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RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
सोचते हुए डॉली ने अपने-आपसे प्रश्न किया 'तो क्या वह विज्ञापन राज ने ही छपवाया था? राज भी तो विकलांग है और आयु भी चालीस वर्ष से अधिक नहीं। वैसे शारीरिक गठन के । हिसाब से राज पैंतीस से अधिक न लगता था। तभी विचार श्रृंखला टूट गई। चाय की लंबी चुस्की लेकर राज ने शिवानी से कहा- 'वैसे तो शिवा! मेरे विचार से यह ठीक नहीं हुआ। इस आयु में विवाह। लोग क्या कहेंगे? और वैसे भी भाग्य में यदि पत्नी का सुख होता तो ज्योति का ही साथ क्यों छूटता?' राज के इन शब्दों में पीड़ा थी।
शिवानी बोली- 'भैया! आपने तो अपने जीवन में बहुत कुछ देखा है और बहुत कुछ पढ़ा भी है। इतना तो आप भी जानते होंगे कि जीवन का सफर अकेले कभी नहीं कटता। इस सफर के लिए किसी-न-किसी साथी की जरूरत हर किसी को महसूस होती है। इसके अतिरिक्त भैया! अतीत के दर्द को दबाने के लिए किसी-न-किसी खुशी का होना भी आवश्यक होता है। इंसान को एकाएक कोई खुशी मिले तो वह अतीत की पीड़ाओं को भूल जाता है।'
'पीड़ाओं को भूलना तो असंभव ही होता है शिवा! वैसे सच्चाई यह है कि यह विज्ञापन मैंने तेरी वजह से दिया है।'
'मेरी वजह से?'
'हां।' राज ने खाली प्याली रख दी और बोला- 'तेरी वजह से। बात यह है कि अब तू बड़ी हो गई है और तुझे अपनी ससुराल भी जाना है। तेरे जाते ही जो अकेलापन मुझे डसेगा-वह मुझसे सहन न हो पाएगा।' इतना कहकर राज ने अपनी व्हील चेयर घुराई और उसके पहिए घुमाते हुए वह बाहर चला गया।
शिवानी उसे जाता देखती रही। भाई की पीड़ा उससे छुपी न थी।
तभी डॉली उससे बोली- तुझे राज भैया से यह सब नहीं कहना चाहिए था।'
'मैंने क्या कहा?'
'कहा तो कुछ विशेष नहीं, किन्तु विवाह की बातों से उन्हें यों लगा-जैसे उनके घावों को कुरेदा गया हो।'
'भैया वास्तव में शादी के पक्ष में नहीं। यदि मैं जीवन-भर इसी घर में रहती तो वो निश्चय ही शेष जीवन यूं ही गुजार देते, लेकिन तू तो जानती है कि कोई भी लड़की अपने बाबुल के घर जीवन भर नहीं रह सकती। भैया केवल इसी बात से दुखी हैं और इस दु:ख को कम करने के लिए ही दूसरा विवाह कर रहे हैं।'
'कैसी लड़की चाहिए उन्हें?' डॉली ने पूछा।
शिवानी बोली- 'बस सुंदर, पढ़ी-लिखी और ऐसी जो उनका सहारा बन सके। खैर छोड़, अब तू स्नान कर ले। कपड़े मेरे पहन लेना और हां, आज तो रहेगी न?'
डॉली ने इस प्रश्न पर चेहरा झुका लिया। उसने तो अभी तक शिवानी से अपने दुखों की चर्चा भी न की थी। यह भी न बताया था कि वह यहां किस उद्देश्य से आई थी।
शिवानी ने उसे यों विचारमग्न देखा तो आत्मीयता से बोली- 'डॉली! तूने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। मेरा यह पूछना तुझे बुरा लगा?'
'नहीं, ऐसी बात नहीं शिवा!'
'फिर क्या बात है?'
"शिवा!' डॉली को कहना पड़ा- 'मैंने रामगढ़ छोड़ दिया है।'
'क्या मतलब?'
'चाचा मुझे बेचना चाहते थे। उन्होंने मेरा सौदा कर दिया था। गांव का सत्तर वर्षीय जमींदार मुझे खरीद रहा था और कल यह सब होना था, किन्तु एकाएक मुझे अवसर मिला और मैं रात के अंधेरे में रामगढ़ से चली आई। यहां आने पर पता चला कि चाचा भी न रहे।'
'ओह!'
'सोचा था-कहीं दूर चली जाऊंगी किन्तु फिर यह न समझ सकी कि इतनी बड़ी दुनिया में जाऊं तो कहां जाऊं। कोई अपना नहीं-कोई ऐसा नहीं जो मुझे आश्रय दे सके। आज कहीं बैठी यही सब सोच रही थी कि एकाएक तेरा ध्यान आया। सोचा-शिवा मेरे लिए कुछ और न भी करेगी तो सलाह तो अवश्य देगी।' यह सब कहते-कहते डॉली की आंखें भर आईं और आवाज रुंध गई।
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RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
इस समय वह दर्पण के सामने खड़ी अपने बालों को संवार रही थी। एकाएक शिवानी ने पीछे से आकर कहा- 'बिजली कहां गिराएगी?'
'कैसी बिजली?'
'अपने सौंदर्य की।'
'मैं इतनी सुंदर तो नहीं।'
'यह तो किसी दिन भैया से पूछा होता।'
'क्यों?'
'हर समय तेरी ही प्रशंसा करते हैं।' कहते-कहते शिवानी ने डॉली के कंधे पर अपना सिर रख दिया और बोली- 'जानती है आज सुबह क्या कह रहे थे?
' 'क्या?'
'कहते थे डॉली जैसी कोई लड़की मेरे जीवन में आती तो यह घर स्वर्ग बन जाता।'
डॉली यह सुनकर चौंकी नहीं। राज की भावनाओं को वह समझती थी। राज की आंखों में जो मौन प्रस्ताव था-वह भी उससे छुपा न था। उसे यों विचारमग्न देखकर
शिवानी फिर बोली- 'क्या सोचने लगी?'
'सोचती हूं-उनकी पत्नी ज्योति तो मुझसे अधिक सुंदर थी।'
'हां।'
‘फिर यह घर स्वर्ग क्यों न बना?'
'भैया को इसी बात का तो दु:ख है। वो आज भी यह सोचकर पछताते हैं कि उन्होंने ज्योति को समझने में इतनी बड़ी भूल क्यों की।'
डॉली ने इस विषय को आगे न बढ़ाया। विषय को बदलकर वह बोली 'तू तो घर ही रहेगी न?'
'क्यों?'
'मैं कहीं जा रही हूं।'
'रामगढ़?'
'ऊंहु-रामगढ़ का नाम न ले।'
'फिर?'
'नौकरी की तलाश में।'
'किन्तु भैया ने तो...।'
'वो अपने ढंग से प्रयास करेंगे और मैं अपने ढंग से।'
'कब लौटेगी?'
'संध्या से पहले लौट आऊंगी।'
'मैं भी चलूं?'
'तू क्या करेगी?'
'अकेली जाएगी। कहीं किसी की नजर लग गई तो?'
'नजर तो तुझे भी लग सकती है।'
'मैं इतनी सुंदर कहां।'
'सुंदरता अपनी नहीं देखने वाले की आंखों में होती है।' डॉली ने कहा। उसने ब्रुश रख दिया और मुड़कर बोली- 'किसी दिन पूछना किसी से, लेकिन सुन! पूछते-पूछते दिल न दे बैठना।'
'क्या होगा?'
'रोग लगा लेगी जीवन भर का। दिन में चैन न मिलेगा और रातों में नींद न आएगी।'
'अच्छा!' शिवानी ने शरारत से मुस्कुराकर कहा
'तो इसीलिए तू रात-रातभर करवटें बदलती है। किसी को दिल दे बैठी है क्या?'
'ना बाबा! मैं दिल-विल के चक्कर में कभी नहीं पड़ती और यदि पड़ती भी तो इतना अवसर ही न मिला। पूरे दिन तो घर में कैद रहती थी।'
'किन्तु यहां तो पूरी आजादी है, बना ले किसी को अपना।'
'नहीं अभी नहीं।
'फिर कब?'
'वर्ष-दो वर्ष बाद।'
'बूढ़ी होने पर?' शिवानी ने पूछा और हंस पड़ी।
'पगली! बुढ़ापे का प्यार जवानी के प्यार से अधिक मधुर होता है। अच्छा-अब मैं चलूं?'
'देख जल्दी लौट आना।'
'प्रॉमिस।' डॉली ने कहा और उसी क्षण शिवानी ने उसका कपोल चूम लिया।
'शरारती कहीं की।' डॉली बोली।
शिवानी खिलखिलाकर हंस पड़ी।
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RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
सैंट्रल जेल के मुलाकात वाले कक्ष में वह सिर झुकाए खड़ा था। समय ने कितनी जल्दी हुलिया बदल दिया था उसका। चेहरे पर मैल की परतें, बढ़ी हुई शेव और आंखों में निराशा के साये।
डॉली उसे देखकर स्वयं को न रोक सकी और सिसक पडी।
जय उसे रोते देखकर बोला 'रोना तो मुझे चाहिए डॉली! घर-परिवार और साथ ही उसे भी छोड़कर जिसे मैंने पागलपन की सीमा तक चाहा यहां चला आया, कैद हो गया इन ऊंची-ऊंची दीवारों में। समझौता कर लिया अपने मुकदर से किन्तु आंखों में आंसू न आए। जानती हो क्यों? क्योंकि मन में एक विश्वास था। विश्वास था कि कोई मेरा अपना है। यकीन था कि कोई मुझे भी चाहता है और डॉली! इंसान को किसी का प्यार मिले-किसी अपने की। सहानुभूति मिले-कोई उसके दुखों पर दो आंसू बहाए-उसके लिए खुशी की इससे बड़ी कोई और बात नहीं होती।'
'जय!' डॉली रोते-रोते सलाखों पर मस्तक रगड़ने लगी।
'डॉली!' जय फिर बोला- 'तुम्हें देखा तो मैंने संसार देख लिया। तुम यहां आईं तो संसार-भर की खुशियां मुझे मिल गईं। अब मुझे कोई परवाह नहीं। कोई गम नहीं कि मेरा क्या होगा। भले ही मुझे फांसी की सजा मिले, किन्तु मैं हमेशा यही चाहूंगा कि तुम्हें कुछ न हो। तुम्हारा जीवन खुशियों से महकता रहे। तुम्हारे पांव में कभी कांटा भी न चुभे।'
'जय! मेरे जीवन की खुशी तो तुम हो और यदि तुम ही इस चारदीवारी में कैद रहे तो मेरी खुशी का क्या महत्व? तुम सोचते हो जी पाऊंगी मैं तुम्हें खोकर-मुस्कुरा सकूँगी क्या?'
'डॉली-डॉली!'
'जय!' डॉली अपने आंसू पी गई और जय के हाथ पर अपना हाथ रखकर बोली- 'मैंने केवल प्यार की कहानियां पढ़ी थीं—प्यार को कभी देखा न था। उस दिन तुम मिले-तुमने अपने प्यार का इजहार किया तो एकाएक ही विश्वास ही न कर सकी किन्तु जब तुमसे दूर हुई तो तुम्हारे शब्द याद आए। तुम्हें जाना-तुम्हारे प्रेम को जाना और तभी मुझे अनुभव हुआ कि मैंने भी तुम्हें चाहा था। बहुत रोई मैं तुम्हारे आने के बाद। बहुत याद किया तुम्हें। जी में आया पंछी बनूं और उड़कर तुम्हारे पास चली आऊं। किन्तु यह कैसे संभव होता? इसलिए कल्पना के पंख लगाए और तुम्हारे आसपास ही उड़ती रही, सो नहीं पाई कभी। रात में तुम्हारी यादें बेचैन करतीं। सोचती, कितने महान निकले तुम। मेरे लिए पिता से विद्रोह किया विद्रोह न करते तो उनका खून क्यों होता? और दूसरी महानता यह कि मुझे परेशानी से बचाने के लिए उस अपराध को स्वीकार किया जो तुमने किया ही न था। खुशी-खुशी गिरफ्तार हुए और जेल चले आए। यह भी न सोचा कि आगे क्या होगा और मैं-मैं तुम्हारे लिए कुछ भी न कर सकी-कुछ भी तो नहीं कर सकी तुम्हारे लिए।' कहते-कहते डॉली फिर सिसक पड़ी।
जय बोला- 'पगली! इतना सब तो किया तुमने मेरे लिए। मुझ अजनबी को चाहा। मुझसे दर्द का रिश्ता जोड़ा। मेरे लिए रात-रातभर नींद न आई। मेरे लिए हजार-हजार आंसू बहाए। यूं ही कोई रोता है किसी के लिए? क्या यूं ही किसी का दर्द अपना बन जाता है? नहीं डॉली! इन सबके लिए तो बहुत त्याग करना पड़ता है। बहुत कुछ खोना पड़ता है रोने के लिए भी। कोई अंदर छुपे दर्द के समुद्र से कुछ बूंद आंसू निकालकर तो देखे-दिल में बहुत पीड़ा होता है और वो पीड़ा तुमने सही डॉली! तुमने सही मेरे लिए। मैं-मैं तो तुम्हारा वह उपकार मरकर भी न भूल पाऊंगा।'
'ऐसा न कहो जय! ऐसा न कहो। मैंने तो केवल आंसू ही बहाए हैं और तुमने-तुमने तो मेरे लिए अपने आपको भी मिटा दिया। लुटा दिया अपने आपको।' इतना कहकर डॉली ने अपने आंसू पोंछ लिए। एकाएक उसे कुछ याद आया और वह बोली- 'सुनो! यहां आते समय मैं । कचहरी गई थी। वहां एक कपूर साहब हैं। मैंने उनसे तुम्हारे विषय में सलाह ली थी। बोले-यदि किसी प्रकार यह पता चल जाए कि उस समय वहां हरिया एवं जमींदार साहब के अतिरिक्त भी कोई तीसरा व्यक्ति था और यह सिद्ध हो जाए कि गोली जय की रिवाल्वर से नहीं चली। थी-तो फिर तुम्हारा जय सजा से बच सकता है।'
'डॉली! यह तो मैं भी मानता हूं कि उस समय कोई तीसरा व्यक्ति वहां था। जिसने मेरे तथा पापा के झगड़े का लाभ उठाया और किसी शत्रुतावश पापा का खून कर दिया। जहां तक मैं समझता हूं केवल हरिया को उस व्यक्ति की जानकारी हो सकती है किन्तु हरिया कुछ बताएगा नहीं। इसलिए तुम्हारा किसी से । पूछताछ करना और वकीलों से मिलना व्यर्थ है। दूसरी बात यह है कि तुम अकेली हो और मेरा कोई संबंधी तुम्हारी मदद नहीं करेगा। कारण यह है कि वे लोग पापा की संपत्ति पर पहले ही गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हारी कोशिशों से कोई लाभ न होगा। अच्छा होगा कि तुम इस विषय में सोचना छोड़ दो और मुझे अपने भाग्य के अनुसार जीने दो।'
'कैसे छोड़ दूं तुम्हें? वो हृदय कहां से लाऊं जो तुम्हारी ओर से मुख मोड़ ले। तुमने मेरे लिए बर्बादी को गले लगाया और मैं तुम्हें भूल जाऊं? नहीं जय! यह संभव नहीं और हां, एक बात और जान लो। मैं अपने आपको खाक में मिला दूंगी। मिटा दूंगी अपनी हस्ती को-किन्तु अपने जीते जी तुम्हें कुछ न होने दूंगी। कभी निराश मत होना जय! मत सोचना कि तुम यह मुकदमा हार जाओगे। मत सोचना कि तुम्हें फांसी हो जाएगी। मत सोचना कि इस संसार में तुम्हारा कोई अपना नहीं। सोचना तो सिर्फ यह सोचना कि डॉली मेरी अपनी है-सोचना तो सिर्फ यह सोचना कि डॉली का प्यार जेल की चारदीवारी में कैद है और उसे डॉली के लिए मुक्त होना ही होना है।'
'द-डॉली!'
'मैं फिर आऊंगी जय! आती रहूंगी। चिंता मत करना। तुम्हें मेरी सौगंध कभी आंसू मत बहाना। नहीं रोओगे न?' डॉली ने भावपूर्ण स्वर में कहा और अपना हाथ जय के हाथ में दे दिया।
जय ने उसका हाथ चूम लिया। किन्तु न जाने क्यों-ऐसा करते समय उसकी आंखों से दो बूंद आंसू निकले और डॉली की हथेली पर गिर पड़े।
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RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'इसमें बेबसी कैसी? आखिरकार एक-न-एक दिन तो उसे किसी के साथ बंधना ही है और जब वह हमारे घर रहती है तो यह उत्तरदायित्व भी हमें ही निभाना है। हां यदि इस संबंध में तेरी अपनी मर्जी न हो तो।'
'नहीं भैया! डॉली तो मुझे भी पसंद है।'
'तो फिर किसी दिन टटोलकर देख न उसका हृदय।'
'देखूगी भैया!' शिवानी ने कहा और उसी समय अंदर आती डॉली को देखकर वह राज से बोली- 'लीजिए भैया! शैतान की नानी को याद करो और नानी हाजिर।' कहकर वह हंस पड़ी।
राज अपनी चेयर घुमाकर डॉली को देखने लगा।
गर्मी के कारण डॉली के मस्तक पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। उसने शिवानी की बात के उत्तर में भी कुछ न कहा और बैठकर अपना पसीना पोंछने लगी।
यह देखकर शिवानी उसके समीप आकर बैठ गई और बोली- 'लगता है बहुत थक गई है?'
'हां।'
'कहां-कहां गई थी?'
'तीन-चार जगह।'
'कहीं बात बनी?'
'नहीं।' डॉली ने धीरे से कहा।
उसी समय राज बोला- 'शिवा! यह बात शिष्टाचार के विरुद्ध है। कोई दिन भर का हारा-थका घर आए तो पहले उससे चाय-पानी के विषय में पूछा जाता है।'
'सॉरी! यह बात तो मैं भूल ही गई थी।' इतना कहकर शिवानी उठी और डॉली के लिए पानी ले आई।
डॉली पानी पी चुकी तो शिवानी ने उससे पूछा 'अब यह बता-ठंडा पिएगी अथवा गर्म?'
'नहीं-अभी मन नहीं। सर में दर्द है इसलिए थोड़ी देर आराम करूंगी।' डॉली ने एक ही सांस में कहा और उठकर दूसरे कमरे में चली गई।
राज एवं शिवानी उसे आश्चर्य से जाते देखते रहे। फिर शिवानी ने राज से कहा- 'भैया! यह लड़की तो मेरे लिए कभी-कभी बहुत बड़ी पहेली बन जाती है।'
'वह क्यों?'
'कभी तो इतनी खुश रहेगी-मानो संसार-भर की खुशी मिल गई हो और कभी इतनी उदास कि पूछिए मत।'
'शिवा! कुछ लोगों को समझना आसान नहीं होता। डॉली ने वैसे भी अपने जीवन में हजारों पीड़ाएं झेली हैं। हां, एक बात याद आई। डॉली जब बाहर जा रही थी तो क्या तूने उसे कुछ रुपए भी दिए थे?'
'क्यों?'
'बस का किराया और चाय वगैरहा का खर्च?'
'नहीं तो।'
'बस, इसीलिए उदास है तेरी सहेली। बेचारी पूरे दिन पैदल घूमती रही। क्या सोचा होगा उसने? यही न कि हमने उसे पराया समझा।'
'भैया! मैंने वास्तव में यह न सोचा था। मैं तो भूल ही गई थी कि जब वह यहां आई थी तो उसके पास एक भी पैसा न था। मैं उससे क्षमा मांगती हूं।' इतना कहकर शिवानी बाहर चली गई।
राज अपनी व्हील चेयर बरामदे में ले आया।
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06-08-2020, 11:36 AM,
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RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'आने दे-मुझे तो तुझ पर प्यार आ रहा है।' शिवानी ने कहा और इसके साथ ही उसने डॉली पर झुककर उसके कपोल पर अपने होंठ रख दिए।
डॉली ने उसकी वेणी पकड़ ली और बोली- 'ठहर तो, आज मैं तेरी शैतानी निकालती हूं।'
'अच्छा बाबा! अब माफ कर।'
'डॉली ने उसकी वेणी छोड़ दी। शिवानी खिलखिलाकर हंस पड़ी।
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कपूर साहब ने फाइल बंद कर दी। आंखों पर चढ़ी ऐनक को दुरुस्त किया और डॉली से बोले 'देखिए, आप मेरी बात को समझने की कोशिश नहीं कर रही हैं। यह कोर्ट है और यहां कोई भी काम पैसे के बिना नहीं होता। आप पैसे का प्रबंध कर लीजिए-फिर मुझे आपका मुकदमा लड़ने में कोई दिक्कत नहीं।'
'लेकिन अंकल! मैंने आपसे कहा ना।'
'डॉली जी! हमारे पेशे में उधार नहीं चलता। अब आप जा सकती हैं।' इतना कहकर कपूर साहब फिर उसी फाइल के पन्ने उलटने लगे।
डॉली की विवशता आंसुओं में बदल गई किन्तु उसने अपने आंसू बहाए नहीं और कपूर साहब के ऑफिस से बाहर आ गई। इस समय उसके चेहरे पर विचारों का बवंडर था और उलझनों के कारण मस्तिष्क की रगें जैसे एक-दूसरे से टकरा-टकराकर टूट रही थीं। उसने तो सोचा था कि उसे नौकरी मिल जाएगी और इस प्रकार उसे मुकदमा लड़ने में कोई दिक्कत न होगी किन्तु शायद नौकरी मिलना इतना आसान न था।
डॉली समझ न पा रही थी कि ऐसी स्थिति में वह क्या करे? कहां से लाए पैसा? किस प्रकार मुकदमा लड़े जय का? किस प्रकार बचाए । अपने प्यार को? डॉली का दिल चाह रहा था कि वह अपनी बेबसी पर फूट-फूटकर रोए। इतना रोए कि उसके अंतर्मन में एक भी पीड़ा न रहे। कोर्ट से निकलकर भी वह यही सब सोचती रही और निरुद्देश्य-सी आगे बढ़ती रही।
सहसा पीछे से आता एक ऑटोरिक्शा उसके निकट आकर रुका। डॉली चौंककर एक ओर हट गई। तभी किसी ने उसे संबोधित किया- 'सुनिए!'
डॉली रुक गई। मुड़कर देखा-यह राज था जो ऑटोरिक्शा में बैठा उसे पुकार रहा था। डॉली ने पलभर के लिए कुछ सोचा और राज के निकट आकर बोली- 'ओह, आप!'
'कहां से आ रही हैं?'
डॉली को झूठ कहना पड़ा- 'यहीं कोर्ट रोड पर एक कंपनी है।'
'समझा-सान्याल प्राइवेट लिमिटेड होगी?'
'शायद।'
'बात बनी?'
'नहीं।'
'फिर आप एक काम कीजिए।'
'वह क्या?'
'मेरे ऑफिस चलिए।'
'वहां क्यों?' डॉली ने चौंककर पूछा।
'मैंने सोचा है-इधर-उधर भटकने से तो अच्छा है कि आप वहीं काम करें। इस प्रकार आपका मन भी लगा रहेगा और आपको नौकरी भी मिल जाएगी।' राज बोला।
'शिवानी क्या कहती है?'
'शिवा भी यही चाहती है।'
'थोड़ा प्रयास और कर लूं उसके पश्चात देख लूंगी। आप तो ऑफिस जा रहे होंगे?'
'हां, किन्तु आप कहें तो।'
'नहीं, अभी मैं घर न जाऊंगी।'
'शाम तो होने को है।'
'अभी कहां-चार ही तो बजे हैं।'
'फिर भी आपको जल्दी घर पहुंचना चाहिए। आकाश में घटाएं घिरी हैं, वर्षा की संभावना है।'
'जी!' डॉली ने केवल इतना ही कहा और आगे बढ़ गई। राज का ऑटोरिक्शा वहां कब तक रुका-यह उसने जानने की कोशिश न की।
चलते-चलते उसके सामने फिर वही उलझनें आ गईं। और जब उलझनें किसी प्रकार भी न सुलझीं तो उसने अपने आपसे प्रश्न किया- 'तो क्या उसे राज का प्रस्ताव मान लेना चाहिए? विवाह कर लेना चाहिए उससे?' 'किन्तु।' हृदय ने कहा- 'यह तो जय के साथ विश्वासघात होगा। क्या तुम्हारे अंदर इतना साहस है कि उसे धोखा दे सको।' 'जय को बचाने का अन्य कोई उपाय भी तो नहीं। कपूर साहब को मुकदमे से पहले ही दो हजार रुपए चाहिए। इतने रुपयों का प्रबंध मैं कहां से करूंगी। और यदि रुपयों का प्रबंध न हुआ तो।'
इस प्रकार डॉली का हृदय भी उलझकर रह गया। तभी एकाएक बादल गरजे-दूर कहीं बिजली गिरी और वर्षा आरंभ हो गई।
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