RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#38
रात थी बीत गयी , आने वाले एक अच्छे कल की उम्मीद में सवेरा मुस्कुरा रहा था पर लोग थे की मायूस थे , बारिशे थम गयी थी पर दिल जल रहे थे, हर किसी के अपने अपने कारण थे , प्रज्ञा निचे उतर कर आई
“राणाजी से बात हुई ” उसने नौकरों से पूछा
नौकर- जी, रात तक पहुंचेगे,
प्रज्ञा- बच्चे कहाँ है
नौकर- शहर
प्रज्ञा- ठीक ही हैं यहाँ के माहौल से दूर रहेंगे तो ठीक रहेगा . मांजी को नाश्ता करवा देना मैं एक जरुरी काम से जा रही हूँ, जल्दी ही लौटूंगी, गाँव में खबर करवा देना की हर मुश्किल घडी में हवेली के दरवाजे उनके लिए खुले है .
नौकर ने सर हिलाया प्रज्ञा अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ गयी .उसे अपने सवालो के जवाब चाहिए थे , प्रज्ञा ने गाड़ी के शीशे को थोडा सा निचे किया पर अब इस हवा में मिटटी की नहीं बल्कि लाशो की महक थी, उसने रफ़्तार थोड़ी बढ़ा दी, पर अभी तो शुरुआत थी आज न जाने क्या क्या देखना था उसे .
जैसे ही वो मंदिर के पास पहुंची , उसके पैर ब्रेक पर कसते गए, अविश्वास , हैरानी लिए अपने चेहरे पर वो गाड़ी से उतरी, उसे आँखों पर यकीं नहीं हो रहा था . उसके सामने मलबे का ढेर पड़ा था, गाँव की आन टूट गयी थी .
“असंभव ” वो बुदबुदाई
कापते पैरो से मंदिर की तरफ बढ़ी, हर तरफ टूटे पत्थर पड़े थे, कल आसमान के कहर को अपने अन्दर समा लिया था मंदिर ने, धडकते दिल के साथ प्रज्ञा जैसे तैसे ऊपर पहुंची , कुछ नहीं बचा था , माँ तारा की मूर्ति आधी थी आधी बिखरी थी ,
“हे, माँ रक्षा करना ” प्रज्ञा ने अपने हाथ जोड़ते हुए कहा , उसकी आँखों से आंसू बहने लगे,
बहुत भारी कदमो से चलते हुए वो गाडी तक पहुंची और मुड गयी कबीर के घर की तरफ
“उठो, उठो ” प्रज्ञा ने मुझे झिंझोड़ कर जगाया तो मैं झटके से उठ गया .
जैसे ही मेरी नजरो ने उसे देखा , मेरी रुलाई छुट गयी, प्रज्ञा ने मुझे अपने आगोश में भर लिया और थाम लिया मुझे, मैं बस रोता रहा , किसी अपने की क्या अहमियत होती है ये मुझे उस वक्त मालूम हुआ था .
“शांत हो जाओ , मैं आ गयी हूँ न , शांत हो जाओ ” उसने मेरी पीठ सहलाते हुए कहा
मैं- मैंने नहीं मारा उनको, मैंने किसी को नहीं मारा
प्रज्ञा- मैं जानती हु कबीर, मैं जानती हूँ , मुझे विश्वास है तुम पर
उसने मेरे माथे को चूमा
प्रज्ञा- कबीर , मेरी बात ध्यान से सुनो, ये बात बहुत जरुरी है, रतनगढ़ वालो को लगता है तुमने ये काण्ड कियाहै , अब उनको यकीन दिलाना होगा न ,ये कठिन समय है कबीर, समय हम सबकी परीक्षा लेने वाला है पर एक दुसरे के साथ से हम जीत जायेंगे , हम जीत जायेंगे कबीर,
मैं- हाँ
प्रज्ञा- मुझे बताओ क्या हुआ था
मैं- कल सुबह सुमेर सिंह के साथियों ने मुझ पर यहाँ हमला किया, मैंने उनको बताया की मैंने नहीं मारा उसे, पर वो नहीं माने मार पिटाई हुई , मुझे बहुत मारा , मेरी आँखे बंद होने तक वो लोग मार रहे थे मुझे, पर जब आँखे खुली तो यहाँ चारो तरफ मांस के टुकड़े पड़े थे,मैं बहुत डर गया था , पूरी रात इधर बैठा रहा , ,मैं बहुत डर गया था प्रज्ञा बहुत जायदा
प्रज्ञा- मैं समझती हु, पर उन लोगो को किसने मारा, तुमने किसी को देखा ,
मैं- नहीं , जब मुझे होश आया तो बस यही नजारा था,
प्रज्ञा- बाहर आओ
मैंने अपने कपडे पहने और उसके साथ बाहर आया , प्रज्ञा ने वो नजारा देखते ही मेरे हाथ को कस के पकड लिया.
“हे, माँ ” वो लरजे स्वर में बस इतना ही बोली
प्रज्ञा- कबीर, मेरी बात सुनो , ये जगह सुरक्षित नहीं है तुम्हारे लिए, तुम अभी अपने घर चले जाओ
मैं- मेरा घर यही है , मैं यही ठीक हु
प्रज्ञा- तुमने सुना नहीं मैंने क्या कहा, खैर, मैं तुम्हारे रहने की कही और वयवस्था करवा देती हु, तुम सुरक्षा में रहोगे तो मेरी एक फ़िक्र तो ख़त्म रहेगी,
मैं- पर
प्रज्ञा- मैंने कहा न, रतनगढ़ वाले चुप नहीं बैठेंगे और तुम कितनो को रोक पाओगे, कोई न कोई तुम तक पहुच जायेगा और तुम्हे कुछ हो ये मैं हरगिज नहीं चाहती, राणाजी आज रत तक वापिस आ जायेंगे, मैं नहीं चाहती कबीर, मैं नहीं चाहती की और बुरा हो ,
मैं-पर मैंने कुछ नहीं किया
प्रज्ञा- ये मैं जानती हूँ दुनिया नहीं , और दुनिया तब तक तुम्हे निर्दोष नहीं मानेगी जब तक की तुम्हारे पास कोई सबूत न हो , तुम्हारी और सुमेर की दुश्मनी को हर कोई अपने हिसाब दे देखेगा , जितने मुह उतनी बाते, अफवाहों पर कौन रोक लगा सकता है , मेरी बात मानो कबीर ,मैं जानती हूँ की राणाजी सबसे पहले यही आयेंगे
मैं- समझता हूँ तुम्हारी मनोदशा , पर मैं क्या करू
प्रज्ञा- वही करो जो मैं तुमसे कह रही हु,
मैं- प्रज्ञा, पर एक न एक दिन वो मुझे ढूंढ लेगे
प्रज्ञा- तब की तब देखेंगे
मैं- तुम उस समय किसे चुनोगी
प्रज्ञा- तुम्हे क्या लगता है
मैं-तुम बताओ
प्रज्ञा- उस वक्त मैं दोराहे पर रहूंगी, एक तरफ मेरी आन तुम और दूजे तरफ मेरा मान मेरे राणाजी , और तुम दोनों में से कोई भी मेरे बारे में नहीं सोचेगा, तुम मर्दों के झूठे अहंकार की कीमत हम औरतो को ही चुकानी पड़ती है, मेरी दुआ है की ये चुनाव करने वाला दिन मेरी जिन्दगी में कभी नहीं आएगा
मैं- तुम राणाजी से बात कर सकती हो
प्रज्ञा- वो मेरी नहीं सुनेंगे, अब नहीं सुनेंगे , तुम ये चाबिया रखो ये उसी ठिकाने की है , तमाम चीजे तुम्हे वहीँ मिल जाएँगी, मैं जल्दी ही मिलूंगी
प्रज्ञा ने मेरे माथे को चूमा और चल पड़ी और तभी वो बापिस मुड़ी और बोली-एक बात पुछू
मैं- दो पूछो
प्रज्ञा- रातो को क्यों भटकते हो तुम , उस रात तुम मंदिर में क्या कर रहे थे
मैं- प्रीत की डोर तलाशने
प्रज्ञा- तुम्हे क्या लगता है मैं क्या सुनना चाहूंगी , सच बताओ मुझे, अपने दोस्त से झूठ बोल कर उसका मान कम कर रहे हो तुम
मैं- प्रेम
प्रज्ञा- क्या
मैं- प्रेम करता हूँ मैं किसी से , उस से मिलने जाता हु
प्रज्ञा की आँखे बड़ी हो गयी ,
प्रज्ञा- कौन है वो , हमारे गाँव की हैं
मैं- हाँ, जल्दी ही मिलवाता हु उस से तुम्हे .
न जाने क्यों उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी
“अपना ख्याल रखना ” उसने बस इतना कहा और चली गई
|