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Raj Sharma Stories जलती चट्टान
जलती चट्टान
लेखक : गुलशन नंदा
रेलगाड़ी ने जब सीतापुर का स्टेशन छोड़ा तो राजन देर तक खड़ा उसे देखता रहा। जब अंतिम डिब्बा सिगनल के करीब पहुँचा तो उसने एक लंबी साँस ली। अपने मैले वस्त्रों को झाड़ा, सिर के बाल संवारे और गठरी उठाकर फाटक की ओर चल पड़ा।
जब वह स्टेशन के बाहर पहुँचा तो रिक्शे वालों ने घूमकर आशा भरे नेत्रों से उसका स्वागत किया। राजन ने लापरवाही से अपनी गठरी एक रिक्शा में रखी और बैठते हुए बोला-‘सीतलवादी’।
तुरंत ही रिक्शा एक छोटे से रास्ते पर हो लिया, जो नीचे घाटी की ओर उतरता था। चारों ओर हरी-भरी झाड़ियाँ ऊँची-ऊँची प्राचीर की भांति खड़ी थीं। पक्षियों के झुंड एक ओर से आते और दूसरी ओर पंख पसारे बढ़ जाते, जिस पर राजन की दृष्टि टिक भी न पाती थी। वह मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा था कि वह स्थान ऐसा बुरा नहीं-जैसा वह समझे हुए था।
थोड़ी ही देर में रिक्शा काफी नीचे उतर गई। राजन ने देखा कि ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ रहा था-हरियाली आँखों से ओझल होती जा रही है। थोड़ी दूर जाने पर हरियाली बिलकुल ही दृष्टि से ओझल हो गई और स्याही जैसी धरती दिखाई देने लगी। कटे हुए मार्ग के दोनों ओर ऐसा प्रतीत हो रहा था-मानो काले देव खड़े हों।
थोड़ी दूर जाकर रिक्शे वाले ने चौराहे पर रिक्शा रोका। राजन धीरे से धरती पर पैर रखते हुए बोला-‘तो क्या यही सीतलवादी है?’
‘हाँ, बाबू.... ऊपर चढ़ते ही सीतलवादी आरंभ होती है।’
‘अच्छा!’ और जेब से एक रुपया निकालकर उसकी हथेली पर रख दिया।
‘लेकिन बाबू! छुट्टा नहीं है।’
‘कोई बात नहीं, फिर कभी ले लूँगा। तुम भी यहीं हो और शायद मुझे भी इन्हीं पर्वतों में रहना हो।’
‘अच्छा बाबू! नंबर चौबीस याद रखना।’
राजन उसकी सादगी पर मुस्कराया और गठरी उठाकर ऊपर की ओर चल दिया।
जब उसने सीतलवादी में प्रवेश किया तो सर्वप्रथम उसका स्वागत वहाँ के भौंकते हुए कुत्तों ने किया-जो शीघ्र ही राजन की स्नेह भरी दृष्टि से प्रभावित हो दुम हिलाने लगे और खामोशी से उसके साथ हो लिए। रास्ते में दोनों ओर छोटे-छोटे पत्थर के मकान थे-जिनके बाहर कुछ लोग बैठे किसी-न-किसी धंधे में संलग्न थे। राजन धीरे-धीरे पग बढ़ाता जा रहा था मानो सबके चेहरों को पढ़ता जा रहा हो।
वह किसी से कुछ पूछना चाहता था-किंतु उसे लगता था कि जैसे उसकी जीभ तालू से चिपक गई है। थोड़ी दूर चलकर वह एक प्रौढ़ व्यक्ति के पास जा खड़ा हुआ-जो एक टूटी सी खाट पर बैठा हुक्का पी रहा था। उस प्रौढ़ व्यक्ति ने राजन की ओर देखा। राजन बोला‒
‘मैं कलकत्ते से आ रहा हूँ। यहाँ बिलकुल नया हूँ।’
‘कहो, मैं क्या कर सकता हूँ?’
‘मुझे कंपनी के दफ्तर तक जाना है।’
‘क्या किसी काम से आए हो?’
‘जी! वर्क्स मैनेजर से मिलना है। एक पत्र।’
‘अच्छा तो ठहरो! मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।’ कहकर वह हुक्का छोड़ उठने लगा।
‘आप कष्ट न करिए-केवल रास्ता...।’
‘कष्ट कैसा... मुझे भी तो ड्यूटी पर जाना है। आधा घंटा पहले ही चल दूँगा।’ और वह कहते-कहते अंदर चला गया। तुरंत ही सरकारी वर्दी पहने वापस लौट आया। जब दोनों चलने लगे तो राजन से बोला-‘यह गठरी यहीं छोड़ जाओ। दफ्तर में ले जाना अच्छा नहीं लगता।’
‘ओह... मैं समझ गया।’
‘काकी!’ उस मनुष्य ने आवाज दी और एक बुढ़िया ने झरोखे से आकर झाँका-‘जरा यह अंदर रख दे।’ और दोनों दफ्तर की ओर चल दिए।
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08-13-2020, 12:56 PM,
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RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
राजन यह उत्तर सुनते ही मुँह फेरकर हँसने लगा और नाक सिकोड़ता हुआ नीचे को चल दिया।
माधो के कहने के अनुसार राजन अपने काम में लग गया। उसके लिए यह थैलियों का तार के द्वारा नीचे जाना-मानो एक तमाशा था-जब थैली नीचे जाती तो राजन यों महसूस करता-जैसे कुण्डे के साथ लटका हुआ हृदय घाटियों को पार करता जा रहा हो, वह यह सब कुछ देख मन-ही-मन मुस्करा उठा-परंतु काम करते-करते जब कभी उसके सम्मुख रात्रि वाली वह सौंदर्य प्रतिमा आ जाती तो वह गंभीर हो जाता-फिर यह सोचकर कि उसने कोई स्वप्न देखा है- भला इन अंधेरी घाटियों में ऐसी सुंदरता का क्या काम? सोचते-सोचते वह अपने काम में लग जाता।
काम करते-करते चार बज गए-छुट्टी की घंटी बजी-मजदूरों ने काम छोड़ दिया और अपने-अपने वस्त्र उठा दफ्तर की ओर बढ़े।
‘तो क्या छुट्टी हो गई?’ राजन ने एक से पूछा।
‘जी बाबूजी-परंतु आपकी नहीं।’
‘वह क्यों?’
‘अभी तो आपको नीचे जाकर माधो दादा को हिसाब बतलाना है।’
और राजन शीघ्रता से रजिस्टर उठा घाटियों में उतरती हुई पगडंडी पर हो लिया-जब वह स्टेशन पहुँचा तो माधो पहले से ही उसकी राह देख रहा था-राजन को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि पहले ही दिन हिसाब माधो से मिल गया-हिसाब देखने के बाद माधो बोला-
‘राजन, आशा है कि तुम इस कार्य को शीघ्र ही समझ लोगे।’
‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है दादा!’ राजन ने सामने रखे चाय के प्याले पर दृष्टि फेंकते हुए उत्तर दिया और फिर बोला-‘दादा इसकी क्या आवश्यकता थी? तुमने तो बेकार कष्ट उठाया।’ कहते हुए चाय का प्याला उठाकर फटाफट पी गया।
माधो को पहले तो बड़ा क्रोध आया, पर बनावटी मुस्कान होठों पर लाते हुए बोला-‘कष्ट काहे का-आखिर दिन भर के काम के पश्चात् एक प्याला चाय ही तो है।’
‘दादा! अब तो कल प्रातः तक की छुट्टी?’ राजन ने खाली प्याला वापस रखते हुए पूछा।
‘क्यों नहीं-हाँ, देखो यह सरकारी वर्दी रखी है और यह रहा तुम्हारा गेट पास-इसका हर समय तुम्हारे पास होना आवश्यक है।’
‘यह तो अच्छा किया-वरना सोच रहा था कि प्रतिदिन कोयले से रंगे काले मेरे वस्त्रों को धोएगा कौन?’
एक हाथ से ‘गेट पास’ और दूसरे से वस्त्र उठाते हुए वह दफ्तर की ओर चल पड़ा-कंपनी के गेट से बाहर निकलते ही राजन सीधा कुंदन के घर पहुँचा-कुंदन उसे देखते ही बोला-
‘क्यों राजन! आते ही झूठ बोलना आरंभ कर दिया?’
‘झूठ-कैसा झूठ?’
‘अच्छा बताओ रात कहाँ सोए थे?’
‘रात? स्वर्ग की सीढ़ियों पर?’
‘स्वर्ग की सीढ़ियों पर!’
‘हाँ भाई! वह पहाड़ी वाले मंदिर की सीढ़ियों पर।’
‘तो यों कहो न।’
यह सुनते ही कुंदन जोर-जोर से हँसने लगा और राजन के और समीप होते हुए बोला-‘स्वर्ग की सीढ़ियों से ही लौट आए या भीतर जाकर देवताओं के दर्शन भी किए।’
‘देवताओं के तो नहीं-परंतु एक सुंदर फूल के अवश्य ही।’
‘किसी पुजारी के हाथ से सीढ़ियों पर गिर पड़ा होगा।’
‘यों ही समझ लो-अच्छा काकी कहाँ हैं?’
‘तुम्हारे लिए खाना बना रही हैं।’
‘परंतु...।’
‘राजन! अब यों न चलेगा, जब तक तुम्हारा ठीक प्रबंध नहीं होता-तुम्हें भोजन यहीं करना होगा और रहना भी यहीं।’
‘नहीं कुंदन! ऐसा नहीं हो सकता।’
‘तो क्या तुम मुझे पराया समझते हो?’
‘पराया नहीं-बल्कि तुम्हारे और समीप आने के लिए मैं यह बोझ तुम पर डालकर तुमसे दूर नहीं होना चाहता-मैं चाहता हूँ कि अपने मित्र से दिल खोलकर कह भी सकूँ और सुन भी सकूँ।’
‘अच्छा तुम्हारी इच्छा-परंतु आज तो...!’
‘हाँ-हाँ क्यों नहीं, वैसे तो अपना घर समझ जब चाहूँ आ टपकूँ।’
‘सिर-आँखों पर... काकी भोजन शीघ्र लाओ।’ कुंदन ने आवाज दी और थोड़े ही समय में काकी भोजन ले आई-दोनों ने भरपेट भोजन किया और शुद्ध वायु सेवन के लिए बाहर खाट पर आ बैठे-इतने में मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं-राजन फिर से मौन हो गया-मानों घंटियों के शब्द ने उस पर जादू कर दिया हो-उसके मुख की आकृति बदली देख कुंदन बोला-‘क्यों राजन, क्या हुआ?’
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08-13-2020, 12:56 PM,
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RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘यह शब्द सुन रहे हो कुंदन!’
‘मंदिर में पूजा हो रही है।’
‘मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है-जैसे यह शब्द मेरे कानों में बार-बार आकर कह रहे हों-इतने संसार में यदि एक-आध मनुष्य समय से पहले चला भी जाए तो हानि क्या है?’
‘अजीब बात है।’
‘तुम नहीं समझोगे कुंदन! अच्छा तो मैं चला।’
‘कहाँ?’
‘घूमने-मेरे वस्त्र यहीं रखे हैं।’
‘और लौटेंगे कब तक?’
‘यह तो नहीं जानता। मौजी मनुष्य हूँ। न जाने कहाँ खो जाऊँ?’
कहते-कहते राजन मंदिर की ओर चल पड़ा और उन्हीं सीढ़ियों पर बैठ ‘सुंदरता’ की राह देखने लगा। जरा सी आहट होती तो उसकी दृष्टि चारों ओर दौड़ जाती थी।
और वह एक थी कि जिसका कहीं चिह्न नहीं था, बैठे-बैठे रात्रि के नौ बज गए। मंदिर की घंटियों के शब्द धीरे-धीरे रात्रि की नीरसता में विलीन हो गए। उसके साथ ही थके हुए राजन की आँखें भी झपक गईं।
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दूसरे दिन जब राजन काम पर गया तो सारा दिन यह सोचकर आश्चर्य में खोया रहा कि वह पुजारिन एक स्वप्न थी या सत्य।
आखिर वह कौन है? शायद उस रात्रि की घटना से उसने सायंकाल की पूजा पर आना छोड़ दिया हो। तरह-तरह के विचार उसके मस्तिष्क में घूमने लगे। वह सोच रहा था, कब छुट्टी की घंटी बजे और वह उन्हीं सीढ़ियों पर जा बैठे। उसे पूरा विश्वास था कि वह यदि कोई वास्तविकता है तो अवश्य ही पूजा के लिए आएगी।
अचानक ही किसी शब्द ने उसे चौंका दिया, ‘राजन, क्या हो रहा है?’
यह कुंदन का कण्ठ स्वर था।
‘कोयलें की दलाली में मुँह काला।’
‘बस एक ही दिन में घबरा गए।’
‘नहीं कुंदन घबराहट कैसी? परंतु तुम आज...।’
‘जरा सिर में पीड़ा थी। दफ्तर से छुट्टी ले आया।’
‘परंतु तुमने अभी तक यह नहीं बतलाया कि क्या काम करते हो?’
‘काम लो सुनो। यह सामने जो ऊँची चट्टान एक गुफा-सी बना रही है।’
‘हाँ।’
‘बस उन्हीं के बाहर सारे दिन बैठा रहता हूँ।’
‘क्या पहरा देने के लिए?’
‘तुम्हारा अनुमान गलत नहीं।’
‘क्या भीतर कोई सोने या हीरों का खजाना है?’
‘सोने, हीरों का नहीं बल्कि विषैली गैसों का, जिन्हें अग्नि से बचाने के लिए बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। दियासलाई, सिगरेट इत्यादि किसी भी वस्तु को भीतर नहीं ले जाने दिया जाता। यदि चाहूँ तो मैनेजर तक की तलाशी ले सकता हूँ।’
‘फिर तो तुम्हारी पदवी मैनेजर से बड़ी है।’
‘पदवी तो बड़ी है भैया, परंतु आयु छोटी।’
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08-13-2020, 12:56 PM,
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RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘पदवी तो बड़ी है भैया, परंतु आयु छोटी।’
और दोनों जोर-जोर से हँसने लगे। कुंदन हँसी रोककर बोला-‘क्यों राजन आज की रात भी स्वर्ग की सीढ़ियों पर बीतेगी?’
‘आशा तो यही है।’
‘देखो... कहीं पूजा करते-करते देवता बन बैठे तो हम गरीब इंसानों को न भुला देना।’ वह मुस्कुराता हुआ फाटक की ओर बढ़ गया। राजन अपने काम की ओर लपका और फिर से कोयले की थैलियों को नीचे भेजना आरंभ कर दिया।
आखिर छुट्टी की घंटी हुई। प्रतिदिन की तरह माधो से छुट्टी पाकर राजन सीधा कुंदन के यहाँ पहुँचा। कपड़े बदलकर होटल का रास्ता लिया। उसने अपने भोजन का प्रबंध वहाँ के सराय के होटल में कर लिया था। वहाँ उसके कई साथी भी भोजन करते थे।
आज वह समय से पहले ही मंदिर पहुँच गया और सीढ़ियों पर बैठा उस पुजारिन की राह देखने लगा। पूजा का समय होते ही मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं। हर छोटी-से-छोटी आहट पर राजन के कान सतर्क हो उठते थे। परंतु उसके हृदय में बसने वाली वह पुजारिन लौटकर न आई! न आई!!
पर उस मन का क्या करे? कैसे समझाए उसे?
वह प्रतिदिन साँझ के धुँधले प्रकाश में पूजा के समय प्रतिदिन सीढ़ियों पर जा बैठता था। इसी प्रकार पुजारिन की राह देखते-देखते चार दिन बीत गए। वह न लौटी। धीरे-धीरे राजन का भ्रम एक विश्वास-सा बन गया कि वह स्वप्न था, जो उसने उस रात्रि में उन सीढ़ियों पर देखा था।
एक दिन संध्या के समय जब वह सीढ़ियों पर लेटा आकाश में बिखरे घन खंडों को देख रहा था तो आपस में मिलकर भांति-भांति की आकृतियां बनाते और फिर बिखर जाते थे, तो फिर उसके कानों में वही रुन-झुन सुनाई पड़ी। आहट हुई और स्वयं पुजारिन धीरे-धीरे पग रखती हुई सीढ़ियों पर चढ़ने लगी।
आज भी उसके हाथ में फूल थे। उसने तिरछी दृष्टि से राजन की ओर देखा और मुस्कुराती हुई मंदिर की ओर बढ़ गई।
वह सोचने लगा, यह तो भ्रम नहीं सत्य है।
यह जाँचकर वह ऐसा अनुभव करने लगा, मानो उसने अपनी खोई संपत्ति पा ली हो और बेचैनी से उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा। उसकी दृष्टि ऊपर वाली सीढ़ी पर टिकी हुई थी और कान पायल की झंकार को सुनने को उतावले हो रहे थे। आज वह उसे अवश्य रोककर पूछेगा। परंतु क्या?
वह सोच रहा था कि उसके कानों में वह रुन-झुन गूँज उठी, पुजारिन राजन के समीप पहुँचते ही एक पल के लिए रुक गई। एक बार पलटकर देखा और फिर सीढ़ियाँ उतरने लगी। राजन की जिह्वा तालू से चिपक गई थी, परंतु जब उसने इस प्रकार जाते देखा तो बोल उठा, ‘सुनिए!’
वह रुक गई। राजन शीघ्रता से सीढ़ियाँ उतरते हुए उसके निकट जा पहुँचा। वह चुपचाप खड़ी राजन के मुख की ओर अचल नयनों से देख रही थी।
‘क्या तुम यहाँ पूजा के लिए प्रतिदिन आती हो?’
‘क्या तुम प्रतिदिन यहाँ बैठकर मेरी राह देखते हो?’
‘राह? नहीं तो, परंतु यह तुमने कैसे जाना?’
‘ठीक वैसे ही जिस तरह तुम यह जान गए कि मैं यहाँ प्रतिदिन आती हूँ।’
‘परंतु तुम तो चार दिन से यहाँ नहीं आयीं।’
‘तुम मेरी राह नहीं देखते तो यह सब कैसे जान गए?’
‘प्रतिदिन इधर घूमने आता हूँ। कभी देखा नहीं तो सोचा कि तुमने आना छोड़ दिया और वह भी शायद मेरे कारण।’
‘भला वह क्यों?’
‘आँचल जो पकड़ लिया था।’
‘तुम समझते हो कि मैं डर गई।’ कहकर वह दबी हँसी हँसने लगी।
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