Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
07-25-2018, 11:19 AM,
#41
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
सुगना भी पल भर के लिए ठाकुर साहब के गुस्से से काँप सा गया. उसने आज से पहले ठाकुर साहब को इतने गुस्से में कभी नही देखा था. उसने नम्र होते हुए ठाकुर साहब से कहा - "मैं क्षमा चाहता हूँ ठाकुर साहब. मैं जानता हूँ मैने बहुत बड़ी बात कहने की जुर्रत की है. लेकिन मैं अपने घर से यहाँ यूँही आपकी भावनाओ से खेलने नही आया. बल्कि बरसो से मेरे सीने में एक सच दफ़न है जिसे मैं यहाँ खोलने आया हूँ. ठाकुर साहब, मैं जो भी कहूँगा सच कहूँगा, मेरी बातों में सच्चाई है.....जिसके दम पर ही मैं इतनी बड़ी बात कहने का साहस कर पाया हूँ. आपसे विनती है ठाकुर साहब....एक बार ठंडे दिल से मेरी बात सुन लें. फिर चाहें तो आप मुझे फाँसी पर लटका दीजिएगा. मैं विरोध नही करूँगा."

ठाकुर साहब सुगना के बिस्वास से भरे शब्दों को सुनकर थोड़े नर्म पड़े. - "सुगना....तुम जानते हो तुम क्या कह रहो हो? तुमने ऐसा कहकर ना केवल दीवान जी का अपमान किया है बल्कि हमारी घर आईं मेहमान कमला जी का भी अपमान किया है. अगर तुम्हारी बातों में रत्ती भर भी झूठ निकला तो हम तुम्हे इस गुस्ताख़ी के लिए माफ़ नही करेंगे. हम ये भी भूल जाएँगे कि तुम कंचन के पिता हो."

"उसी कंचन के लिए ही तो मैं यहाँ आया हूँ." सुगना ठाकुर साहब की धमकी की परवाह किए बिना आगे बोला - "ठाकुर साहब....सिर्फ़ मैं ही नही-आप भी कंचन के पिता हैं. मैने तो कंचन को सिर्फ़ पाला है. कंचन तो आपकी बेटी है. ठकुराइन की कोख से जन्मी आपकी अपनी बेटी है."

"क्या.....????" ठाकुर साहब के साथ-साथ कमला जी और दीवान जी भी एक झटके से अपने स्थान से ऐसे उच्छल पड़े....जैसे उन तीनो को एक साथ किसी ज़हरीले बिच्छू ने डॅंक मार दिया हो.

दीवान जी के माथे पर पसीना छलक आया. जबकि कमला जी स्तब्ध सी उसे घुरे जा रही थी. किंतु ठाकुर साहब की दशा सबसे बुरी थी. वो पागलों की तरह सुगना को एक-टक घूरते जा रहे थे.

"क्या बकवास कर रहे हो सुगना? तुमने रास्ते में धतूरा तो नही सूंघ लिया?" दीवान तेज़ी से सुगना की तरफ बढ़ते हुए बोले.

"दीवान जी, किसी और ने ये बात कही होती तो बात मेरी समझ में आती. किंतु आप तो....आप तो इस षड्यंत्र के रचयिता हैं. क्या आप भी भूल गये? या फिर ठाकुर साहब के सामने सच बोलने से घबरा रहे हैं?" सुगना दीवान जी पर व्यंग भरी दृष्टि डालते हुए कहा.

"क.....क्या बकवास कर रहे हो? क्या मतलब है तुम्हारा?" दीवान जी हकलाते हुए बोले. उनकी चेहरे पर घबराहट तेज़ हो गयी थी.

ठाकुर साहब पागलों के से अंदाज़ में कभी सुगना को तो कभी दीवान जी को देखते जा रहे थे. उनके समझ में अभी तक कुच्छ भी नही आया था.

कमला जी भी मूर्खों की तरह उनकी बातें सुनने में खोई हुई थी.

"सरकार, ये आदमी पागल हो गया है." दीवान जी ठाकुर साहब की तरफ मुड़ते हुए बोले - "कंचन आपकी बेटी कैसे हो सकती है. मालकिन ने हॉस्पिटल में एक ही बच्ची को जन्म दिया था, जो कि निक्की के रूप में बरसों से आपके साथ है. चाहें तो इस बात की पुष्टि आप हॉस्पिटल के डॉक्टर्स और दूसरे कर्मचारियों से कर सकते हैं. ये आदमी अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए कंचन को आपकी बेटी बना रहा है. दर-असल ये चाहता है कि कंचन को आपकी बेटी घोषित करके उसका विवाह रवि से करा दे. लेकिन मैं ऐसा नही होने दूँगा. मैने आपका बरसों से नमक खाया है.....मैं आपकी बेटी निक्की के अधिकारों से इस आदमी को खलेने नही दूँगा."

"बस कीजिए दीवान जी." सुगना क्रोध से चीखा. - "अब और झूठ बोलकर अपने पापो को मत बढ़ाइए. निक्की आपकी बेटी है. इस सच को ठाकुर साहब के सामने उज़गार कीजिए."

ठाकुर साहब ने विस्मित नज़रों से सुगना की तरफ देखा.

"सुगना.....नमक हराम, तू बरसों तक मेरे टुकड़ों पर पलता रहा और अब तू उसी नमक के बदले में हवेली की खुशियाँ छीन लेना चाहता है?" दीवान जी किसी घायल शेर की तरह दहाड़े.

"नमक हरामी मैने नही आपने की है दीवान जी." सुगना दीवान जी के उत्तर में चीखा. फिर ठाकुर साहब की तरफ पलटकर बोला - "ठाकुर साहब, मेरे मन में कोई स्वार्थ नही है. हां ! स्वार्थ था....जो इतने दिनो तक कंचन को अपनी छाती से लगाए रखा. मैं पिता के मोह में बँधा कंचन को खुद से दूर नही करना चाहता था इसलिए अब तक आपको इस सच्चाई से परिचित नही कराया. किंतु अब सवाल उसकी पूरी ज़िंदगी की है उसके जीवन भर की खुशियों की है. अगर अब भी मैं चुप रहता तो कंचन के साथ बहुत बड़ा अन्याय करता. इसलिए मैं अपना मोह त्याग कर आपको सच बताने चला आया.

ठाकुर साहब अगर अब भी आपको मेरी बात पर यकीन नही हो रहा है तो कहिए दीवान जी से....कहिए कि वो निक्की के सर पर हाथ रखकर कसम खाएँ की निक्की इनकी बेटी नही."

ठाकुर साहब की नज़र दीवान जी की तरफ घूमी.

ठाकुर साहब की नज़र पड़ते ही दीवान जी सूखे पत्ते की तरह काँपे. उन्होने गले में अटके थूक को निगलते हुए कहा - "सरकार.....सुगना सरासर झूठ बोल रहा है. ये नमकहराम तो.....!"

"दीवान जी." ठाकुर साहब दीवान जी को बीच में टोकते हुए बोले. - "सच बोलिए दीवान जी. ईश्वर जानता है हमने कभी आपको अपना मुलाज़िम नही समझा. हमेशा आपको अपना मित्र समझा है. हम आपको वचन देते हैं, अगर आप हमसे सच कहेंगे तो हम आपको इस अपराध के लिए क्षमा कर देंगे. किंतु आज झूठ मत बोलिए. ईश्वर के लिए सच बोलिए. हम सच जान'ना चाहते हैं."

ठाकुर साहब की तड़प देखकर दीवान जी स्तब्ध रह गये. अपने बचाव के सारे रास्ते बंद देख उन्होने सच बोल देने में ही अपनी भलाई समझी. वे घुटनो के बल चलते हुए ठाकुर साहब के पास गये और हाथ जोड़कर बोले - "मुझसे भूल हो गयी सरकार, मुझे माफ़ कर दीजिए. उस घड़ी मैं बेटी के प्रेम में अँधा था. मैं सही ग़लत का निर्णय नही कर पाया. मैं निक्की के सुनहरे भविश्य की कल्पना करके ये अपराध कर बैठा. जिस दिन मालकिन सीढ़ियों से गिरी थी. और उन्हे हॉस्पिटल ले जाया गया था. उसके दो दिन पहले ही मेरी बीवी भी उसी हॉस्पिटल में भरती थी. ये बात मैने आपको बताया भी था. जब मालकिन ने कंचन को जन्म दिया तब आप हॉस्पिटल में नही थे. उसके कुच्छ ही देर बाद मेरी पत्नी ने भी निक्की को जन्म दिया. उसी क्षण मेरे मन में ये पापी विचार समा गया. और मैं ये अपराध कर बैठा. मैने कंचन की जगह निक्की को रख दिया. और कंचन को वहाँ से हटा दिया."

"दीवान जी आप मेरे साथ बिश्वास घात भी कर सकते हैं ये मैने कभी सपने में भी नही सोचा था" ठाकुर एक घृणा भरी दृष्टि दीवान जी पर डालते हुए बोले. - "किंतु मेरी समझ में ये बात नही आई कि दोनो बच्चियो को बदलने के बाद निक्की को हमारे पास और कंचन को आपके पास होना चाहिए फिर वो सुगना के पास कैसे पहुँच गयी?"

ठाकुर साहब के इस सवाल पर दीवान जी का सर शर्म से झुक गया. उनके मूह से कोई बोल ना फूटा.

"खामोशी तोड़िए दीवान जी और हमारे सवाल का जवाब दीजिए." ठाकुर साहब अधिरता के साथ बोले.

"इसका जवाब मैं देता हूँ ठाकुर साहब." सुगना दीवान जी को खामोश देख ठाकुर साहब से बोला - "ये कंचन को अपने पास रखना ही नही चाहते थे. ये नही चाहते थे कि कंचन जीवित रहे और आगे चलकर निक्की के अधिकारों को छीने. इसलिए इन्होने अपनी पत्नी को समझा बूझकर चुप करा दिया. फिर अपने एक आदमी को मेरे घर मुझे बुलाने भेज दिया.

मैं उन दिनो दीवान जी का सबसे ख़ास आदमी हुआ करता था. इनके इशारों पर कुच्छ भी कर जाता था. किसी के हाथ पैर तोड़ना तो मेरे लिए गिल्ली डंडा खेलने जैसा था. इनके इशारे पर मैने कयि बड़े बड़े अपराध भी किए. कई लोगों को मौत की नींद भी सुला दिया.
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07-25-2018, 11:20 AM,
#42
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वो रात का समय था. जब दीवान जी का भेजा हुआ आदमी मेरे घर आया. उस वक़्त मैं बहुत मुसीबत में था. मेरी पत्नी गर्भ से थी. और उसका बच्चा होने वाला था. मैं अपने घर के दूसरे कमरे में बेचैनी से किसी खुशख़बरी की आस में कान लगाए बैठा था. मेरे घर में उस वक़्त मेरी बेहन शांता और पड़ोस के गाओं से बच्चा जन'वाने आई महरि थी. कुच्छ ही देर बाद मुझे महरि ने ऐसी खबर सुनाई कि जिसे सुनकर मैं पत्थर का हो गया. उसने बताया कि मेरी पत्नी मर गयी और बच्चा भी पेट में ही खराब हो गया. इस खबर से मुझे बड़ा आघात पहुँचा.

मैं इसी शोक में डूबा हुआ था कि तभी दरवाज़े पर किसी की दस्तक हुई. दरवाज़ा खोला तो दीवान जी का भेजा हुआ आदमी बाहर खड़ा मिला. उसने मुझे बताया कि दीवान जी ने मुझे इसी वक़्त अपने घर बुलाया है. मन तो इस वक़्त कहीं भी जाने का नही हो रहा था पर रात गये दीवान जी ने बुलाया है तो ज़रूर कोई विशेष काम होगा. ये सोचकर मैं उसके पिछे पिछे चल पड़ा.

दीवान जी के घर पहुँचते ही दीवान जी ने मुझे ढेर सारे रुपयों का लालच दिया. फिर कंचन को मेरे हाथ में थमाए और बोले - "इस बच्ची को कहीं फेंक आओ. लेकिन ऐसी जगह फेंकना कि ये जीवित ना रहे और किसी की नज़र इसपर ना पड़े. मैं सुनकर दंग रह गया.

मैने अपने जीवन में बड़े से बड़ा अपराध किया था पर किसी नन्हे मासूम बच्चे के क़त्ल की बात सुनकर ही थर्रा उठा. मैने दीवान जी से पुछा - "दीवान जी ये बच्ची किसकी है?"

दीवान जी मेरी बात सुनकर भड़के और बोले - "तुम्हे इस बात से कोई मतलब नही होना चाहिए कि ये किसकी बच्ची है? तुम्हे इस काम के बदले लाखों रुपये दूँगा. बस आज के बाद ये सवाल कभी मत पुछ्ना. और ना इस बारे में कभी किसी से ज़िक्र करना."

मैं सोच में पड़ गया.

मैं उस वक़्त पत्नी और बच्चे की मौत के गम में पड़ा था. मुझे उस बच्ची पर बड़ी दया आ रही थी. मैं सोच रहा था - 'किसकी बच्ची है ये. कौन हैं इसके माता पिता. क्या उन्हे पता है उसकी बच्ची इस वक़्त कहाँ हैं? क्या वो ये जानते हैं कि इस वक़्त उनकी बच्ची की मौत का सौदा हो रहा है?

उस बच्ची के माता पिता के बारे में जानने की लालसा मेरे मन में तेज़ हो गयी. सहसा मेरे मन में एक विचार आया. मैने दीवान जी से कहा - "दीवान जी, अगर आप मुझे इसके माता पिता का नाम बता दें तो मैं यह काम मुफ़्त में कर जाउन्गा."

मेरा प्रस्ताव सुनकर दीवान जी उलझन में पड़ गये. फिर कुच्छ देर सोचने के बाद बोले. - "तुम इनके माता-पिता के बारे में क्यों जान'ना चाहते हो?"

"बस ऐसे ही...जिगयाशावश. आप मुझपर भरोसा कीजिए. मैं ये भेद किसी पर नही खोलूँगा." मैने दीवान जी को अपने झाँसे में लिया.

उन दिनो मैं उनका बहुत वफ़ादार हुआ करता था. दीवान जी आँख मूंदकर मुझपर भरोसा करते थे. संदेह की सुई भी उन्हे छूकर भी नही गयी. किंतु फिर भी उस रहस्य को बताने में वो हिचकिचा रहे थे. - "समझ में नही आता. तुम इसके मा-बाप के बारे में जानकार क्या करोगे? इस मामूली सी बात के लिए लाख रुपये को ठुकराना बहुत महँगा सौदा है तुम्हारे लिए."

"ये लाख रुपये तो मैं कभी भी कमा सकता हूँ दीवान जी. लेकिन जो सवाल इस वक़्त मेरे अंदर उठा है अगर उसका जवाब मुझे नही मिला तो मैं जीवन भर परेशान रहूँगा. मुझे सिर्फ़ इस बच्ची के माता-पिता के बारे में बता दीजिए, और कुच्छ नही पुछुन्गा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं. किस लिए कर रहे हैं. मैं हर तरह का वादा करता हूँ. फिर आप जो कहेंगे मैं वही करूँगा."

"सुगना मुझे तुम पर पूरा भरोसा है, पर ये राज़ बहुत ख़ास है. मुझे माफ़ करना, मैं अपने साए को भी ये राज़ नही बता सकता."

दीवान जी के इनकार से मुझे किसी बड़े षड्यंत्र की बू आने लगी थी. अब तक मैं इनके हर राज़ से वाक़िफ़ था. मैं समझ गया ये किसी बड़े अपराध को जन्म देने वाले हैं. कुच्छ ऐसा करने वाले हैं जिसके बारे में मुझसे भी पर्दे दारी की जा रही है.

किंतु अब मुझमे सच को जानने की इच्छा और तेज़ हो गयी थी. मैने दीवान जी से धमकी भरे स्वर में कहा - "दीवान जी, अगर आप मुझे सच नही बताएँगे तो मैं इस बच्ची को पोलीस के पास ले जाउन्गा और उन्हे सारा सच बता दूँगा. जब आपको मुझपर भरोसा ही नही तो फिर भरोसा ना करने का परिणाम भी देख लीजिएगा."

मेरी बात का उनपर तुरंत असर हुआ, पोलीस के नाम से ही वो काँप से गये. ये जानते थे मैं कितना ज़िद्दी और क्रोधी इंसान हुआ करता था. जो मन में ठान लेता था वो करके रहता था.

दीवान जी हार मानते हुए मुझे सब कुच्छ बताते चले गये. सारा सच जान लेने के बाद मुझे इनसे बेहद घृणा सी हुई. मैं सोच भी नही सकता था कि कोई इंसान इतना नीचे गिर सकता है. जो इंसान अपने मजबूर मालिक की बेबसी का यूँ फ़ायदा उठाए वो इंसान कहलाने लायक ही नही. मैं मन मसोस कर रह गया. उनके कयि उपकार थे मुझपर जिनके बोझ तले मैं उस वक़्त दबा हुआ था.

दीवान जी ने मुझे चुप रहने के लिए कई प्रलोभन भी दिए. पर मैने इन्हे स्पस्ट माना कर दिया. मैने इनसे कहा - "मैं आपको वचन दे चुका हूँ कि सच बोलने पर मैं आपसे एक पैसा भी नही लूँगा. इसलिए अब मैं आपसे पैसे लेकर वादा खिलाफी नही कर सकता. आप निश्चिंत रहिए ये राज़ मुझ तक ही सीमित रहेगा."

उस वक़्त मैने दीवान जी से जो कहा था वो सच ही कहा था. किंतु जब मैं कंचन को लेकर दीवान जी के घर से निकला और उसे फेंकने हेतु घाटियों की तरफ बढ़ा. तब मेरे साथ कुच्छ ऐसा हुआ कि मेरी पूरी ज़िंदगी बदल गयी.

वो सर्दी की रात थी. कंचन मेरे हाथ में सफेद कपड़ों में लिपटी गहरी नींद सोई हुई थी. अचानक ही तेज़ सर्द हवा से कंचन कुन्मुनाई-शायद उसे ठंड का आभास हुआ था. मैने उसे अपनी छाती से भीच लिया. तभी जैसे मेरे अंदर कहीं कोई बिजली चमकी हो, उसे छाती से लगाते ही मुझे कुच्छ अज़ीब सा महसूस हुआ. कुच्छ ऐसा जो उस दिन से पहले मैने कभी महसूस नही किया था. जैसे किसी ने मेरे भीतर से मुझे आवाज़ दिया हो. जैसे कोई मुझे पुछ रहा हो - 'इस नन्ही मासूम बच्ची ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो तुम इसे मारने जा रहे हो? क्या तुम शरीर से इतने लाचार हो गये हो कि तुम्हे अपना पेट भरने के लिए ऐसी नन्ही मासूम बेज़ुबान बच्ची को मारना पड़ रहा है?. जो ये भी नही जानती कि जीना क्या होता है मरना क्या होता है. जो अभी अपने मूह से मा तक भी नही बोल सकती. जो अपनी सहायता के लिए किसी को आवाज़ तक नही दे सकती. क्या तुम ऐसी बेज़ुबान बच्ची को मार कर चैन से जी सकोगे?'

वो मेरी आत्मा की आवाज़ थी-जो मुझे धिक्कार रही थी. मैं छटपटा उठा. मेरे अंदर कुच्छ पिघलता सा महसूस हुआ. शायद वो मेरा पत्थर का दिल था जो अब मोम बनता जा रहा था. उस घड़ी मुझे ऐसा लगा जैसे कोई शक्ति मेरे अंदर घुस कर मुझे बुरी तरह से निचोड़ रही हो. और मैं दर्द से छटपटा रहा हूँ. सिसक रहा हूँ. मैं उस दर्द से निकलने का भरसक प्रयास कर रहा हूँ पर निकल नही पा रहा हूँ.

मैं उस पीड़ा को और ना सह सका. मेरे पैरों की शक्ति क्षीण होती चली गयी और मैं बीच रास्ते में ही धम्म से ज़मीन पर बैठ गया और सोचने लगा. 'क्या मैं सच में इतना अपंग और लाचार इंसान हूँ कि मुझे दो वक़्त की रोटी के लिए किसी बच्ची की हत्या करने पर आमादा होना पड़े. क्या मेरा ये शरीर इस लायक भी नही कि मैं मेहनत से अपने लिए दो वक़्त की रोटी की जुगाड़ ना कर सकूँ? धिक्कार है मुझपर.....और मेरे इस शरीर पर. क्या मुझसे भी नीच इंसान होगा कोई धरती पर? मुझसे तो अच्छे वो भीख-मन्गे हैं जो दूसरों के आगे हाथ फैलाते हैं. मैं तो उनसे भी गया गुज़रा हूँ.'

इस विचार के आते ही मुझे अपने अगले पिच्छले सारे पाप याद आने लगे. मुझे खुद से नफ़रत सी होने लगी. मैने उसी क्षण निर्णय किया कि अब से मैं कोई पाप नही करूँगा. मैने कंचन के माथे को चूमा और फिर से उसे अपनी छाती से लगा लिया. मैने तय कर लिया कि दीवान जी को दिए वचन के अनुसार अब ये बच्ची उनके लिए और अपने माता-पिता के लिए मर चुकी है. अब आज से ये मेरी बेटी बनकर जिएगी. अब आज से इसका पिता मैं हूँ. मैं इसके लिए मेहनत करूँगा मज़दूरी करूँगा. दूसरों के घरों में-खेतों में काम करूँगा पर इसे कोई कष्ट नही होने दूँगा.

इस विचार के साथ ही जब मैने पुनः उसे अपनी छाती से भीचा तो मेरे अंदर की सारी पीड़ा ख़तम हो गयी. मेरे निर्जीव शरीर में फिर से जान लौट आई. मैं खुशिपुर्वक उठा और अपने घर के रास्ते चल पड़ा.

घर पहुँचा तो शांता मेरे चेहरे पर खुशी और हाथ में बच्चा देखकर दंग रह गयी. मैने उसे और महरि जो पड़ोस के गाओं से मेरी बीवी को देखने आई थी-दोनो को पूरी कहानी बता दिया. साथ ही उनसे ये कसम भी लिया कि इस बात को किसी से ना कहे.

उन दोनो ने हामी भरी.

मैने सुबह ये बात प्रचारित कर दी कि मेरी बीवी मेरी बेटी को जन्म देते ही मर गयी.

इसी तरह कंचन मेरे घर पलने लगी.

"ठाकुर साहब, जिस दिन से कंचन मेरी गोद में आई तब से लेकर आज तक मैने कोई भी बुरा काम नही किया. मैने मेहनत की मज़दूरी की, दूसरे के खेतों में बैल की तरह काम किया मगर कंचन के मूह में एक नीवाला भी हराम का नही डाला. उसे जो कुच्छ भी खिलाया, पिलाया पहनाया, ओढ़ाया सब अपनी मेहनत और खून पसीने की कमाई से.

मैं खुद भूखा रहा पर उसे भर पेट खिलाया. मैने उसे सदेव अपने पलकों में बिठाकर रखा. कभी भूल से भी कोई कष्ट नही दिया. कहने को तो मैं उसका कोई नही पर उससे मेरा ऐसा नाता जुड़ गया है कि उसके लिए सौ बार मर भी सकता हूँ और सौ बार जी भी सकता हूँ."

"ऐसा ना कहो सुगना. ऐसा ना कहो." ठाकुर साहब तड़प कर बोले - "तुम्हारा कंचन का बहुत गहरा नाता है. फिर मत कहना तुम उसके कुच्छ नही लगते. तुम उत्तम व्यक्ति हो सुगना. हमारा तो दिल कर रहा है, हम अभी झुक कर तुम्हारे पावं छू लें."






दोस्तो मुझे ये एपीसोड बहुत अच्छा लगा अगर आपको लगा हो तो ज़रूर बताएँ
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07-25-2018, 11:20 AM,
#43
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
"मुझे शर्मिंदा ना कीजिए ठाकुर साहब, आप तो देवता स्वरूप इंसान हैं. मैने इतने दिन आपसे आपकी बेटी को दूर रखा इसके लिए हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजिए." सुगना हाथ जोड़ते हुए बोला.

"सुगना, जन्म देने वाले से पालने वाला बड़ा होता है. कंचन पर हमसे अधिक तुम्हारा अधिकार है. हम तुमसे बस एक विनती करना चाहते हैं, अगर तुम्हे ऐतराज़ ना हो तो कंचन को हवेली में रहने की इज़ाज़त दे दो. हम इसलिए नही कह रहे हैं कि तुम्हारे घर में उसे कोई दिक्कत है. नही.....हरगिज़ नही, हम ऐसा सोच भी नही सकते. हम तो बस इतना चाहते हैं कि वो कुच्छ दिन यहाँ रहे, ताकि....जो प्यार जो दुलार हम उसे दे ना सकें. वो फिर से उसे दे सकें. कुच्छ दिन उसके पिता होने का गौरव....हम भी हासिल कर सकें." ये कहने के बाद, ठाकुर साहब उम्मीद की नज़र से सुगना को देखने लगे.

"मुझे और शर्मिंदा मत कीजिए ठाकुर साहब. अभी चलिए और अपनी बेटी को अपने घर ले आइए." सुगना ने खुशी से अपने आँसू छलकाते हुए कहा.

"तुम धन्य हो सुगना, तुम्हारे मूह से ये शब्द सुनने के लिए हमारे कान तरस रहे थे, आओ चलें" ठाकुर साहब ये कहकर आगे बढ़ने को हुए, तभी दीवान जी से नज़र मिलते ही ठिठक गये. वे एक घृणात्मक दृष्टि दीवान जी पर डालते हुए बोले - "दीवान जी, हम आपको आपके उस अपराध के लिए क्षमा करते हैं जो कि आपने स्वार्थ में आकर मेरी बच्ची को मुझसे दूर कर दिया. पर इस अपराध के लिए आपको कभी क्षमा नही करेंगे कि आपने हमारी दूध-मूही बच्ची को जान से मरवाने की कोशिश की. हम ये कभी नही भूलेंगे दीवान जी.......हो सके तो अपनी सूरत फिर कभी हमारे सामने ना लाइयेगा."

दीवान जी की नज़रें अपरड़बोध से ज़मीन पर गढ़ सी गयी. वो कुच्छ देर ज़मीन ताकते रहे फिर काँपते पैरों के साथ हवेली से बाहर निकल गये.

ठाकुर साहब और सुगना के कदम भी बाहर की ओर उठते चले गये. फिर दोनो जीप में बैठकर बस्ती की ओर बढ़ गये.

कमला जी अभी भी पत्थेर की बुत बनी मुख्य द्वार की तरफ देख रही थी. सुगना द्वारा रहस्योदघाटन से वो अभी तक हैरान थी. अचानक वो पलटी और अपने कमरे की तरफ चल दी. जैसे ही उनके कदम सीढ़ियों की तरफ बढ़े उन्हे निक्की खड़ी दिखाई दी. रवि भी दूसरी और खड़ा आश्चर्य में डूबा हुआ था.

कमला जी सीढ़ियाँ चढ़ती हुई निक्की और रवि के पास आई. उन्होने एक व्यंग भरी दृष्टि निक्की पर डाली. कमला जी से नज़र मिलते ही निक्की की नज़रें शर्म से झुक गयी.

"रवि अपने कमरे में चलो. तुमसे कुच्छ बात करनी है." कमला जी रवि से बोली और आगे बढ़ गयी. रवि के कदम खुद ब खुद मा के पिछे हो लिए. पर जैसे ही वो दरवाज़े के अंदर होने को हुआ उसकी नज़र ना चाहते हुए भी निक्की की तरफ घूम गयी. जैसे ही उसकी नज़र निक्की पर पड़ी, वो अंदर तक काँप गया. निक्की उसे ही देख रही थी, किंतु उसके देखने में जो पीड़ा थी वो सीधे रवि के दिल तक आ रही थी. उसने निक्की को इतना उदास कभी नही देखा था. रवि को अपना दिल पिघलता हुआ सा लगा. वो ज़्यादा देर निक्की की पीड़ा भरी नज़रों का सामना ना कर सका. वो तेज़ी से कमरे के अंदर दाखिल हो गया.

उसके अंदर जाते ही निक्की भारी कदमों से सीढ़िया उतरती हुई हवेली से बाहर निकल गयी.

*****

दीवान जी इस वक़्त अपनी पत्नी रुक्मणी के साथ बात विवाद में उलझे हुए थे. रुक्मणी जी क्रोध में दीवान जी को उल्टी सीधी बात सुनाए जा रही थी.

तभी दरवाज़े से निक्की को खड़ा देख वे दोनो ही उसकी तरफ लपके.

दीवान जी उसे देखकर पीड़ा से भर उठे. किंतु रुक्मणी जी खुशी से रो पड़ी थी. आज बरसों बाद रुक्मणी जी निक्की को अपनी छाती से लगा रही थी. किंतु जो निक्की बचपन से मा के वात्सल्य के लिए तड़पति रही थी आज उसे मा का वात्सल्य अच्छा नही लग रहा था. उसके पिता की वजह से उसकी छाती पर जो घाव लगा था उसे ममता का मरहम भी नही भर पा रहा था. उसकी तड़प बढ़ती ही जा रही थी.

निक्की घायल नज़रों से दीवान जी को देखने लगी. -"आपने ऐसा क्यों किया पिताजी?"

"सिर्फ़ तुम्हारी खुशी के लिए निक्की." दीवान जी दुखी स्वर में बोले - "मैं जानता हूँ सच्चाई जान लेने के बाद तुम्हारे दिल को बहुत ठेस पहुँची है, पर ये सब उस नमक-हराम सुगना की वजह से हुआ है. मैं उसे ज़िंदा नही...."

"अपने दोष को किसी और का नाम मत दीजिए पिताजी." निक्की दीवान जी की बात काटे'ते हुए बोली. - "सुगना काका ने तो दूसरे की बेटी को जीवन दान दिया है, लेकिन आपने...... आपने तो अपनी ही बेटी को जीते जी मार डाला"

"ऐसा मत कह निक्की." दीवान जी तड़प कर बोले - "सब ठीक हो जाएगा. अभी ज़्यादा कुच्छ भी नही बिगड़ा है. हां हवेली तुमसे ज़रूर छीन गयी है, पर रवि को तुमसे कोई नही छीन सकता. खुद कमला जी ने ठाकुर साहब के सामने कसम ली है कि वो रवि का विवाह तुमसे करेंगी."

"लेकिन अब मैं रवि से शादी नही कर सकती पिता जी" निक्की एक आह भर कर बोली - "मैं उससे शादी करके ज़िंदगी भर उसके मज़ाक का पात्र नही बन सकती."
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07-25-2018, 11:20 AM,
#44
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
"निक्की ये क्या कह रही है तू?" दीवान जी आश्चर्य से बोले - "तू चिंता मत कर, मैने कहा ना सब ठीक हो जाएगा. तू आराम कर मैं अभी किसी काम से बाहर जा रहा हूँ, लौटकर आने के बाद इस संबंध में बात करूँगा." दीवान जी बोले और दरवाज़े से बाहर निकल गये.

दीवान जी के जाने के बाद रुक्मणी निक्की को बिठाकर उसे दुलार्ने लगी. मा की ममता से उसका दुख थोड़ा कम तो हुआ पर उसे सुकून नही मिला.

"मैं सोना चाहती हूँ मा." निक्की रुक्मणी से बोली.

रुक्मणी ने उसके लिए कमरा तैयार कर दिया और बिस्तर लगा दिया. निक्की ने बिस्तर पर गिरकर अपनी आँखें मूंद ली. सोना तो बस एक बहाना था....वो असल में एकांत चाहती थी. ताकि वो अपने अतीत और वर्तमान का लेखा जोखा कर सके.

निक्की इस वक़्त बेहद अपमानित महसूस कर रही थी. वो होती भी तो क्यों ना. बचपन से इस अभिमान से जीती आई थी कि वो ठाकुर की बेटी है, पर आज इस सत्य के खुल जाने से उसे गहरा आघात लगा था. हालाँकि वो जानती थी उसके पिता ने जो भी किया उसके भले की सोच कर किया. किंतु ये बात ज़माना तो नही समझेगा. अब वो ज़माने को क्या मूह दिखाएगी. अब लोग क्या कहेंगे, अब सब जान चुके हैं कि वो ठाकुर की नही उसके नौकर दीवान की बेटी है. अब वह कैसे अपना सर उँचा रख सकेगी? दीवान जी की करनी ने ना केवल उसके सपनो को बल्कि उसके पूरे वज़ूद को तोड़कर रख दिया था. उसे इस घर में एक घुटन सी महसूस हो रही थी. उसे समझ में नही आ रहा था कि वो क्या करे कि उसे इस घुटन से मुक्ति मिल सके. ऐसी कौनसी जगह जाए जहाँ उसके मन को थोड़ा सुकून मिल सके.

सहसा ! उसके मानस-पटल पर कल्लू का चित्र उभरा. वह झटके से बिस्तर पर उठ बैठी. फिर कुच्छ सोचते हुए खड़ी हुई और कमरे से बाहर निकली.
हॉल में आकर उसने रुक्मणी की तलाश में अपनी नज़रें दौड़ाई. उसे किचन से कुच्छ आवाज़ें आती सुनाई दी. रुक्मणी शायद किचन में थी. निक्की खड़ी कुच्छ पल सोचती रही फिर धीमे कदमों से बाहर निकल गयी.

उसने अपने पावं का रुख़ कल्लू के घर की तरफ कर दिया.

*****

शांता अभी भी कंचन के सिरहाने बैठी उसके सर को सहलाए जा रही थी. कंचन का रोना तो कब का बंद हो चुका था. पर उसके दिल में उदासी अब भी छाई हुई थी. चिंटू उसकी गोद पर लेटा हुआ था. दिनेश जी बरामदे में बैठे बीड़ी पी रहे थे.

तभी घर के बाहर जीप के रुकने की आवाज़ से सबका ध्यान टूटा. शांता के साथ कंचन और चिंटू भी उठकर कमरे से बाहर निकले. जैसे ही ये लोग बरामदे तक पहुँचे.....उन्हे सुगना के साथ ठाकुर साहब आँगन में प्रविष्ट होते दिखाई दिए.

ये फेली मर्तबा था जब ठाकुर साहब हवेली से निकल कर बस्ती में किसी के घर तक आए हों. कंचन के आश्चर्य की सीमा ना रही.

कंचन पर नज़र पड़ते ही ठाकुर साहब का हृदय वात्सल्य से भर उठा. उनके कदम कंचन के करीब आते गये.

शांता को कुच्छ कुच्छ समझ में आ चुका था, किंतु दिनेश जी और कंचन के लिए ठाकुर साहब का आना अब भी पहेली बना हुआ था.

शांता और दिनेश जी के हाथ एक साथ ठाकुर साहब को नमस्ते करने के लिए उठ खड़े हुए.

ठाकुर साहब उनके नमस्ते का उत्तर देते हुए कंचन के पास जाकर खड़े हो गये. फिर सजल नेत्रों से उसके उदास चेहरे को देखने लगे.

कंचन के हाथ भी नमस्ते की मुद्रा में जुड़ गये.

"बेटी, इनके पावं छु लो, ये तुम्हारे पिता हैं." सुगना ने हैरान परेशान सी खड़ी कंचन से कहा.

"क....क्या......प......पिता?" कंचन के मूह से अनायास निकला.

दिनेश जी भी सुगना की बात से बुरी तरह चौंक पड़े थे.

"हां बेटी. मैने तो तुम्हे सिर्फ़ पाला है, वास्तव में तुम इनकी संतान हो. ठाकुर साहब ही तुम्हारे असली पिता हैं." सुगना कंचन के सर पर हाथ फेरते हुए बोला.

कंचन आँखों में आश्चर्य लिए ठाकुर साहब को देखने लगी.
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07-25-2018, 11:20 AM,
#45
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
ठाकुर साहब की आँखें गीली थी. उनके चेहरे पर बेटी को गले से लगाने की गहरी तड़प थी. उन्होने अपनी बाहें खोल दी. कंचन आगे बढ़ी और उनकी बाहों में समा गयी. उनके बाहों में सिमट'ते ही कंचन को वो पल याद आया जब वो छोटी थी और हवेली में निक्की के साथ खेला करती थी. तब ठाकुर साहब को देखते ही निक्की उछल्कर उनकी गोद में बैठ जाती थी. तब कंचन का मन भी होता था कि वो भी ठाकुर साहब की गोद में जाए, पर लज्जावश वो ऐसा नही कर पाती थी. हां ठाकुर साहब कभी कभार प्यार से उसके सर पर हाथ फेर देते थे या कभी कभार झुक कर उसके माथे को चूम लिया करते थे. पर उन्होने कभी निक्की की तरह कंचन को अपनी छाती से भींचा नही था. ना कभी उसे अपनी गोद में उठाए थे. उनकी गोद में चढ़ने की तमन्ना कंचन के दिल में हमेशा रही थी. फिर जैसे जैसे बड़ी होती गयी ये दूरी और बढ़ती गयी. हालाँकि ठाकुर साहब कंचन की इस बाल भावना से अंजान थे अगर वे जानते होते तो निसंदेह वो कंचन को भी अपनी गोद में लेने से नही हिचकिचाते. वे कंचन से भी उतना ही प्यार करते थे जितना की निक्की से.

किंतु आज ठाकुर साहब की छाती से लगकर कंचन को एक असीम सुख का अनुभव हो रहा था. यही दशा ठाकुर साहब की भी थी.

शांता, सुगना और दिनेश जी पिता पुत्री के इस मिलन से भावुक हो उठे थे.

कुच्छ देर बाद ठाकुर साहब कंचन से अलग हुए और शांता से बोले - "शांता तुमने मेरी बेटी को मा जैसा प्यार दिया. इसे तो हवेली में भी वो प्यार वो खुशी नही मिलती जो इस घर से, तुम लोगों से मिला है. हम तुम्हारे अभारी हैं. अब हमें इज़ाज़त दो कि हम कंचन को हवेली ले जा सकें" ये कहते हुए ठाकुर साहब ने शांता के आगे हाथ जोड़ दिए.

उत्तर में शांता ने भी सहमति में सिर हिलाते हुए अपने हाथ जोड़ दिए. फिर कंचन से बोली - "जाओ बेटी, अब अपने असली घर जाओ, पर कुच्छ दिन तक यहाँ आती रहना. हमें तुम्हारी आदत हो चुकी है."

इस घर को छोड़ कर जाने की बात से कंचन का दिल बैठ गया. उसके मन में आया कि वो अभी मना कर दे. पर कर ना सकी.

"दीदी कहाँ जा रही है मा?" अब तक खामोश खड़े चिंटू की समझ में कुच्छ ना आया तो शांता से पुच्छ बैठा.

उसकी बात सुनकर कंचन उसके पास आई और उसे अपनी छाती से लगा लिया. फिर ठाकुर साहब से बोली - "पिताजी, क्या मैं चिंटू को भी अपने साथ लेकर जा सकती हूँ? ये मेरे बगैर नही रह सकेगा."

"बेटी अब से वो घर तुम्हारा है, तुम बेशाक़ अपने भाई को अपने साथ रखो, हम तो चाहते थे कि तुम्हारे साथ साथ इस घर के सारे लोग हमारे साथ रहें. पर हम ऐसा कहकर सुगना के स्वाभिमान को ठेस नही पहुँचाना चाहते."

"हम इस घर में खुश हैं ठाकुर साहब. आपने हमारे लिए इतना सोचा यही काफ़ी है." सुगना ने झेन्प्ते हुए कहा.

ठाकुर साहब आभारपूर्ण दृष्टि सुगना पर डालकर कंचन के साथ बाहर जाने लगे. चिंटू भी कंचन के साथ था.

सुगना शांता और दिनेश जी भी पिछे पिछे बाहर तक आए.

कंचन एक बार सबसे गले मिलकर जीप में बैठ गयी. जीप के आगे बढ़ते ही उसे लगा जैसे वो किसी अंजानी दुनिया में जा रही हो. उसकी नज़रें सुगना पर ही टिकी हुई थी. कंचन का दिल भी वैसे ही रो रहा था जैसे सच्चाई जान लेने के बाद निक्की का दिल रोया था.

दोनो का दुख एक समान था. उनके पिता वो ना थे जिन्हे वे दोनो समझती आई थी. किंतु फिर भी उनके दुख में एक विशेष अंतर था. निक्की इस बात से दुखी थी कि दीवान जी की बेटी होने की वजह से अब वो ज़िंदगी भर सर उठाकर नही जी सकेगी. अब उसे उमर भर ज़माने की चुभती नज़रों का सामना करना पड़ेगा. जिसकी उसे आदत नही थी. किंतु कंचन इस बात से दुखी थी कि जिस सुगना के गोद में वो बचपन से खेलती आई थी. जिसकी छाती से लगकर वो चैन की नींद सो जाया करती थी. जिसके कंधो पर बैठकर वो खुशी से इतराया करती थी. जिसके हाथों से नीवाला खाकर वो बड़ी हुई थी.....वो उसका पिता ना था. कंचन इस बात से दुखी थी कि जो स्नेह जो वात्सल्य जिस व्यक्ति से अब तक वो लेती आई थी वो उसका पिता ना था.

कंचन इस बात से उतनी खुश नही थी कि अब वो ठाकुर साहब की बेटी कही जाएगी, हवेली में मौज से रहेगी, दिन भर नौकर चाकर उसके आगे पिछे घुमा करेंगे. और अब वो बिना किसी बाधा के रवि से शादी कर सकेगी. जितना दुख उसे इस बात से था की सुगना उसका पिता ना था.


फ्रेंड्स आज के लिए इतना ही आगे की कहानी जानने के लिए बने रहिए मेरे साथ...................................................
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07-25-2018, 11:21 AM,
#46
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
नीक्की के कदम कल्लू के घर के बाहर जाकर रुके. उसका घर क्या था बस एक टूटा फूटा झोपड़ा जिसकी दीवारें मिट्टी की बनी हुई थी और छप्पर उजड़ा हुआ था....जिसके उपर प्लास्टिक के टुकड़े जगह जगह पर पेबंद की तरह चिपकाए गये थे.

निक्की कुच्छ देर तक कल्लू के झोपडे को देखती रही फिर आगे बढ़ी और दरवाज़े तक पहुँची. दरवाज़ा खुला था. निक्की ने अंदर झाँका. उसे कल्लू एक मरियल सी चारपाई पर लेटा हुआ दिखाई दिया. वह खेत से आने के बाद चारपाई पर लेटा अपनी थकान मिटा रहा था. वो किसी गहरी सोच में डूबा हुआ लग रहा था. अचानक ही उसे दरवाज़े पर किसी के खड़े होने का एहसास हुआ. उसने अपनी गर्दन घूमाकर दरवाज़े की तरफ देखा. उसे दरवाज़े पर निक्की खड़ी दिखाई दी. निक्की पर नज़र पड़ते ही वह झट से उठ बैठा.

"निक्की जी, आप?" उसके मूह से स्वतः ही निकला.

"क्या मैं अंदर आ सकती हूँ." निक्की ने कल्लू से पुछा.

"कौन है कल्लू? किससे बात कर रहा है तू?" कल्लू निक्की से कुच्छ बोल पाता उससे पहले ही उसकी मा की आवाज़ आई. उसकी मा का नाम झूमकि था. झूमकि चारपाई पर लेटी हुई थी जब कल्लू और निक्की की आवाज़ उसके कानो से टकराई.

"मा, ठाकुर साहब की बेटी निक्की जी आई हैं" कल्लू जब तक अपनी मा को उत्तर देता निक्की अंदर दाखिल हो चुकी थी.

ठाकुर साहब की बेटी उसके घर आई है ये जानकार झूमकि आश्चर्य से भर उठी. वो धीरे से चलती हुई उसके पास आई और प्यार से उसके सर पर हाथ फेरने लगी. निक्की एक सुखद एहसास से भर उठी. कुच्छ देर पहले जो घुटन उसके अंदर थी वो झूमकि के स्नेह से पल भर में दूर हो गयी. वह जिस सुकून की तलाश में घर से निकली थी, वही सुकून उसे झूमकि के स्नेह से मिल रहा था.

झूमकि अपनी बूढ़ी आँखों से एक टक निक्की को देखती जा रही थी. वह सोच रही थी जिस घर में कभी तीज त्योहार में भी लोग मिलने नही आते थे आज उस घर में ठाकुर साहब की बेटी कैसे आ गयी?. उसे वो पल याद आ गया जब कल्लू बारिश से भीगने के बाद घर आया था. उस रात उसे थोड़ी बुखार भी आई थी. वह बेहोशी की हालत में बार बार कंचन का नाम लेकर बड़बड़ाता रहा था. झूमकि उसके मूह से कंचन का नाम सुनते ही सब समझ गयी थी कि कल्लू कंचन से प्यार करने लगा है. उस रात वो कल्लू के भाग्य पर खुद भी रोती रही थी. किंतु उसने उस रात एक निर्णय भी लिया था. वाह तय कर चुकी थी कि एक दो दिन में वो सुगना से मिलकर कल्लू और कंचन के रिश्ते की बात करेगी.

ठीक तीसरे दिन कल्लू के खेत जाने के उपरांत दोपेहर से पहले वो सुगना के घर के लिए निकली. सुगना से उसकी पहचान कुच्छ ज़्यादा नही थी. बस एक गाओं में होने की वजह से जितनी होनी चाहिए उतनी ही थी. कोई विशेष संबंध नही था. गाओं के रिश्ते से सुगना उसका देवेर लगता था.

राह चलते हुए उसके मन में ढेरो शंकाए थी. उसे उम्मीद तो नही थी कि सुगना अपनी फूल सी बेटी का हाथ उसके कल्लू के हाथ में देगा. पर मा तो मा होती है. बेटे के लिए वो एक बार सुगना के आगे झोली फैलाने को भी तैयार हो गयी थी. मन में एक आस थी-शायद सुगना को उसपर तरस आ जाए और इस रिश्ते के लिए हां कह दे.

कुच्छ ही देर में झूमकि आशा-निराशा के झूले में झूलती हुई सुगना की चौखट तक पहुँची. अभी वो अंदर जाने की सोच ही रही थी कि उसे आँगन के खुले दरवाज़े से अंदर का द्रिश्य दिखाई दे गया. बरामदे में सुगना के पूरे परिवार के साथ कोई शहरी औरत बैठी थी. उसका साहस नही हुआ कि वो अंदर जाए. वह नही चाहती थी कि पराई स्त्री के सामने उसे लज्जित होना पड़े. किसी के दिल का हाल कौन जाने...क्या पता सुगना कुच्छ ऐसा बोल दे जो उसे उस औरत के सामने अपमानित कर दे. वह बाहर ही खड़ी उस औरत के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगी.

कुच्छ देर खड़ी रहने के बाद वह कान लगाकर अंदर से आती आवाज़ को सुनने का प्रयास करने लगी. सुगना और शांता की आवाज़ तो उसके कानो तक नही आ रही थी. पर कमला जी की उँची आवाज़ उसके कानो तक सॉफ सॉफ आ रही थी. उनके मूह से कंचन और रवि की बात सुनकर वो समझ गयी कि ये स्त्री हवेली में ठकुराइन की इलाज़ करने आए डॉक्टर बाबू की मा है. और इस वक़्त वो अपने बेटे के रिश्ते की बात कर रही है.

पूरी बात जान लेने के बाद उसका दिल बैठ गया. झूमकि जिस मूह गयी थी उसी मूह लौट आई. उस दिन उसे अपने कल्लू के भाग्य पर बहुत रोना आया था. उसने कल्लू की शादी की उम्मीद ही छोड़ दी थी.

किंतु आज निक्की को अपने घर देख उसका मन फिर से वोही कल्पनाए करने लगा था. हालाँकि वो ज़मीन और आसमान के अंतर को समझ रही थी. पर दिल के हाथों ऐसा सोचने पर मजबूर थी.

"बेटी, सच सच बता. तू मेरे घर किस लिए आई है? आज तक इस घर में लोग तीज त्योहार में भी मुश्किल से ही आते हैं. फिर तू तो इतने बड़े बाप की बेटी है." झूमकि जिगयासावस पुछि.

"मा जी सबसे पहले तो मैं ये बता दू कि मैं ठाकुर साहब की बेटी नही. मेरे पिता दीवान जी हैं. उन्होने ही मुझे, जब मैं पैदा हुई थी..... ठाकुर साहब की बेटी से बदल दिया था. किंतु अब ये भेद खुल चुका है कि मेरे असली पिता दीवान जी हैं."

कल्लू और झूमकि के मूह, खुले के खुले रह गये.

"अगर तुम दीवान जी की बेटी हो तो ठाकुर साहब की असली बेटी कौन है?" झूमकि ने अगला सवाल किया.

"कंचन !" निक्की के मूह से धीरे से निकला.

"क्या....?" कल्लू चौंकते हुए बोला.

"हां कल्लू, कंचन ही ठाकुर साहब की असली बेटी है जिसे सुगना बाबा ने पाला है." ये कहने के बाद, निक्की क्षण भर कल्लू को देखती रही. और उसके मनोभाव को पढ़ने की कोशिश करती रही.

इस सत्य को जान लेने के बाद जहाँ कल्लू को इस बात की खुशी थी कि कंचन ठाकुर साहब की बेटी है वहीं उसके दिल में जो रही सही उम्मीद थी कंचन को पाने की, वो भी टूट चुकी थी. अब तो कंचन के बारे में वो कल्पना भी नही कर सकता था. उसका सर पीड़ा भाव से नीचे झुक गया.

"बेटी, ये जानकार बड़ा दुख हुआ कि तुम्हारे साथ ऐसा हुआ. जिस घर को जिस इंसान को बचपन से अपना घर अपना पिता मान कर चली, आज वो पराया हो गया. तुम्हारे मन को तो बहुत ठेस पहुँचा होगा." झूमकि निक्की के दुख का अनुभव कर भावुक हो उठी.

मा की बात से कल्लू का ध्यान भी निक्की के दुख की और गया. सच में....उसने तो निक्की के दुख का अनुभव ही नही किया था. - "निक्की जी, मुझे इस बात का खेद है. आपके साथ जो कुच्छ भी हुआ, अच्छा नही हुआ."

"छोड़ो इन बातों को." निक्की सर झटक कर बोली - "मैं यहाँ किसी और काम से आई हूँ. अगर आप लोग हां कहे तो?"

"हम भला आपके किस काम आ सकते हैं निक्की जी?" कल्लू सवालिया नज़रों से निक्की को देखा.

"मा जी." निक्की झूमकि के तरफ मुड़ती हुई बोली. - "मैं आपके बेटे से शादी करना चाहती हूँ. क्या आप इसकी इज़ाज़त दोगि?"

निक्की की बात सुनकर झूमकि की पथराई हुई बूढ़ी आँखें हैरत से फैल गयी. उसे लगा जैसे वो कोई सपना देख रही है. उसे अपनी कानो सुनी पर अभी भी बिस्वाश नही हो रहा था.

"ये आप क्या कह रही हैं निक्की जी. कहाँ हम कहाँ आप? धरती - आकाश का मिलन कभी नही होता निक्की जी." कल्लू झूमकि के बोलने से पहले बोल उठा.

"मैं भी वहीं हूँ कल्लू जहाँ तुम हो." निक्की कल्लू के तरफ पलटकर बोली - "ध्यान से देखो......मैं भी उसी धरती पर खड़ी हूँ जिस पर तुम खड़े हो. हमारे बीच धरती आकाश का नही बस एक कदम का फासला है. मैं अपने घर से चलकर यहाँ तक आई हूँ, अब एक कदम तुम भी आगे बढ़ जाओ."

"प......पर....!" कल्लू के शब्द उसके अंदर ही घुटकर रह गये. फिर कुच्छ सोचते हुए बोला - "लेकिन निक्की जी, आपके पिता इस रिश्ते के लिए कभी हां नही कहेंगे. दीवान जी ने ना जाने आपके लिए कैसे कैसे सपने देखे होंगे. भला मेरे घर में आपको क्या मिलेगा?"

"मुझे बड़ा घर, गाड़ी, दौलत नही चाहिए कल्लू. मुझे अब इन चीज़ों से नफ़रत हो गयी है. मैं तो बस एक ऐसा साथी चाहती हूँ जो मुझसे सच्चा प्यार करे. मैं प्यार की भूखी हूँ कल्लू......मुझे हर किसी ने ठुकराया है, प्लीज़ तुम इनकार मत करो. मुझे अपना लो. तुम जैसे रखोगे मैं रह लूँगी." निक्की भारी गले से बोली. वह बेहद दुखी थी.
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07-25-2018, 11:21 AM,
#47
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
कल्लू फटी फटी आँखों से निक्की को देख रहा था. जीवन भर वो किसी के प्यार के लिए तरसता रहा था. ये ठीक था की वो कंचन से प्यार करता था. पर कंचन ने कभी उसे इस प्यार की नज़र से नही देखा. किंतु आज निक्की के दिल में खुद के लिए प्यार देखकर उसकी खुशी की सीमा ना रही थी. उसने कभी भी सोचा नही था कि उसके लिए भी कभी कोई लड़की तड़पेगी. कोई उसके आगे भी प्यार की भीख माँगेगी. किंतु ऐसा था. आज निक्की उसके सामने अपने प्यार का इज़हार कर रही थी. कल्लू इस खुशी को बर्दास्त नही कर पा रहा था. उसकी आँखें छल्छला आई. उसके होंठ कुच्छ कहने के लिए खुले पर सिर्फ़ काँप कर रह गये.

"बेटी.....इससे क्या पुच्छ रही है. मैं तुम्हे अपनी बहू स्वीकार करती हूँ. तुझे ईश्वर ने सिर्फ़ मेरे बेटे के लिए ही बनाया है. तू ठहर.....!" झूमकि बोली. और कोने में पड़े एक पुराने संदूक के तरफ बढ़ गयी फिर संदूक में कुच्छ ढूँढने लगी. वह जब लौटी तो उसके हाथ में मंगलसूत्र था.

"ये ले इसे कल्लू के हाथ में दे. ये मेरा मंगलसूत्र है. इसके पिता ने मुझे पहनाया था. मैं बरसो से इसी दिन के लिए संभाल कर रखी थी." झूमकि ने निक्की के हाथ में मंगलसूत्र थमाते हुए कहा.

निक्की झूमकि के हाथ से मंगलसूत्र लेकर कल्लू के आगे बढ़ा दी. - "मुझे अपनी पत्नी होने का दर्ज़ा दे दो कल्लू. मैं तुम्हारा उपकार जीवन भर नही भूलूंगी."

"कल्लू सोच मत.....विधाता ने तुम्हे ये मौक़ा दिया है. इस मौक़े को ठुकरा मत. इसके गले में मगलसूत्र पहना दे बेटा." झूमकि ने कल्लू से कहा.

कल्लू का हाथ आगे बढ़ा और निक्की के हाथ से मंगलसूत्र ले लिया. फिर उसने निक्की को लेकर घर के एक कोने में बने छोटे से मंदिर के पास गया. वहाँ से चुटकी भर सिंदूर लिया और निक्की की माँग भर दिया. तत्पश्चात....उसने निक्की के गले में मंगलसूत्र भी पहना दिया.

झूमकि की आँखें खुशी से गीली हो गयी. वह निक्की की बालाएँ लेने लगी.

निक्की और कल्लू ने झुक कर झूमकि का आशीर्वाद ले लिया.

तभी !

बाहर जीप के रुकने की आवाज़ आई. कल्लू बाहर निकला तो दीवान जी जीप से उतरते दिखाई दिए.

निक्की और झूमकि भी बाहर निकल आए थे. दीवान जी को आते देख झूमकि थोड़ी चिंतित हो गयी थी. किंतु निक्की शांत थी.

"नमस्ते दीवान जी." जैसे ही दीवान जी नज़दीक आए कल्लू हाथ जोड़कर बोला.

किंतु, दीवान जी ने जैसे उसकी बात सुनी ही ना हो. वो सीधे निक्की के पास आए और बोले - "निक्की....तू यहाँ क्या कर रही है बेटी. मैं तुम्हे कहाँ कहाँ ढूंढता फिर रहा हूँ. तूने अपनी मा को भी नही बताया कि तू बस्ती आ रही है. चल घर चल.....तेरी मा परेशान है."

"अब मेरा घर यही है पिताजी. मैं कल्लू से शादी कर चुकी हूँ. अब मेरा घर और मेरा परिवार सब बदल चुका है." निक्की शांत किंतु मजबूत स्वर में बोली.

"क्या बकवास कर रही है तू?" दीवान जी पागलों की तरह चीखे. तभी उनकी नज़र निक्की की माँग पर सजे सिंदूर और गले में पड़े मंगलसूत्र पर पड़ी. - "ये तूने क्या कर दिया बेटी. क्या तुझे मुझपर भरोसा नही था. मेरे रहते तूने अपनी ज़िंदगी नर्क बना ली. ये मुझे किस जुर्म की सज़ा दे रही है तू?"

"जुर्म तो आपने अनगिनत किए हैं पापा. पर सच पुछिये तो मैं इस रिश्ते से खुश हूँ. अब आप आए हैं तो आशीर्वाद देकर जाइए."

"हरगिज़ नही." दीवान जी नथुने फुला कर बोले - "मैं तुम्हारी बर्बादी पर तुम्हे आशीर्वाद दूँ. ये मुझसे हरगिज़ नही होगा. मैं इस रिस्ते को ही नही मानता."

दीवान जी की बात से निक्की के साथ साथ कल्लू और झूमकि भी सकते में आ गये.

"कल्लू......!" दीवान जी आगे बोले. - "तू जितने पैसे चाहे मुझसे ले ले पर निक्की को इस रिश्ते से आज़ाद कर दे."

"ये आप क्या कह रहे हैं दीवान जी?" कल्लू नागवारि से बोला. उसे दीवान जी की बात अच्छी नही लगी थी. - "मैने निक्की जी को शादी के लिए मजबूर नही किया. इन्होने खुद मेरे आगे शादी की इच्छा ज़ाहिर की थी."

"कुच्छ भी हो पर मैं इस शादी को नही मानता. तुम मेरी बेटी को छोड़ दो मैं तुम्हे इतने पैसे दूँगा कि तुम्हारी पूरी ज़िंदगी आराम से गुज़र जाएगी."

"बस कीजिए पिताजी. मेरे पति का और अपमान मत कीजिए. अगर आशीर्वाद नही दे सकते तो आप यहाँ से चले जाइए और हमें सुकून से रहने दीजिए."

"निक्की ये तू कह रही है?" दीवान जी आश्चर्य से निक्की को देखते हुए बोले.

जवाब में निक्की ने अपना चेहरा घुमा लिया.

"ठीक है, मैं जा रहा हूँ. पर एक दिन तुझे अपने फ़ैसले पर अफ़सोस होगा और तब तू लौटकर मेरे ही पास आएगी." दीवान जी बोले और गुस्से से जीप की तरफ बढ़ गये.

उनके बैठते ही जीप मूडी और फ़र्राटे भरते हुए निकल गयी.

दीवान जी अपने घर पहुँचे. उन्हे देखते ही रुक्मणी जी बोली - "निक्की कहाँ है जी? आप तो उसे ढूँढने गये थे."

"वो उस भीखमंगे कल्लू से शादी कर चुकी है." दीवान जी दाँत पीस कर बोले. - "कहती है....अब वही झोपड़ा उसका घर है और वही लोग उसका परिवार. अब हमसे उसका कोई नाता नही."

"ये आप क्या कह रहे हैं जी. शुभ शुभ बोलिए." रुक्मणी पति की बात से घबराकर बोली.

"ये सब उस नमकहराम सुगना की वजह से हुआ है. मैं उसे छोड़ूँगा नही. वो मेरी बेटी की ज़िंदगी बर्बाद करके अपनी बेटी के लिए खुशियाँ खरीदना चाहता है. पर मैं ऐसा होने नही दूँगा." दीवान जी दाँत पीसते हुए बोले और कुच्छ सोचने लगे. अचानक ही उनके होंठो पर एक ज़हरीली मुस्कान थिरक उठी. फिर धीरे धीरे उनके होंठों की मुस्कुराहट गहरी और गहरी होती चली गयी और फिर देखते ही देखते उनके मूह से ठहाके छूटने लगे. वो पागलों की तरह ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे.

पास खड़ी रुक्मणी ने उन्हे इस तरह अट्टहास लगाते देखा तो वो दंग रह गयी, वो दीवान जी को ऐसे देखने लगी. जैसे वो पागल हो गये हों.

"ये क्या हो गया है आपको? आप ऐसे क्यों हंस रहे हैं?" रुक्मणी भय से कांपति हुई बोली.

"रुक्मणी मैं कंचन के भविष्य पर हंस रहा हूँ. वो सुगना सोचता है उसने जंग जीत ली है, मूर्ख है वो. वह सोचता होगा, अब वो आसानी से रवि और कंचन की शादी करा सकेगा. नही हरगिज़ नही." अचानक से दीवान जी की बातों में पत्थर की सख्ती आ गयी. - "वो अपनी कंचन की शादी रवि से कभी नही करा सकेगा. उसकी वजह से मेरी बेटी की ज़िंदगी बर्बाद हुई है. अब मैं कंचन को ऐसा चोट दूँगा जिसका दर्द सुगना की छाती में होगा. उसे कंचन से बहुत प्यार है, उसकी साँसे बस्ती है उसमें. मैं उसी कंचन को ज़िंदगी भर के लिए ना भरने वाला नासूर दूँगा." दीवान जी दाँत चबाते हुए बोले.
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07-25-2018, 11:21 AM,
#48
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
ठाकुर साहब कंचन और चिंटू के साथ हवेली में दाखिल हुए.

ठाकुर साहब के साथ - साथ कंचन और चिंटू भी खुश थे. कंचन के लिए ये किसी सपने से कम नही था. कुच्छ देर पहले सुगना से जुदा होते वक़्त जो मन पीड़ा से भर गया था, हवेली में उसके पावं पड़ते ही इस एहसास से कि अब वो इस हवेली की मालकिन हो गयी है, खुशी से झूम उठा था. बचपन से अब तक कयि बार वो इस हवेली में आ चुकी थी, पर आज उसकी छाती फूली हुई थी. किसी का भय नही, किसी चीज़ का डर नही. आज वो बेखौफ़ होकर हवेली में साँसे ले रही थी. उसके समीप खड़ा चिंटू मूह फाडे एक एक चीज़ को देख रहा था. उसके लिए तो ये बिल्कुल नया अनुभव था, आज उसे पहली बार हवेली आने का मौक़ा मिला था.

ठाकुर साहब सोफे पर बैठ चुके थे, किंतु कंचन अभी भी खड़ी थी. कंचन को आया देख हवेली के सारे नौकर हॉल में एकट्ठा हो गये थे.

ठाकुर साहब सोफे पर बैठे एक मुख कंचन को देखे जा रहे थे. तभी हवेली का एक नौकर ट्रे में दूध का गिलास लेकर आया. दूध में कयि तरह के ड्राइ फ्रूट मिला हुआ था. कंचन और चिंटू ने गतगत दूध का गिलास खाली कर दिया.

सहसा.....कंचन को याद आया कि इस हवेली के किसी कमरे में उसकी मा बंद है. कंचन के मन में अपनी मा को देखने की उससे मिलने की इच्छा जाग उठी.

वह ठाकुर साहब से बोली - "पिताजी.....क्या मैं मा से मिल सकती हूँ?"

उसकी बात सुनकर ठाकुर साहब पीड़ा से भर गये. उनके समझ में नही आया कि वो कंचन को क्या जवाब दें. - "नही....बेटी ! तुम अभी अपनी मा से ना ही मिलो तो अच्छा है, उसकी मानसिक स्थिति अभी ठीक नही हुई है, कुच्छ दिन और रुक जाओ, जब रवि बाबू इज़ाज़त देंगे तभी तुम अपनी मा से मिल लेना. अभी तो वो तुम्हे पहचानेगी भी नही, उसकी नज़र में निक्की उसकी बेटी है." ये कहने के साथ साथ ही ठाकुर साहब को अचानक निक्की का ध्यान हुआ.

सुगना के हवेली में आने के बाद ठाकुर साहब ऐसे उलझ गये थे कि उनका पल भर के लिए भी निक्की की तरफ ध्यान नही गया. किंतु अब उनका ध्यान रह-रहकर निक्की की तरफ जा रहा था, वे सोच रहे थे - "अब तक तो निक्की को सारी सच्चाई का इल्म हो गया होगा. ना जाने क्या बीत रही होगी उसके दिल पर?"

"मंगलू....." उन्होने पास खड़े नौकर से कहा - "ज़रा निक्की बेटा को बुला लाओ." फिर कुच्छ सोचते हुए उठ खड़े हुए - "रूको, हम खुद जाकर देखते हैं."

ठाकुर साहब अभी दो कदम ही चले थे कि मंगलू ने उन्हे टोका - "मालिक....निक्की मेम्साब तो हवेली में नही हैं."

"हवेली में नही है.....तो कहाँ गयी वो?" ठाकुर साहब चौंकते हुए बोले. - "कहीं दीवान जी के घर तो नही चली गयी? शायद दुखी होकर वो वहीं गयी होगी...... जाओ उसे बुला लाओ. कहना हम अभी मिलना चाहते हैं."

मंगलू तेज़ी से बाहर निकला. किंतु जिस तेज़ी से वो गया था उसी तेज़ी से लौट आया.

"निक्की मेम्साब वहाँ भी नही हैं....मालिक, वो तो......कल्लू के घर में हैं." मंगलू ने झिझकते हुए ठाकुर साहब से कहा.

"कल्लू के घर में.....?" ठाकुर साहब ने सवालिया नज़रों से मंगलू को देखा.

"मालिक....निक्की मेम्साब ने कल्लू के साथ शादी कर ली है. दीवान जी इस बात से नाराज़ हुए बैठे हैं और उनकी पत्नी रो रही हैं." मंगलू एक ही साँस में सारा किस्सा ठाकुर साहब के सामने बयान कर दिया.

"क.....क्या?" ठाकुर साहब....आश्चर्य से मंगलू को देखते हुए बोले.

मंगलू ने अपनी गर्दन झुका ली.

"ड्राइवर से कहो जीप निकले, हम अभी निक्की से मिलने जाएँगे." ठाकुर साहब क्रोध में बोले.

"जी मालिक." मंगलू बोला और बाहर भागा.

ठाकुर साहब बेचैनी से टहलने लगे. उनके मुख-मंडल पर चिंता की लकीरें खिच गयी थी.

कंचन भी निक्की के इस अनायास उठाए गये कदम से हत-प्रत थी. वो जानती थी कल्लू अच्छा लड़का है, पर वो किसी भी कीमत पर निक्की के योग्य नही था. - "कहीं निक्की ने इस बात से तो नाराज़ होकर कल्लू से शादी नही की, कि मैं उसकी जगह आ गयी?" कंचन के मन में सवाल उभरा. उसका दिल ज़ोरों से धड़क उठा.

जीप तैयार हो चुकी थी. ठाकुर साहब जैसे ही बाहर को निकले कंचन ने पिछे से उन्हे पुकारा - "पिता जी.....मैं भी आपके साथ निक्की के पास जाना चाहती हूँ, मुझे लगता है निक्की कहीं मुझसे नाराज़ ना हो."

"भला तुमसे.....उसकी क्या नाराज़गी हो सकती है बेटी? खैर तुम चलना चाहती हो तो चलो." ठाकुर साहब बोले और बाहर मुख्य द्वार की तरफ बढ़ गये.

कंचन चिंटू का हाथ पकड़कर ठाकुर साहब के पिछे हो ली. थोड़ी ही देर में जीप हवेली से बाहर निकल चुकी थी.

*****

एक बार फिर से जीप के रुकने की आवाज़ से कल्लू, निक्की और झूमकि का ध्यान बाहर की ओर गया. वे तीनो दरवाज़े से बाहर निकले.

जीप से ठाकुर साहब के साथ कंचन और चिंटू उतरते हुए दिखाई दिए.

ठाकुर साहब पर नज़र पड़ते ही तीनो के होश उड़ गये. उनकी गुस्से से भरी सूरत देखकर कल्लू और झूमकि के शरीर में भय की मीठी लहर दौड़ गयी.

ठाकुर साहब तेज़ी से झोपडे तक आए. झूमकि और कल्लू के हाथ स्वतः ही उन्हे नमस्ते कहने को जुड़ गये.

ठाकुर साहब गुस्से में थे, फिर भी हाथ जोड़ उनके नमस्ते का उत्तर दिए. फिर निक्की को देखने लगे.

निक्की सर झुकाए खड़ी थी. उसकी माँग में भरा हुआ सिंदूर और गले में मंगलसूत्र उसकी विवाहिता होने का प्रमाण दे रहा था. ठाकुर साहब कुच्छ देर निक्की की दशा को देखते रहे.

निक्की की नज़रें नीचे थी पर फिर भी उसे ठाकुर साहब की चुभती नज़रों का एहसास हो रहा था. उसने अपनी गर्दन उठाई और झिलमिलाती आँखों से ठाकुर साहब को देखा.

"मुझे माफ़ कर दीजिए अंकल....." निक्की हाथ जोड़ते हुए बोली.

"क......क्या.....?" ठाकुर साहब दो कदम पिछे हटते हुए बोले - "क्या.....क्या कहा तुमने........अंकल.....?"

निक्की उन्हे देखती हुई विवशता में अपने होठ काटने लगी.

"निक्की......हमें दीवान जी के छल से उतना दुख नही हुआ था जितना कि आज तुम्हारे मूह से "अंकल" शब्द सुनकर हुआ है." ठाकुर साहब तड़प कर बोले - "तूने हमारे 20 साल के प्यार का अच्छा सिला दिया है निक्की. हमने तो आज तक कभी कंचन को तुमसे अलग नही समझा फिर तुम्हे कंचन से अलग कैसे समझ सकते हैं, जबकि तुम हमारी गोद में खेली हो"

ठाकुर साहब का दिल निक्की की बात से लहू-लुहान हो गया.. उन्हे निक्की से ऐसी बेरूख़ी की उम्मीद नही थी. उन्होने कभी नही सोचा था कि जिस निक्की को उन्होने अपनी छाती से लगाकर रखा जिसकी मुस्कुराहटो को देखकर वो अब तक जीते रहे थे वोही निक्की उससे मूह फेर लेगी, एक पल में उनसे इस तरह संबंध तोड़ लेगी. निक्की के इस बर्ताव से उनकी आत्मा सिसक उठी थी.

ठाकुर साहब की बात से निक्की का दिल भर आया. वा तो इस एहसास से मरी जा रही थी कि दीवान जी की ग़लतियों की वजह से अब वो कभी ठाकुर साहब से नज़र नही मिला सकेगी. कभी उनका प्यार, उनका स्नेह नही पा सकेगी. किंतु ठाकुर साहब की बात सुनकर उसकी सारी शंका निर्मूल साबित हुई. उसका मन भावुकता से भर गया. उसके होंठ उन्हे पापा कहने के लिए फड़क उठे, उसकी बाहें उनसे लिपटने के लिए मचल उठी. वह आगे बढ़ी - "प....पापा. मुझे माफ़ कर दीजिए. मुझसे भूल हो गयी, मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ पापा. प्लीज़ मुझे अपने गले से लगा लीजिए."
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07-25-2018, 11:21 AM,
#49
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
ठाकुर साहब गीली आँखों से निक्की को देखने लगे. वो किसी छ्होटी डारी सहमी बची की तरह बिलख उठी थी. उसकी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे.

ठाकुर साहब आयेज बढ़े और निक्की को अपने कलेज़े से लगा लिए. निक्की उनकी छाती पर मूह छिपा कर फफक पड़ी.

वहाँ मौजूद हर-एक इंसान की आँखें नम हो गयी.

निक्की की रुलाई जब तक पूरी तरह से नही रुक गयी.....ठाकुर साहब उसे अपनी छाती से चिपकाए खड़े रहे. कुच्छ देर बाद निक्की ने अपना सर उनकी छाती से अलग किया. ठाकुर साहब उसके आँसू पोछ्ने लगे.

कंचन उसके करीब गयी तो निक्की ठाकुर साहब से अलग होकर कंचन से लिपट गयी. - "दीदी, तुम भी मुझे माफ़ कर दो, जाने अंजाने में मैने भी तुम्हारा दिल दुखाया है."

"क....क्या" कंचन गुस्से से अलग होती हुई बोली. -"क्या कहा तूने? देखा पिताजी आपने? इसने मुझे क्या कहा......अब मैं इसकी दीदी बन गयी." कंचन नाक फुला कर ठाकुर साहब से शिकायत करती हुई बोली

कंचन की बात से ठाकुर साहब ज़ोरों से हंस पड़े. उनके साथ-साथ वहाँ मौजूद सभी के होंठ खिलखिला पड़े.

"अच्छा बाबा, माफ़ कर दे, आइन्दा दीदी नही कहूँगी." निक्की कंचन के हाथ पकड़ती हुई बोली. उसकी बातों में शर्मिंदगी के भाव थे.

"निक्की......पर ये क्या बेटी, तूने शादी कर ली. किसी को बताया तक नही. तुम्हारी शादी के लिए हमने कितने अरमान दिल में बसाए थे. वो सब धरे के धरे रह गये. ऐसा क्यों किया तुमने बेटी" ठाकुर साहब मायूस होकर बोले.

निक्की का सर आत्म्बोध से झुक गया. फिर क्षमायाचना हेतु ठाकुर साहब को देखती हुई बोली - "मुझे माफ़ कर दीजिए पापा. हवेली से निकलने के बाद मैं बहुत निराश हो चुकी थी. ये सब कुच्छ एक दम से हो गया. प्लीज़....मुझे माफ़ कर दीजिए."

ठाकुर साहब प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोले - "तुम्हारी खुशी ही हमारी खुशी है निक्की. तूने कल्लू को पसंद किया है तो हमें भी कल्लू पसंद है. अब हम ये चाहते हैं कि तुम सब हमारे साथ हवेली चलो और वहीं रहो."

"नही पापा. अब मैं इस घर को नही छोड़ सकती. लेकिन मैं एक बेटी की तरह हवेली आती रहूंगी. आप सब से मिलती रहूंगी." निक्की ठाकुर साहब को इनकार करती हुई बोली - "मुझे आशीर्वाद दीजिए पापा कि मैं अपना नया जीवन अपने पति के घर में सुख से जी सकूँ." निक्की ये कहते हुए ठाकुर साहब के चरणो में झुक गयी.

"मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है बेटी." ठाकुर साहब निक्का के सर पर हाथ रखते हुए बोले. - "सदा खुश रहो. तुम्हारा जीवन फूलों की तरह सदा महकता रहे."

निक्की के बाद कल्लू ने भी ठाकुर साहब के पैर छुकर आशीर्वाद लिया. जो आशीर्वाद दीवान जी से ना मिल सका. वो ठाकुर साहब से उन्हे मिल चुका था.

ठाकुर साहब कंचन और चिंटू के साथ हवेली लौट गये.

******

नेक्स्ट डे

सुबह उठते ही कमला जी नहा धोकर मदिर के लिए निकल पड़ी. वो मंदिर पैदल ही जाया करती थी. हवेली से मंदिर का रास्ता 30 मिनिट का था.

आज वो बहुत खुश थी. खुश होती भी तो क्यों ना? उन्हे मनचाही मुराद जो मिल गयी थी. उन्होने एक ही सपना देखा था, रवि को पढ़ा लिखा कर काबिल इंसान बनाना और किसी उँचे-बड़े घर में उसका विवाह रचाना.

2 दिन पहले वो रवि और निक्की के विवाह के सपने पाले हुए थी. किंतु उनके दिल में एक फास थी. और वो फास थी रवि और कंचन की मोहब्बत....! वो निक्की से रवि का विवाह करना चाहती तो थी......किंतु अपने ही हाथों अपने बेटे के अरमानों का खून भी नही करना चाहती थी. किंतु आज परिस्थिति बदल चुकी थी. आज सब कुच्छ उनके मान मुताबिक हो रहा था. आज वो ठाकुर साहब जैसे धनवान व्यक्ति से रिश्ता भी कर रही थी और उसके लिए रवि का दिल भी नही दुखाना पद रहा था. ईश्वर ने सब कुछ उनके अनुरूप ही कर दिया था. इसलिए आज सुबह उठते ही वो नहा-धोकर मंदिर के लिए निकल पड़ी थी.

पूजा कर लेने के पश्चात कमला जी हवेली के लिए लौट पड़ी.

कुच्छ ही देर में उनके कदम हवेली के सीमा के भीतर थे. वो बड़े इतमीनान से हवेली की तरफ बढ़ी जा रही थी कि तभी उनके कानों से दीवान जी की आवाज़ टकराई -"बेहन जी ज़रा रुकिये......"

कमला जी आवाज़ की दिशा में मूडी. दीवान जी अपने घर के बाहर खड़े अपने हाथ उठाकर कमलाजी को रुकने का इशारा कर रहे थे.

कमला जी आश्चर्य से दीवान जी को देखने लगी, वो तेज़ी से कमला जी की तरफ भागे चले आ रहे थे.

"नमस्ते बेहन जी." दीवान जी पास आते हुए बोले - "आप से एक ज़रूरी बात करनी थी. आप थोड़ी देर के लिए हमारे घर आएँगी."

"मैं क्षमा चाहती हूँ दीवान जी. इस वक़्त आपके घर आना संभव नही हो सकेगा." कमला जी शर्मिंदा होती हुई बोली - "आप अच्छी तरह से जानते हैं.....ठाकुर साहब को ये अच्छा नही लगेगा. आख़िर मैं उनकी मेहमान हूँ."

"तो....क्या आप हमारी मेहमान नही हैं?" दीवान जी रुष्ट स्वर में बोले - "आख़िर हम संबंधी बनने वाले हैं कमला जी, आपको हमारे घर आने से इनकार क्यों हो रही है?"

कमला जी चौंक कर दीवान जी को देखने लगी. उनके मूह से सम्बंधी बनने वाली बात सुनकर उन्हे हैरानी हुई थी - "मैं समझी नही दीवान जी......आप किस संबंध की बात कर रहे हैं?"

"ऐसा ना कहिए कमला जी." दीवान जी विचलित होकर बोले - "अभी कल ही तो आपने हवेली में बैठकर मेरी निक्की को अपनी बहू बनाने की बात कही थी. इसके गवाह खुद ठाकुर साहब भी हैं. आप इस तरह अपनी ज़ुबान से मत मुकरिये."

"दीवान जी, आपने शायद ठीक से मेरी बात नही सुनी थी." कमला जी रूखे स्वर में बोली - "मैने ये नही कहा था कि मैं निक्की को ही अपनी बहू बनाउन्गि. मैने कहा था.....ठाकुर साहब की बेटी ही मेरे घर की बहू बनेगी. और आप ये जानते ही हैं कि ठाकुर साहब की बेटी निक्की नही....कंचन है."

"बेहन जी.....शब्दों का अर्थ बदल कर अपने वादे से मत फिरीए. आपके शब्द जो भी रहे हों, पर आपका इरादा निक्की को ही अपनी बहू बनाने का था." दीवान जी बिदककर बोले. उनके चेहरे पर नाराज़गी फैल गयी थी.

"आप जो भी समझना चाहें......समझिए ! पर मेरे घर की बहू कंचन ही बनेगी." कमला जी दीवान जी को दो टुक जवाब देकर आगे बढ़ने को हुई.

"रुकिये......कमला जी." दीवान जी कड़क स्वर में बोले - "जाने से पहले......एक सत्य मेरे मूह से भी सुनते जाइए. शायद उसके बाद आपका इरादा बदल जाए."

"कैसा सत्य.....?" कमला जी की सवालिया निगाहें दीवान जी के चेहरे पर चिपक गयी.

"एक सत्य जिसका सम्बन्ध आपके पति से है." दीवान जी अपने होंठो पर विषैली मुस्कान भरते हुए बोले.

"आ......आप मेरे पति को कैसे जानते हैं?" कमला जी हकलाते हुए बोली - "कहाँ हैं वो? मुझे बताइए दीवान जी.....मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूँ."

कमला जी की बदहवासी देखकर दीवान जी के होंठों की मुस्कुराहट गहरी हो गयी.
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07-25-2018, 11:22 AM,
#50
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
"आप मेरे साथ मेरे घर चलिए.....मैं आपके पति के बारे में सब कुच्छ बताता हूँ." दीवान जी घर की तरफ रुख़ करते हुए बोले.

कमला जी उनका अनुसरण करती हुई उनके पिछे चल पड़ी.

दीवान जी, कमला जी के साथ घर के अंदर दाखिल हुए.



"बैठिए बेहन जी.....!" दीवान जी हॉल में पड़े सोफे की तरफ इशारा करते हुए बोले.



कमला जी सकुचाते हुए बैठ गयी.



"कहिए क्या लेंगी आप?" दीवान जी सोफे पर बैठते हुए बोले.



"इस वक़्त कुच्छ भी खाने पीने की इच्छा नही है दीवान जी. आप कृपा करके ये बता दीजिए कि आप मेरे पति को कैसे जानते हैं? और इस वक़्त वे कहाँ हैं? आप नही जानते दीवान जी मैं उनसे बातें करने के लिए उनकी एक झलक देखने के लिए कितनी बेचैन रही हूँ."



"मैं आपकी पीड़ा समझ सकता हूँ. किंतु आप धीरज रखिए.....आज आपके सभी सवालों का जवाब मिल जाएगा." दीवान जी बिस्वास दिलाते हुए बोले - "आपको याद है जिस दिन आप हवेली में आईं थी. उस दिन मैं आपका शुभ समाचार लेने आपके कमरे में गया था."



"हां याद है, किंतु उस बात का मेरे पति से क्या संबंध है?"



"उस दिन मैने आपके कमरे में एक फोटो फ्रेम देखा था, तब मैने फोटो की तरफ इशारा करके पुछा था कि ये किन की तश्वीर है. और आपने कहा था कि वो आपके पति हैं."



"हां....मुझे याद है...." कमला जी तत्परता से बोली.

"मेरे ऐसा पुछ्ने का कारण ये था कि मैं आपके पति की तश्वीर को पहचान गया था. आपकी पुष्टि के लिए बता दूं कि उनका नाम मोहन कुमार है."



"हां......आपने ठीक कहा, उनका नाम मोहन कुमार ही है. लेकिन आप उनसे कब और कहाँ मिले थे? और यदि आप उन्हे पहले से जानते थे तो आपने अब तक ये बात हम से छुपाई क्यों?" कमला जी के मन में एक साथ कयि सवाल उमड़ पड़े.



"सही वक़्त का इंतेज़ार कर रहा था बेहन जी, और अब वो वक़्त आ गया है" दीवान जी अपने शब्दों में पीड़ा भरते हुए बोले - "मोहन बाबू से मेरी पहली मुलाक़ात देल्ही में हुई थी. मैने ही उन्हे रायगढ़ आने का न्योता दिया था."



"रायगढ़....? लेकिन किस लिए?" कमला जी दीवान जी के तरफ सवालिया नज़रों से देखती हुई बोली.



"बेहन जी.....! आज आपके सामने ये जो चमकती दमकती खूबसूरत काँच की हवेली खड़ी दिखाई दे रही है. इसका निर्माण आपके पति के ही हाथों हुआ है."



कमला जी की आँखें आश्चर्य से फैल गयी.



"आप ये तो जानती ही होंगी कि आपके पति काँच के कुशल कारीगर थे." दीवान जी ने बोलना आरंभ किया. - "जब ठाकुर साहब ने मुझसे हवेली के निर्माण की बात कही, तब मैं काँच के कारीगरों की तलाश में देल्ही गया. वहीं पर आपके पति से मुलाक़ात हुई और उन्हे कुच्छ पेशगी देकर रायगढ़ आने का निमंत्रण दिया."



कमला जी बिना हीले डुले दीवान जी की बातों को सुनती रही.



दीवान जी आगे बोले - "मेरे लौटने के तीसरे दिन ही मोहन बाबू रायगढ़ आ पहुँचे. मैने उन्हे हवेली के निर्माण संबंधी बातें बताई. अगले रोज़ वो देल्ही लौट गये. उन्हे अपने साथ काम करने के लिए कुच्छ और सहायक कारीगर की ज़रूरत थी. 2 दिन बाद जब वो आए तो उनके साथ 20 और कारीगर थे.

आते ही उन्होने निर्माण कार्य शुरू कर दिया. लगभग 20 महीने बाद हवेली का निर्माण कार्य पूरा हुआ. उन दिनो ठाकुर साहब अपनी पत्नी राधा जी के साथ बनारस में रहते थे. हवेली के निर्माण के दौरान वो महीने में एक दो बार आते, थोड़ा बहुत काम का ज़ायज़ा लेते फिर चले जाते.

जब हवेली का निर्माण कार्य पूरा हुआ. उस दिन ठाकुर साहब, अपनी पत्नी राधा देवी के साथ आए. उस दिन राधा जी की गृह प्रवेश की खुशी में हवेली को दुल्हन की तरह सज़ाया गया था. काम करने वाले सभी कारीगर जा चुके थे. सिवाए मोहन बाबू के. वे जाने से पहले ठाकुर साहब से कुच्छ ज़रूरी बात करना चाहते थे.

मैं उस पूरा दिन हवेली में ही रहा था. गृह प्रवेश के बाद.....जब लोगों की भीड़ कम हुई.....ठाकुर साहब राधा जी को हवेली दिखाने लगे. उस दिन ठाकुर साहब बहुत खुश थे. उनका खुश होना लाजिमी भी था. काँच की हवेली उनका सपना था.....जिसे उन्होने राधा जी के बतौर मूह दिखाई बनवाने का प्रण किया था.



शाम का वक़्त हो चला था. ठाकुर साहब राधा जी के साथ हॉल में खड़े थे. मैं उनके पिछे खड़ा था. वे राधा जी को काँच की बनी दीवारों को दिखाते हुए कह रहे थे. - "राधा इन दीवारों को देखो. क्या इनमें तुम्हे कुच्छ विशेषता दिखाई देती है?"

राधा जी ध्यान से काँच की दीवार को देखने लगी. किंतु उनके समझ में कुच्छ ना आया. राधा जी ने पलट कर ठाकुर साहब की तरफ अपनी निगाह घुमाई.

राधा जी को अपनी और सवालिया नज़रों से देखते पाकर....ठाकुर साहब जान गये कि राधा जी को कुच्छ भी समझ में नही आया है. - "राधा....इसके काँच के टुकड़ों में देखो. तुम्हे कहीं भी तुम्हारी ताश्वीर दिखाई नही देगी. ये इस तरह से बनाई गयी है कि किसी भी चीज़ का प्रतिबिंब इसपर नज़र नही आता."



राधा जी ने अबकी बार ध्यान से देखा. अबकी बार उनकी आँखें आश्चर्य से फैलती चली गयी. ठाकुर साहब मुस्कुरा उठे. साथ ही उन्हे ये आश्चर्य भी हुआ कि इतनी अनोखी चीज़ देखने के बाद भी राधा जी ने प्रशन्शा नही की.



"आओ.....तुम्हे और भी कुच्छ दिखाते हैं." ठाकुर साहब वहाँ से मुड़ते हुए बोले. फिर राधा जी को लेकर हवेली के विशाल कमरों की तरफ बढ़ गये. मैं उनके पिछे था.



"इन्हे देखो राधा. इसकी कारीगरी को देखो. जानती हो ये काँच हम ने फ्रॅन्स से मँगवाए हैं." ठाकुर साहब इस वक़्त अपने शयन-कक्ष में थे. ये कहने के बाद ठाकुर साहब राधा जी के तरफ देखने लगे. राधा जी काँच की अद्भुत कारीगरी देखने में मगन थी.



ठाकुर साहब इसी तरह हवेली का कोना कोना घूम घूम कर राधा जी को हवेली दिखाते रहे और हर एक काँच की विशेषता बताते रहे.

पूरी हवेली घूम लेने के पश्चात ठाकुर साहब राधा जी को लेकर अपने कमरे में वापस आए.

राधा जी गर्भवती से होने की वजह से हवेली घूमते घूमते काफ़ी थक चुकी थी.



"अब बताओ राधा, तुम्हे ये हवेली कैसी लगी?" ठाकुर साहब हसरत भरी नज़र से राधा जी को देखते हुए बोले.



"अत्यंत सुंदर.....!" राधा जी मुस्कुरकर बोली - "किंतु उस प्यार से अधिक सुंदर नही जो आपके दिल में मेरे लिए है. आपने जिस प्यार से मेरे लिए ये हवेली बनवाया है, उसी प्यार से अगर आप मेरे लिए कोई झोपड़ा भी बनवाते तब भी मुझे उतनी ही खुशी होती, जितनी की आज हो रही है."



राधा जी के जवाब से ठाकुर साहब निराश हो गये. उनकी सारी खुशियों, सारे उमंगों पर जैसे पानी फिर गया. राधा जी के द्वारा ऐसी भव्य हवेली की तुलना किसी साधारण झोपडे से किए जाने पर उनके दिल को गहरा आघात लगा. -"राधा, लगता है थकान की वजह से तुम हवेली के दरो-दीवार को ठीक से देख नही पाई हो, इसलिए इसकी तुलना एक साधारण झोपडे से कर रही हो. किंतु जब तुम इसकी अद्भुत कारीगरी को ध्यान से देखोगी तब इसकी प्रशन्शा किए बगैर नही रह सकोगी."



ठाकुर साहब के चेहरे पर उदासी की लकीर खिंच गयी थी. राधा जी को शीघ्र ही अपनी भूल का एहसास हुआ. उन्होने अपनी भूल सुधारते हुए कहा - "मेरा ये मतलब नही था. मेरे कहने का मतलब था कि आप अगर मेरे लिए प्यार से एक झोपडे का भी निर्माण करवाते तब भी वो मुझे अपने प्राणो से प्रिय होता. किंतु यहाँ तो आपने मेरे लिए साक्षात इन्द्र-महल बनवा दिया है. सच-मुच ऐसी भव्य इमारत की तो मैने कल्पना तक नही की थी."



इससे पहले की ठाकुर साहब राधा जी को कोई उत्तर दे पाते....दरवाज़े पर नौकर की आवाज़ गूँजी.

"मालिक.....मोहन बाबू आपसे मिलना चाहते हैं." सरजू बोला और सर झुकाकर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा.



"उन्हे यहीं भेज दो." ठाकुर साहब सरजू से बोले.



उत्तर पाकर सरजू वापस लौट गया.

कुच्छ ही देर में मोहन बाबू कमरे के अंदर दाखिल हुए. अंदर आते ही उन्होने हाथ जोड़कर सभी को नमस्ते किए.



"राधा.....!" ठाकुर साहब राधा जी से बोले. - "इनसे मिलो......ये मोहन हैं. इन्होने ही इस अद्भुत हवेली का निर्माण किया है. काँच की जितनी भी कारीगरी तुम देख रही हो.....सब इन्ही के हाथों का चमत्कार है."
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