Thriller मोड़... जिंदगी के ( completed )
[color=rgb(184,]#6 The Shadow returns......[/color]
उस होटल की पहली मंजिल पर उसका कमरा था, जिसमे बाहर की तरफ एक बालकनी थी, जहां से बाहर की सड़क साफ साफ दिखती थी, और इस सड़क से कोई भी साफ साफ देख सकता था की बालकनी में कौन खड़ा है।
कमरा काफी आरामदायक था और जरूरत की लगभग सारी चीजें जो एक होटल के कमरे में होनी चाहिए मौजूद थी। सुबह के 11 बजे थे और अनामिका उसको होटल के एक स्टाफ की मदद से कमरे में पहुंचा कर वापस जा चुकी थी।
अमर कमरे में आराम करते हुए सोच में डूब गया
"आखिर में मैं हूं कौन? कोई ऐसा जिसके कई दुश्मन हैं जो जान से मरना चाहते हैं या जुर्म की से मेरा वास्ता है जिस कारण वो लोग मुझे रास्ते से हटाना चाहते हैं। जो भी हो, फिलहाल तो अपनी जान बचाना ज्यादा जरूरी है। ये अनामिका और उसके दादाजी भी कितने अच्छे लोग है, एक तो मेरी जान भी बचाई, हॉस्पिटल का खर्चा भी खुद ही किया और अब मेरी जान की हिफाजत भी कर रहें हैं, वो भी बिना कोई जान पहचान के, जिंदगी भी कैसे कैसे मोड़ ले कर आई है। अगर जो मेरे कोई अपने है भी तो उनको कोई परवाह भी नही, और यहां जो मुझे जानते भी नहीं वो इतनी मदद कर रहे हैं, वो भी बिना किसी स्वार्थ के। अनामिका भी कितनी प्यारी लगती है, लेकिन उसकी आंखो का वो सूनापन देख कर दिल में दुख होता है, पता नही कौन सा दर्द समेटे बैठे है वो अपनी जिंदगी में.....
इसी तरह सोच विचार करते करते उसे नींद आ जाती है। 1 बजे के करीब उसके कमरे का फोन बजता है और लाइन पर अनामिका होती है।
अनामिका: अमर जी, आपको दादाजी ने दोपहर के खाने पर बुलाया है, आप तैयार हो जाइए मैं आपको लेने आ जाती हूं।
अमर: अरे अनामिका जी आप क्यों आइएगा, मैं किसी होटल के स्टाफ के साथ आ जाऊंगा।
अनामिका: कोई बात नही है अमर जी, मैं तो वैसे भी अभी होटल के रिसेप्शन पर ही हूं, मैनेजर आज कल छूटी पर है, तो हम लोग ही मैनेज कर रहे है, और मुझे भी तो जाना ही है ना खाना खाने।
अमर: अच्छा, फिर मैं जल्दी से रेडी होता हूं।
15 मिनट बाद अमर लिफ्ट से नीचे आता है, और रिसेप्शन पर अनामिका को बैठे देखता है। वो उसी एक सादे सलवार सूट में एकदम साधारण से मेकअप के साथ बैठी हुई थी, आंखो में वैसा ही सूनापन जो अमर को देखते ही और बढ़ गया था।
अनामिका उसे देख कर उसको अपने केबिन की तरफ ले जाती है, और उसी केबिन से अंदर के दरवाजे से होटल के पीछे बने अपने घर ले जाती है।
दरवाजे से अंदर जाते ही 2 सीढियां उतार कर एक आलीशान सा लिविंग एरिया होता है जिसमे 2 तरफ सोफे लगे होते हैं एक तरफ कोने में वो दरवाजा जिससे अमर और अनामिका अंदर आते है और दरवाजे से लगी हुई वॉल यूनिट जिसमे कई तरह के सजावटी सामान रखे होते हैं, उसी दीवाल के साथ वाली दीवाल में घर का मुख्य दरवाजा होता है और सामने वाले सोफे के पीछे एक बड़ा सा हाल दिखाई देता है जो शायद डाइनिंग रूम था। उसके चारो तरफ दरवाजे ही दरवाजे दिख रहे थे, शायद 7 या 8 दरवाजे थे। हवेली का ये हिस्सा नया बना लग रहा था, शायद आगे के हिस्से में होटल बनाने और घर के लोगों के रहने के लिए ही इसे बनवाया गया हो।
सामने वाले सोफे पर एक 65 - 70 साल के रोबीले इंसान बैठे होते हैं जिनका व्यक्तित्व देख कर लगता है वो कभी सेना में रह चुके हों।
अनामिका: "दादाजी!! चलिए खाना खा लेते हैं।"
उसके लहजे में ऐसा था कि वो जल्दी से खाना खा कर अमर को विदा करना चाहती हो।
रमाकांत जी (दादाजी): बेटा आपको भूख लगी है क्या? वैसे भी अभी खाना तैयार होने में कुछ देर है, आइए अमर जी, इधर बैठिए, में रमाकांत गुप्ता, अनामिका का दादा।
अमर: आपसे मिल कर बहुत खुशी हुई सर। और आपका ये जो आभार है मेरे ऊपर इसका शुक्रिया करने के लिए में खुद आपसे मिलना चाहता था। इतने अहसान है आप दोनो के मुझ पर कि उनकी कैसे चुकाऊंगा वो मेरी समझ में नहीं आ रहा।
रमाकांत: अरे बेटा आप मुझे सर ना कहो, बल्कि चाहो तो दादाजी ही कह सकते हो। और कोई अहसान वाली बात नही है, हमने बस उतना ही किया है जितना एक इंसान दूसरे इंसान के।लिए करता है।
अमर: ये तो आपका बड़ापन है, दादाजी, वरना आज कल के जमाने में किसी के लिए कौन कुछ करता भी है।
रमाकांत: अच्छा ये सब छोड़ो, और कुछ बातें करते हैं, ये अहसान वगैरा की बात ठीक होने के बाद करना।
तभी अनामिका आ कर, "चलिए खाना लग गया है।"
सब लोग डाइनिंग टेबल पर आते हैं, वहां पर एक 15 साल।का लड़का भी बैठा होता है, जिसका परिचय रमाकांत जी अपने पोते पवन के रूप में करवाते हैं।
फिर खाना खा कर अमर वापस होटल के कमरे में आ जाता है, और पूरा दिन ऐसे ही बीत जाता है।
अगले दिन सुबह अमर नहा धो कर नाश्ता करके बालकनी में धूप सेंकने जाता है, कुछ देर बाद उसे सड़क के पर एक पेड़ के नीचे एक आदमी दिखाई देता है जो काला ओवरकोट, काली कैप और काले ही चश्मे में होता है, उसको देखते ही अमर को उस दिन हॉस्पिटल वाले साए की याद आ जाती है और वो उसी को ध्यान से देखने लगता है।
वही उस आदमी की नजर जैसे ही अमर पर पड़ती है वो एक कुटिल मुस्कान से मुस्कुराते हुए अमर की तरफ अपना एक हाथ हिलाता है, अमर के देखने पर वो अपना एक हाथ अपनी गर्दन पर फेरते हुए दूसरे हाथ से अपना कोट किनारे करके एक वैसा ही खंजर अमर को दिखाता है.......
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