत को जाते देखकर उसने टोका-"तीन रुपये....."

उसने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़ने के लिये कदम उठाये। ढाबे के मालिक ने फिर कहा-“आपने सुना नहीं बाबू....खाने के तीन रुपये।"

"सुन लिया लाला!” विनीत ने तनिक रौबीले अन्दाज में कहा।

"सुन लिया तो निकालो।"

"लाला....मेरे पास एक पैसा भी नहीं है।"

"क्या?" लाला जी ने आंखें फाड़कर उसकी ओर देखा—“पैसे नहीं हैं....और इसे अपने बाप का हाबा समझ रखा था क्या? आये और खाकर चल दिये। फटाफट पैसे निकालो बाबू....."

“लाला, मेरे बाप तक मत पहुंचो....मैं पहले ही कह चुका हूं मेरे पास पैसे नहीं हैं। मैं सच कहता हूं।"

"तो फिरखाना क्यों खाया?"

"भूख लगी थी....।" विनीत ने उत्तर दिया। सुनकर लाला ने रोटियां बनाने वाले अपने आदमी से कहा- बीरा, इस बाबू की पैंट और बुशर्ट उतारकर रख लो। बाप का माल समझ रखा है! आये और खा-पीकर चल दिये।"

"ए लाला!" विनीत का स्वर ऊंचा हो गया—“यदि मेरे बाप को कुछ कहा तो थोबड़ा तोड़कर रख दूंगा!"

"और सुन लो।” सुनकर लाला भड़क उठा—“खाना खाया और ऊपर से मुझ पर ही रौब झाड़ रहा है। तुम कपड़े उतारो इसके।"

बीरा नाम का आदमी तुरन्त ही उसके पास आ गया। विनीत की ओर खा जाने बाली दृष्टि से देखता हुआ बोला—“हूं....बदमाश बनते हो। एक झापड़ में सारी बदमाशी निकालकर रख दूंगा। पैसे निकालो....!"

“पहलवान! कल ही पन्द्रह वर्ष की सजा काटकर निकला हूं। मुझसे पैसे मांगते बक्त इस बात का ध्यान रखना।" सुनकर बीरा और लाला दोनों सहम गये और एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे। आस-पास और भी लोग जमा हो गये थे। लाला ने तनिक शान्ति से काम लिया—"तो भैया, मुझसे पहले कह देते कि मैं भूखा हूं और मेरे पास कोई पैसा नहीं है। मैं तुम्हें मना थोड़े ही करता। प्रत्येक सोमवार को मैं दो भिखारियों को पेट भर खाना देता हूं।"

"लाला, यदि मैं पहले ही तुम्हें बता देता तो तुम मुझे यहां बैठने भी न देते। मैंने कल से कुछ नहीं खाया था।"

“अब छोड़ो भी....!"
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09-17-2020, 01:00 PM,
#70
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"लाला, यदि मैं पहले ही तुम्हें बता देता तो तुम मुझे यहां बैठने भी न देते। मैंने कल से कुछ नहीं खाया था।"

“अब छोड़ो भी....!"

विनीत ढाबे से निकलकर बाहर सड़क पर आ गया। आज उसने जीवन में पहली बार देखा कि इस दुनिया में शराफत को कोई नहीं समझता। गर्मी तेज थी, पेट की ज्वाला बुझ चुकी थी। वह एक पेड़ की छाया में बैठ गया। घण्टों बैठा रहा और सोचता रहा कि वह अब जायेगा कहां? कहां रहेगा? दोनों वहनों की ओर से तो वह निराश हो ही चुका था। कोई ऐसी रिश्तेदारी भी नहीं थी, जहां वे जा सकती थीं। किसी प्रकार गुजारा करने का सवाल ही नहीं था। उसके विचार में दोनों ने आत्म-हत्या कर ली होगी। यह सब सोचते ही उसका दिल भर आया। जी में आया कि वह रोये। सारे दिन यहीं बैठकर रोता रहे। परन्तु रोने से भी क्या होगा। जो चला गया, वह लौटकर तो नहीं आता। कोई भी नहीं आयेगा। कोई नहीं आयेगा। वह उठा और फिर चल दिया। मन में आया, हो सकता है उसकी दोनों वहनें आज भी जिन्दा हों और मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट भर रही हों। इस विचार ने उसके हृदय में आशा का संचार कर दिया। क्षण भर के लिये उसका चेहरा खिल उठा। सोचने लगा, दोनों वहनों के मिलने पर उसके जीवन में किसी बात की कमी नहीं रहेगी। उसका उजड़ा संसार फिर से बस जायेगा। कल से प्रीति का विचार भी उसके मस्तिष्क में कई बार आ चुका था। परन्तु वह जान बूझकर उधर नहीं गया था। हो सकता है प्रीति की शादी हो गयी हो। यह बात तो निश्चित थी, प्रीति इतने समय तक कुंआरी थोड़े ही रही होगी। उन गलियों में उसके लिये रखा ही क्या है? वह एक बार फिर प्रीति के लिये तड़प उठा। प्रीति ने उससे वायदा किया था....उसे बचन दिया था। उसके अन्दर से आवाज आयी, बक्त बड़े-से-बड़े वायदों को भी तोड़ देता है...

.बड़े बड़े निश्चयों को भी डिगा देता है। उसने प्रीति के विचार को ही अपने मन में से निकाल देना उचित समझा। परन्तु यह भी उसके लिये असम्भव-सी बात थी। शाम तक का घूमना व्यर्थ ही रहा। आज उसने झुग्गी-झोंपड़ियों के भी चक्कर लगाये थे। परन्तु नतीजा कुछ नहीं निकला। शाम हो गयी। विनीत के सामने फिर खाने की समस्या खड़ी हो गयी। फिर उसके दिमाग में लाला का बही ढाबा आया। वह फिर बहीं पहुंच गया। लाला उसे देखते ही समझ गया कि मुसीबत फिर उसके पास आ चुकी है। लाला के कुछ भी कहने से पहले उसने कहा-“लाला, भूख का समय हो चुका है।"

"तो...?"

"खाना खाना है लाला। पैसे मेरे पास अब भी नहीं हैं।"

"दादा।" लाला ने उसे सम्बोधित किया—“मैं बहुत ही गरीब आदमी हूं। मंहगाई का तुम्हें पता ही होगा। इस पर बीस पैसे की एक रोटी देनी पड़ती है। किसी-किसी दिन तो घर से भी लगाना पड़ जाता है।"

"साफ बोलो लाला।" उसने आवाज को कठोर बनाया। वह इस बात को जानता था कि लाला अनुनय विनय से मानने वाला नहीं है।

"बात ये है कि....इस वक्त कोई दूसरा ढाबा देख लो। सामने वाले मोड़ पर छोटन हलबाई का ढाबा है।"

"लाला, मुझे न तो हलवाई से मतलब है और न ही नाई से। भूख का समय है और मैं तुम्हारे पास खाना खाने आया हूं। अब तुम मुझसे यह बताओ कि तुम्हें खाना खिलाना है अथबा नहीं....?" विनीत के स्वर में रोब था।

“भई दादा...तुम तो पीछे ही पड़ गये।"

“लाला, मैं खाने की बात कर रहा हूं।"

“जब आ गये हो तो खिलाना ही पड़ेगा....." विनीत अन्दर आकर बैठ गया। छोकरे ने उसके लिये खाना लगा दिया। खाने में दाल-रोटी के सिवाय और कुछ नहीं था। खाना मिल गया था, यही गनीमत थी। खाना खाकर वह बाहर निकला। लाला ने उसे रोक लिया—"दादा!"

"कहो....."

“एक आदमी है।"

“मतलब की बात करो।"

"उस पर मेरे पचास रुपये चल रहे हैं। पन्द्रह दिन तक खाना खाता रहा। बाद में अंगूठा दिखला दिया। मेरे पचास रुपये वसूल दो। एक-दो बार टोका भी तो कहने लगा, लाला, यदि मुझसे रुपये मांगे तो खटिया खड़ी कर दूंगा। मैं तो यह भी नहीं जानता कि खटिया खड़ी करना किसे कहते हैं। शरीफ आदमी हूं, मैंने उससे उलझना ठीक न समझा।"

"कमीशन क्या होगा?" विनीत ने पूछा।

"कमीशन?"

"तुम्हारी जेब में पचास रुपये आयेंगे, उसमें से मेरा क्या होगा?"

"मैं तुम्हारी इतनी सेवा कर रहा हूं....क्या मुझसे भी कमीशन लोगे?"

"खैर....आज मुझे एक दूसरा काम निबटाना है, कल बात करूंगा।" कहकर विनीत आगे बढ़ गया। आज उसे एक आदमी के मुंह से दादा शब्द सुनने को मिला था, जबकि उसने जीवन में सदा ही इस शब्द से नफरत की थी। परन्तु मजबूरी थी। अपनी वहनों को खोजने के लिये उसे जिन्दा रहना था, जिन्दा रहने के लिये खाना भी जरूरी था। पैसे उसके पास नहीं थे। उसे याद आया किसी ने उससे कहा था, दुनिया में कुछ मांगने से नहीं बल्कि छीनने से मिलता है। रात हो ही चुकी थी। वह एक पार्क की बेंच पर लेट गया। ऊपर खुला आकाश था और नीचे धरती। सोचने लगा-धरती और आकाश....इन दोनों के बीच में ही इन्सान की जिन्दगी पिसकर रह जाती है। कोई इसी दूरी में अपना सब कुछ खो बैठता है और कोई बहुत कुछ पा लेता है। वहनों के विषय में भी सोचा। इस विचार को उसने आने वाले समय पर छोड़ दिया। वह उनकी खोज तब तक करेगा जब तक उसके पास एक भी सांस बाकी है। आज वह केबल प्रीति के विषय में सोचता रहा। वह नीति से मिलने के लिये बेचैन हो उठा। वह एक बार ....केबल एक बार प्रीति की सूरत देखना चाहता था। परन्तु सोचता था कि उसकी शादी हो गयी होगी। ऐसी दशा में वह उससे कहां मिलेगा। यदि वह उसके घर गया तो उसके पिताजी अपने दिमाग में क्या सोचेंगे? रात में वह कुछ सोया और कुछ जागा। प्रीति के विषय में ही सोचता रहा। सबेरे अपने को न रोक सका और प्रीति से मिलने चल दिया।
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