RE: Hindi Sex Kahaniya कामलीला
पूरे कार्यक्रम के बाद हम मेन हाल में आये जहाँ पहले मुझे उन्होंने थोड़ा दूध पिलाया और करीब आधे घंटे के आराम के बाद हमने खाना खाया और अब ताक़त तो बची नहीं थी तो सो ही गये।
सुबह उठ कर एक विदाई वाली चुदाई की और फिर वापसी की राह पकड़ी।
चूँकि अब नौकर नौकरानी आने वाले थे सो वहाँ रुका जा नहीं सकता था इसलिए सुबह सवेरे ही निकल लेना ठीक था।
जाने से पहले मैडम जी ने मुझे हज़ार के दस नोट थमा दिये।
मैंने ऐतराज़ किया तो उन्होंने फिर वही डायलॉग मारा कि वे राजा लोग हैं, मुफ्त की सेवायें नहीं लेते।
ज्यादा विरोध करना मुझे भी उचित ना लगा, आखिर लक्ष्मी किसे बुरी लगती है, कहीं से भी आये।
बहरहाल कहानी यहीं खत्म हुई।
वो सात दिन कैसे बीते
मैंने बताया था कि निदा का घर छोड़ने के बाद मैंने कपूरथला में ठिकाना बना लिया था, लेकिन वहाँ भी ज्यादा नहीं टिक सका और इसके बाद मैं निशात गंज में एक भली फैमिली के यहाँ रहने लगा था।
इस बीच कुछ समस्याओं के चलते मैंने मोबाइल कंपनी की नौकरी भी छोड़ दी थी और कुछ दिन बेरोज़गारी के गुजरने के बाद एक प्राइवेट ब्रॉडबैंड कंपनी में नौकरी कर ली थी।
मुंबई, दिल्ली में ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद अब लखनऊ में दिल ऐसा लगा था कि छोड़ने का मन ही नहीं होता था। भले मेरा परिवार भोपाल में रहता हो लेकिन एक खाला कानपुर में रहती थी जो डेढ़ दो घंटों की दूरी पर था, तो कभी कभी मूड फ्रेश करने वहाँ चला जाता था।
घर बस एक बार गया था और वो भी बस दो दिन के लिए।
लखनऊ में दिल ऐसा लगा था कि अब कहीं और रुकने का मन भी नहीं होता था।
कई दोस्त और जानने वाले हो गए थे और नौकरी भी ऐसी थी कि घूमने फिरने को भी खूब मिलता था और साथ ही आँखें सेंकने के ढेरों मौके भी सुलभ होते थे।
कभी चौक नक्खास की पर्दानशीं, कभी अलीगंज विकास नगर की बंगलो ब्यूटीज़, कभी अमीनाबाद की फुलझड़ियाँ तो कभी गोमती नगर की आधुनिकाएँ।
इस बीच मेरी दिलचस्पी का केंद्र दो लड़कियाँ रही थीं… एक तो जहाँ मैं रहता था वही सामने एक प्रॉपर्टी डीलिंग का ऑफिस था, वही बाहरी काउंटर पर बैठती थी।
मुझे नाम नहीं पता लगा, उम्र तीस की तो ज़रूर रही होगी, रंगत गेहुंआ थी, कद दरमियाना, सीना अड़तीस होगा तो कमर भी चौंतीस से कम न रही होगी, नितम्ब भी चालीस तक होंगे… नैन नक्श साधारण।
उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो एक्स्ट्रा आर्डिनरी हो, आकर्षण का केंद्र हो- एकदम मेरी तरह।
एक आम सी लड़की, भीड़ में शामिल एक साधारण सा चेहरा और यही चीज़ मुझे उसकी ओर खींचती थी।
मैंने कई बार उसे रीड करने की कोशिश की थी… ऐसा लगता था जैसे मजबूर हो, जैसे ज़बरदस्ती की ज़िंदगी जी रही हो, उसकी आँखों में थोड़ा भी उत्साह नहीं होता था और सिकुड़ी भवें या खिंचे होंठ अक्सर उसकी झुंझलाहट का पता देते थे।
मुझे भी उसने जितनी बार देखा था इसी एक्सप्रेशन से देखा था लेकिन फिर भी मुझे उसमें दिलचस्पी थी।
ऐसे ही एक दूसरी लड़की थी जो मेरे पड़ोस वाले घर में रहती थी। टिपिकल धर्म से बन्धी फैमिली थी… लड़की एक थी और लड़के दो थे, बाकी माँ बाप दादा दादी भी थे।
लड़की में दिलचस्पी का कारण ये था कि मुझे यहाँ रहते छः महीने हो गए थे लेकिन आज तक मुझे उसकी शक्ल नहीं दिखी थी… हमेशा सर से पांव तक जैसे मुंदी ही रहती थी।
अपने तन को ढीले ढाले कपड़ों से छुपाए रहती थी और खुले में निकलती थी तो उसके ऊपर से चादर टाइप कपडा भी लपेट लेती थी, सर पे भी स्कार्फ़ बांधे रहती थी।
घर से बाहर जाती थी तो हाथों को दस्तानों से, पैरों को मोज़ों से और आँखों को गॉगल्स से कवर कर लेती थी। यानि जिस्म का एक हिस्सा भी न दिखे…
पड़ोसी होने के नाते मैंने उसके हाथ पांव देखे थे- एकदम गोरे, झक्क सफ़ेद…
या उसकी आँखें देखीं थीं… हल्की हरी और ऐसी ज़िंदादिल कि उनमें देखो तो वापस कहीं और देखने की तमन्ना ही न बचे।
कई बार मैंने उसकी आँखों में नदीदे बच्चों की तरह झाँका था और मुझे ऐसा लगता था जैसे उसके स्कार्फ़ से ढके होंठ मुस्कराए हों, लेकिन यह मेरा भ्रम भी हो सकता था क्योंकि मैं अपनी लिमिट जानता था।
भले मैंने उसकी शक्ल न देखी हो, उसके शरीर सौष्ठव का अनुमान न लगा पाया होऊं लेकिन उसके हाथ पैरों की बनावट, रंग और चिकनापन ही बताता था कि वो क्या ‘चीज़’ होगी और मैं ठहरा एक साधारण सा बन्दा, जिसमे देखने, निहारने लायक कुछ नहीं।
हालांकि मैं तीन चार बार उसके घर जा चुका था और वो भी उसके भाई के बुलाए… दरअसल उनके यहाँ भी ब्राडबैंड कनेक्शन था, भले उस कंपनी का नहीं था जहाँ मैं काम करता था लेकिन जब कुछ गड़बड़ होती थी तो मैं काम आ सकता था न।
कनेक्शन बॉक्स ऊपर छत पे लगा था और मैं अपनी छत से वहाँ पहुँच सकता था और उधर से गया भी था।
मन में उम्मीद ज़रूर थी कि शायद हाथ पैरों और आँखों से आगे कुछ दिख जाये लेकिन बंदी तो ऐसे किसी मौके पे सामने आई ही नहीं।
यह प्राकृतिक है कि जब आपसे कुछ छिपाया जाता है तो आपमें उसे देखने की प्रबल इच्छा होती है और यही कारण था कि आते जाते कभी भी वो मुझे कहीं दिखी तो मैंने दिलचस्पी दिखाई ज़रूर।
फिर अभी करीब दस दिन पहले मेरे ग्रहों की दशा बदली… शनि का प्रकोप कम हुआ।
उस दिन सुबह किसी काम पे निकलते वक़्त अपने ऑफिस तक पहुँच चुकी, उस साधारण मगर मेरी दिलचस्पी का एक केंद्र, लड़की से मेरा सामना हुआ था।
हमें तो संडे के दिन छुट्टी नसीब हो जाती थी, जो कि उस दिन था लेकिन उसे शायद अपनी ड्यूटी सातों दिन करनी पड़ती थी।
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