Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:01 PM,
#81
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“अब तो आप जाने का नाम नहीं लेंगे?"

"अर्चना जी।" विनीत बोला—“इतने अहसान! ऐसा न हो कि मैं आपके अहसानों तले ही दबकर रह जाऊं। मुझे विवश कर रही हैं आप।"

“यही समझ लो।" अर्चना बोली- नौकरने आपके लिये ऊपर वाला कमरा ठीक कर दिया होगा। चलो....कमरा दिखलाऊं।"

कुछ भी न कह सका वह। उठकर चुपचाप अर्चना के पीछे चल दिया। नौकर कमरे को ठीक कर चुका था। सब कुछ देखने के बाद अचेना ने पूछा-"कमरा पसद आया?"

"फुटपाथ पर सोने बालों से ऐसी बात नहीं पूछी जाती।"

"अब आप आराम कर लीजिये....मैं चलूं।" विनीत को बहीं छोड़कर अर्चना कमरे से बाहर चली गयी।

विनीत को सब कुछ बड़ा अजीब-सा लगा। जैसे कि वह कोई स्वप्न देख रहा हो। स्वप्न ही तो था—रात वह एक पार्क में हरी घास के ऊपर सोया था और आज शानदार बिस्तर! कैसी चाल है समय की भी! यह सोचकर वह स्वयं हैरानी में डूबा जा रहा था। दरवाजे को बन्द करने के बाद वह बिस्तर पर लेट गया। विचारों का सिलसिला फिर शुरू हो गया। देर तक अर्चना के विषय में सोचता रहा। उसके मन में यह बात भी आयी कि उसे अपने यहां रखने में कहीं उसका कोई स्वार्थ तो नहीं है? परन्तु उसका स्वार्थ क्या हो सकता है! अर्चना को तो केवल उससे हमदर्दी है। उसने उसकी गरीबी और अनाथ अवस्था पर तरस खाया है। हो सकता है वह उससे प्यार कर बैठी हो। बेकार की बात है। प्यार भी इतनी जल्दी हो जाता है क्या? और फिर कोई आधार भी तो हो। वह एक बेघर, बेसहारा इन्सान है। अर्चना केवल उसके जीवन को सुधारना चाहती है। इन्हीं विचारों में जूझते हुये उसे नींद आ गयी।

उसकी आंखें खुली तो पाया- अर्चना उसे पुकार रही थी। वह उठकर बैठ गया। "नींद पूरी हो गयी आपकी?"

“जी....दरअसल...." वह हकलाया।

“परेशानियों में घिरे व्यक्ति को नींद कम ही आती है।"

"परन्तु मैं तो....।"

"इसका मतलब है कि आप इतने परेशान नहीं रहे। खैर, मुझे खुशी हुई।" अर्चना बहीं एक सोफे पर बैठ गयी। शायद वह नौकर से कह आयी थी। उसके बैठने के कुछ ही देर बाद नौकर चाय रखकर चला गया।

विनीत को भी बहीं सोफे पर बैठना पड़ा। उसने पूछा-"आपके पापा नहीं आये अभी?"

“पापा कभी दस बजे से पहले नहीं लौटते।"

मेरा ख्याल है.....आपकी कोई फैक्ट्री....?"

"नहीं....."

"और....?"

“पापा एक होटल के मालिक हैं।" इस विषय में विनीत ने और कुछ अधिक नहीं पूछा। हां, उसने एक विशेष बात नोट की, वह यह कि अर्चना एकटक होकर उसी की ओर देख रही थी। इस बात को उसने अपने मन में कुछ और स्थान दिया, परन्तु दूसरे ही क्षण इसे एक भ्रम समझकर अपने दिमाग में से निकाल दिया।

चाय समाप्त हो चुकी थी। “मिस्टर विनीत , कहीं घूमने चलेंगे आप?"

"घूमने....?"

"हां।" अर्चना बोली-“प्रत्येक दिन शाम को घूमना मेरी आदत सी बन गई है।"

"मैं आपकी आदत में रुकावट नहीं डालूंगा।"

"परन्तु आप....?"

"इन्कार कैसे कर सकता हूं।" विनीत ने कहा- लेकिन मुझे आपके साथ देखकर ....मेरा मतलब था कि....?" वह अपने शब्द पूरे न कर पाया।

सुनकर अर्चना खिलखिलाकर हंस पड़ी। फूलों जैसी मुक्त हंसी। हंसी रुकने पर वह बोली —“मिस्टर विनीत ! कालेज के वातावरण में रहने के बाद भी आप ऐसे थोथे विचारों को पकड़े हुये हैं? यह तो बीसवीं सदी है। लड़के और लड़की में अन्तर ही कितना रह गया

"जी...."

"और फिर छोटे लोगों में ऐसी बातें चलती हैं। यहां ऊंचे लोगों में आपको सभ्यता का दूसरा रूपही देखने को मिलेगा।"

"क्षमा चाहता हूं।"

"किस बात की?"

"मुझे ऐसी बात नहीं करनी चाहिये थी। और फिर घूमने के समय बहुत से लोग अपने साथ नौकरों को भी तो ले जाते हैं।"

अर्चना बात की गहराई को समझ गयी। सुनकर उसे दुःख तो हआ, परन्तु उसने अपने चेहरे पर ऐसे भावों को न आने दिया। विनीत को समझाने की कोशिश की-"मिस्टर विनीत , एक मित्र और नौकर में अन्तर समझना चाहिये। मेरा आपसे केवल इतना स्वार्थ है कि आपकी जिन्दगी बदल जाये....आपका खोया संसार आपको मिल जाये। इसके बाद आप यहां से जाने के लिये कहेंगे तो मैं आपको रोवूगी नहीं। उसके लिये मैं अभी से पूरी-पूरी कोशिश करूंगी।"

"धन्यवाद!"

"मैंने नौकर को आपके लिये कपड़े लेने भेजा है। वह आता ही होगा।"

अर्चना के शब्द पूरेही हुए थे, तभी दरवाजे से नौकर की आवाज सुनायी दी। अर्चना ने आगे बढ़कर उसके हाथ से पैकेट ले लिया। खोला, उसमें से पेंट तथा शर्ट निकालकर सोफे पर रख दी।
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09-17-2020, 01:02 PM,
#82
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
विनीत बिस्मय से उसकी ओर देखता रह गया—“यह किसलिये?"

"आपके लिये।" अर्चना बोली- फिलहाल जल्दी थी इसलिये रेडीमेड कपड़े मंगा लिये हैं। कल को दो-तीन सूट सिलवा दूंगी....."

"नहीं अर्चना जी.....” वह उठकर खड़ा हो गया।

“क्या हुआ....?”

"मेरे लिये यह सब....यह सब....।" वह हकलाकर रह गया।

“साफ कहिये...."

"दरअसल मैं नहीं चाहता कि आप मुझ पर इतना दबाब डालें।"

बैठ जाओ।" अर्चना बोली-“एक बात बतायेंगे? बाहरी रूप से देखने पर एक भिखारी और राजा में क्या अन्तर होता है?"

"वह तो है।"

अर्चना ने कहा- "मुख्य अन्तर है पोशाक! दोनों के कपड़े एक जैसे नहीं होते। परन्तु यदि एक भिखारी को राजा के कपड़े पहना दिये जायें, क्या तब भी लोग उसे भिखारी ही समझेंगे? नहीं, क्योंकि हमारी सभ्यता और शिक्षा, मात्र देह के कपड़े रह गये हैं। किसी की हकीकत क्या है, इस बात को कौन देखता है? एक आम बात है, लोग किसी का चेहरा देखने से पहले उसके कपड़ों को देखते हैं।"

“जी...."

“पेट भरा हो परन्तु शरीर पर कपड़ा न हो तो उस इन्सान को लोग भूखा ही समझते हैं।"

"ठीक कहती हैं आप।”

"तब फिर अपने कपड़े बदल लीजिए। मैं बाहर जाती हूं, आप तैयार हो जाइये।"

विनीत के कुछ कहने से पहले ही अर्चना बाहर चली गयी। उसने खड़े ही खड़े उन कपड़ों को छकर देखा। कपड़े ऊंची कीमत के थे। अर्चना ने ठीक ही कहा था कि आज की दुनिया में केबल कपड़ों की कीमत है, इन्सान को कौन समझता है। काफी देर तक वह असमंजस में खड़ा रहा। एक प्रश्न ही मस्तिष्क पर उभरा आखिर अर्चना उसके लिये यह सब क्यों कर रही है? क्या चाहती है वह उससे?

उत्तर उसके पास न था। वह केवल अपने ही विचारों में उलझकर रह गया। तभी उसको ध्यान आया कि अर्चना कमरे में आती ही होगी। उसने कपड़े बदल डाले, आईने में बाल ठीक किये और सोफे पर बैठकर अर्चना की प्रतीक्षा करने लगा। उसकी दृष्टि दरबाजे से हटकर अतीत को झांकने लगी थी—इसलिये उसे इस बात का भी पता न चला कि अर्चना कब से दरवाजे में खड़ी है। खिलखिलाहट भरी हंसी।
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09-17-2020, 01:02 PM,
#83
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
विनीत ने चौंककर दरबाजे की ओर देखा। झेंप-सा गया वह और उठकर खड़ा हो गया। न जाने क्यों उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह अर्चना के सामने बहुत छोटा हो गया हो। उसकी झेंप अर्चना से छुपी न रह सकी। बात को संभालते हुए वह बोली- "देखा आपने....।"

"ज.....जी....."

"कितने खूबसूरत लग रहे हैं आप।"

"ओह.." ठंडा-सा उसके मुंह से निकल गया।

“आइए....चलें....."

विनीत ने कुछ नहीं कहा। अर्चना के पीछे चलता हआ वह नीचे आ गया। गाड़ी गैरेज से बाहर ही खड़ी थी। विनीत को बैठने का इशारा करके उसने गाड़ी का इंजन चालू किया। दरबान ने पहले ही गेट खोल दिया था। गाड़ी मुख्य द्वार से निकल कर सपाट सड़क पर दौड़ने लगी। विनीत उसके बराबर में ही बैठा था। यकायक ही जब अर्चना का बदन उससे छू जाता तो वह स्वयं में कुछ अजीब-सा महसूस करता। जानबूझकर वह उससे दूर ही रहने की कोशिश कर रहा था। अर्चना के स्वर ने खामोशी को तोड़ा-"क्या सोच रहे हैं आप?"

"मैं...कुछ भी नहीं...बस यूं ही.....”

"सुधा और अनीता के विषय में?"

“उनके ख्याल को तो मैं अपने से अलग ही नहीं कर सकता।”

"उसके विषय में तुम चिन्ता मत करो। मेरे अंकल यहां एस.पी. हैं। जब तुम सो रहे थे, उस समय मैंने फोन किया था। उन्होंने सुधा और अनीता का नाम नोट कर लिया। वे पुलिस ऑफिसर हैं, उनके लिये दोनों का पता लगाना मुश्किल बात न होगी।"

"ओह, धन्यवाद।"

"परन्तु आपको तो उनसे अलग हुए कई वर्ष बीत चुके हैं। मैं समझती हूंअब उनके चेहरे भी आपके लिये अजनबी से हों।"

"शायद....." वह एक गहरी सांस लेकर रह गया।

“समय के साथ इन्सान का चेहरा भी तो बदलता है।"

“जी....."

“वैसे चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। हां, घूमने कहां चलेंगे?"

जहां आपकी इच्छा हो।"

"आप तो इस शहर में रहकर बड़े हुए हैं, फिर भी ऐसी बात कह रहे हैं। मुख्य जगह तो दो ही हैं। लायन हिल और सुन्दर घाटी।"

“कहा न....जहां आपकी इच्छा हो।"

अर्चना ने कुछ नहीं कहा। अगले चौराहे पर पहुंचकर अर्चना ने अपनी गाड़ी को दायीं ओर मोड़ लिया। किसी अजगर की तरह रेंगती हई सड़क दूर पर्वतों पर जाकर लोप हो जाती थी। सड़क के दोनों ओर ऊंचे ऊंचे बंगलों की कतार काफी आगे तक चली गयी थी। काफी दूर आगे चलने पर जंगल का क्रम शुरू हो गया। यह इलाका सुनसान-सा लगता था। अभी यहां किसी प्रकार की भी आबादी नहीं थी। सामने एक छोटा-सा पुल था। कल-कल करती हुई जलधारा बड़े बेग के साथ वह रही थी। अर्चना ने पल के दूसरे छोर पर गाड़ी को रोक दिया। विनीत के साथ वह गाड़ी से बाहर आ गयी। दोनों खामोश इठलाती नदी की जबान लहरों का नृत्य देखने लगे। “विनीत !" अर्चना ने चुप्पी को तोड़ा-"कितना मनोरम दृश्य है।"

"हां....ऐसा लगता है कि जैसे यह दृश्य कितनी धुंधली यादों को अपने में छुपाये बैठा है।"

“विनीत ....।" अकस्मात् अर्चना के मुंह से निकल गया।

"आज यहां आया तो लगा कि जैसे सोयी हुई जिन्दगी करवट ले रही हो।"

"फिर दार्शनिक बनने लगे आप तो.....” अर्चना बोली।

"नहीं।” विनीत ने कहा- "आप जानती हैं कि बीते हुये दिनों की झलक ही किसी को तड़पाने के लिये काफी होती है....।"

"भावुकता में वह रहे हैं?"

"शायद....परन्तु मैं और प्रीति घण्टों उन चट्टानों पर बैठे रहते थे।” विनीत ने हाथ से दूर चट्टानों की ओर इशारा किया, शाम ढल जाती थी....सूरज डूब जाता था। पता नहीं इस नदी की स्वर लहरों में क्या जादू था कि उठने को मन नहीं करता था। बाद में रात जवान होती....पहाड़ियां खामोश हो जातीं। मैं और प्रीति हाथ में हाथ डाले पुल पर से गुजर जाते। परन्तु वे दिन....ओह....।" एक निश्वांस लेकर विनीत खामोश हो गया।

“फिर इस नदी ने क्या दिया आपको?” अर्चना ने उसकी बातों में दिलचस्पी लेते हुए पूछा।

"बहुत कुछ......"

"वह क्या...?"
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09-17-2020, 01:02 PM,
#84
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“अब तो आप जाने का नाम नहीं लेंगे?"

"अर्चना जी।" विनीत बोला—“इतने अहसान! ऐसा न हो कि मैं आपके अहसानों तले ही दबकर रह जाऊं। मुझे विवश कर रही हैं आप।"

“यही समझ लो।" अर्चना बोली- नौकरने आपके लिये ऊपर वाला कमरा ठीक कर दिया होगा। चलो....कमरा दिखलाऊं।"

कुछ भी न कह सका वह। उठकर चुपचाप अर्चना के पीछे चल दिया। नौकर कमरे को ठीक कर चुका था। सब कुछ देखने के बाद अचेना ने पूछा-"कमरा पसद आया?"

"फुटपाथ पर सोने बालों से ऐसी बात नहीं पूछी जाती।"

"अब आप आराम कर लीजिये....मैं चलूं।" विनीत को बहीं छोड़कर अर्चना कमरे से बाहर चली गयी।

विनीत को सब कुछ बड़ा अजीब-सा लगा। जैसे कि वह कोई स्वप्न देख रहा हो। स्वप्न ही तो था—रात वह एक पार्क में हरी घास के ऊपर सोया था और आज शानदार बिस्तर! कैसी चाल है समय की भी! यह सोचकर वह स्वयं हैरानी में डूबा जा रहा था। दरवाजे को बन्द करने के बाद वह बिस्तर पर लेट गया। विचारों का सिलसिला फिर शुरू हो गया। देर तक अर्चना के विषय में सोचता रहा। उसके मन में यह बात भी आयी कि उसे अपने यहां रखने में कहीं उसका कोई स्वार्थ तो नहीं है? परन्तु उसका स्वार्थ क्या हो सकता है! अर्चना को तो केवल उससे हमदर्दी है। उसने उसकी गरीबी और अनाथ अवस्था पर तरस खाया है। हो सकता है वह उससे प्यार कर बैठी हो। बेकार की बात है। प्यार भी इतनी जल्दी हो जाता है क्या? और फिर कोई आधार भी तो हो। वह एक बेघर, बेसहारा इन्सान है। अर्चना केवल उसके जीवन को सुधारना चाहती है। इन्हीं विचारों में जूझते हुये उसे नींद आ गयी।

उसकी आंखें खुली तो पाया- अर्चना उसे पुकार रही थी। वह उठकर बैठ गया। "नींद पूरी हो गयी आपकी?"

“जी....दरअसल...." वह हकलाया।

“परेशानियों में घिरे व्यक्ति को नींद कम ही आती है।"

"परन्तु मैं तो....।"

"इसका मतलब है कि आप इतने परेशान नहीं रहे। खैर, मुझे खुशी हुई।" अर्चना बहीं एक सोफे पर बैठ गयी। शायद वह नौकर से कह आयी थी। उसके बैठने के कुछ ही देर बाद नौकर चाय रखकर चला गया।

विनीत को भी बहीं सोफे पर बैठना पड़ा। उसने पूछा-"आपके पापा नहीं आये अभी?"

“पापा कभी दस बजे से पहले नहीं लौटते।"

मेरा ख्याल है.....आपकी कोई फैक्ट्री....?"

"नहीं....."

"और....?"

“पापा एक होटल के मालिक हैं।" इस विषय में विनीत ने और कुछ अधिक नहीं पूछा। हां, उसने एक विशेष बात नोट की, वह यह कि अर्चना एकटक होकर उसी की ओर देख रही थी। इस बात को उसने अपने मन में कुछ और स्थान दिया, परन्तु दूसरे ही क्षण इसे एक भ्रम समझकर अपने दिमाग में से निकाल दिया।

चाय समाप्त हो चुकी थी। “मिस्टर विनीत , कहीं घूमने चलेंगे आप?"

"घूमने....?"

"हां।" अर्चना बोली-“प्रत्येक दिन शाम को घूमना मेरी आदत सी बन गई है।"

"मैं आपकी आदत में रुकावट नहीं डालूंगा।"

"परन्तु आप....?"

"इन्कार कैसे कर सकता हूं।" विनीत ने कहा- लेकिन मुझे आपके साथ देखकर ....मेरा मतलब था कि....?" वह अपने शब्द पूरे न कर पाया।

सुनकर अर्चना खिलखिलाकर हंस पड़ी। फूलों जैसी मुक्त हंसी। हंसी रुकने पर वह बोली —“मिस्टर विनीत ! कालेज के वातावरण में रहने के बाद भी आप ऐसे थोथे विचारों को पकड़े हुये हैं? यह तो बीसवीं सदी है। लड़के और लड़की में अन्तर ही कितना रह गया

"जी...."

"और फिर छोटे लोगों में ऐसी बातें चलती हैं। यहां ऊंचे लोगों में आपको सभ्यता का दूसरा रूपही देखने को मिलेगा।"

"क्षमा चाहता हूं।"

"किस बात की?"

"मुझे ऐसी बात नहीं करनी चाहिये थी। और फिर घूमने के समय बहुत से लोग अपने साथ नौकरों को भी तो ले जाते हैं।"

अर्चना बात की गहराई को समझ गयी। सुनकर उसे दुःख तो हआ, परन्तु उसने अपने चेहरे पर ऐसे भावों को न आने दिया। विनीत को समझाने की कोशिश की-"मिस्टर विनीत , एक मित्र और नौकर में अन्तर समझना चाहिये। मेरा आपसे केवल इतना स्वार्थ है कि आपकी जिन्दगी बदल जाये....आपका खोया संसार आपको मिल जाये। इसके बाद आप यहां से जाने के लिये कहेंगे तो मैं आपको रोवूगी नहीं। उसके लिये मैं अभी से पूरी-पूरी कोशिश करूंगी।"

"धन्यवाद!"

"मैंने नौकर को आपके लिये कपड़े लेने भेजा है। वह आता ही होगा।"

अर्चना के शब्द पूरेही हुए थे, तभी दरवाजे से नौकर की आवाज सुनायी दी। अर्चना ने आगे बढ़कर उसके हाथ से पैकेट ले लिया। खोला, उसमें से पेंट तथा शर्ट निकालकर सोफे पर रख दी।
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09-17-2020, 01:03 PM,
#85
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"प्रेम का वह रूप, जिसे आदमी अपनी सामान्य दृष्टि से नहीं देख पाता। अर्चना जी, लोग प्रेम करते हैं....उसके लिये त्याग भी करते हैं। परन्तु प्रीति का प्रेम अपने आपमें एक ऐसी साधना है जहां तक आम व्यक्ति पहुंच नहीं पाते। शायद प्रीति ने यह सब इसी नदी से सीखा था। देख नहीं रही हैं आप....इसकी धारा में ठहराब है कहीं?"

"नहीं....."

“जानती हैं क्यों?"

"आप बता दीजिये।"

"इसलिये कि दूर बहुत दूर कोई उसकी प्रतीक्षा कर रहा है, इस जलधारा को वहां तक पहुंचना ही है....भले ही इसे लाखों बाधाओं में से गुजरना पड़े। किनारे पर फैला हुआ रेत इस बात का प्रमाण है कि इसने पत्थरों को भी चूर-चूर कर दिया है। मन्जिल तो दूर है ही परन्तु प्रियतम की चाह इसे और भी बेग से बढ़ने पर विवश कर रही है।"

अर्चना ने बीच में ही पूछा- और मान लीजिये, किसी ने इस पर बांध बना दिया, तब? क्या तब भी यह अपने प्रियतम तक पहुंचने में सफल हो जायेगी।"

"शायद नहीं।" विनीत ने कहा-"परन्तु ऐसी स्थिति में यह अपने नेत्रही मिटा डालेगी....अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर देगी। फिर इसे कोई वहती धारा न कह सकेगा। वह एक जलाशय का रूप लेकर रह जायेगी।"

अर्चना ने कुछ नहीं कहा। विनीत के शब्दों में दर्द तो था ही, साथ ही एक गहरी सच्चाई भी थी। संसार का कटु अनुभव उसे था। उसने एक छोटा-सा पत्थर उठाकर जलधारा में फैंक दिया। उस स्वर में पत्थर के गिरने पर आवाज गुम हो गयी। लम्बी खामोशी। परन्तु इस खामोशी में विनीत वहां से हटकर अपने अतीत की ओर चला गया था, जिसमें बेचैनी थी, तड़प थी। प्रीति के साथ के दिन उसकी आंखों के आगे साकार हो उठे। गुजरी जिंदगी का रूप उसके सामने आकर खड़ा हो गया। बस, एक आह भरकर रह गया वह। विवशता!

हां, विनीत के रास्ते में यही एक दीवार थी। सोचने लगा, जब वह उस खुशी को अपनाने के लिये तैयार था, उस समय दुनिया ने उसकी प्रसन्नताओं का गला घोंट दिया। अपने भी दीवार बनकर खड़े हो गये।

और जब....उसे सब कुछ मिला, वह कुछ भी न ले सका। लेकिन प्रीति के विषय में विनीत को ऐसा लग रहा था कि जैसे वह पापी है। उसे किसी की भावनाओं से खेलने का कोई हक नहीं है। उसे प्रीति के जीवन से नहीं खेलना चाहिये था। उससे साफ कह देना चाहिये था, प्रीति....मैं इस जन्म में कभी तुम्हारा नहीं हो सकता। मुझे भूलकर अपने तरीके से जीना सीखो। उसकी विचारधारा टूटी।

अर्चना कह रही थी "शायद बहुत ही दूर खो गये हैं आप।”

"जी....?"

"मेरा मतलब.....आखिर कब तक इतनी गहराई से सोचते रहेंगे?"

"जब तक सांसों का सिलसिला नहीं टूटता।"

"परन्तु इससे मिलता क्या है?"

"शांति।" विनीत ने दूर शून्य की ओर देखते हुये कहा- शायद आप नहीं जानतीं कि विचारों के साथ वहता हुआ इंसान भी बहुत दूर चला जाता है। उस समय लगता है जैसे अपने उसके ही निकट खड़े हों। कितना सुख मिलता है इसमें....।"
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09-17-2020, 01:03 PM,
#86
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"परन्तु बाद में?"

"बाद में?"

"जब उन विचारों से निकलकर इंसान अपने बास्तबिक संसार में लौटता है, तब उसे क्या मिलता है....?" अर्चना ने पूछा।

"घुटन....तड़प और बेचैनी।” उसे कहना पड़ा।

अर्चना होठों में मुस्करायी—"विनीत साहब....छोड़ दीजिये उन विचारों को। उन भावनाओं को भी अपने निकट मत आने दीजिये जो आपको सबेरे से शाम तक परेशान करती रहती हैं....आपको जीने भी नहीं देतीं।"

"काश ऐसा होता।” विनीत ने गहरी सांस ली।

"क्यों?"

“यह संभव नहीं है अर्चना जी।"

"आप चाहेंगे तो संभव भी हो जायेगा।"

विनीत धीरे से हंसा। उसने एक बार अर्चना की ओर देखा, फिर नदी की लहरों पर दृष्टि जमाते हुये बोला-"यदि आज सभी कुछ मेरे वश में होता तो मैं आपको इस दशा में न मिलता। रही भावनाओं की बात....उन्होंने मेरा छीन ही क्या रखा है? अपने जो दूर हो जाते हैं, उन्हें तो कोई भूल ही नहीं पाता। हां प्रीति की बात है....मन प्रत्येक समय उनकी ओर देखता रहता है....परन्तु इसमें भी मेराही दोष है। मैंने जान-बूझकर उसका हाथ नहीं थामा।

"क्यों....?" अर्चना ने प्रश्न किया।

"क्योंकि ऐसी अवस्था में, जब मैं स्वयं बेघर हूं....किसी को सहारा कैसे दे सकूँगा?"

अर्चना ने कुछ नहीं कहा। खामोश नदी की लहरों को देखती रही। शाम घिरने लगी थी। पश्चिम की दिशा में उतरने बाला सूरज निरन्तर पहाड़ियों के पीछे होता जाता था। सहसा अर्चना की दृष्टि अपनी रिस्टवाच पर पड़ी। वह बोल उठी—“सुन्दर घाटी नहीं देखोगे?"

"अब नहीं।"

"क्यों?"

“न जाने क्यों मुझे इस खूबसूरत बादियों से डर लगने लगा है। कभी-कभी तो यह भी सोचने लगता हूं, काश कभी शाम न होती तो कितना अच्छा रहता।"

"तब फिर एक काम क्यों नहीं कर लेते आप?"

"क्या...?"

"कविता लिखना शुरू कर देते। खैर....आइये चलें।” अर्चना के कहने का क्या अर्थ था, इस बात को विनीत तुरन्त ही न समझ सका। वह उसके पीछे गाड़ी तक आ गया।

विनीत को महसूस हुआ कि जैसे उसने प्रीति से झूठ बोला है। प्रीति को अपने हृदय से निकाल देना उसके वश की बात नहीं थी। वह बिस्तर पर लेटा इसी विषय में सोच रहा था। कहने को तो उसने प्रीति से कह दिया था, परन्तु कितना कठिन था, इस बात का पता उसे अब चला था। प्रीति के विषय में सोचते ही उसका अन्तर्मन कसमसाकर रह गया। सोचने लगा, कैसी पुजारिन है वह....। क्या वह इस बात को नहीं जानती कि इंसान भाग्य के दायरे को तोड़कर कभी बाहर नहीं निकल सकता? क्या वह इस बात को नहीं जानती कि जो स्वयं अपना नहीं है, वह किसी का नहीं हो सकता। शायद वह यह सब नहीं जानती। और फिर उसने कहा भी था—'मैं इस बात को नहीं जानती कि मेरा देवता निर्मम है अथवा दयालु। मेरा काम तो केवल पूजा करना है....मुझे फल मिले अथवा न मिले, इस बात को मैं नहीं जानती।' उसने अर्चना को कई तरह से समझाने का प्रयत्न किया था। कई तर्क उसके सामने रखे थे। परन्तु प्रीति....पता नहीं क्या चाहती है वह। विनीत की सारी रात इन्हीं विचारों में डूबते उतराते बीती। सारी रात एक पल के लिये भी नींद न आ सकी।
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09-17-2020, 01:03 PM,
#87
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
सबेरे अर्चना ने दरवाजा खटखटाया। उठकर उसने दरवाजा खोला। अर्चना ने मुक्त मुस्कान से उसकी ओर देखा। चाहकर भी वह मुस्करा न सका। उसकी उदासी को देखकर अर्चना की मुस्कान भी होठों में समा गयी। उसने देखा, विनीत की आंखों में खुमारी थी। "क्या बात है?"

“जी....?"

"आप रात भर सोये नहीं क्या?"

"नींद न आये तो सोने वाले का क्या दोष ....?" उसने कहा।

“लगता है रात भर विचारों की दुनिया में रहे हैं?"

“जी।” वह केवल इतना ही कह पाया।

अर्चना ने इस विषय में कुछ नहीं पूछा। वह सोफे पर बैठ गयी। विनीत भी खोया-खोया-सा वहीं एक दूसरे सोफे पर बैठ गया। नौकर सवेरे की चाय लेकर उपस्थित हुआ और चला गया। अर्चना ने दो प्याले बनाकर एक उसकी ओर बढ़ा दिया तथा दूसरे को अपने होठों से लगा लिया।

चाय के मध्य अर्चना ने पूछा- प्रीति का घर कहां है?"

"क्यों?"

"यूं ही पूछ रही हूं....."

"पुराने बाजार के पास।"

"मेरा विचार है कि आप रात भर उसी के विषय में सोचते रहे हैं। क्यों न अब देवी जी के दर्शन कर लिये जायें....।" उसने विनीत की ओर देखा।

"आप जा सकती हैं।"

और आप....?"

"मैं उस दुनिया से काफी दूर निकल आया हूं। वहां पहुंचकर मैं फिर से तड़प और घुटन मोल लेना नहीं चाहता।"

“परन्तु यहां तो घुट रहे हैं आप।”

"विचारों की बात है।" विनीत बोला-"आप जानती होंगी कि विचारों पर किसी का कोई अधिकार नहीं होता।"

अर्चना खामोश रही। वास्तविकता यही थी कि विनीत रात भर प्रीति के विषय में ही सोचता रहा था। उसने रात यह फैसला किया था कि वह दिन में प्रीति से अवश्य मिलेगा। अर्चना के कहने पर उसने इस सत्य को नहीं स्वीकारा। महज इसलिये कि वह अर्चना के सामने अपने को छोटा साबित नहीं करना चाहता था।

अर्चना ने फिर खामोशी तोड़ी—"मैंने अंकल को फिर फोन किया था।"

“उत्तर में क्या कहा उन्होंने?" उत्सुकता से विनीत ने पूछा।

"अभी तक कुछ नतीजा नहीं निकला–परन्तु उन्होंने कहा है कि उन्हें सफलता मिल जायेगी। कुछ समय अवश्य लग जायेगा।"

"ओह....."

"मैंने पापा से भी सब कुछ बता दिया है। हां, जानबूझकर आपकी जेल बाली बात उन्हें नहीं बतायी।"

"क्यों....?" हालांकि विनीत भी यही चाहता था, फिर भी उसने पूछा।

“सोचा, सुनकर पता नहीं वे क्या सोचने लगें....।"

“क्या?"

"मैं क्या जानूं....?"

“आपको सब कुछ बता देना चाहिये था।"

"क्यों...?"

"भलाई इसी में थी।"

"परन्तु क्यों....?"

"अर्चना जी।" विनीत ने तुरन्त ही कहा—“यदि सच लाख पर्दो में भी छुपाया जाये, तब भी सच्चाई अधिक समय तक नहीं छिपती। कभी न कभी सत्य सामने आ ही जाता है। आज तो उन्हें पता नहीं है कि मेरी बास्तविकता क्या है। परन्तु कल....जब उन्हें इस बात का पता चलेगा कि मैंने किसी का खून किया था और मैं सजा काट आया हूं, तब वे मेरे विषय में क्या सोचेंगे? यही न कि मैंने उन्हें धोखा दिया है। हो सकता है—बे यह भी सोच बैठे कि उनकी बेटी को गुमराह....."

"ये सब थोथी बातें हैं विनीत साहब।” अर्चना बोली-“बड़े लोगों में इन बातों को कोई महत्व नहीं दिया जाता।"

“जी!"

"और फिर इस बात का पता उन्हें चलेगा भी कैसे?"

विनीत कोई उत्तर न दे सका। चाय समाप्त हो चुकी थी। बाथरूम जाने से पहले उसने कहा—“मैं आज दोपहर का खाना यहां नहीं खा सकूँगा।"

"क्यों?" अर्चना चौंकी।

"मुझे एक मित्र से मिलने जाना है।"

क्या मैं साथ नहीं जा सकती? मैं आपको गाड़ी में छोड़ दूंगी। यदि आप मुझे वहां नहीं ले जाना चाहेंगे तो मत ले जाइये। मैं कहीं बाहर ही खड़ी आपकी प्रतीक्षा करती रहूंगी।"

"क्यों...?"

“आपको साथ लाने के लिये।"
.
"नहीं..... कह नहीं सकता कि मुझे अपने मित्र के पास कितना समय लगेगा।"

सुनकर अर्चना होठों में मुस्कराकर रह गयी, जिसका अर्थ था विनीत की मनोदशा उससे छुपी नहीं रही है। परन्तु विनीत इस मुस्कराहट को न देख सका। अर्चना कमरे से बाहर चली गयी तो वह भी बाथरूम में घुस गया। नहा-धोकर तैयार हुआ। नाश्ते की मेज पर अर्चना ने अपने पापा से उसका परिचय कराया—“पापा, ये हैं मिस्टर विनीत ! ग्रेजुएट हैं। परन्तु नौकरी की समस्या सामने है। परिवार में कोई है नहीं, मैं इन्हें अपने साथ ले आयी हूं।"

"अच्छा किया बेटी।" वे बोले-"मिस्टर विनीत के आ जाने से तुम्हारा मन वहलता रहेगा। क्यों मिस्टर विनीत....?" उन्होंने विनीत की ओर देखा।

“जी....?"

"तुम्हें यहां किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होगी। तुम्हारी नौकरी का प्रबन्ध मैं स्वयं कर

“जी....धन्यवाद!"

नाश्ता समाप्त हो गया। नाश्ते के बाद अर्चना के पापा तो चले गये। अर्चना ने विनीत से पूछा- तो जा रहे हैं
आप?"

“जी....?"

"अपने मित्र से मिलने।"

"हां...."

"जल्दी लौट आयेंगे न?"

“कोशिश करूंगा।"

"तब फिर ऐसा कीजिये....आपको ड्राइवर छोड़ आयेगा।"

"मैं स्वयं चला जाऊंगा।"
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09-17-2020, 01:04 PM,
#88
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
अर्चना फिर मुस्कराकर रह गयी। विनीत उठा तथा अर्चना से कुछ और बताये बिना कमरे से बाहर निकल गया। अर्चना पहले ही सब कुछ समझ चुकी थी, उसने जानबूझकर कुछ नहीं कहा। कोठी से बाहर निकलकर विनीत खुली सड़क पर आ गया। कुछ क्षणों के लिये छिटककर उसने अपने आपसे पूछा, आखिर क्यों जा रहा है वह प्रीति से मिलने? वह तो स्वयं उससे दूर चला आया था। उससे बहुत ही दूर रहना चाहता था वह तो। लेकिन उसके पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर न था। लगता था कि जैसे किसी ने उसे जंजीर में जकड़ रखा हो और वह उसकी ओर खिंचता चला जा रहा हो। चलते समय उसने अर्चना के विषय में भी सोचा। उसे ऐसा महसूस होने लगा था कि जैसे वह उसकी ओर खिंच रहा हो। कितना ध्यान रख रही थी वह उसका। परन्तु क्यों? वह केबल बिचारों में ही उलझकर रह गया। कभी अर्चना के विषय में सोचता तो कभी प्रीति के विषय में। चलते-चलते वह बहुत दूर निकल गया। मुख्य सड़क से गुजरते हुए उसकी दृष्टि फिर व्याकुल हो उठी। सुधा तथा अनीता का ख्याल आते ही वह तड़पकर रह गया। न जाने उसकी दोनों वहनें कहां होंगी....। किस तरह गुजारा कर रही होंगी? जिन्दा भी होंगी अथवा नहीं? सैकड़ों प्रश्न! और उत्तर? अपने विचारों में उलझा हुआ वह प्रीति के घर के सामने पहुंच गया। दरवाजे की ओर देखा....यकायक ही हृदय की धड़कनें बढ़ गयीं। फिर कई प्रश्न उभरे और गायब हो गये। दरवाजा खुला था, उसने चोरों की तरह अन्दर प्रवेश किया, फिर रुककर प्रीति को पुकारा। केवल कुछ ही क्षणों की प्रतीक्षा। प्रीति सामने आयी। विनीत को देखते ही उसकी आंखों में चमक आ गयी। प्रसन्न स्वर में बोली-"ओह....विनीत ।"

"हां....।" वह बोला।

"आओ फिर, खड़े क्यों हो....?"

विनीत ने कुछ नहीं कहा। प्रीति के पीछे चलकर वह उसके कमरे में आ गया। विनीत के बैठने के बाद प्रीति ने कहा "कैसे हो विनीत ....?"

"ठीक हूं...."

"मुझे विश्वास था कि तुम जरूर आओगे....मेरी साधना व्यर्थ ही नहीं जायेगी। अब तो तुम्हें यह मानना ही पड़ेगा कि प्रेम में कितनी शक्ति होती है?"

"हां, परन्तु प्रीति....।" विनीत कुछ कहता-कहता रुक गया और फिर बोला—"हमारे रास्ते में विवशता नाम की जो दीवार खड़ी है, उसका टूटना मुश्किल ही है। मैं स्वयं परेशान हूं कि मैं क्या करूं? तुम्हारे बिना रह भी नहीं सकता....तुम्हें पा भी नहीं सकता।"

"क्यों....?" प्रीति ने पूछा। उसकी आशा फिर निराशा में बदल गयी।

“इसलिये कि मैं विवश हूं।"

"लेकिन क्या बिबशता?"

प्रीति।" विनीत ने कहा- "जब तक मुझे सुधा तथा अनीता नहीं मिल जातीं, उस समय तक मैं अपने आपको दूसरी दुनिया में नहीं रख सकता। हां, तुम्हें इतना विश्वास करना पड़ेगा कि तुम्हारे सिवाय मुझ पर किसी दूसरे का अधिकार नहीं हो सकता।"

“विश्वास भी न हो...तब भी मैं जिन्दा रहूंगी विनीत ।" प्रीति ने कहा- शायद तुम इस बात को नहीं जानते कि अब तक मेरे दरवाजे से दो बारात लौट चुकी हैं। मैं शादी से साफ इन्कार कर चुकी हूं। केवल तुम्हारे ही लिये पिताजी और मम्मी मुझे न जाने क्या-क्या कह डालते हैं।"

"ओह!"

"उनकी दृष्टि में मैं चरित्रहीन हूं।"

"प्रीति।"

"मैंने सब कुछ सहन किया विनीत ....सब कुछ सुनती हूं। केवल इसी आशा पर कि एक दिन मेरा विनीत मुझे अपनी बांहों में भर लेगा। मुझे सदा-सदा के लिए इस घुटन भरे बाताबरण से दूर ले जायेगा।"

"ओह....प्रीति....आखिर तुमने यह सब क्यों किया।" विनीत को स्वयं ही आत्म-ग्लानि सी महसूस हुई—“न जाने समाज तुम्हारे विषय में क्या-क्या कहता होगा....."

"बताती हूं। कुलटा....कमीनी...और बेश्या....."

"प्रीति....।" विनीत जैसे तिलमिला उठा।

"दोष समाज का नहीं है, बल्कि भाग्य का खेल है। मैंने पिताजी से स्वयं कई बार कहा है....मां के आगे आंसू बहाये हैं। मैं इकलौती हूं....इस पर भी किसी को तरस न आया। मैं विवश, दिन-रात रोती रही। तुम्हारा नाम लेती तो पिताजी भड़क उठते। एक दिन तो
उन्होंने यहां तक कह दिया था, देख प्रीति....मैं तुझ पर कोई रोक नहीं लगाता। तू विनीत के अलावा किसी भी लड़के से शादी कर सकती है।"

"परन्तु पहले तो बे तैयार थे...जिस समय पिताजी जिन्दा थे।"

"हां।” प्रीति बोली-“आज तक समझ नहीं पायी कि पिताजी तुमसे इतना खफा क्यों हैं?"

"सीधी सी बात है प्रीति।" विनीत ने कहा-"समय बदलने पर अपनी छाया भी दूर भाग जाती है। खैर...."

लेकिन अब....?"

“मैं केवल तुम्हारा हूं लेकिन वहनों के मिलने के बाद।"

"ओह...."

"अच्छा प्रीति....मैं चलूं....."

"इतनी जल्दी?"

"हां।"

"मां से भी नहीं मिलोगे? बे दूसरे बाले कमरे में हैं। उन्हें पिछले कई दिनों से टाइफाइड हो रहा है।" प्रीति ने विनीत की ओर देखा।

"प्रीति, जो लोग मेरे चेहरे को भी देखना बुरा समझते हैं, उनसे मिलकर क्या होगा।" वह उठने को हुआ परन्तु तभी प्रीति के पिता श्याम लाल जी को दरबाजे में खड़े देखकर वह बुरी तरह बौखलाया। उसके मुंह से एक भी शब्द न निकल सका। प्रीति ने भी देखा था परन्तु उसी प्रकार बैठी रही थी। कई क्षणों की खामोशी। विनीत ने किसी प्रकार अपने आपको संयत किया। अभिवादन के लिये हाथ जोड़े
"ओह....चाचा जी नमस्त।"

श्याम लाल जी ने उसकी नमस्ते का भी उत्तर नहीं दिया। वे अन्दर आ गये। उन्होंने विनीत से सीधा प्रश्न किया—“सबसे पहले तुम मुझे यह बताओ कि तुम यहां क्यों आये हो? इस घर में कदम रखने का साहस तुम्हें कैसे हुआ? क्या जरूरत थी तुम्हें यहां आने की? क्या चाहते हो तुम?"

एक साथ ही कई प्रश्न। विनीत की समझ में नहीं आया कि वह किस प्रश्न का तथा किस प्रकार से उत्तर दे। उसे खामोश देखकर प्रीति ने बात संभाली-"पिताजी, यह क्या कह रहे हैं आप?"

"ठीक कह रहा हूं....जो मुझे कहना चाहिये।” स्वर पहले की तरह कठोर था।

"घर आये दुश्मन से भी इस तरह का व्यवहार नहीं किया जाता। उसे भी सत्कार के साथ बैठाया जाता है। परन्तु आप तो....."

उसके शब्द बीच में ही रुक गये। तुरन्त उन्होंने कहा-"प्रीति, यह इन्सान मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है। यदि कोई आदमी मेरे पेट में छुरा घोंपकर भी चला जाता, तब भी मुझे दुःख नहीं होता। परन्तु यह....यह....."

"पिताजी!" प्रीति जैसे चीख उठी।

"इस आदमी ने मेरे पेट में छुरा नहीं भौंका, परन्तु इसने मुझे दुनिया में सर उठाने के योग्य भी नहीं छोड़ा। मेरे दरवाजे से दो बार बारात बापिस चली गयी। मुझे सारे समाज में बुरा भला सुनने को मिला। आज भी मुझ पर मान-हानि का मुकदमा चल रहा है।"
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09-17-2020, 01:04 PM,
#89
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
विनीत अब कुछ कहने वाला था परन्तु उससे पहले ही प्रीति ने कहा-"परन्तु पिताजी, इन सब बातों के दोषी तो आप स्वयं हैं। यदि आपने मेरी बात मानी होती तो आज आपको समाज में इतना लज्जित क्यों होना पड़ता? सब कुछ स्वयं करने के बाद भी आप विनीत को दोषी ठहरा रहे हैं।"

"तुम चुप रहो प्रीति....।" बे अपनी पूरी शक्ति से चीखे। "

आपने मुझे इतना सब कुछ कहा—मैं चुप रही। आपने मेरी खुशियों को मिटा डाला....मैंने उफ भी न की। आपने मेरी आशाओं को मिटा दिया....मैंने शिकायत भी न की। परन्तु आज....आज मैं चुप न रहूंगी पिताजी! मैं इस समाज से दुनिया से चीख-चीखकर कहूंगी कि आप इन्सान नहीं शैतान हैं। कसाई। आपने स्वयं अपने हाथों से अपनी बेटी का गला दबाया है....उसे तड़पा-तड़पाकर मारा है। आज जो दुनिया मुझे कुलटा और वेश्या समझती है, कम-से-कम वह भी तो इस बात को जान ले कि प्रीति को बुरा बनाने वाला इन्सान कौन हैं।

"प्रीति...."

प्रीति रो उठी-"अब यह सब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता पिताजी....बर्दाश्त नहीं होता। यदि आप मुझे जिन्दगी नहीं दे सकते तो मेरा गला दबा दीजिये। मेरी भावनायें, मेरी साधना हमेशा-हमेशा के लिये धूल में मिल जायेंगे। मेरे अधूरे सपने हमेशा-हमेशा के लिये राख में बदल जायेंगे।"

"प्रीति...."

"क्यों, क्या आप मुझे मौत भी नहीं दे सकते.....?"

"प्रीति, मैंने तो जो कुछ दिया था, उसमें तेरी भलाई ही देखी थी। मुझे इस बात का क्या पता था कि तू इसके चक्कर में पड़कर गुमराह हो जायेगी।" उन्होंने शान्त स्वर में कहा।

"आखिर विनीत में बुराई क्या है?" प्रीति ने भी शान्त स्वर में पूछा।

“वह खूनी है।"

"चाचा जी....!" विनीत अब अपने को रोक न सका तथा उठकर खड़ा हो गया।

"क्या तुमने किसी मैनेजर का खून नहीं किया था—तुम जेल में रहे?"

“मैंने जो कुछ किया, उसकी सजा मैं काट आया हूं। परन्तु आपको यह सब कहने का कोई अधिकार नहीं है।"

"तुम तो मेरी इज्जत को नीलाम करते फिरते हो और मुझे इतना भी अधिकार नहीं है कि मैं तुम्हें कुछ कह सकू? यह बताओ कि तुम यहां क्यों आये थे?"

"प्रीति से मिलने।"

"क्या रिश्ता है तुम्हारा प्रीति से?"

"रिश्तों की बुनियाद दिल पर होती है चाचा जी, जुबान पर नहीं।" विनीत ने कहा—“मेरा तथा प्रीति का आपस में क्या रिश्ता है, इस बात को हम दोनों जानते हैं। आप भी जानते हैं। परन्तु जानने के बाद भी झुठला दें तो इससे रिश्तों का रूप नहीं बदल जाता। मैं तथा प्रीति यदि जीवन भर के लिए एक दूसरे के होना चाहेंगे तो आप उसमें दीवार नहीं बन सकते।"

"तो तुम मेरी बेटी को जबरन उठाकर ले जाओगे?"

“नहीं..."

"फिर खून कर दोगे मेरा?"

“यह भी नहीं।"

"फिर....फिर क्या कर लोगे तुम...?" गुस्से में अपनी आंखों को लाल-पीली करते हुये उन्होंने पूछा।

"चाचा जी, इन्सान हूं....इसलिये जो करूंगा, सब इन्सानियत से। आप पढ़े-लिखे समझदार व्यक्ति हैं। आप स्वयं जानते हैं कि प्रीति अदालत की मदद ले सकती है। यह यदि किसी को अपना बनाना चाहती है तो आप उसमें कुछ भी नहीं कर सकते....।"

"अच्छा !"

विनीत ने फिर कहा-"चाचा जी, आपने हमेशा मेरे परिवार को अपना परिवार समझा था। आपके और पिताजी के ऐसे सम्बन्ध थे कि देखने वाले दोनों को सगे भाई समझते थे। समझ में नहीं आता कि यकायक ही आपको क्या हो गया है?"

“मुझे कुछ नहीं हुआ है।”

"फिर मेरा क्या अपराध है?"

-
"तुम्हारा सबसे बड़ा अपराध यही है कि तुमने प्रीति को गुमराह किया है।"

"प्रेम करने को तो आप गुमराह करना नहीं कह सकते।"

"विनीत ।" श्याम लाल का स्वर नम्न हो गया—"तुम मेरे घर आओ-जाओ.....रहो। मैं कभी भी तुमसे बुरा व्यवहार नहीं करूंगा। लेकिन तुम कभी भी प्रीति के सामने अपना प्रेम प्रदर्शन नहीं करोगे। मैं बिबश हूं....मैं तुम दोनों को एक नहीं कर सकता।"

"ऐसी क्या बुराई है?"

"बस यह समझ लो कि मेरी आत्मा को यह रिश्ता स्वीकार नहीं है।"

"क्यों....?"

“यह भी मैं नहीं जानता।"

"तब तो आप मुझे वहला रहे हैं चाचा जी। खैर, होता तो वही है जो ऊपर बाला चाहता है। अब तो सब कुछ समय के ऊपर निर्भर करता है।"

बे बोले- मैं फिर बही बात कह रहा हूं कि कभी भी प्रीति से मिलने की कोशिश मत करना। यदि तुमने ऐसा किया तो फिर मुझसे बुरा और कोई न होगा। अब तुम जा सकते हो।"

“जाना ही पड़ेगा चाचा जी....." विनीत अब और थके कदमों से चलता हुआ दरवाजे से बाहर आ गया। मन में कई उलझनें और बढ़ गई। वह शांति की खोज में यहां आया था, परन्तु बेकरारी के सिवाय और कुछ न मिला। मन ने जैसे कचोटा-आखिर उसे यहां आने की जरूरत ही क्या थी? मकान के दरवाजे से निकलकर उसने गली पार की और वह सड़क पर आ गया।

तभी वह बुरी तरह चौंका। नुक्कड़ पर अर्चना की गाड़ी खड़ी थी। दूर से ही उसने अन्दर सीट पर बैठी हुई अर्चना को पहचान लिया था। वह कार के समीप पहुंचा। उसे देखते ही अर्चना ने दरवाजा खोल दिया। इतना तो वह समझ ही गया कि अर्चना उसका पीछा करती हुई यहां तक आयी है। फिर भी उसने मुस्कराने का असफल प्रयास करते हुए कहा- आप यहां....."

"आश्चर्य में पड़ गये आप?"

"मेरा तो....मेरा मतलब था....।"

"आप यहां तक पैदल आये थे, इस बात को तो मैंने किसी प्रकार सहन कर लिया, परन्तु मैं इस बात को कैसे सहन कर सकती थी कि आपको लौटना भी पैदल ही पड़े....." अर्चना मुस्करायी।

उसकी इस मुस्कान का अर्थ विनीत से छुपा न रह सका। "व्यर्थ ही कष्ट किया आपने....."

“जी हां....मेरा भी यही बिचार था। बैठे-बैठे सोच रही थी कि मुझे आपके लिये कष्ट नहीं उठाना चाहिये। परन्तु मन नहीं माना।"

“जी....।"

"कोई कष्ट न हो तो गाड़ी में बैठ जाइये।"

“जी...."

"आप मुझसे बड़े हैं, बात-बात में आपके मुंह से 'आप' तथा 'जी' कहना मुझे अच्छा नहीं लगता। आइये....।"
Reply
09-17-2020, 01:04 PM,
#90
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
विनीत खामोश ही रहा तथा अर्चना के बराबर में सीट पर बैठ गया। दरवाजा बन्द हुआ....एक झटका खाकर गाड़ी सड़क पर दौड़ने लगी। बैठे-बैठे उसने उचटती निगाह अर्चना के चेहरे पर डाली। अब वह भी होठों-ही-होठों में मुस्करा रही थी। उसकी मुस्कान में विनीत को व्यंग लगा। तभी अर्चना पूछ बैठी—"आपके मित्र तो घर ही होंगे?"

"तब तो आप....इस गली में रोजाना आया करेंगे?"

"क्यों ....?"

"मित्र महोदय से मिलने।"

"प्रतिदिन आना जरूरी है क्या?"

"दरअसल अपनों के पास बैठकर आदमी का दिल वहल जाता है।"

"तो...?"

"आपका इस शहर में है ही कौन जो आपके दिल को वहला सके? इसलिये आपको प्रतिदिन यहां आना ही पड़ेगा। खैर, मैं ड्राइबर से कह दूंगी।"

“जी....."

"क्या मैं आपके मित्र का नाम जान सकती हूं?"

“जी....?"

"श्रीमान् जी, मैं मित्र महोदय का नाम पूछ रही हूं।"

"नाम....हां....प्रकाश....” वह हकलाया।

अर्चना तुरन्त खिलखिलाकर हंस पड़ी। विनीत समझ नहीं सका कि वह क्यों हंस रही है। हंसी रुकने पर उसने कहा-"तो प्रकाश नाम है उनका?"

"हां....।"

"और मान लो इस नाम को प्रीति कर दिया जाये तो कैसा रहेगा? मैं समझती हूं इससे खूबसूरत नाम और कोई नहीं हो सकता। आपका क्या विचार है?"

“जी....?"

"मिस्टर विनीत, आदमी को अपनों से कोई बात नहीं छुपानी चाहिये। यदि आप बहीं कह देते तो मैं आपको गाड़ी से न छोड़ देती। कैसी है प्रीति?"

"ठीक है।" उसने कहा।

"कुछ कह रही थी?"

"कुछ नहीं।" विनीत ने गहरी सांस ली- नहीं, मैंने उससे कह दिया है।"

"क्या?"

“यही कि अपने को रात-दिन आंसुओं में डुबाने से क्या लाभ? मैं कभी भी तुम्हारा नहीं हो सकता।" उसने अर्चना से झूठ बोला।

"झूठ...."

"क्या मतलब?" विनीत चौंका।

"आपने प्रीति से यह नहीं कहा।"

"और....?"

"आपने कहा कि मेरी दोनों वहनें मिल जायें, उसके बाद मैं तुम्हें अपना लूंगा।"

"परन्तु आप....."

"दीवारों के भी कान होते हैं विनीत साहब।” अर्चना बोली-“मैं दरवाजे के पास ही खड़ी सारी बातें सुन रही थी।"

.
"ओह...."

“कहिए, झूठ कहा मैंने?"

"नहीं...." विनीत इस विषय में अधिक बात ही नहीं करना चाहता था। अर्चना भी खामोश हो गई।

रास्ते भर विनीत श्याम लाल के शब्दों पर गौर करता रहा। उन्होंने कहा था कि तुम यहां आओ-जाओ, परन्तु प्रीति से मिलने की कोशिश मत करना। एक ओर अपनत्व, दूसरी ओर नफरत। आखिर क्या अर्थ था उनके कहने का? प्रीति ने बताया था कि वे उस पर प्रतिबंध भी नहीं लगा रहे हैं। कह रहे हैं कि तु किसी भी लड़के से शादी कर ले, परन्तु विनीत का बिचार छोड़ दे। आखिर उसमें ही ऐसी क्या बात है? उसने विचारों में झूलते हुए काफी सोचने की कोशिश की। परन्तु वह किसी भी परिणाम पर न पहुंच सका।। उसने स्वयं महसूस किया कि ऐसी दशा में उसे प्रीति के घर नहीं जाना चाहिये था। उसे भविष्य में वहां जाना भी नहीं चाहिये। विचारों में उलझते हुये उसे समय का ध्यान ही न रहा। उसने दृष्टि उठाकर देखा। गाड़ी कोठी के प्रांगण में आ चुकी थी।

अर्चना ने गाड़ी रोकी। बाहर आकर अर्चना ने कहा- अधिक सोचना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है....."

"ओह!" अपने कमरे में पहुंचकर विनीत बिस्तर पर गिर पड़ा। उलझनें....प्रश्न और समस्यायें। एक घने कुहरे में फंसकर रह गया था वह। समझ में नहीं आया क्या करे? सुधा....अनीता....प्रीति। इन्हीं रिश्तों के बीच उसकी जिन्दगी जैसे पिसकर रह गई थी। जिन्दगी कहां से कहां आ पहुंची थी! परन्तु वह अब तक कुछ भी न पा सका था। इतना खोजने के बाद भी उसे कुछ न मिल सका था। अन्तरात्मा ने कहा-"आखिर तुझे यहां पड़े रहने से भी क्या मिलेगा? बस रोटी और कपड़ा! क्या इन्हीं के लिये तू अपनी वहनों को भूल जायेगा?"
"ऐसा कैसे हो सकता है?"
..
"क्यों नहीं हो सकता? बोल, तूने उनकी खोज की....!"
“परन्तु मैं उन्हें हूंहूं भी तो कहां?"
"मूर्ख.... एक जगह बैठने से कुछ नहीं होगा। उल्टे एक बात और होगी, अर्चना तेरी ओर झुकती चली जायेगी....।"
“यह झूठ है।”
“सच है....देख लेना! तू केबल अर्चना और प्रीति के दायरे में उलझकर रह जायेगा....तथा अपने उद्देश्य को भूल जायेगा।"

सहसा कमरे में अर्चना को देखकर उसकी विचारधारा टूट गई। वह उठकर बैठ गया। उसे इस बात का पता भी न चला था कि अर्चना कब से उसके पास खड़ी थी। "शायद सो रहे थे आप?"

“नहीं तो....यूं ही.....”

“फिर....?"

"इधर-उधर की सोचने लगा था। हां, आपने एस.पी. साहब को फिर फोन किया था क्या?"

"नहीं, मैंने पापा से कह दिया था कि वे शाम को उनसे मिलते आयें। बैसे मुझे पूरी उम्मीद है कि सुधा और अनीता इसी शहर में होंगी। मैं इस विषय में स्वयं सक्रिय हूं। मेरा अनुमान है कि वे जल्दी ही मिल जायेंगी।"

"अर्चना जी....मन नहीं मानता।"

“मतलब?"

“जी चाहता है कि उठं और शहर की प्रत्येक गली में उन्हें खोजू। आप जानती हैं कि उनके बिना मुझे शांति नहीं मिलेगी, यूं कहने के लिये मुझे मुस्कराना भी पड़ता है....सोना भी पड़ता है....परन्तु जिस जीवन में शांति न हो....."

"विनीत साहब, यह कोई गांव अथवा कस्बा नहीं है। इतना बड़ा शहर है, किसी को खोज लेना बड़ा कठिन काम है। संयोग से कोई मिल जाये तो बात दूसरी है। परन्तु आमतौर से ऐसे मोकों पर संयोग भी काम नहीं करता।"

"समझ में नहीं आता क्या करूं!"

"ईश्वर पर भरोसा रखिये....सब कुछ ठीक हो जायेगा।"

"मगर...."

"मैं कसर नहीं उठा रखूगी।"

उसी समय नौकर ने कमरे में आकर मेज पर खाना लगा दिया। बेमन-सा विनीत उठा तथा सोफे पर आकर बैठ गया। अर्चना ने बैठते हुये कहा—"आपके मन में जो बात है, उसे मैं जानती हूं।"

“जी....” विनीत का हाथ तौलिये तक पहुंचकर रुक गया।

"आपकी दोनों वहनें चाहें जिस अबस्था में हों, बे प्रत्येक दशा में जिंदा होंगी।"

"काश!"
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