Sex Hindi Story स्पर्श ( प्रीत की रीत )
06-08-2020, 11:34 AM,
#21
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
एकाएक अपने कपोल पर किसी के गर्म होंठों का स्पर्श पाकर डॉली की नींद टूट गई। आंखें खोलकर देखा शिवानी बिस्तर पर झुकी उसके कपोल को चूम रही थी। डॉली ने उसे शरारत से अपने ऊपर खींच लिया और बोली- 'क्या कर रही थी?'

'प्यार कर रही थी तुझे।'

'प्यार करने के लिए कोई और नहीं मिला क्या?'

'मिले तो बहुत।'

'फिर?'

'किसी पर दिल न आया।'

'और मुझ पर आ गया?'

'सच कहूं?'

'तू बहुत सुंदर है।'

'अच्छा ।'

'सच कहती हूं। तू लड़का होती तो मैं तुझसे शादी कर लेती।' शिवानी ने कहा और दूसरे ही क्षण वह अपनी कही हुई बात पर स्वयं ही खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसी समय बाहर से राज की आवाज सुनाई पड़ी- 'शिवा! भई हमारी चाय कहां है?'

"अभी लाती हूं भैया!' शिवानी ने कहा। फिर डॉली से अलग होकर वह उससे बोली- ‘भैया को चाय दे आऊं।' कहकर वह चली गई।

उसके जाने के पश्चात डॉली उठी और दर्पण के सामने आकर अपने बाल संवारने लगी। कल तो जय के चले जाने के पश्चात उसे अपना होश ही न रहा था। न कुछ खाया और न ही दर्पण में अपना मुख देखा। दो दिन पहले पहने हुए कपड़े भी कितने गंदे हो गए थे।

सहसा वह चौंक गई।

दर्पण में उसने देखा। कोई व्हील चेयर पर बैठा उसी की ओर देख रहा था। डॉली ने शीघ्रता से ब्रुश रख दिया और मुड़कर बोली- 'ओह, आप!'

'राज-राज वर्मा।'

डॉली ने हाथ जोड़ दिए।

राज उसके अभिवादन का उत्तर देकर बोला 'और आप-आप डॉली जी हैं।'

'जी।'

'खड़ी क्यों हैं-बैठिए।'

डॉली बैठ गई। राज अपनी चेयर को मेज के पास ले गया। उसी समय शिवानी चाय ले आई। चाय के प्याले मेज पर रखकर वह राज से बोली- 'भैया! यह ही है मेरी सहेली।'

'परिचय हो चुका।'

'फिर तो बहुत तेज निकले आप। मुझसे पूछे बगैर ही परिचय कर लिया। खैर चाय लीजिए।'

'सॉरी बाबा!' राज ने एक बार डॉली की ओर देखा फिर प्याला उठाकर वह शिवानी से बोला 'आगे से ऐसी भूल न होगी। वैसे-तुम्हारी यह सहेली करती क्या हैं?'

'शैतानी।' शिवानी को मजाक सूझ गई, बोली 'जानते हैं एक बार इसने क्या किया?'

'कहीं से एक बिल्ली पकड़ी और उसके गले में घंटी बांध दी। अब बेचारी बिल्ली परेशान। कहीं भी चूहों की तलाश में निकले तो घंटी पहले बजे। परिणाम यह हुआ कि बेचारी भूखों मर गई।'

'झूठी कहीं की।' डॉली बोली- 'मैंने ऐसा कब किया?'

'हम भी यही सोच रहे थे।' राज बोला- 'बात यह है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधना कोई आसान काम नहीं होता।'

डॉली ने इस पर कुछ न कहा।

फिर तीनों ही मौन चाय की चुस्कियां लेते रहे।

एकाएक शिवानी ने मौन को तोड़ा। राज से वह बोली- 'भैया! आज तो आप अखबार के दफ्तर भी जाएंगे न?'

'क्यों?'

'आपने विवाह का जो विज्ञापन दिया है-उसका परिणाम देखने के लिए।'

'उस विज्ञापन में तो सक्सेना का पता लिखा है। डाक उसी के पते पर आएगी।'

डॉली यह सुनकर चौंक गई। अखबार में जो विज्ञापन उसने पढ़ा था-उसमें 'संपर्क करें' के पश्चात विनोद सक्सेना का नाम लिखा था।
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06-08-2020, 11:35 AM,
#22
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
सोचते हुए डॉली ने अपने-आपसे प्रश्न किया 'तो क्या वह विज्ञापन राज ने ही छपवाया था? राज भी तो विकलांग है और आयु भी चालीस वर्ष से अधिक नहीं। वैसे शारीरिक गठन के । हिसाब से राज पैंतीस से अधिक न लगता था। तभी विचार श्रृंखला टूट गई। चाय की लंबी चुस्की लेकर राज ने शिवानी से कहा- 'वैसे तो शिवा! मेरे विचार से यह ठीक नहीं हुआ। इस आयु में विवाह। लोग क्या कहेंगे? और वैसे भी भाग्य में यदि पत्नी का सुख होता तो ज्योति का ही साथ क्यों छूटता?' राज के इन शब्दों में पीड़ा थी।

शिवानी बोली- 'भैया! आपने तो अपने जीवन में बहुत कुछ देखा है और बहुत कुछ पढ़ा भी है। इतना तो आप भी जानते होंगे कि जीवन का सफर अकेले कभी नहीं कटता। इस सफर के लिए किसी-न-किसी साथी की जरूरत हर किसी को महसूस होती है। इसके अतिरिक्त भैया! अतीत के दर्द को दबाने के लिए किसी-न-किसी खुशी का होना भी आवश्यक होता है। इंसान को एकाएक कोई खुशी मिले तो वह अतीत की पीड़ाओं को भूल जाता है।'

'पीड़ाओं को भूलना तो असंभव ही होता है शिवा! वैसे सच्चाई यह है कि यह विज्ञापन मैंने तेरी वजह से दिया है।'

'मेरी वजह से?'

'हां।' राज ने खाली प्याली रख दी और बोला- 'तेरी वजह से। बात यह है कि अब तू बड़ी हो गई है और तुझे अपनी ससुराल भी जाना है। तेरे जाते ही जो अकेलापन मुझे डसेगा-वह मुझसे सहन न हो पाएगा।' इतना कहकर राज ने अपनी व्हील चेयर घुराई और उसके पहिए घुमाते हुए वह बाहर चला गया।

शिवानी उसे जाता देखती रही। भाई की पीड़ा उससे छुपी न थी।

तभी डॉली उससे बोली- तुझे राज भैया से यह सब नहीं कहना चाहिए था।'

'मैंने क्या कहा?'

'कहा तो कुछ विशेष नहीं, किन्तु विवाह की बातों से उन्हें यों लगा-जैसे उनके घावों को कुरेदा गया हो।'

'भैया वास्तव में शादी के पक्ष में नहीं। यदि मैं जीवन-भर इसी घर में रहती तो वो निश्चय ही शेष जीवन यूं ही गुजार देते, लेकिन तू तो जानती है कि कोई भी लड़की अपने बाबुल के घर जीवन भर नहीं रह सकती। भैया केवल इसी बात से दुखी हैं और इस दु:ख को कम करने के लिए ही दूसरा विवाह कर रहे हैं।'

'कैसी लड़की चाहिए उन्हें?' डॉली ने पूछा।

शिवानी बोली- 'बस सुंदर, पढ़ी-लिखी और ऐसी जो उनका सहारा बन सके। खैर छोड़, अब तू स्नान कर ले। कपड़े मेरे पहन लेना और हां, आज तो रहेगी न?'

डॉली ने इस प्रश्न पर चेहरा झुका लिया। उसने तो अभी तक शिवानी से अपने दुखों की चर्चा भी न की थी। यह भी न बताया था कि वह यहां किस उद्देश्य से आई थी।

शिवानी ने उसे यों विचारमग्न देखा तो आत्मीयता से बोली- 'डॉली! तूने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। मेरा यह पूछना तुझे बुरा लगा?'

'नहीं, ऐसी बात नहीं शिवा!'

'फिर क्या बात है?'

"शिवा!' डॉली को कहना पड़ा- 'मैंने रामगढ़ छोड़ दिया है।'

'क्या मतलब?'

'चाचा मुझे बेचना चाहते थे। उन्होंने मेरा सौदा कर दिया था। गांव का सत्तर वर्षीय जमींदार मुझे खरीद रहा था और कल यह सब होना था, किन्तु एकाएक मुझे अवसर मिला और मैं रात के अंधेरे में रामगढ़ से चली आई। यहां आने पर पता चला कि चाचा भी न रहे।'

'ओह!'

'सोचा था-कहीं दूर चली जाऊंगी किन्तु फिर यह न समझ सकी कि इतनी बड़ी दुनिया में जाऊं तो कहां जाऊं। कोई अपना नहीं-कोई ऐसा नहीं जो मुझे आश्रय दे सके। आज कहीं बैठी यही सब सोच रही थी कि एकाएक तेरा ध्यान आया। सोचा-शिवा मेरे लिए कुछ और न भी करेगी तो सलाह तो अवश्य देगी।' यह सब कहते-कहते डॉली की आंखें भर आईं और आवाज रुंध गई।
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06-08-2020, 11:35 AM,
#23
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
शिवानी ने उसे अपनी ओर खींच लिया। स्नेह से बोली- 'पगली! तूने यह कैसे सोच लिया कि मैं तेरे लिए कुछ न करूंगी? और फिर अपना तो वही होता है न-जो विपत्ति में काम आता है।'

'शिवा!'

'चिंता मत कर। मत सोच कि संसार में तेरा कोई अपना नहीं-तेरा कोई घर नहीं। यह घर तेरा है-इसे अपना समझ और यहीं रह।'

'शिवा-मेरी सखी!'

'न-न-रोते नहीं। रोने से दु:ख अवश्य हल्का होता है किन्तु दुर्भाग्य को हंसने का अवसर मिलता है।' इतना कहकर शिवानी ने उसके आंसू पोंछ दिए और बोली- 'चल, अब स्नान कर ले। लेकिन देख तुझे मेरी सौगंध जो कुछ बीत चुका है उसे बिलकुल भूल जाना और इस घर को पराया मत समझना। तू यहीं रहेगी तो मुझे बहुत खुशी होगी।'

डॉली ने फिर कुछ न कहा और उठ गई।

पीड़ाएं सहने के लिए होती हैं-सही जाती हैं। डॉली ने भी अपनी पीड़ाओं को सहा और अपने अतीत को भी भुला दिया। दो दिन बीतते-बीतते वह शिवानी एवं राज से इस प्रकार घुल-मिल गई मानो वह बचपन से ही उन लोगों के साथ रह रही हो।

डॉली ने शिवानी से जय के विषय में कुछ न बताया था। यह भी न कहा था कि वह जय को बचाने के लिए एक विकलांग व्यक्ति से विवाह करना चाहती थी। सच तो यह था कि डॉली ने अब विवाह का विचार ही मस्तिष्क से निकाल दिया था। उसने सोचा था वह अपने लिए कोई छोटी-मोटी नौकरी खोज लेगी। इससे दो लाभ होंगे। एक तो यह कि वह शिवानी एवं राज पर बोझ न बनेगी और दूसरा यह कि वह जय के पक्ष में मुकदमा भी लड़ सकेगी।

संध्या के समय राज जब बाहर से लौटा तो डॉली ने उसके एवं शिवानी के सामने अपने मन की बात रख दी।

राज बोला- 'डॉलीजी! क्या इसका अर्थ यह नहीं कि आप अभी तक भी इस घर को अपना नहीं समझ सकी हैं।'

'यह किसने कहा आपसे?'

'आपकी इस बात ने कि आप नौकरी करना चाहती हैं। मेरा ख्याल है-आप नौकरी इसलिए करना चाहती हैं क्योंकि आप हम लोगों पर बोझ बनना नहीं चाहतीं।'

'नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है।'

'तो फिर क्या बात है?' शिवानी ने पूछा।

'बात केवल यह है कि मैं अपने अतीत से दूर जाना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि बीता हुआ कल मुझे एक पल के लिए भी झिंझोड़ने का प्रयास न करे और यह तभी होगा जब मैं कुछ समय के लिए घर से बाहर रहूंगी। प्रत्येक समय यहां रही तो अतीत रह-रहकर चोट करेगा। पुरानी यादें दु:ख देंगी ओर वो दु:ख ऐसा होगा जो मुझे चैन से न जीने देगा। बस इसलिए मैं नौकरी करना चाहती हूं।'

शिवानी बोली- 'फिर तो कोई बुराई भी नहीं। क्यों भैया?'

'हां।' राज को भी कहना पड़ा 'बुराई तो कुछ नहीं किन्तु एक शर्त है।'

'वह क्या?' डॉली ने पूछा।

'वो यह कि आप अपने वेतन का पैसा इस घर के लिए खर्च न करेंगी।'

'शर्त तो विचित्र-सी है आपकी किन्तु जब आप कह रहे हैं तो मान लेती हूं।'

'गुड! अब यह बताइए-नौकरी कहां करेंगी?'

'इसी शहर में।'

'अरे बाबा! मैं पूछ रहा था कि कौन-सी कंपनी में?'

'यह तो खोजने से ही पता चलेगा।'

'चलिए-यह जिम्मेदारी हम पर रही।'

'भैया!' शिवानी बोली- 'क्या आपके ऑफिस में कोई जगह नहीं?'

'अरे भई! अपना ऑफिस है ही क्या? दो मेजें और दो कुर्सियां। चार्टेड । एकाउंटेंट के पास और क्या होता है लेकिन मेरी इतनी जान-पहचान है कि काम हो जाएगा।'

डॉली ने फिर कुछ न कहा और उठ गई।

शिवानी ने पूछा- 'तू कहां चली?'

खाने की तैयारी करूंगी।'

'फिर तो मैं गई काम से।'

'क्यों?'

'क्योंकि बच्ची! जब दिन भर का खाना, नाश्ता तू बनाएगी तो मैं क्या करूंगी?'

'इसमें बुराई क्या है?' डॉली ने पूछा।

शिवानी ने राज से कहा- 'भैया! अब आप ही बताइए न कि इसमें क्या बुराई है?'

राज ने डॉली को कनखियों से देखा और बोला- 'देखो भई! बुराई तो मैं नहीं बता सकता। हां, फैसला जरूर कर सकता हूं।'

'ठीक है कीजिए फैसला।'

'तो हमारा फैसला यह है कि सुबह का खाना और नाश्ता तो डॉलीजी बनाएंगी।'

'और शाम का खाना?'

'यह तुम बनाओगी और हां, यह फैसला इसी समय से लागू होगा!'

'जज साहब का फैसला सर-आंखों पर। अब मैं चली खाना बनाने।' । शिवानी ने धीरे से हंसकर कहा और उठ गई।

एकाएक राज को कुछ याद आया और वह अपनी जेब से एक लिफाफा निकालकर शिवानी से बोला- 'एक मिनट शिवा! तेरे विज्ञापन का उत्तर आ गया है।'
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06-08-2020, 11:35 AM,
#24
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
एकाएक राज को कुछ याद आया और वह अपनी जेब से एक लिफाफा निकालकर शिवानी से बोला- 'एक मिनट शिवा! तेरे विज्ञापन का उत्तर आ गया है।'

'अच्छा !'

'इस लिफाफे में चार लड़कियों के बायोडाटा और फोटोग्राफ हैं। मुझे तो एक भी पसंद नहीं।'

शिवानी ने लिफाफा खोलकर बायोडाटा निकाले और तस्वीरें देखने लगी। डॉली निकट ही खड़ी थी। उसने न तो बायोडाटा देखा और न ही किसी फोटोग्राफ की ओर ध्यान दिया।

तभी शिवानी बोली- 'लड़कियां तो चारों सुंदर हैं भैया। आयु भी अधिक नहीं पच्चीस-तीस, अट्ठाइस और बत्तीस।'

'नहीं शिवा! मुझे तो एक भी पसंद नहीं।'

'कोई बात नहीं अभी तो कल भी डाक आएगी।' इतना कहकर शिवानी ने लिफाफा मेज पर रखा और बाहर चली गई।

डॉली अपनी ही किन्हीं सोचों में गुम चेहरा झुकाए खड़ी रही। एकाएक राज ने उससे पूछा- 'आप क्या सोचने लगीं?'

'क-कुछ भी तो नहीं।' डॉली चौंककर बोली।

'ये तस्वीर नहीं देखीं आपने?'

'अच्छी तो हैं।'

'सिर्फ अच्छी?'

'तस्वीरें अच्छी हैं तो लड़कियां भी सुंदर होंगी।'

'तस्वीरें तो झूठ भी बोलती हैं।'

'तो स्वयं मिल लीजिए।'

'मिलकर कोई लाभ न होगा।'

'क्यों?'

'मैंने इरादा बदल दिया है।'

'अर्थात् विवाह न करेंगे।'

'विवाह तो करूंगा।' डॉली को ध्यान से देखते हुए राज बोला- 'किन्तु विज्ञापन के माध्यम से नहीं।'

'और?' डॉली पूछ बैठी।

'अपनी आंखों के माध्यम से।'

'तो-यूं कहिए न कि आपने पहले ही कोई लड़की पसंद कर ली है।'

'हां, पसंद तो है।'

'फिर?'

'अभी उसका हृदय नहीं टटोला है।'

'इसमें मुश्किल क्या है? आप उससे अपने मन की बात कहिए। क्या पता वह आपका प्रस्ताव मान ही ले।'

'हां, सोचा तो यही है।' राज ने कहा।

तभी बाहर से शिवानी ने डॉली को पुकारा और वह बाहर चली गई। राज निःश्वास लेकर रह गया।

डॉली रात भर न सोई थी। पूरी रात उसने जय के विषय में सोचा था। सुबह होने पर उसने जल्दी-जल्दी नाश्ता तैयार किया और जब राज चला गया तो वह स्वयं भी तैयार होने लगी। उसे जय से मिलने के लिए सैंट्रल जेल जाना था।
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06-08-2020, 11:35 AM,
#25
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
इस समय वह दर्पण के सामने खड़ी अपने बालों को संवार रही थी। एकाएक शिवानी ने पीछे से आकर कहा- 'बिजली कहां गिराएगी?'

'कैसी बिजली?'

'अपने सौंदर्य की।'

'मैं इतनी सुंदर तो नहीं।'

'यह तो किसी दिन भैया से पूछा होता।'

'क्यों?'

'हर समय तेरी ही प्रशंसा करते हैं।' कहते-कहते शिवानी ने डॉली के कंधे पर अपना सिर रख दिया और बोली- 'जानती है आज सुबह क्या कह रहे थे?

' 'क्या?'

'कहते थे डॉली जैसी कोई लड़की मेरे जीवन में आती तो यह घर स्वर्ग बन जाता।'

डॉली यह सुनकर चौंकी नहीं। राज की भावनाओं को वह समझती थी। राज की आंखों में जो मौन प्रस्ताव था-वह भी उससे छुपा न था। उसे यों विचारमग्न देखकर

शिवानी फिर बोली- 'क्या सोचने लगी?'

'सोचती हूं-उनकी पत्नी ज्योति तो मुझसे अधिक सुंदर थी।'

'हां।'

‘फिर यह घर स्वर्ग क्यों न बना?'

'भैया को इसी बात का तो दु:ख है। वो आज भी यह सोचकर पछताते हैं कि उन्होंने ज्योति को समझने में इतनी बड़ी भूल क्यों की।'

डॉली ने इस विषय को आगे न बढ़ाया। विषय को बदलकर वह बोली 'तू तो घर ही रहेगी न?'

'क्यों?'

'मैं कहीं जा रही हूं।'

'रामगढ़?'

'ऊंहु-रामगढ़ का नाम न ले।'

'फिर?'

'नौकरी की तलाश में।'

'किन्तु भैया ने तो...।'

'वो अपने ढंग से प्रयास करेंगे और मैं अपने ढंग से।'

'कब लौटेगी?'

'संध्या से पहले लौट आऊंगी।'

'मैं भी चलूं?'

'तू क्या करेगी?'

'अकेली जाएगी। कहीं किसी की नजर लग गई तो?'

'नजर तो तुझे भी लग सकती है।'

'मैं इतनी सुंदर कहां।'

'सुंदरता अपनी नहीं देखने वाले की आंखों में होती है।' डॉली ने कहा। उसने ब्रुश रख दिया और मुड़कर बोली- 'किसी दिन पूछना किसी से, लेकिन सुन! पूछते-पूछते दिल न दे बैठना।'

'क्या होगा?'

'रोग लगा लेगी जीवन भर का। दिन में चैन न मिलेगा और रातों में नींद न आएगी।'

'अच्छा!' शिवानी ने शरारत से मुस्कुराकर कहा

'तो इसीलिए तू रात-रातभर करवटें बदलती है। किसी को दिल दे बैठी है क्या?'

'ना बाबा! मैं दिल-विल के चक्कर में कभी नहीं पड़ती और यदि पड़ती भी तो इतना अवसर ही न मिला। पूरे दिन तो घर में कैद रहती थी।'

'किन्तु यहां तो पूरी आजादी है, बना ले किसी को अपना।'

'नहीं अभी नहीं।

'फिर कब?'

'वर्ष-दो वर्ष बाद।'

'बूढ़ी होने पर?' शिवानी ने पूछा और हंस पड़ी।

'पगली! बुढ़ापे का प्यार जवानी के प्यार से अधिक मधुर होता है। अच्छा-अब मैं चलूं?'

'देख जल्दी लौट आना।'

'प्रॉमिस।' डॉली ने कहा और उसी क्षण शिवानी ने उसका कपोल चूम लिया।

'शरारती कहीं की।' डॉली बोली।

शिवानी खिलखिलाकर हंस पड़ी।
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06-08-2020, 11:35 AM,
#26
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
सैंट्रल जेल के मुलाकात वाले कक्ष में वह सिर झुकाए खड़ा था। समय ने कितनी जल्दी हुलिया बदल दिया था उसका। चेहरे पर मैल की परतें, बढ़ी हुई शेव और आंखों में निराशा के साये।

डॉली उसे देखकर स्वयं को न रोक सकी और सिसक पडी।

जय उसे रोते देखकर बोला 'रोना तो मुझे चाहिए डॉली! घर-परिवार और साथ ही उसे भी छोड़कर जिसे मैंने पागलपन की सीमा तक चाहा यहां चला आया, कैद हो गया इन ऊंची-ऊंची दीवारों में। समझौता कर लिया अपने मुकदर से किन्तु आंखों में आंसू न आए। जानती हो क्यों? क्योंकि मन में एक विश्वास था। विश्वास था कि कोई मेरा अपना है। यकीन था कि कोई मुझे भी चाहता है और डॉली! इंसान को किसी का प्यार मिले-किसी अपने की। सहानुभूति मिले-कोई उसके दुखों पर दो आंसू बहाए-उसके लिए खुशी की इससे बड़ी कोई और बात नहीं होती।'

'जय!' डॉली रोते-रोते सलाखों पर मस्तक रगड़ने लगी।

'डॉली!' जय फिर बोला- 'तुम्हें देखा तो मैंने संसार देख लिया। तुम यहां आईं तो संसार-भर की खुशियां मुझे मिल गईं। अब मुझे कोई परवाह नहीं। कोई गम नहीं कि मेरा क्या होगा। भले ही मुझे फांसी की सजा मिले, किन्तु मैं हमेशा यही चाहूंगा कि तुम्हें कुछ न हो। तुम्हारा जीवन खुशियों से महकता रहे। तुम्हारे पांव में कभी कांटा भी न चुभे।'

'जय! मेरे जीवन की खुशी तो तुम हो और यदि तुम ही इस चारदीवारी में कैद रहे तो मेरी खुशी का क्या महत्व? तुम सोचते हो जी पाऊंगी मैं तुम्हें खोकर-मुस्कुरा सकूँगी क्या?'

'डॉली-डॉली!'

'जय!' डॉली अपने आंसू पी गई और जय के हाथ पर अपना हाथ रखकर बोली- 'मैंने केवल प्यार की कहानियां पढ़ी थीं—प्यार को कभी देखा न था। उस दिन तुम मिले-तुमने अपने प्यार का इजहार किया तो एकाएक ही विश्वास ही न कर सकी किन्तु जब तुमसे दूर हुई तो तुम्हारे शब्द याद आए। तुम्हें जाना-तुम्हारे प्रेम को जाना और तभी मुझे अनुभव हुआ कि मैंने भी तुम्हें चाहा था। बहुत रोई मैं तुम्हारे आने के बाद। बहुत याद किया तुम्हें। जी में आया पंछी बनूं और उड़कर तुम्हारे पास चली आऊं। किन्तु यह कैसे संभव होता? इसलिए कल्पना के पंख लगाए और तुम्हारे आसपास ही उड़ती रही, सो नहीं पाई कभी। रात में तुम्हारी यादें बेचैन करतीं। सोचती, कितने महान निकले तुम। मेरे लिए पिता से विद्रोह किया विद्रोह न करते तो उनका खून क्यों होता? और दूसरी महानता यह कि मुझे परेशानी से बचाने के लिए उस अपराध को स्वीकार किया जो तुमने किया ही न था। खुशी-खुशी गिरफ्तार हुए और जेल चले आए। यह भी न सोचा कि आगे क्या होगा और मैं-मैं तुम्हारे लिए कुछ भी न कर सकी-कुछ भी तो नहीं कर सकी तुम्हारे लिए।' कहते-कहते डॉली फिर सिसक पड़ी।

जय बोला- 'पगली! इतना सब तो किया तुमने मेरे लिए। मुझ अजनबी को चाहा। मुझसे दर्द का रिश्ता जोड़ा। मेरे लिए रात-रातभर नींद न आई। मेरे लिए हजार-हजार आंसू बहाए। यूं ही कोई रोता है किसी के लिए? क्या यूं ही किसी का दर्द अपना बन जाता है? नहीं डॉली! इन सबके लिए तो बहुत त्याग करना पड़ता है। बहुत कुछ खोना पड़ता है रोने के लिए भी। कोई अंदर छुपे दर्द के समुद्र से कुछ बूंद आंसू निकालकर तो देखे-दिल में बहुत पीड़ा होता है और वो पीड़ा तुमने सही डॉली! तुमने सही मेरे लिए। मैं-मैं तो तुम्हारा वह उपकार मरकर भी न भूल पाऊंगा।'

'ऐसा न कहो जय! ऐसा न कहो। मैंने तो केवल आंसू ही बहाए हैं और तुमने-तुमने तो मेरे लिए अपने आपको भी मिटा दिया। लुटा दिया अपने आपको।' इतना कहकर डॉली ने अपने आंसू पोंछ लिए। एकाएक उसे कुछ याद आया और वह बोली- 'सुनो! यहां आते समय मैं । कचहरी गई थी। वहां एक कपूर साहब हैं। मैंने उनसे तुम्हारे विषय में सलाह ली थी। बोले-यदि किसी प्रकार यह पता चल जाए कि उस समय वहां हरिया एवं जमींदार साहब के अतिरिक्त भी कोई तीसरा व्यक्ति था और यह सिद्ध हो जाए कि गोली जय की रिवाल्वर से नहीं चली। थी-तो फिर तुम्हारा जय सजा से बच सकता है।'

'डॉली! यह तो मैं भी मानता हूं कि उस समय कोई तीसरा व्यक्ति वहां था। जिसने मेरे तथा पापा के झगड़े का लाभ उठाया और किसी शत्रुतावश पापा का खून कर दिया। जहां तक मैं समझता हूं केवल हरिया को उस व्यक्ति की जानकारी हो सकती है किन्तु हरिया कुछ बताएगा नहीं। इसलिए तुम्हारा किसी से । पूछताछ करना और वकीलों से मिलना व्यर्थ है। दूसरी बात यह है कि तुम अकेली हो और मेरा कोई संबंधी तुम्हारी मदद नहीं करेगा। कारण यह है कि वे लोग पापा की संपत्ति पर पहले ही गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हारी कोशिशों से कोई लाभ न होगा। अच्छा होगा कि तुम इस विषय में सोचना छोड़ दो और मुझे अपने भाग्य के अनुसार जीने दो।'

'कैसे छोड़ दूं तुम्हें? वो हृदय कहां से लाऊं जो तुम्हारी ओर से मुख मोड़ ले। तुमने मेरे लिए बर्बादी को गले लगाया और मैं तुम्हें भूल जाऊं? नहीं जय! यह संभव नहीं और हां, एक बात और जान लो। मैं अपने आपको खाक में मिला दूंगी। मिटा दूंगी अपनी हस्ती को-किन्तु अपने जीते जी तुम्हें कुछ न होने दूंगी। कभी निराश मत होना जय! मत सोचना कि तुम यह मुकदमा हार जाओगे। मत सोचना कि तुम्हें फांसी हो जाएगी। मत सोचना कि इस संसार में तुम्हारा कोई अपना नहीं। सोचना तो सिर्फ यह सोचना कि डॉली मेरी अपनी है-सोचना तो सिर्फ यह सोचना कि डॉली का प्यार जेल की चारदीवारी में कैद है और उसे डॉली के लिए मुक्त होना ही होना है।'

'द-डॉली!'

'मैं फिर आऊंगी जय! आती रहूंगी। चिंता मत करना। तुम्हें मेरी सौगंध कभी आंसू मत बहाना। नहीं रोओगे न?' डॉली ने भावपूर्ण स्वर में कहा और अपना हाथ जय के हाथ में दे दिया।

जय ने उसका हाथ चूम लिया। किन्तु न जाने क्यों-ऐसा करते समय उसकी आंखों से दो बूंद आंसू निकले और डॉली की हथेली पर गिर पड़े।
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06-08-2020, 11:35 AM,
#27
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
डॉली अभी न लौटी थी। राज एवं शिवानी कमरे में बैठे आज की डाक देख रहे थे। मेज पर बीसों लिफाफे फैले पड़े थे और ये सभी
अखबार के दफ्तर से आए थे।

शिवानी बड़े ध्यान से लिफाफों में रखी तस्वीरें देख रही थी जबकि राज की नजरें । वॉल-क्लॉक की सुइयों पर टिकी थीं। संध्या के छह बज चुके थे और डॉली अभी तक न आई थी।

एकाएक राज ने अपनी व्हील चेयर के पहिए घुमाए और खिड़की के समीप आ गया।

तभी एक तस्वीर को देखते-देखते शिवानी ने उसे संबोधित किया- 'भैया!' 'यह आगरे वाला लिफाफा देखा आपने?'

'नहीं-अभी नहीं।'

'लड़की का नाम लता है। आयु अट्ठारह वर्ष और नयन-नक्श भी अच्छे हैं। परित्यकता है।'

राज ने इस बार कुछ न कहा और मूर्तिमान-सा खिड़की से बाहर देखता रहा।

शिवानी फिर बोली- 'मुझे तो यही लड़की पसंद है।'

'शिवा!' राज बोला। 'यह डॉली तुझे कैसी लगती है?'

'क्यों?' शिवानी ने पूछा और चौंककर राज को देखने लगी।

'यूं ही पूछ बैठा।'

'यूं ही पूछ बैठे।' शिवानी उठकर राज के समीप आई और बोली- 'अथवा डॉली आपको पसंद आ गई?'

'नहीं-ऐसी तो कोई बात नहीं शिवा! दरअसल मैं सोच रहा था मैं सोच रहा था कि बेचारी अनाथ है। कहीं कोई अपना नहीं। यदि उसे सहारा मिल जाता तो।'

'तो-यूं कहिए न कि आप डॉली से विवाह करना चाहते हैं?'

'इसमें बुराई भी क्या है?'

'हां, बुराई तो कुछ नहीं भैया! किन्तु दिक्कत यह है कि डॉली हमारे विषय में कुछ और सोच सकती है। वह यह भी सोच सकती है कि हम उसकी बेबसी का लाभ उठा रहे हैं।'
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06-08-2020, 11:35 AM,
#28
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'इसमें बेबसी कैसी? आखिरकार एक-न-एक दिन तो उसे किसी के साथ बंधना ही है और जब वह हमारे घर रहती है तो यह उत्तरदायित्व भी हमें ही निभाना है। हां यदि इस संबंध में तेरी अपनी मर्जी न हो तो।'

'नहीं भैया! डॉली तो मुझे भी पसंद है।'

'तो फिर किसी दिन टटोलकर देख न उसका हृदय।'

'देखूगी भैया!' शिवानी ने कहा और उसी समय अंदर आती डॉली को देखकर वह राज से बोली- 'लीजिए भैया! शैतान की नानी को याद करो और नानी हाजिर।' कहकर वह हंस पड़ी।

राज अपनी चेयर घुमाकर डॉली को देखने लगा।

गर्मी के कारण डॉली के मस्तक पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। उसने शिवानी की बात के उत्तर में भी कुछ न कहा और बैठकर अपना पसीना पोंछने लगी।

यह देखकर शिवानी उसके समीप आकर बैठ गई और बोली- 'लगता है बहुत थक गई है?'

'हां।'

'कहां-कहां गई थी?'

'तीन-चार जगह।'

'कहीं बात बनी?'

'नहीं।' डॉली ने धीरे से कहा।

उसी समय राज बोला- 'शिवा! यह बात शिष्टाचार के विरुद्ध है। कोई दिन भर का हारा-थका घर आए तो पहले उससे चाय-पानी के विषय में पूछा जाता है।'

'सॉरी! यह बात तो मैं भूल ही गई थी।' इतना कहकर शिवानी उठी और डॉली के लिए पानी ले आई।

डॉली पानी पी चुकी तो शिवानी ने उससे पूछा 'अब यह बता-ठंडा पिएगी अथवा गर्म?'

'नहीं-अभी मन नहीं। सर में दर्द है इसलिए थोड़ी देर आराम करूंगी।' डॉली ने एक ही सांस में कहा और उठकर दूसरे कमरे में चली गई।

राज एवं शिवानी उसे आश्चर्य से जाते देखते रहे। फिर शिवानी ने राज से कहा- 'भैया! यह लड़की तो मेरे लिए कभी-कभी बहुत बड़ी पहेली बन जाती है।'

'वह क्यों?'

'कभी तो इतनी खुश रहेगी-मानो संसार-भर की खुशी मिल गई हो और कभी इतनी उदास कि पूछिए मत।'

'शिवा! कुछ लोगों को समझना आसान नहीं होता। डॉली ने वैसे भी अपने जीवन में हजारों पीड़ाएं झेली हैं। हां, एक बात याद आई। डॉली जब बाहर जा रही थी तो क्या तूने उसे कुछ रुपए भी दिए थे?'

'क्यों?'

'बस का किराया और चाय वगैरहा का खर्च?'

'नहीं तो।'

'बस, इसीलिए उदास है तेरी सहेली। बेचारी पूरे दिन पैदल घूमती रही। क्या सोचा होगा उसने? यही न कि हमने उसे पराया समझा।'

'भैया! मैंने वास्तव में यह न सोचा था। मैं तो भूल ही गई थी कि जब वह यहां आई थी तो उसके पास एक भी पैसा न था। मैं उससे क्षमा मांगती हूं।' इतना कहकर शिवानी बाहर चली गई।

राज अपनी व्हील चेयर बरामदे में ले आया।
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06-08-2020, 11:35 AM,
#29
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
वॉल क्लॉक ने रात्रि के एक बजने की सूचना दी तो डॉली ने करवट बदली और उठ गई।

आंखों में नींद का नाम न था। शाम राज एवं शिवानी का वार्तालाप उसने सुना था। राज उससे विवाह करना चाहता था। शिवानी भी यही चाहती थी। यूं राज के अंदर उसने कोई बुराई न देखी थी। वह पढ़ा-लिखा था, सुंदर था। दोष था तो केवल यह कि वह विकलांग था, किन्तु उसका विकलांग होना मात्र एक दुर्घटना थी। फिर भी राज का निर्णय उसे पसंद न आया था। इस संबंध में उसने कई बार अपने हृदय को टटोलकर देखा था और तब यह पाया था कि वह जय के अतिरिक्त अन्य किसी को कभी नहीं चाह सकेगी। न जाने प्रीत की ऐसी कौन-सी डोरी बंधी थी जय से। न जाने जय में ऐसा क्या था कि वह केवल एक ही मुलाकात में हमेशा के लिए उसकी हो गई थी।

डॉली के सामने अब ऐसी कोई विवशता भी न थी जिसके लिए वह राज से विवाह करती। अब तो अपनी राह उसने खोज ली थी। सोचा था-कहीं-न-कहीं कोई नौकरी उसे मिल ही जाएगी।'

तभी कोई पीछे से उसके कंधे पर झुका और उसने धीरे से कहा- 'क्यों लगा लिया न रोग?'

डॉली ने चौंककर देखा-यह शिवानी थी जो हमेशा उसी के साथ सोती थी। शिवानी ने उससे फिर कहा- 'क्यों नाम भी नहीं बताएगी उस जालिम का?'

'नींद नहीं आई?' डॉली ने पूछा।

'आई तो थी।'

'फिर?'

'तुझे बैठे देखा तो टूट गई।'

'मैं तो यूं ही।'

'सिर में दर्द होगा-है न?'

'हां।'

'और दिल में भी।' शिवानी हंस पड़ी।

'तंग न कर।'

'अभी तक नाराज है क्या? मैंने तो अपने अपराध की क्षमा भी मांग ली थी।'

'वह कोई अपराध न था।' डॉली ने कहा और लेट गई।

तभी शिवानी ने उसे अपनी ओर खींच लिया और बोली- 'एक बात पूछनी थी तुझसे।'

'वह क्या?'

'भैया तुझे कैसे लगते हैं?'

....
'क्यों?'

'यूं ही पूछ बैठी।'

'इसमें पूछने की क्या बात है? अच्छे हैं।'

'न जाने भैया को क्या हो गया है।'

'क्या हुआ?'

'उन्हें कोई लड़की पसंद ही नहीं आती।'

'यह तो उनके मन की बात है। इसमें मैं क्या कर सकती हूं।' डॉली ने शुष्क लहजे में कहा और करवट बदल ली।

शिवानी ने उस पर झुककर कहा- 'तू चाहे तो उन्हें समझा सकती है।'

'ना बाबा! मैं ऐसे किसी चपड़े में नहीं पड़ती। और वैसे भी यह तो उनका अपना निजी मामला है।'

शिवानी समझ न पाई कि अपने मन की बात किस प्रकार कहे। उसे यह भी भय था कि कहीं डॉली उसकी बात सुनकर नाराज न हो जाए। कुछ क्षणोपरांत वह बोली- 'एक बात पूछू?'

'वह क्या?'

'तूने अपने विषय में तो कुछ सोचा होगा?'

'अभी तो अपने पैरों पर खड़े होने की बात सोची है।'

'उसके पश्चात?'

'यह अभी नहीं सोचा।'

'विवाह तो करेगी?'

'नहीं, जीवन-भर नहीं।'

'ऐसा कैसे हो सकता है।' शिवानी ने कहा 'अब नहीं तो फिर शादी तो तुझे करनी ही पड़ेगी।'

'अभी ऐसी आवश्यकता नहीं। कभी होगी तो सोच लूंगी। अब तू मेरा पीछा छोड़ और सोने दे।'

'ऊंडं! अभी नहीं।'

'देख मुझे नींद आ रही है।'
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06-08-2020, 11:36 AM,
#30
RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'आने दे-मुझे तो तुझ पर प्यार आ रहा है।' शिवानी ने कहा और इसके साथ ही उसने डॉली पर झुककर उसके कपोल पर अपने होंठ रख दिए।

डॉली ने उसकी वेणी पकड़ ली और बोली- 'ठहर तो, आज मैं तेरी शैतानी निकालती हूं।'

'अच्छा बाबा! अब माफ कर।'

'डॉली ने उसकी वेणी छोड़ दी। शिवानी खिलखिलाकर हंस पड़ी।
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कपूर साहब ने फाइल बंद कर दी। आंखों पर चढ़ी ऐनक को दुरुस्त किया और डॉली से बोले 'देखिए, आप मेरी बात को समझने की कोशिश नहीं कर रही हैं। यह कोर्ट है और यहां कोई भी काम पैसे के बिना नहीं होता। आप पैसे का प्रबंध कर लीजिए-फिर मुझे आपका मुकदमा लड़ने में कोई दिक्कत नहीं।'

'लेकिन अंकल! मैंने आपसे कहा ना।'

'डॉली जी! हमारे पेशे में उधार नहीं चलता। अब आप जा सकती हैं।' इतना कहकर कपूर साहब फिर उसी फाइल के पन्ने उलटने लगे।

डॉली की विवशता आंसुओं में बदल गई किन्तु उसने अपने आंसू बहाए नहीं और कपूर साहब के ऑफिस से बाहर आ गई। इस समय उसके चेहरे पर विचारों का बवंडर था और उलझनों के कारण मस्तिष्क की रगें जैसे एक-दूसरे से टकरा-टकराकर टूट रही थीं। उसने तो सोचा था कि उसे नौकरी मिल जाएगी और इस प्रकार उसे मुकदमा लड़ने में कोई दिक्कत न होगी किन्तु शायद नौकरी मिलना इतना आसान न था।

डॉली समझ न पा रही थी कि ऐसी स्थिति में वह क्या करे? कहां से लाए पैसा? किस प्रकार मुकदमा लड़े जय का? किस प्रकार बचाए । अपने प्यार को? डॉली का दिल चाह रहा था कि वह अपनी बेबसी पर फूट-फूटकर रोए। इतना रोए कि उसके अंतर्मन में एक भी पीड़ा न रहे। कोर्ट से निकलकर भी वह यही सब सोचती रही और निरुद्देश्य-सी आगे बढ़ती रही।

सहसा पीछे से आता एक ऑटोरिक्शा उसके निकट आकर रुका। डॉली चौंककर एक ओर हट गई। तभी किसी ने उसे संबोधित किया- 'सुनिए!'

डॉली रुक गई। मुड़कर देखा-यह राज था जो ऑटोरिक्शा में बैठा उसे पुकार रहा था। डॉली ने पलभर के लिए कुछ सोचा और राज के निकट आकर बोली- 'ओह, आप!'

'कहां से आ रही हैं?'

डॉली को झूठ कहना पड़ा- 'यहीं कोर्ट रोड पर एक कंपनी है।'

'समझा-सान्याल प्राइवेट लिमिटेड होगी?'

'शायद।'

'बात बनी?'

'नहीं।'

'फिर आप एक काम कीजिए।'

'वह क्या?'

'मेरे ऑफिस चलिए।'

'वहां क्यों?' डॉली ने चौंककर पूछा।

'मैंने सोचा है-इधर-उधर भटकने से तो अच्छा है कि आप वहीं काम करें। इस प्रकार आपका मन भी लगा रहेगा और आपको नौकरी भी मिल जाएगी।' राज बोला।

'शिवानी क्या कहती है?'

'शिवा भी यही चाहती है।'

'थोड़ा प्रयास और कर लूं उसके पश्चात देख लूंगी। आप तो ऑफिस जा रहे होंगे?'

'हां, किन्तु आप कहें तो।'

'नहीं, अभी मैं घर न जाऊंगी।'

'शाम तो होने को है।'

'अभी कहां-चार ही तो बजे हैं।'

'फिर भी आपको जल्दी घर पहुंचना चाहिए। आकाश में घटाएं घिरी हैं, वर्षा की संभावना है।'

'जी!' डॉली ने केवल इतना ही कहा और आगे बढ़ गई। राज का ऑटोरिक्शा वहां कब तक रुका-यह उसने जानने की कोशिश न की।

चलते-चलते उसके सामने फिर वही उलझनें आ गईं। और जब उलझनें किसी प्रकार भी न सुलझीं तो उसने अपने आपसे प्रश्न किया- 'तो क्या उसे राज का प्रस्ताव मान लेना चाहिए? विवाह कर लेना चाहिए उससे?' 'किन्तु।' हृदय ने कहा- 'यह तो जय के साथ विश्वासघात होगा। क्या तुम्हारे अंदर इतना साहस है कि उसे धोखा दे सको।' 'जय को बचाने का अन्य कोई उपाय भी तो नहीं। कपूर साहब को मुकदमे से पहले ही दो हजार रुपए चाहिए। इतने रुपयों का प्रबंध मैं कहां से करूंगी। और यदि रुपयों का प्रबंध न हुआ तो।'
इस प्रकार डॉली का हृदय भी उलझकर रह गया। तभी एकाएक बादल गरजे-दूर कहीं बिजली गिरी और वर्षा आरंभ हो गई।

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