RE: Kamukta Story कांटों का उपहार
दूर बहुत दूर. एक पहाड़ी इलाक़े का खामोश वातावरण. केवल हवाओं की सनसनाहट ही कभी कभी सुनाई पड़ जाती थी.
और इस इलाक़े में, एक अलग पहाड़ी पर स्थित सॅनेट्रियम के एक वॉर्ड में खाट पर लेटे राजा सूरजभान सिंग अपने जीवन की अंतिम साँसे गिन रहे थे. टी.बी ने उनके बूढ़े शरीर को और भी कमज़ोर कर दिया था. जब वह खाँसते तो उनकी छाती का उतार - चढ़ाव तेज़ हो जाता, साँसें गहरी और गहरी हो जाती, कुच्छेक खून के छींटे मूह से बाहर निकल पड़ते, होठों के किनारे लाली से भीग जाते. और तब वह अपनी खाँसी पर काबू पाने के लिए झट उठकर बैठ जाते और अपनी छाती दबाने लगते. खाँसी रुकती तो वह गहरी - गहरी साँसों के साथ अपनी आँखों में आए आँसू को पोछ्ते हुए समीप की खिड़की से बाहर बादलों की काली परतों को देखने लगते. उस वक़्त मन करता वह तुरंत ही इनसे भी उपर चले जाएँ. जीवन बोझ बन जाए तो जीने की चाह मिट जाती है. राजा सूरजभान सिंग का दिल टूटकर टुकड़े - टुकड़े हो चुका था. जब उन्हे थोड़ा आराम मिलता तो फिर से पलंग पर लेट जाते और गर्दन घुमा कर वॉर्ड के अंदर देखने लगते...बीच के दरवाज़े के उस पार दूसरे वॉर्ड में...जो इस अस्पताल का सबसे बड़ा हॉल था. उस वॉर्ड में दीवार पर एक बड़ी संगमरमर की प्लेट जड़ी हुई थी, जिस पर अंकित की हुई पंक्तियाँ उन्होने सॅनेट्रियम में भरती होने के बाद पहले ही दिन पढ़ लिया था. उस पर लिखा था.
इस संगमरमर को राजा सूरजभान सिंग, एक्स-रूलर ऑफ रामगढ़ स्टेट की असीम कृपाओं के कारण धन्यवाद के रूप में यहाँ जड़ा गया है. यदि उन्होने इस सॅनेट्रियम की सहायता ना की होती तो निश्चित है यह आर्थिक स्थिति के कारण बंद कर दिया जाता.
दिनांक - 9 मे, 1955
आज से लगभग 15 वर्ष पहले जब कुच्छ दिनो के लिए राजा सूरजभान सिंग अपने दिल की तड़प को कम करने के लिए, एक सुकून की तलाश में इस इलाक़े में आए थे तब उनकी उपस्थिति का लाभ उठाकर यहाँ के कार्यकर्ताओं ने उनके सम्मान में एक पार्टी दी थी और बदले में सॅनेट्रियम के लिए एक अच्छी ख़ासी रक़म वसूल कर ली थी. आज उन्हे कोई नही जानता था, कोई नही पहचानता था. आज भी डॉक्टर वहाँ थे जिन्होने खुले शब्दों में अस्पताल के लिए उनसे भीख माँगी थी, आज कुच्छेक नर्स तथा सिस्टर भी वहाँ थी, परंतु राजा सूरजभान सिंग अब राजा नही थे. वह एक साधारण टी.बी के रोगी थे. जिसे मानो किसी ने तरस खाकर सड़क से उठाकर यहाँ भरती करा दिया था.
उस संगमरमर की प्लेट को बार - बार देखने के बाद भी उनकी आँखें छलक पड़ती थी. प्यार ने उन्हे क्या से क्या बना दिया? पागल. दीवाना. उनका प्यार सार्थक नही हो सका. उनका प्रयास असफल रहा, तपस्या व्यर्थ गयी, पूजा रास नही आई. पता नही उनका प्रयश्चीत अभी पूरा होगा भी या नही? उनके दिल में अब कोई इरादा नही था. कोई अभिलाषा नही थी. उनसे जितना हो सका उन्होने कर दिया, कमल के लिए भी और राधा के लिए भी. परंतु दिल के अंदर एक आशा ज़रूर थी, उनका दिल कह रहा था...एक दिन जब वह नही रहेंगे तो राधा उन्हे ज़रूर क्षमा कर देगी. किंतु काश. राधा उन्हे उनके जीवन काल में ही क्षमा कर दे. एक बार ही सही...केवल एक बार ही उसके पैरों पर दम तोड़ते हुए उन्हे सदा के लिए शांति मिल जाएगी.
सॅनेट्रियम में भरती होने से पहले उन्होने अपना स्टेट बॅंक में जमा किया हुआ सारा रुपया केमल के नाम कर दिया था. सभी ज़रूरी काग़ज़ात भी लखनऊ से ही भेज दिए थे. अपने लिए उन्होने कुच्छ भी नही बचाया.
सॅनेट्रियम में आए उन्हे काफ़ी दिन हो चले थे. और ज्यों - ज्यों उनका इलाज़ होता गया उनकी अवस्था गिरती ही चली गयी. पलंग पर उठकर बैठते भी तो हाफने लगते. कुच्छ कहना चाहते तो रुक - रुक कर, मानो ज़ुबान लड़खड़ा रही हो. बात करते तो ऐसा प्रतीत होता मानों दिल बैठ जाएगा. और तब वह बहुत बेचैनी से अपना दम निकलने की प्रतीक्षा करने लगते.
उन्हे अपने वॉर्ड के मरीजों से भी कोई संपर्क नही था. सभी को देखने वाला कोई ना कोई अवश्य था. कभी किसी मरीज से मिलने उसकी मा आती तो कभी किसी का बेटा, तो कभी किसी की पत्नी या दूसरे रिश्तेदार. कोई फल लाता तो कोई जूस. परंतु सूरजभान सिंग का अपना कोई नही था. कोई नही था जो उनका हाल - चाल पुछे, उनसे मिलने आए, उनके लिए फलों का जूस लाए. मानो संसार में अकेले आए हैं और अकेले ही जाएँगे.
जब सुबह होती तो वह तड़के सूर्य की पौ फटने से पहले ही अपने बेड के समीप वाली खिड़की खोल लेते. ठंडी - ठंडी हवाएँ उन्हे सिहरा जाती फिर भी पट बंद नही करते. खिड़की से बाहर के नज़ारो को देखते हुए राधा के विचारों में गुम हो जाते.
आज उनकी तबीयत और दिनो से कुच्छ अधिक ही खराब थी. खाँसी के साथ ज्वर ने भी अपना अधिकार जमा रखा था. सूर्यास्त का समय था. उन्होने समीप की खिड़की का पट खोलकर सूर्य को देखा. डूबते हुए सूर्य को देखने में उन्हे एक विचित्र संतोष मिलता था. वह सोच रहे थे. कुच्छ देर बाद ही यह सूर्य भी अंधेरे का शिकार होकर लुप्त हो जाएगा, इसकी चमक बिल्कुल फीकी हो जाएगी. बिल्कुल उनके जीवन के समान. अपनी बेबसी पर उनकी आँखें छलक आई.
तभी अपने नियमित समय पर एक नर्स उनके पास आई. उसके हाथ में पुराने अख़बार से लिपटा हुआ एक पैकिट था. जिसे उसने पलंग के समीप ही एक छोटी मेज पर लापरवाही से रख दिया. फिर चार्ट पढ़ा और इंजेक्षन तैयार करती हुई बोली - "बाबा तुम इतने खामोश क्यों रहते हो?"
सूरजभान सिंग कुच्छ नही बोले. खामोश ही रहे. अचानक ही उनकी दृष्टि उसकी पैकिट पर ठिठक गयी.
"राधा." वह खुशी से चीख पड़े. उनकी आवाज़ सारे सॅनेट्रियम में गूँज गयी. आस - पास के सोते जागते मरीज चौंक पड़े. नर्स भी भय खाकर दो कदम पिछे हट गयी. पैकिट पर सामने ही उनकी जवानी की तस्वीर छपी थी और नीचे लिखा था.
"राजा साहब आप जहाँ कहीं भी हैं, शीघ्र ही हवेली लौट आएँ. मैं राधा आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ. आपसे क्षमा माँगना चाहती हूँ."
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