RE: Chodan Kahani इंतकाम की आग
रेलवे प्लॅटफार्म पर जैसे लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा था. भीड़ मे लोग अपना अपना सामान लेकर बड़ी मुश्किल से रास्ता निकालते हुए वहाँ से जा रहे थे. शायद अभी अभी कोई ट्रेन आई हो. वही प्लॅटफार्म पर एक कोने मे चंदन, सुनील, अशोक और सिकंदर पत्ते खेल रहे थे. उन चारों मे शिकेन्दर, उसके हावभाव से और उसका जो तीनो पर एक प्रभाव दिख रहा था उससे, उनका लीडर लग रहा था. शिकेन्दर लगभग 25 के आस पास, कसे हुए और मजबूत शरीर का मालिक, एक लंबा चौड़ा युवक था.
"देखो अपनी गाड़ी आने मे अभी बहुत वक्त है.. कम से कम और तीन गेम हो सकते है..." शिकेन्दर ने पत्ते बाँट ते हुए कहा.
"सुनील तुम इस काग़ज़ पर पायंट्स लिखो..." अशोक ने एक हाथ से पत्ते पकड़ते हुए और दूसरे हाथ से जेब से एक काग़ज़ का टुकड़ा निकाल कर सुनील के हाथ मे देते हुए कहा.
"और, लालटेन ज़्यादा हुशियारी नही चलेगी' सुनील ने चंदन को ताकीद दी. वे चंदन को उसके चश्मे की वजह से लालटेन ही कहते थे. शिकेन्दर का ध्यान पत्ते खेलते वक्त यूँ ही प्लॅटफार्म पर उमड़ पड़ी भीड़ की तरफ गया.
भीड़ मे मीनू और शरद एक दूसरे का हाथ पकड़ कर किसी परदेसी अजनबी की तरह चल रहे थे.
उसने मीनू की तरफ सिर्फ़ देखा और खुले मुँह देखता ही रह गया.
"बाप, क्या माल है..." उसके खुले मुँह से अनायास ही निकल गया. सुनील, चंदन और अशोक भी अपना गेम छोड़ कर उधर देखने लगे. उनका भी देखते हुए खुला मुँह बंद होने को तैय्यार नही था.
"कबूतरी कबूतर के साथ भाग आई है शायद..." शिकेन्दर के अनुभवी नज़र ने भाँप लिया.
'उस कबूतर के बजाय मुझे उसके साथ रहना चाहिए था..." सुनील ने कहा.
शिकेन्दर ने सबके पास से पत्ते छीन कर लेते हुए कहा, 'देखो, अब यह गेम बंद कर दो... हम अब एक दूसरा ही गेम खेलते है..."
सबके चेहरे खुशी से दमक ने लगे. वे शिकेन्दर के बोलने का छिपा अर्थ जानते थे. वैसे वे वह गेम कोई पहली बार नही खेल रहे थे. सब उत्साह से भरे एक दम उठकर खड़े हो गये...
"अरे, देखो ज़रा ख़याल रहे.... साले कहीं घुस जाएँगे तो बाद मे मिलेंगे नही..." अशोक ने उठते हुए कहा.
फिर वे उनके ख़याल मे ना आए इतना फासला रखते हुए उनके पीछे पीछे जाने लगे.
"आए...लालटेन तुम ज़रा आगे जाओ... साले पहले ही तुझे चश्मे से ज़रा कम ही दिखता है..." शिकेन्दर ने चंदन को आगे धकेलते हुए कहा. चंदन मीनू और शरद के ख़याल मे नही आए ऐसा सामने दौड़ते हुए गया.
दिन भर इधर उधर घूमने मे वक्त कैसा निकल गया यह शरद और मीनू को पता ही नही चला. कुछ देर बाद शाम भी हो गयी. शरद और मीनू एक दूसरे का हाथ पकड़ कर मस्त मज़े मे फुतपाथ पर चल रहे थे. सामने एक जगह रास्ते पर हार्ट शेप के हिड्रोज़ से भरे लाल गुब्बारे बेचनेवाला फेरीवाला उन्हे दिखाई दिया. वे उसके पास गये. शरद ने गुब्बारों का एक बड़ा सा दस्ता खरीद कर मीनू को दिया. पकड़ ने के लिए जो धागा था उसके हिसाब से वह दस्ता बड़ा होने से धागा टूट गया और वह दस्ता उड़कर आकाश की ओर निकल पड़ा. शरद ने दौड़कर जाकर, उँची उँची छलांगे लगाकर उसे पकड़ने का प्रयास किया लेकिन वह धागा उसके हाथ नही आया. वे लाल गुब्बारे मानो एकदुसरे को धक्के देते हुए उपर आकाश मे जा रहे थे. शरद की उस धागे को पकड़ ने की जी तोड़ कोशिश देख कर मीनू खिल खिलाकर हंस रही थी.
और उनके काफ़ी पीछे शिकेन्दर, अशोक, चंदन और सुनील किसी के ख़याल मे नही आए इसका ध्यान रखते हुए उनका पीछा कर रहे थे.
मीनू और शरद एक जगह आइस्क्रीम खाने के लिए रुक गये. उन्होने एक कों लिया और उसमे ही दोनो खाने लगे. आइस्क्रीम खाते वक्त मीनू का ध्यान शरद के चेहरे की तरफ गया और वह खिलखिलाकर हंस पड़ी.
"क्या हुआ...?" शरद ने पूछा.
"आईने मे देखो.." मीनू वही पास एक गाड़ी को लगे आईने की तरफ इशारा कर बोली.
शरद ने आईने मे देखा तो उसके नाक के सिरे को आइस्क्रीम लगा था. अपना वह हुलिया देख कर उसे भी हँसी आ रही थी. उसने वह पोंछ लिया और एक प्रेम भरी नज़र से मीनू की तरफ देखा.
"सचमुच अपनी रूचि कितनी मिलती जुलती है..." मीनू ने कहा.
"फिर... वह तो रहने वाली है... क्यों कि... वी आर दा पर्फेक्ट मॅच..." शरद गर्व से बोल रहा था.
आइस्क्रीम खाते हुए अचानक मीनू का ख़याल दूर खड़े शिकेन्दर की तरफ गया. शिकेन्दर ने झट से अपनी नज़र फेर ली. मीनू को उसकी नज़र अजीब लगी थी और उसकी गतिविधियाँ भी..
"शरद मुझे लगता है अब हमे यहाँ से निकलना चाहिए..."मीनू ने कहा और वह वहाँ से निकल पड़ी. शरद उलझन मे सहमा सा उसके पीछे पीछे जाने लगा...
वहाँ से आगे काफ़ी समय तक चलने के बाद वे एक कपड़े के दुकान मे घुस गये. अब काफ़ी रात हो चुकी थी. मीनू को शक था कि कहीं वह पहले दिखा हुआ लड़का उनका पीछा तो नही कर रहा है. इसलिए उसने दुकान मे जाने के बाद वहाँ से एक सन्करि दरार से बाहर झाँक कर देखा. बाहर शिकेन्दर उसके और दो साथी के साथ चर्चा करते हुए इधर उधर देख रहा था. शरद उन लोगों को दिख सके ऐसे जगह पर खड़ा था.
"शरद पीछे मुड़कर मत देखो.. मुझे लगता है वह लड़के अपना पीछा कर रहे है..." मीनू दबे स्वर मे बोली...
"कौन..? किधर..?" शरद ने गड़बड़ाते हुए पूछा...
"चलो जल्दी यहाँ से हम निकल जाते है... वे हम तक पहुँचने नही चाहिए..." मीनू ने उसे वहाँ से बाहर निकाला.
वे दोनो लंबे लंबे कदम डालते हुए फुतपाथ पर चल रहे थे लोगों की भीड़ से रास्ता निकालते हुए वहाँ से जाने लगे.
अपना पीछा हो रहा है इसका अब पूरा यकीन मीनू और शरद को हो चुका था. वे दोनो भी घबराए और सहमे हुए थे. यह शहर उनके लिए नया था. वे उन चोरों से बचने के लिए जिधर रास्ता मिलता उधर जा रहे थे. चलते चलते वे एक ऐसे सुनसान जगह पर आए कि जहाँ लोग लगभग नही के बराबर थे. वैसे रात भी काफ़ी हो चुकी थी. यह भी एक वहाँ लोग ना होने की वजह हो सकती थी. उसने पीछे मुड़कर देखा. शिकेन्दर और उसके दोस्त अभी भी उनका पीछा कर रहे थे. मीनू का दिल धड़कने लगा. शरद को भी कुछ सूझ नही रहा था. अब क्या किया जाय, दोनो भी इस सहमे हुए थे. वे तेज़ी से चल रहे थे और उनसे जितना दूर जा सकते है उतनी कोशिश कर रहे थे. आगे रास्ते पर तो और भी घना अंधेरा था. वे दोनो और उनके पीछे उनका पीछा कर रहे वे चार लड़के इनके अलावा उनको वहाँ और कोई भी नही दिख रहा था.
"लगता है उनके ख़याल मे आया है कि हम उनका पीछा कर रहे है..." चंदन अपने साथियों से बोला.
"आने दो.. वह तो कभी ना कभी उनके ख़याल मे आने ही वाला था..." शिकेन्दर ने बेफिक्र अंदाज़ मे कहा.
"वे बहुत डरे हुए भी लग रहे है..." सुनील ने कहा.
"डरना तो चाहिए... अब डर के वजह से ही अपना काम होनेवाला है.. कभी कभी डर ही आदमी को कमजोर बना देता है..." अशोक ने कहा.
शरद ने पीछे मुड़कर देखा तो वे चारों तेज़ी से उनकी तरफ आ रहे थे.
"मीनू.. चलो दौड़ो..." शरद उसका हाथ पकड़ते हुए बोला.
एक दूसरे का हाथ पकड़ कर वे अब ज़ोर से दौड़ने लगे.
"हमे पोलीस मे जाना चाहिए क्या...?" मीनू ने दौड़ते हुए पूछा.
"अब यहाँ कहाँ है पोलीस.... और अगर हम ढूंढकर गये भी.. तो वे भी हमे ही ढूँढ रहे होंगे... अब तक तुम्हारे घरवालों ने पोलीस मे रिपोर्ट दर्ज की होगी..." शरद दौड़ते हुए किसी तरह बोल पा रहा था.
क्रमशः……………………
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