RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 26
कंचन जब तक अपने घर पहुँची, सांझ ढल चुकी थी. सांता बुआ ने रात का खाना पकने के लिए मिट्टी के चूल्हे में आग लगा चुकी थी.
सुगना अभी भी घर नही लौटा था. चिंटू शायद अंदर पढ़ाई कर रहा था.
कंचन शांता को ढूँढती अंदर रसोई तक आई. शांता पतीले में चावल पकने के लिए पानी भर रही थी. उसने शांता को पुकारा - "बुआ....आज क्या बना रही हो खाने में?"
कंचन की आवाज़ से शांता ने पलटकर उसे देखा. उसकी आँखों में अभी भी वही सवाल था. साथ ही चेहरे पर थोड़ी बेचैनी भी व्याप्त थी. - "क्यों पुच्छ रही है? तुम्हे तो मेरे हाथ का बना हर चीज़ अच्छा लगता है?"
"बुआ....!" कंचन अपनी उंगलियों में दुपट्टा घूमाते हुए बोली - "बुआ आज खीर बनाओ ना. मेरा मन आज खीर खाने का हो रहा है."
"खीर...?" शांता ने आश्चर्य से उसे देखा - "लेकिन खीर के लिए सामान कहाँ है?"
"तो ले आओ ना बुआ. जो सामान चाहिए. आज मेरा बड़ा मन हो रहा है...." कंचन तपाक से बोली. और फिर अपनी उग्लियों में दुपट्टा घुमाने लगी.
शांता ने हैरानी से कंचन को देखा. आज उसे कंचन कुच्छ अज़ीब सी लग रही थी. इतनी बेचैनी खाने के लिए उसके मन में कभी नही होती थी. जो बना के दे दिया वो खा लेती थी. पर आज जाने क्यों वो खीर खाने के लिए इतनी ज़ोर दे रही है?
शांता मन में सोचने लगी - अभी इसकी उमर ही कितनी हुई है, सिर्फ़ शरीर से बड़ी हुई है. अक़ल तो अभी भी बच्चों जितनी ही है. शायद इसने किसी के घर में खीर बनते देखा हो. और इसका खीर खाने का मन मचला हो. -"आज तुझे खीर खाने की इतनी अधिरता क्यों है भला? शांता ने पुछा.
"बहुत दिन हो गये हैं ना इसलिए....!" कंचन भोलेपन से बोली - "क्या....नही बनाओगी बुआ?"
"बनाउन्गि कैसे नही. तू जो इतनी प्यार से बोल रही है." शांता ने मुस्कुराते हुए कहा - "कुच्छ चीज़ें बताती हूँ....उसे बनिये की दुकान से लेती आ."
कंचन ने हां में गर्दन हिलाई. फिर शांता की बताई चीज़ों को याद कर तेज़ी से आँगन के दरवाज़े से बाहर निकल गयी. तब तक शांता दूसरे कामो में व्यस्त हो गयी.
लगभग 30 मिनट बाद कंचन लौटी. उसके हाथ में थेले भर का सामान था. उसे देखकर शांता की आँखें हैरत से चौड़ी हो गयी. - "इतना सारा क्या उठा लाई तू?"
शांता ने तो उसे एक दिन का सामान लाने को कहा था. पर कंचन तो दूर की सोच कर गयी थी और पूरे हफ्ते भर का सामान उठा लाई थी. वो बुआ से बोली - "अभी ले आई तो अच्छा किया ना बुआ." फिर कभी खाने का मन हुआ तो?"
"तो तब ले आती." शांता ने थेले का सामान जाँचते हुए कहा. - "अब ये रखे रखे खराब नही हो जाएँगा?"
कंचन खामोश हो गयी. अब वो कैसे समझाती बुआ को कि उसे अब रोज़ ही खीर खाने का मन होने वाला है.
उसे उदास देख सांता बोली - "अच्छा ही किया बेटी जो तू ले आई. रोज़ रोज़ दुकान जाने से समय हर्ज़ होता है. अब जब भी तेरा मन खीर खाने का करे मुझे बता देना मैं बना दिया करूँगी."
शांता कंचन से थेला लेकर उससे सामान निकालने लगी. उससे कभी कंचन की उदासी नही देखी जाती थी. बिन मा की लड़की को वो उदास देख भी कैसे सकती थी. बचपन से ऐसे ही उसकी ज़रा ज़रा सी बातों का ख्याल करती आई थी. जैसे वो उसी की कोख से जन्मी हो. शांता कभी कभार चिंटू पर बरस पड़ती थी तो कभी उसकी शरारत पर मार भी देती थी, पर कंचन को कभी भूल से भी नही डाँट'ती थी. आज भी वो उसके उदास चेहरे को देख तड़प उठी थी.
कंचन अभी भी शांता के पिछे खड़ी उसे सामान निकालते देख रही थी.
शांता ने उसे खड़ा देखा तो मुस्कुराकर बोली - "बेटी...मैं खीर बना दूँगी. थोड़ी देर तक तू चिंटू के साथ बैठकर पढ़ाई कर. खीर बनते ही मैं तुम्हे बुला लूँगी."
"मैं तुम्हे खीर बनाते देखना चाहती हूँ बुआ." कंचन ने आग्रह किया. - "खीर कैसे बनाई जाती है.....मैं सीखना चाहती हूँ."
"क्यों सीखना चाहती है?" शांता ने पुछा - "क्या तुम्हे ये लगता है मैं तुम्हे फिर कभी खीर बनाकर नही खिलाउन्गि?."
"ऐसी बात नही है बुआ. मैं अब घर के सारे काम सीखना चाहती हूँ. तुमने तो मुझे अभी तक कुच्छ भी नही सिखाया." कंचन ने शिकायत की.
उसे सच में इस बात का दुख था कि बुआ ने उसे कभी घर का कोई काम करने नही दिया. खाना बनाना नही सिखाया. कुच्छ नही तो खीर ही बनाना सीखा देती. कम से कम वो अपने हाथों से बनाई खीर तो रवि को खिला सकती थी.
वहीं शांता खड़े खड़े उसे हैरत से देखे जा रही थी. उसे आज कंचन के स्वाभाव में काफ़ी परिवर्तन दिखाई दे रहा था. पहले खीर खाने के लिए उतावलापन और अब घर के कामो के प्रति लगाव....."कुच्छ तो हुआ है इसे." वह मन में सोची.
"ये तुम्हे अचानक से घर के कामों को सीखने का मन क्यों हुआ?" शांता ने मुस्कुराते हुए पुछा.
"जो ना सीखी तो......जब मैं ससुराल जाउन्गि तब मेरी सास मुझे डाँट नही लगाएगी? कहेंगी नही कि....मुझे घर का कोई काम नही आता."कंचन बिना रुके कहती रही. - "तब तुम्हारी कितनी बदनामी होगी बुआ? फिर सास मुझे घर से भी निकाल देंगी. इसलिए अब मैं रोज़ आपके साथ खाना बनाना सीखूँगी और घर के दूसरे काम भी."
भोली कंचन की भोली बातें सुनकर एक ओर जहाँ शांता मंद मंद मुस्कुरा रही थी तो वही दूसरी ओर इस बात से चकित भी थी कि आज कंचन को इतनी सारी बातें कहाँ से सीखने को मिल गयी. पहले तो ये कभी इस तरह की बातें नही करती थी
"क्यों हंस रही हो बुआ.?" शांता को हँसते देख कंचन के चेहरे पर लाज की लाली फैल गयी.
"ऐसे ही." शांता ने मुस्कुराकर जवाब दिया. फिर उसके झुके चेहरे को ठोडी से पकड़कर उठाते हुए आगे बोली. - "वो सब तो ठीक है, मैं तुम्हे सब सिखा दूँगी. पर तुम्हारे मन में ये सास का डर भरा किसने?"
कंचन के आगे रवि का चेहरा घूम गया. पर बुआ से उसके बारे में कह ना सकी. लाज की गठरी बनी खामोशी से शांता को देखती रही.
"ठीक है रहने दे मत बता. आ मेरे साथ बैठ, तुझे आज खीर बनाकर दिखाती हूँ. फिर अपनी ससुराल में बनाना अपनी सास के लिए." शांता ये कहते हुए कंचन का हाथ पकड़कर चूल्हे तक ले गयी. फिर उसे एक एक करके सारी विधि बताने लगी और कंचन उसके बताए अनुसार खीर बनाने लगी.
कंचन पूरे ध्यान से शांता की बताई बातों को मन में उतारती रही. कंचन इस काम में ऐसी खोई कि चिंटू के बार बार बुलाने पर भी उसके पास नही गयी. रोज़ इस वक़्त वो चिंटू को पढ़ाती थी, पर आज उसने भाई की तरफ देखा तक नही.
अंततः ! कंचन की मेहनत पूरी हुई और उसकी मीठी खीर बनकर तैयार हुई.
इतने में सुगना भी लौट आया था. आँगन में पावं धरते ही खीर की सुगंध उसकी नाक से टकराई.
"ओह्ह्ह......तो आज घर में खीर बनाई जा रही है." सुगना नाक सूंघते हुए चूल्हे तक आया. -"बड़ी अच्छी सुगंध आ रही है."
"सुगंध कैसे नही आएगी भैया. कंचन के हाथ का बना जो है." शांता ने पानी का लौटा सुगना को देते हुए कहा.
"क्या.....!" सुगना का मूह से खुशी से भरा स्वर निकला. उसने कंचन को देखा जो होठों में मुस्कुराहट और आँखों में शर्म लिए पिता की ओर देखे जा रही थी. - "ये जान कर तो मेरी भूख दुगुनी हो गयी है. मैं खाना तो थोड़ी देर में खाउन्गा.....पर अभी थोड़ी सी खीर कटोरी में ले आ. ज़रा देखूं तो मेरी बेटी ने कैसी खीर बनाई है."
सुगना के कहने की देरी थी और कंचन खीर निकालने दौड़ पड़ी. रसोई से कटोरी लाकर उसमे खीर भरी और सुगना को पकड़ा दी. फिर सुगना के खाने के बाद अपनी प्रसंसा सुनने के लिए पास ही खड़ी हो गयी.
सुगना ने चम्मच से खीर उठाकर अपने मूह में लिया. फिर अपनी जीभ चलाते हुए उसने कंचन को देखा जो टकटकी लगाए उसी को देख रही थी. उसके मन में हज़ारों शंकाए थी......जाने बापू को खीर कैसी लगी होगी. कहीं ऐसा ना हो बापू नाराज़ हो जायें. लेकिन अगले ही पल उसकी सारी शंकाए बेजान साबित हुई.....जब उसकी नज़र सुगना के होंठों पर फैलती मुस्कुराहट पर पड़ी.
"बापू बताओ ना खीर कैसी लगी?" कंचन से और ना रहा गया. उसके मन में अपनी मेहनत का परिणाम जान'ने की उत्सुकता चरम पर थी.
"स्वादिष्ट....बेहद स्वादिष्ट !" सुगना गदगद होकर बोला - "मुझे तो बिस्वास ही नही हो रहा है कि मेरी बेटी इतनी अच्छी खीर बना सकती है."
कंचन भाव-विभोर हो गयी. अपने बापू के मूह से अपने हाथ से बनाई खीर की प्रसंसा सुनकर उसका रोम रोम पुलकित हो उठा. मन मयूर की तरह नाचने को हुआ. पर पिता का ध्यान करके अपनी खुशी अपने दिल में दबा गयी.
उसकी खुशी केवल इसलिए नही थी कि उसने अच्छी खीर बनाई थी और उसके पिता ने उसकी सराहना की थी. उसकी खुशी का कारण था रवि.....! वो ये सोचकर खुश हो रही थी कि कल वो अपने प्रीतम को अपने साहेब को अपने हाथों से खीर बनाकर खिला सकेगी. उसके मूह से अपने लिए सच्ची प्रसंसा सुनेगी. उसे इस बात की खुशी थी कि अब वो रवि को अपना सकेगी. कहने को तो उसने सिर्फ़ खीर बनानी सीखी थी....पर कोई उसकी नज़र से देखे तो जान पाए कि उसकी उस खीर में कितनी भावनाएँ छिपि हुई थी.
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रवि जब हवेली पहुँचा तो निक्की भी उसके पिछे पिछे हवेली में दाखिल हुई.
हॉल में ठाकुर साहब के साथ दीवान जी बैठे हुए थे. वे आपस में कुच्छ बातें कर रहे थे जब रवि ने उन्हे हाथ जोड़कर ग्रीट किया.
रवि और निक्की को एक साथ बाहर से आते देख ठाकुर साहब की आँखें खुशी से मुस्कुरा उठी. - "आओ रवि, हम तुम्हारा ही इंतेज़ार कर रहे थे. तुमसे कुच्छ आवश्यक बातें करनी है." ठाकुर साहब रवि से संबोधित हुए.
रवि की आँखें आश्चर्य से सिकुड गयी. पास ही खड़ी निक्की की ओर नज़र घूमी तो उसके होंठों पर एक विषैली मुस्कान थिरकते पाया. उसने फिर से अपनी नज़रों का रुख़ ठाकुर साहब के चेहरे पर किया. उनके चेहरे पर गहरे संतोष का भाव था. रायपुर आने के बाद आज पहली बार उसने ठाकुर साहब को इतना प्रसन्न देखा था. लेकिन उनके संतोष का कारण उसकी समझ से परे था.
क्रमशः...............................................
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