RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"वह मेरे बेवकूफाने 'ट्रीटमेण्ट' का ही एक हिस्सा था।"
"ट्रीटमेण्ट?"
"हां इंस्पेक्टर।" वह एक झटके से महेश विश्वास की ओर देखकर बोला— "अपनी समझ में मैं ट्रीटमेण्ट ही कर रहा था—कल तक की सोचों के अनुसार वह ठीक भी था मगर आज......आज यहां भइया की इस लाश को देखकर समझ में आ रहा है कि वह ट्रीटमेण्ट नहीं बेवकूफी थी.....सनक थी मेरे दिमाग की।"
"हम समझे नहीं।"
"अपने मरहूम बाबूजी के चन्द शब्द याद करके मैंने आज से करीब दो महीने पहले मिक्की का ट्रीटमेण्ट शुरू किया था—मैं भइया को सुधारना चाहता था, इनकी हालत देख-देखकर मुझे दुख होता था—ट्रीटमेण्ट का तरीका इस सोच पर आधारित था कि शायद भइया इसीलिए कोई काम नहीं करते क्योंकि मैं उनकी हर जरूरत पूरी कर देता हूं—सोचा कि शायद मेरी मदद बन्द होने पर ये काम करने पर मजबूर हो जाएं और इसीलिए.....।"
"ये बकता है, साहब।" रहटू गुर्रा उठा—"ऐसा यह पैसा न देने की बात पर पर्दा डालने के लिए कहता है—अगर मदद न देने वाली बात थी तो इससे पूछिए कि परसों कोर्ट में इसके वकील ने मिक्की की जमानत क्यों कराई?"
"भावुकतावश मैंने ऐसा किया था, उस वक्त यह भी महसूस नहीं किया कि मैं गलती कर रहा हूं.....वह तो कल जब भइया ने कहा कि कोर्ट में जमानत कराना क्या मेरी मदद नहीं थी तो अहसास हुआ कि भावुकता में बहकर मैं सचमुच अपने ट्रीटमेण्ट के विरुद्ध कदम उठा बैठा—कोई मदद न करने का निश्चय करके अनजाने में अप्रत्यक्ष मदद कर बैठा—उसी क्षण मैंने फैसला किया कि भइया के दिमाग से हमेशा के लिए यह बात निकाल देनी चाहिए कि यहां से भविष्य में कोई मदद मिल सकती है—सो, मैंने उनसे कोठी से निकल जाने के लिए कह दिया—सोचा था कि मेरे ऐसा कहने से उन्हें यकीन हो जाएगा कि मैं भविष्य में कोई मदद करने वाला नहीं हूं, तब शायद कोई काम करने की सोचें—मगर क्या सोचा था—क्या हो गया!"
"ये आदमी झूठ बोल रहा है, सर।"
"तुम चुप रहो।" महेश विश्वास ने रहटू को डांटा।
सुरेश ने कहा, "ये सच है, इंस्पेक्टर कि अगर मैं कल भइया को दस हजार रुपये दे देता तो आज यह सब न होता..... मैं दोषी हूं इंस्पेक्टर, मैं अपने मूर्खाना ट्रीटमेण्ट का शिकार रहा—मैं ही भइया का हत्यारा हूं, मुझे गिरफ्तार कर लीजिए और वही सजा दिलवाइए जो किसी को गोली मारकर हत्या करने पर होती है, उफ.....भइया ने मुझसे कितना कहा था, मैं ही न माना—मूर्ख था मैं—मेरी मूर्खता की सजा मुझे मिलनी ही चाहिए, इंस्पेक्टर।"
महेश विश्वास और शशिकान्त ही नहीं बल्कि रहटू भी उसकी तरफ हैरत से देखता रह गया। महेश विश्वास ने कहा— "सुसाइड नोट के रूप में हमें यहां से मकतूल के हाथ की लिखी एक डायरी मिली है मिस्टर सुरेश, उसमें आपने और रहटू के द्वारा कही.....।"
सुरेश की आंखें चमक उठीं, बोला— "तब तो आपके पास लिखित सबूत भी है इंस्पेक्टर, सचमुच मेरी ही वजह से भइया को आत्महत्या करनी पड़ी।"
"मैं ये चाहूंगा कि इस केस की तहकीकात पूरी होने से पहले आप दिल्ली से बाहर न जाएं, क्योंकि कोई ठोस सबूत मिलने पर आपकी जरूरत पड़ सकती है।"
प्रत्यक्ष में सुरेश खामोश रहा।
मुंह लटकाए पुनः मिक्की की लाश की ओर मुखातिब होकर मन-ही-मन बड़बड़ाया—'ठोस तो क्या, तुम्हें कोई लचीला सबूत भी मिलने वाला नहीं है, बेवकूफ.....तुम तो यह भी नहीं सोच पा रहे हो कि यह आत्महत्या नहीं, हत्या है।'
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रात के करीब ग्यारह बजे।
अपने छोटे-से कमरे में अलका एक ढीली चारपाई पर बिछी गंदी दरी पर लेटी जाने कब से कमरे की छत को निहार रही थी।
ऊपर से देखने पर उस वक्त वह सामान्य नजर आ रही थी।
किन्तु।
ह्रदय बुरी तरह आंदोलित था।
बुरी तरह सूजी हुई आंखें गवाह थीं कि वह लगातार रोती रही है। अब दिल में फंसे आंसू भी शायद सूख चुके थे।
छत पर वीडियो फिल्म के समान वह आज दिन की समस्त घटनाओं को देख रही थी—पोस्टमार्टम के लिए जाती मिक्की की लाश, चीरघर के बाहर का लम्बा और उबाऊ इंतजार, लाश मिलने के बाद उसका दाह-संस्कार।
सबकुछ अलका की आंखों के सामने हुआ था।
मगर फिर भी।
उसे यकीन नहीं आ रहा था कि मिक्की मर चुका है।
जब कोई अपना यूं पलक झपकते ही हमेशा के लिए दुनिया के गायब हो जाए तो यकीन नहीं आता.....अऩ्दर से हूक-सी उठती है।
अलका को उस वक्त ऐसी ही हूकों से लड़ना पड़ रहा था कि अचानक चौंकी।
विचार श्रृंखला छिन्न-भिन्न हो गई। छत पर चलती वीडियो फिल्म गायब।
उसने चौंककर दरवाजे की तरफ देखा।
दिल में विचार उठा कि कहीं वह उसका भ्रम ही तो न था, मगर नहीं.....अभी वह ठीक से कुछ समझ भी न पाई थी कि दरवाजे पर
पुनः दस्तक उभरी।
अलका चौंककर उठ बैठी।
दरवाजे की तरफ बढ़ी।
एक बार पुनः दस्तक हुई तो ठिठककर उसने दरवाजा खोलने से पहले पूछा—"कौन है?"
"मैं सुरेश हूं अलका, दरवाजा खोलो।"
"स.....सुरेश।" अलका सचमुच उछल पड़ी— "त.....तुम यहां क्यों आए हो?"
बाहर से फुसफुसाकर कहा गया—"प......प्लीज, जल्दी से दरवाजा खोलो.....अगर किसी ने मुझे देख लिया तो.....।"
सुरेश का वाक्य अधूरा रह गया, क्योंकि पूरा होने से पहले ही अलका ने एक झटके से दरवाजा खोल दिया था—स्थिर नजरों से कुछ देर तक वह सुरेश को देखती रही, सुरेश भी लगातार उसे देख रहा था, फिर एकाएक अलका ने रूखे स्वर में पूछा—"क्या बात है?"
"मैं अन्दर आना चाहता हूं, कुछ जरूरी बातें करनी हैं।"
"किस बारे में?"
"मिक्की की मौत के बारे में।"
अलका के चेहरे पर फैली उदासी कुछ और बढ़ गई और बोली— "सारा खेल खत्म हो चुका है सुरेश बाबू—अब उस बेदर्द छाकटे के बारे में कोई बात करने से क्या फायदा?"
"मुझे कुछ अजीब बातें पता लगी हैं।"
"क.....क्या?"
"बातें लम्बी हैं, यहां खड़े-खड़े नहीं बताई जा सकतीं।"
संदिग्ध निगाहों से देखती हुई अलका ने जाने क्या सोचा, फिर बिना कुछ बोले अन्दर का रास्ता दिया—अन्दर कदम रखते हुए सुरेश की आंखों में अजीब चमक थी—अलका न देख पाई, वर्ना समझ जाती कि यह धूर्त व्यक्ति उसे पाना चाहता है।
दरवाजा भिड़ाकर वह घूमी ही थी कि सुरेश ने कहा— "चटकनी चढ़ा लो।"
"क......क्यों?" अलका चौंकी।
"अगर किसी ने मुझे यहां देख लिया तो जाने क्या सोचने लगे।"
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