RE: Mastram अजय, शोभा चाची और माँ दीप्ति
दीप्ति की चूत एक ही समय में चोदी और चूसी जा रही थी. शोभा के सिर ने अजय के लंड के साथ तालमेल बैठा लिया था. जब अजय का लन्ड मां की चूत में गुम होता ठीक उसी समय शोभा भी दीप्ति के तने हुये चोंचले को पूरा अपने होंठों में समा लेती. फ़िर जैसे ही अजय लन्ड को बाहर खींचता, वो भी क्लिट को आजाद कर देती. चूत की दिवारों पर घर्षण से उत्पन्न आनन्द, लाल सुर्ख क्लिट से निकलते बिजली के झटके और अजय के हाथों में दुखते हुये चूंचें, कुल मिलाकर अब तक का सबसे वहशीयाना और अद्भुत काम समागम था ये दीप्ति के जीवन में.
अगले कुछ ही धक्कों के बाद दोनों मां-बेटे अपने आर्गैज्म के पास पहुंच गये. अब किसी भी क्षण वो अपनी मंजिल को पा सकते हैं. पहले दीप्ति की चूत का सब्र टूटा. अजय के गले में "म्म्म." की कराह के साथ ही दीप्ति ने शोभा के सिर को चूत के ऊपर जोरों से दबा दिया. अजय के हाथों ने पहले से ही दुखते दीप्ति के स्तनों पर दवाब बढ़ा दिया. सूजे हुये लंड पर फ़िसलते चाची के होंठों ने आग में घी का काम किया. जैसे ही उसे लन्ड में कुछ बहने का अहसास हुआ, उसने लन्ड से दीप्ति की चूत पर कहर बरसाना शुरु कर दिया. बेतहाशा धक्कों के बीच दीप्ति के गले से निकली घुटी हुई चीखें सुन नही सकता था.
शोभा ने भी चूत से लन्ड तक बिना रुके चाटना जारी रखा. जीभ पर सबसे पहले दीप्ति का चूतरस आया. क्षणभर पश्चात ही अजय का मीठा खत्टा वीर्य भी होठों के किनारे से आ लगा. गंगा, जमुना सरस्वती की भांति, दीप्ति का आर्गैज्म, अजय का वीर्य और शोभा का थूक उसके गले में मिल संगम बना रहे थे. शोभा के लिये तो अब कुछ भी अलग नहीं रह गया था. बाल, माथा, और पूरा चेहरा तीनों के ही शरीर द्रवों से नहा गया था.
दीप्ति ने सांस लेने के लिये अजय के मुहं में दबे पड़े अपने होंठों को बाहर खींचा. आर्गैज्म के बाद आते हल्के हल्के झटकों के बाद दिमाग सुन्न और शरीर निढाल हो गया. मानो किसी ने पूरी ऊर्जा खींच कर निकाल ली हो. परन्तु अभी तक अजय का लंड तनिक भी शिथिल नहीं हुआ था. बार बार धक्के मार कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था. दीप्ति के पेट के बल लुढ़क जाने से उसका लण्ड अपने आप स्प्रींग की तरह उछल कर बाहर आ गया. शोभा रुक कर ये सब देख रही थी. बिचारा, अब मां की झटकती चूत में ना जा पायेगा. शोभा ने दीप्ति की टांगों के बीच से घुसकर अजय के लन्ड पर गोल करके अपने होंठों को सरका दिया. कुछ देर तक सिर को हिल आकर अजय के लण्ड को आखिरी बूंद तक आराम से झड़ने दिया. अजय आनन्द के मारे कांप रहा था. उत्तेजना से भर कर अपने दांत दीप्ति के सुन्दर नरम कंधों में गड़ा दिये. वीर्य की आखिरी बूंद भी शोभा के गले में खाली करके अजय का लन्ड "पॉप" की आवाज के साथ चाची के मुहं से बाहर निकल आया. शोभा ने पहली बार किसी पुरुष का वीर्य अपने गले भरा था, इससे पहले भी अजय को चूसते समय उसको गले से बाहर ही अपने मुखड़े पर झड़ाया था और कुमार अपने पति को तो वो सिर्फ़ उत्तेजित करने के लिये ही चुसती हैं. जैसे ही मुहं खोल गले के भीतर का मिश्रण बिस्तर पर उलटना चाहा, अजय के वीर्य के गाढ़ेपन और स्वाद से रुक गई. धीरे धीरे जीभ पर आगे पीछे घुमा घुमा कर भरपूर स्वाद लिया. आज से पहले ऐसा विशिष्ट स्वाद किसी खाद्य पदार्थ में नहीं आया था. संतुष्ट हो एक बार में ही पूरा का पूरा द्रव गले के नीचे उतार लिया. फ़िर उन्गलियां चेहरे पर फ़िरा कर बाकी बचे तरल को भी चटखारे ले लेकर मजे से खा गई.
थकान से चूर होकर दीप्ति बेसुध सो रही थी कि देर रात में या कहे की सवेरे की हल्कि रोशनी में बिस्तर पर किसी की कराहों से उसकी आंख खुली. आंखों ने अजय को शोभा की टंगों के बीच में धक्के मारते देखा. शोभा ने चादर मुट्ठी में भर रखी थी और नीचला होंठ दातों के बीच में दबा रखा था. "कुतिया, अभी तक जी नहीं भरा इस का?" अजय पुरी ताकत से शोभा को रौंद रहा था. बिना किसी दया भाव के. इसी बर्ताव के लायक है ये. सोचते हुये दीप्ति की आंखें फ़िर से बन्द होने लगी. गहन नींद में समाने से पहले उसके कानों में शोभा का याचना भरा स्वर सुनाई दिया.
"अजय,, बेटा बस कर. खत्म कर. प्लीईईईज. देख में फ़िर करवाऊंगी रात को..अब चल जल्दी से भर दे मुझे..जोर लगा". शायद उकसाने से अजय जल्दी झड़ जायेगा और वो भी उससे छूट कर थोड़ा सो पायेगी.
जब दीप्ति दुबारा उठी तो बाथरुम से किसी के नहाने की आवाज आ रही थी. अजय पास में ही सोया पड़ा था. बाहर सवेरे की रोशनी चमक रही थी. शायद छह बजे थे. अभी उसका पति या देवर नही जागे होंगे. लेकिन यहां अजय का कमरा भी बिखरा पड़ा था. चादर पर जगह जगह धब्बे थे और उसे बदलना जरुरी था. तभी याद आया कि आज तो उसके सास ससुर आने वाले है. घर की बड़ी बहू होने के नाते उसे तो सबसे पहले उठ कर नहाना-धोना है और उनके स्वागत की तैयारियां करनी है.
पुरी रात रंडियों की तरह चुदने के बाद चूत दुख रही थी. गोरे बदन पर जगह जगह काटने और चूसने के निशान बन गये थे और बालों में पता नहीं क्या लगा था. माथे का सिन्दूर भी बिखर गया था. जैसे तैसे उठ कर जमीन पर पड़ी नाईटी को उठा बदन पर डाला और कमरे से बाहर आ सीढीयों की तरफ़ बढ़ी.
और जादू की तरह शोभा पता नहीं कहां से निकल आई. पूरी तरह से भारतीय वेश भूषा में लिपटी खड़ी हाथों में पूजा की थाली थामे हुये थी.
"दीदी, मां बाबूजी आते होंगे. मैने सबकुछ बना लिया है. आप बस जल्दी से नहा लीजिये" कहकर शोभा झट से रसोई में घुस गई, आज दिन भर उसे सास ससुर की खातिरदारी में अपनी जेठानी का साथ देना था. रात भर भी साथ देती ही आई थी.
खैर, दिन के उजाले में सब कुछ बदल चुका था.
समाप्त.
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