RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
उस हादसे से मैं इस क़दर सुन्न पड़ा हुआ था कि मुझे कुच्छ भी होश नही था. मैं पत्थेर की मूरत बना पूरे घटनाक्रम को समझने की कोशिश कर रहा था. मैं कभी राधा जी के बारे में सोचने लगता तो कभी मोहन बाबू के बारे में. ज़हन पर शाम के वक़्त की वो बातें जो मोहन बाबू और राधा जी के बीच हुई थी, मुझे रह रह कर याद आ रही थी.
कितने खुश थे शाम को ये सोचकर की दो दिन बाद वे अपने घर लौटेंगे और आप लोगों से मिल सकेंगे. रात खाने के वक़्त भी उनके चेहरे पर वही खुशी विराजमान थी. उन्हे तनिक भी इसका अंदाज़ा नही था कि आज की रात उनकी ज़िंदगी की आखरी रात हो सकती है. जो आँखें अपने परिवार को देखने की खुशी में चमक उठी थी. कौन जानता था कि वोही आँखें कुच्छ देर में सदा के लिए बंद होने वाली है.
सोचा तो मैने भी नही था कि पल में इतना सब कुच्छ हो जाएगा. किंतु अनहोनी तो हो चुकी थी. कुच्छ देर पहले के जीते जागते मोहन बाबू अब मेरे सामने लाश में तब्दील हुए पड़े थे
ठाकुर साहब बदहावाश राधा जी को संभालने में लगे हुए थे. राधा जी थोड़ी शांत हुई तो ठाकुर साहब उन्हे उठाकर अपने कमरे में ले गये. फिर हॉल में उस जगह पर आए जहाँ मोहन बाबू का निर्जीव शरीर पड़ा था.
"इस लाश को ठिकाने लगाना होगा दीवान जी. वो भी रातों रात....अगर इस खून की भनक भी किसी को हो गयी तो हम ज़िंदगी भर जैल की हवा खाते रहेंगे."
"जी मालिक..." मेरे मूह से मुश्किल से निकला. मैं आगे की आग्या के लिए ठाकुर साहब की सूरत देखने लगा.
"इसे स्टोर रूम में लिए चलते हैं. वहाँ का फर्श अभी कच्चा है. वहीं खड्डा खोद कर इसे दफ़न कर देंगे." ठाकुर साहब मेरी और देखकर बोले.
मेरी गर्दन अपने आप हां में हिलने लगी.
"दीवान जी, इस रहस्य को आप अपने तक ही सीमित रखिएगा. अन्यथा हमारे साथ आप भी लपेटे में आ जाएँगे." ठाकुर साहब ने मुझे चेतावनी दी.
मेरी गर्दन फिर से हां में हिली.
मेरी स्वीकृति मिलते ही ठाकुर साहब मोहन बाबू के शरीर को सर के तरफ से पकड़ कर उठा लिए.....फिर मेरी ओर देखकर आँखों की भाषा में लाश उठाने का संकेत किए. मैं हरकत में आया. मैं मोहन बाबू के पावं के तरफ आया और उनके टाँगो को पकड़कर उठा लिया.
मोहन बाबू की लाश को उठाए हम धीरे धीरे स्टोर रूम की तरफ बढ़ते चले गये.
स्टोर रूम में पहुँचकर हम ने लाश को नीचे रखा. फिर गड्ढा खोदने के लिए औज़ार ढूँढने लगे. पास ही एक कोने में मजदूरों का सामान पड़ा था. मैने ज़मीन खोदने के लिए गैन्ति (पिक) और ठाकुर साहब ने कुदाल (स्पेड) उठा लिए.
मैने काँच के बने फर्श को एक नज़र देखा फिर अपनी शक्ति का भरपूर प्रयोग करते हुए गैन्ति को फर्श पर मारने लगा.
"थक्क....थककक...." करती गांटी की आवाज़....रात के सन्नाटे को चीरती हुई पूरी हवेली में गूँजती जा रही थी. आवाज़ बाहर ना जाए इसके लिए हम ने हवेली के सारे खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए थे.
मैं पसीने से लथ-पथ गैन्ति चलाए जा रहा था. गैन्ति की आवाज़ के साथ साथ कभी कभी राधा जी की चीख और ज़ोर के ठहाकों से भी हवेली गूँज उठती थी.
जब कभी उनकी चीख या ठहाके हमारे कानों से टकराते तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते. किंतु हम उसकी परवाह किए बिना अपना काम करते रहे. मैं ज़मीन खोदता रहा और ठाकुर साहब मिट्टी उठाते रहे. लगभग 3 घंटे की अथक मेहनत के बाद हम ने इतना गड्ढा खोद लिया था कि हम मोहन बाबू की लाश को दफ़ना सकें.
मोहन बाबू की लाश को दफ़नाने के बाद हम वापस हॉल में आए और हॉल में फैले मोहन बाबू के खून को सॉफ करने लगे. कुच्छ ही देर में हम ने वो काम भी पूरा कर लिए था. इस पूरी प्रक्रिया में मेरी जो हालत थी वो मैं ही जानता था.
मोहन बाबू के खून के सारे सबूत मिटाने के बाद मैं अपने घर आ गया.
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