Mastram Kahani प्रीत का रंग गुलाबी
11-17-2018, 12:41 AM,
#27
RE: Mastram Kahani प्रीत का रंग गुलाबी
मोहन ने हाथ जोड़े और बोला- प्रभु, मैं एक पतित इन्सान हु परन्तु मोहिनी से सच्चा प्रेम किया है अगर वो मेरे साथ नहीं तो फिर जिस जीवन का कोई मोह नहीं मुझे 



साधू मुस्कुराया फिर बोला- परन्तु एक नाग कन्या मनुष्य से विवाह करेगी तो प्रकर्ति का संतुलन बिगड़ेगा उसका सोचो 



सब खामोश रहे ,


फिर मोहिनी बोली- मैं त्याग करुँगी अपनी नाग योनी का 



साधू- कर पाओगी 



वो- अवश्य, 



कैसा ये प्रेम था मोहन के लिए उसका की नाग योनी का त्याग करने को तैयार थी वो अब साधू ने कहा – जैसा की मोहिनी अपनी नाग योनी को त्याग कर रही है क्या दिव्या के प्रेम में इतनी शक्ति है की वो मोहन के लिए कुछ त्याग कर सके 



दिव्य- क्या कहना चाहते है आप 



साधू- मोहिनी अगर नाग योनी का त्याग करे तो उसे इंसान बनने के लिए इंतज़ार करना होगा वो अपनी नियति स्वयं चुन रही है परन्तु दिव्या अगर तुम्हारा विवाह मोहन से ना हो तो इस राज्य के राजा को वचन भंग का पाप लगेगा तो तुम्हारा वचन अवश्य पूरा होगा 



परन्तु चूँकि तुम्हारा प्रेम अब जिद का रूप ले चूका है इस कारण से उसकी पवित्रता भंग हो गयी है जबकि मोहन और मोहिनी का प्रेम निच्छल है तो इस लिए तुम्हारा विवाह अवश्य होगा मोहन से परन्तु तुम ग्रास्थी का सुख नहीं भोग पाओगी


मोहिनी चूँकि तुमने नाग योनी का त्याग करने का सोचा है तो तुम्हे इंसान रूप के लिए तपस्या करनी होगी एक सहस्त्र साल तक तुम्हारा इंतज़ार रहेगा इस बीच कितने मोसम बदलेंगे, कितने युग हो सकता है दुनिया का नया रूप तुम्हरे सामने हो पर जब तक मोहन खुद किसी भी रूप में आकार तुम्हे नहीं पुकारे गा तुम स्वयं प्रकट नहीं होगी और अगर ये प्रतिज्ञा टूटी तो फिर ना मोहन होगा ना मोहिनी 



मोहिनी- मैं तैयार हु देव 



मोहन- नहीं मोहिनी नहीं , मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता की तुम किस रूप में हो अगर तुम नागिन रूप में हो तो भी मैं तुम्हारा वरण कुरंगा 



साधू- मोहन, अगर मोहिनी को पाना है तो उसे ये तपस्या करनी होगी 



मोहन- तो ठीक है मुझे भी कुछ ऐसी ही सजा दीजिये मैं भी इंतज़ार करूँगा 



साधू- मोहिनी के लिए तुम्हे जीना होगा ये पल पल की जुदाई ही एक दिन आधार बनेगी इस प्रेम कहानी का जिसे सदियों तक सुनाया जायेगा 



दिव्या- सबका फैसला ठीक कर दिया पर मुझे ये सजा क्यों साधू- सजा कहा अवसर है तुम्हारे लिए पा सको तो पा लो अपने प्रेम को 



साधू- मोहिनी आगे बढ़ो मैं तुम्हारा मार्ग खोल रहा हु 



मोहिनी- एक पल दीजिये मुझे 



मोहिनी दौड़ कर मंदिर में गयी और एक घड़ा ले आई , मोहन के पास गयी और बोली- पानी पिलो मोहन फिर ना जाने ये अवसर कब आएगा

मोहिनी दौड़ कर मंदिर में गयी और एक घड़ा ले आई , मोहन के पास गयी और बोली- पानी पिलो मोहन फिर ना जाने ये अवसर कब आएगा 


मोहिनी की आँखों में कुछ आंसू थे मोहन ने ओक लगायी और उस मीठे पानी को पिने लगा पर उकी ये प्यास अब ऐसे न बुझने वाली थी अब दर्द और इंतज़ार का सागर तो था मोहन के पास पर दो घूंट प्रेम की ना थी 



ना जाने कैसी तकदीर लिखवा के लाया था वो , पूरा घड़ा खाली हो गया था फिर भी मोहन के होठ प्यासे थे 



साधू- मोहिनी आज से तुमहरा वास उसी कीकर के पेड़ में होगा जो तुम्हारे प्रेम का साक्षी रहा है मैं स्वयम उस पेड़ की सुरक्षा उस समय तक निश्चित करूँगा जब सही समय पर मोहन तुम्हे पुकारेगा और ये परीक्षा ख़तम होगी 



और मोहन महाराज के वचन की लाज रखने के लिए तुम्हे दिव्या से फेरे लेने होंगे 



मोहन- नहीं कदापि नहीं 



साधू- अगर ऐसा ना किया तो सहस्त्र वर्षो तक अग्नि में जलना होगा 



मोहन- मंजूर है अपनी मोहिनी के लिए कुछ भी करूँगा 



साधू- पर तुम्हारा एक अंश जो दिव्या के साथ है उसका क्या 



मोहन- मुझे नहीं पता 



साधू- तो फिर कैसे न्याय मिलेगा उसको भी 



मोहन- आप जाने 



साधू-तो वचन की लाज हेतु कर लो विवाह 



मोहन- परन्तु विवाह होते ही वो मेरी अर्धांगिनी हो जाएगी फिर उसका क़र्ज़ कैसे उतारूंगा मैं 



साधू- मैं तुम्हे उस भार से मुक्त करता हु जैसा की मैं कह चूका हु दिव्या की मांग में सिंदूर होगा परन्तु ग्रहस्ती का सुख नहीं भोगेगी वो ये उसकी नियति है 



दिव्या- परन्तु मुझे ऐसी कठोर सजा क्यों 



साधू- क्योंकि तुमने वचन रूपी अस्त्र चला कर दो प्रेमियों को जुदा किया 



दिव्या- परन्तु मैंने तो बस अपना प्रेम माँगा 



साधू- दिव्या तुम कभी समझी ही नहीं प्रेम का दूसरा नाम ही त्याग होता है अगर तुम त्याग कर पाती तो सम्मानीय होती परन्तु अब तुम –पाप की भागी हो 



दिव्या- मैं नहीं मानती, मैंने तो बस प्रेम किया 



साधू- प्रेम और जिद में अंतर करो 



दिव्या- अगर मोहन मेरा नहीं हुआ तो मोहिनी का भी नहीं होगा ये मेरा पराण है 



साधू- नियति 



आदेशानुसार मोहिनी बैठ गयी उस तपस्या में , महाराज ने एक महीने बाद मोहन और दिव्या का विवाह निश्चित किया परन्तु जैसे मोहन अब पहले वाला मोहन नहीं रहता था कितने दिन बीत जाते थे वो उसी कीकर के पेड़ के पास बैठा रहता मोहिनी उसे देख कर रोती वो उसे याद करके रोता पर दोनों मजबूर थे 



भर लेता अपने आलिंगन में उस पेड़ को पर कैसे समझाए खुद को , कुछ न समझ आये बावरा सा हुआ वो जैसे जैसे विवाह का दिन नजदीक आ रहा था महल में सबको एक चिंता सी थी , दिव्या खुश थी पर ये कैसी ख़ुशी थी


और फिर आया वो दिन , दिव्या सजी थी दुल्हन के रूप में और मोहन ने मन ही मन कुछ फैसला कर लिया था बस कुछ ही देर की बात थी और फिर दिव्या मोहन की हो जानी थी पर मोहन का दिल नहीं मानता इस बात को 



और फिर उसने कुछ ऐसा किया जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था मोहन ने आत्महत्या कर ली फांसी लगा ली उसने और जैसे ही दिव्या को ये मालुम हुआ उसे गहरा आघात लगा पर जूनून था या जिद थी ये कैसा प्रेम था उसका 



उसने भी खुद को आग लगा ली महल में शोक छा गया , पर नियति ने अपना खेल खेल दिया था जो आन वाले वक़्त में अपना रंग अवश्य ही दिखाता जैसा की हुकम था मोहन ने अपने लिए सहस्त्र वर्षो की सजा चुन ली थी परन्तु दिव्या की रूह कैद हो गयी उसी महल में उसने भी इंतज़ार चुन लिया था 



की वो जब भी रहेगी जब मोहन और मोहिनी का मिलन होगा दिव्या तब भी होगी और होगा उसका प्रेम जो उसके लिए जुनुनियत की हद तक था मरकर भी वो उसी महल में भटकती गुनगुनाती कभी रोती समय गुजरता गया न महल रहा न राज्य ना राजा न रजवाड़े कुछ नहीं रहा 



पर वो कीकर का पेड़ खड़ा रहा और उसके पास कभी कभी लोगो को आग सी लगी दिख जाती , कभी दोपहर में कभी रात में कोई कहता भूत-प्रेत है कोई कहता जादू है पर वक़्त की रेत में वो प्रेम कहानी कही खो गयी थी मोहिनी उस पेड़ के अन्दर से रोज मोहन को जलते हुए देखती पर वो हमेशा मुस्कुराता रहता फिर बनता फिर जलता 



जुदा होकर भी वो जुदा ना हुए थे कभी कभी मोहिनी सोचती की भागकर लिपट जाऊ मोहन से और अपने प्रेम की वर्षा से उस अग्नि को भिगो दू पर वो भी जानती थी की मजबूरियों की बेडिया उसके कदमो में पड़ी है 



वक्त गुजरता गया वो कहा किसी के लिए रुकता वो राजमहल जो कभी शान से खड़ा था पर आज वो बस एक खंडर की भांति था , लोग कहते थे की इसमें भुत है कुछ लोग इस आस में की क्या पता राजा महाराजो का खजाना होगा तलाश में भी गए थे पर उनको दिव्या के कहर का सामना करना पड़ा था जिसे बस इंतज़ार था मोहन का अपने मोहन का 



ये कैसा इंतज़ार था जो ख़तम होने का नामा ही नहीं ले रहा था , ये कैसे पीड़ा थी जो प्रेम ने उनको दी थी ये कैसा मिलन होना था जो इतनी लम्बी जुदाई मिली थी ये तो बस नियति के रचियता ही जानते थे और जब इस इंतज़ार के ख़तम होने में पच्चीस बरस थे तो एक समय मोहन की सजा खतम हो गयी उसकी आग रुक गयी 



परन्तु अगले ही पल उसकी रूह गायब हो गयी कुछ न समझी मोहिनी की ये क्या हुआ पर उसे भरोसा था की महादेव तो हर पल उसके साथ है वो उसका बुरा कभी नहीं करेंगे देखते देखते पच्चीस बरस बीत गए और पूरा हुआ इंतज़ार पर मोहिनी कैसे बहार आये मोहन जब उसे पुकारे तब वो आये पर मोहन कहा रह गया 
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