RE: Desi Sex Kahani बाली उमर की प्यास
बाली उमर की प्यास पार्ट--4
गतांक से आगे.......................
ठीक पिच्छले दिन वाले टाइम पर ही तरुण ने नीचे आकर आवाज़ लगाई... मुझे पता था कि वो शाम को ही आएगा.. पर क्या करती, निगोडा दिल उसके इंतजार में जाने कब से धड़क रहा था.. मैं बिना अपनी किताबें उठाए नीचे भागी.. पर नीचे उसको अकेला देखकर मैं हैरान रह गयी...
"रिंकी नही आई क्या?" मैने बड़ी अदा से अपनी भीनी मुस्कान उसकी और उच्छली....
"नही.. उसका फोन आ गया था.. वो बीमार है.. आज स्कूल भी नही गयी वो!" तरुण ने सहज ही कहा....
"अच्च्छा... क्या हुआ उसको? कल तक तो ठीक थी..." मैने उसके सामने खड़ी होकर अपने हाथों को उपर उठा एक मादक अंगड़ाई ली.. मेरा सारा बदन चटक गया.. पर उसने देखा तक नही गौर से... जाने किस मिट्टी का बना हुआ था....
"पता नही.. आओ!" कहकर वो कमरे में जाने लगा....
"उपर ही चलो ना! चारपाई पर तंग हो जाते हैं..." मैं बाहर ही खड़ी थी..
"कहा तो था कल भी, कि चेर डाल लो... यहीं ठीक है.. कल यहाँ चेर डाल लेना.." उसने कहा और चारपाई पर जाकर बैठ गया...
"आ जाओ ना.. उपर कोई भी नही है..." मैं दोनो हाथों को दरवाजे पर लगाकर खड़ी हो गयी... आज भी मैने स्कूल ड्रेस ही डाली थी.. मेरी स्कर्ट के नीचे दिख रही घुटनो तक की चिकनी टाँगें किसी को भी उसके अंदर झाँकने को लालायित कर सकती थी.. पर तरुण था कि मेरी और देख ही नही रहा था," उपर टेबल भी है और चेर्स भी... चलो ना उपर!" मैने आग्रह किया....
अब की बार वो खड़ा हो गया.. अपने चस्में ठीक किए और 2 कदम चल कर रुक गया," चलो!"
मैं खुशी खुशी उसके आगे आगे मटकती हुई चलकर सीढ़ियाँ चढ़ने लगी.. यूँ तो मेरी कोशिश के बिना भी चलते हुए मेरी कमर में कामुक लचक रहती थी... जान बूझ कर और बल खाने से तो मेरे पिच्छवाड़े हाहाकार मच रहा होगा.. मुझे विस्वाश था....
उपर जाने के बाद वो बाहर ही खड़ा रह गया.. मैने अंदर जाने के बाद मुड़कर देखा," आओ ना.. अंदर!" मैने मुस्कुरकर उसको देखा... मेरी मुस्कुराहट में हरपाल एक कातिल निमंत्रण रहता था.. पर जाने क्यूँ वह समझ नही पा रहा था... या फिर जानबूझ कर मुझे तडपा रहा हो.... शायद!
तरुण अंदर आकर कुर्सी पर बैठ गया.. टेबल के सामने...
"कौनसी बुक लेकर आउ पहले!" मेरे चेहरे पर अब भी वैसी ही मुस्कान थी...
"साइन्स ले आओ! पहले वही पढ़ लेते हैं.." तरुण ने मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की पहली बार कोशिश सी की... मुझे बड़ा आनंद आया.. मेरी और उसको यूँ लगातार देखते पाकर....
"ठीक है..." मैने कहा और बॅग में किताब ढूँढने लगी... किताब मुझे मिल गयी पर मैने उसके देखने के ढंग से उत्साहित होकर नही निकली," पता नही कहाँ रख दी... रात को मैं पढ़ रही थी.. हूंम्म्म? " मैने थोड़ा सोचने का नाटक किया और उसकी तरफ पीठ करके अपने घुटने ज़मीन पर रखे और नितंबों को उपर उठा आगे से बिल्कुल झुक कर बेड के नीचे झाँकने लगी... ठीक उसी तरह जिस तरह अनिल चाचा ने मम्मी को झुका रखा था उस दिन; बेड पर....
इस तरह झुक कर अपने नितंब उपर उठाने से यक़ीनन मेरी स्कर्ट जांघों तक खिसक आई होगी.. और उसको मेरी चिकनी गदराई हुई गोरी जांघें मुफ़्त में देखने को मिली होंगी... मैं करीब 30-40 सेकेंड तक उसी पोज़िशन में रहकर बेड के नीचे नज़रें दौड़ती रही...
जब मैं खड़ी होकर पलटी तो उसका चेहरा देखने लायक था.. उसने नज़रें ज़मीन में गाड़ा रखी थी... उसके गोरे गाल लाल हो चुके थे.. ये इस बात का सबूत था कि उसने 'कुच्छ' ना 'कुच्छ' तो ज़रूर देखा है...
"यहाँ तो नही मिली.. क्या करूँ?" मैं उसकी और देख कर एक बार फिर मुस्कुराइ.. पर उसने कोई रेस्पॉन्स ना दिया....
"मुझे अलमारी के उपर चढ़ा दोगे क्या? क्या पता मम्मी ने उपर फैंक दी हो..." मेरे मॅन में सब कुच्छ क्लियर था कि अब की बार क्या करना है...
"रहने दो.. मैं देख लेता हूँ.." वो कहकर उठा और अलमारी को उपर से पकड़ कर कोहनियाँ मोड़ उपर सरक गया,"नही.. यहाँ तो कुच्छ भी नही है... छ्चोड़ो.. तुम मेथ ही ले आओ.. कल तक ढूँढ लेना..."
मैने मायूस सी होकर मेथ की किताब बॅग से निकाल कर टेबल पर पटक दी.. अब काठ की हांड़ी बार बार चढ़ाना तो ठीक नही है ना....
"वो पढ़ने लगा ही था की मैने टोक दिया," यहाँ ठीक से दिखाई नही दे रहा.. सामने बेड पर बैठ जाउ क्या?"
"लगता है तुम्हारा पढ़ने का मंन है ही नही.. अगर नही है तो बोल दो.. बेकार की मेहनत करने का क्या फ़ायडा..." तरुण ने हल्की सी नाराज़गी के साथ कहा....
मैने अपने रसीले होन्ट बाहर निकाले और मासूम बन'ने की आक्टिंग करते हुए हां में सिर हिला दिया," कल कर लेंगे पढ़ाई.. आज रिंकी भी नही है.. उसकी समझ में कैसे आएगा नही तो?"
"ठीक है.. मैं चलता हूँ.. अब जब रिंकी ठीक हो जाएगी.. तभी आउन्गा..." वह कहकर खड़ा हो गया....
"अरे बैठो बैठो... एक मिनिट..." मैने पूरा ज़ोर लगाकर उसको वापस कुर्सी पर बिठा ही दिया... वो पागल हुआ हो ना हो.. पर मैं उसको छ्छू कर मदहोश ज़रूर हो गयी थी.....
"क्या है अब!" उसने झल्ला कर कहा....
"बस एक मिनिट..." मैने कहा और किचन में चली गयी.....
कुच्छ ही पलों बाद में अपने हाथों में चाय और बिस्किट्स लेकर उसके सामने थी.. मैने वो सब टेबल पर उसके सामने परोस दिया.. परोस तो मैने खुद को भी दिया ही था उसके सामने, पर वो समझे तब ना!
"थॅंक्स.. पर इसकी क्या ज़रूरत थी...." उसने पहली बार मुस्कुरा कर मेरी और देखा... मैं खुस होकर उसके सामने बेड पर बैठ गयी...
"अंजलि! तुम स्कूल क्यूँ नही जाती...? रिंकी बता रही थी..." चाय की पहली चुस्की लेते हुए उसने पूचछा....
"अब क्या बताउ?" मैने बुरा सा मुँह बना लिया....
"क्यूँ क्या हुआ?" उसने हैरत से मेरी और देखा.. मैने कहा ही इस तरह से था की मानो बहुत बड़ा राज मैं च्चिपाने की कोशिश कर रही हूँ.. और पूच्छने पर बता दूँगी....
"वो...." मैने बोलने से पहले हल्का सा विराम लिया," पापा ने मना कर दिया..."
"पर क्यूँ?" वह लगातार मेरी ओर ही देख रहा था.....
"वो कहते हैं कि...." मैं चुप हो गयी और जानबूझ कर अपनी टाँगों को मोड़ कर खोल दिया... उसकी नज़रें तुरंत झुक गयी.. मैं लगातार उसकी और देख रही थी.. नज़रें झुकने से पहले उसकी आँखें कुच्छ देर मेरी स्कर्ट के अंदर जाकर ठहरी थी... मेरी पॅंटी के दर्शन उसको ज़रूर हुए होंगे....
कुच्छ देर यूँही ही नज़रें झुकी रहने के बाद वापस उपर उठने लगी.. पर इस बार धीरे धीरे... मैने फिर महसूस किया.. मेरी जांघों के बीच झँकता हुआ वो कसमसा उठा था.... उसने फिर मेरी आँखों में आँखें डाल ली....
"क्या कहते हैं वो.." उसकी नज़रें बार बार नीचे जा रही थी...
मैने जांघें थोड़ी सी और खोल दी...," वो कहते हैं कि मैं जवान हो गयी हूँ.. आप ही बताओ.. जवान होना ना होना क्या किसी के हाथ में होता है... ये क्या कोई बुरी बात है.... मैं क्या सच में इतनी जवान हो गयी हूँ कि स्कूल ही ना जा सकूँ?"
एक बार फिर उसने नज़रें झुका कर स्कर्ट के अंदर की मेरी जवानी का जयजा लिया... उसके चेहरे की बदली रंगत ये पुष्टि कर रही थी की उसका मन भी मान रहा है कि मैं जवान हो चुकी हूँ; और पके हुए रसीले आम की तरह मुझे चूसा नही गया तो मैं खुद ही टूटकर गिरने को बेताब हूँ.....
"ये तो कोई बात नही हुई... ज़रूर कोई दूसरी वजह रही होगी... तुमने कोई शरारत की होगी.. तुम छिपा रही हो..." अब उसकी झिझक भी खुल सी गयी थी.. अब वह उपर कम और मेरी जांघों के बीच ज़्यादा देख रहा था.. उसकी जांघों के बीच पॅंट का हिस्सा अब अलग ही उभरा हुआ मुझे दिखाई दे रहा था....
"नही.. मैने कोई शरारत नही की.. वो तो किसी लड़के ने मेरे बॅग में गंदी गंदी बातें लिख कर डाल दी थी.. वो पापा को मिल गया..." पूरी बेशर्मी के साथ बोलते बोलते मैने उसके सामने ही अपनी स्कर्ट में हाथ डाल अपनी कछि को ठीक किया तो वो पागला सा गया....
"आ..ऐसा क्या किया था उसने...? मतलब ऐसा क्या लिखा था..." अब तो उसकी नज़रें मेरी कछि से ही चिपक कर रह गयी थी.....
"मुझे शरम आ रही है... !" मैने कहा और अपनी जांघों को सिकोड कर वापस आलथी पालती लगा ली... मुझे लग रहा था कि अब तक वो इतना बेसबरा हो चुका होगा कि कुच्छ ना कुच्छ ज़रूर कहेगा या करेगा....
मेरा शक ग़लत नही था... मेरी कछे के दर्शन बंद होते ही उसका लट्तू सा फ्यूज़ हो गया... कुच्छ देर तो उसको कुच्छ सूझा ही नही... फिर अचानक उठते हुए बोला," अच्च्छा! मैं चलता हूँ... एक बात बोलूं?"
"हां..!" मैने शर्मकार अपनी नज़रें झुका ली.. पर उसने ऐसा कुच्छ कहा कि मेरे कानो से धुआँ उठने लगा...
"तुम सच में ही जवान हो चुकी हो.. जब कभी स्कर्ट पहनो तो अपनी टाँगें यूँ ना खोला करो.. वरना तुम्हारे पापा तुम्हारा टूवुशन भी हटवा देंगे..." उसने कहा और बाहर निकलने लगा....
मैने भागकर उसकी बाँह पकड़ ली," ऐसा क्यूँ कह रहे हो..?"
वो दरवाजे के साथ खड़ा था और मैं अपने दोनो हाथों से उसके हाथ पकड़े उसके सामने खड़ी थी....
"मैने सिर्फ़ सलाह दी है.. बाकी तुम्हारी मर्ज़ी...!" उसने सिर्फ़ इतना ही कहा और अपनी नज़रें मुझसे हटा ली.....
"तुम्हे मैं बहुत बुरी लगती हूँ क्या?" मैने भरभरा कर कहा... उसके इस कदर मुझे लज्जित करके उठने से मैं आहत हुई थी... आज तक तो किसी ने भी नही किया था ऐसा... दुनिया मुझे एक नज़र देखने को तरसती थी और मैने उसको अपनी दुनिया ही दिखा दी थी... फिर भी!
"अब ये क्या पागलपन है... छ्चोड़ो मुझे...!" उसने हल्का सा गुस्सा दिखाते हुए कहा....
नारी कुच्छ भी सहन कर सकती है.. पर अपने बदन की उपेक्षा नही.. मेरे अंदर का नारी-स्वाभिमान जाग उठा.. मैं उस'से लिपट गयी.. चिपक गयी," प्लीज़.. बताओ ना.. मैं सुन्दर नही हूँ क्या? क्या कमी है मुझमें.. मुझे तड़पाकर क्यूँ जा रहे हो....."
मेरी चूचिया उसमें गाड़ी हुई थी... मैं उपर से नीचे तक उस'से चिपकी हुई थी.. पर उसस्पर कोई असर ना हुआ," हटो! अपने साथ क्यूँ मुझे भी जॅलील करने पर तुली हुई हो... छ्चोड़ो मुझे... मैं आज के बाद यहाँ नही आने वाला..." कहकर उसने ज़बरदस्ती मुझे बिस्तेर की तरफ धकेला और बाहर निकल गया....
मेरी आँखें रो रो कर लाल हो गयी... वह मुझे इस कदर जॅलील करके गया था कि मैं घर वालों के आने से पहले बिस्तेर से उठ ही ना सकी.....
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जब दो दिन तक लगातार वो नही आया तो पापा ने उसको घर बुलाया....," तुम आते क्यूँ नही बेटा?" मैं पास खड़ी थरथर काँप रही थी.. कहीं वो पापा को कुच्छ बता ना दे.....
"वो क्या है चाचा जी... आजकल मेरे एग्ज़ॅम की भी तैयारी करनी पड़ रही है.. और रात को धर्मपाल के घर जाना होता है.. उनकी बेटियों को पढ़ाने के लिए.. इसीलिए टाइम कम ही मिल पाता है..." बोलते हुए उसने मेरी तरफ देखा.... मैने आँखों ही आँखों में उसका धन्यवाद किया.....
"हूंम्म... कौनसी क्लास में हैं उसकी बेटियाँ?" पापा ने पूचछा....
"एक तो इसकी क्लास में ही है.. दूसरी इस साल कॉलेज जाने लगी है.. उसको इंग्लीश पढ़ाकर आता हूँ...." उसने जवाब दिया....
"तो तू ऐसा क्यूँ नही करता.. उनको भी यहीं बुला ले... नीचे कमरा तो खाली है ही अपना.. जब तक चाहे पढ़ा....!" पापा ने कहा....
"नही... वो यहाँ नही आएँगी चाचा... मुझे डबल पे करते हैं वो.. उनके घर रात को पढ़ाने के लिए... उन्होने मेरे घर आने से भी मना कर दिया था...." तरुण ने बताया....
"ओह्ह.. तो ठीक है.. मैं धर्मपाल से बात कर लूँगा... अंजलि भी वहीं पढ़ लेगी.. वो तो अपना ही घर है..." पापा ने जाने कैसे ये बात कह दी... मुझे बड़ा अजीब सा लगा था...," पर तुम्हे घर छ्चोड़ कर जाना पड़ेगा अंजू को.. रात की बात है और लड़की की जात है...."
तरुण ने हां में सिर हिला दिया... और मेरा रात का टूवुशन सेट हो गया... धर्मपाल चाचा के घर.....
धर्मपाल चाचा की दोनो लड़कियाँ बड़ी खूबसूरत थी... बड़ी को मेरे मुक़ाबले की कह सकते हैं.. मीनाक्षी... पिच्छले साल ही हमारे स्कूल से बारहवी की परीक्षा पास की थी... उसका यौवन भी मेरी तरह पूरे शबाब पर था... पर दिल से कहूँ तो वो मेरी तरह चंचल नही थी... बहुत ही शर्मीली और शरीफ स्वाभाव की थी.... घर बाहर सब उसको मीनू कहते थे.... प्यार से...
छ्होटी मेरी उमर की ही थी.. पर शरीर में मुझसे थोड़ी हल्की पड़ती थी... वैसे सुंदर वो भी बहुत थी और चंचल तो मुझसे भी ज़्यादा... पर उसकी चंचलता में मेरी तरह तड़प नही थी.. उन्मुक्त व्यवहार था उसका.. पर बच्चों की तरह... घर वालों के साथ ही आस पड़ोस में सबकी लाडली थी वो.. प्रियंका! हम सब उसको पिंकी कहते थे...
अगले दिन में ठीक 7 बजे नहा धोकर टूवुशन जाने के लिए तैयार हो गयी.. यही टाइम बताया था तरुण ने. मंन ही मंन मैं 3 दिन पहले वाली बात याद करके झिझक सी रही थी.. उसका सामना करना पड़ेगा, यही सोच कर मैं परेशान सी थी.. पर जाना तो था ही, सो मैने अपना बॅग उठाया और निकल ली....
धर्मपाल चाचा के घर जाकर मैने आवाज़ लगाई,"पिंकी!"
तभी नीचे बैठक का दरवाजा खुला और पिंकी बाहर निकली," आ गयी अंजू! आ जाओ.. हम भैया का इंतजार कर रहे हैं..." उसने प्यार से मेरी बाँह पकड़ी और अंदर ले गयी..
मैं मीनू की तरफ देख कर मुस्कुराइ.. वो रज़ाई में दुबकी बैठी कुच्छ पढ़ रही थी...
"तुम भी आज से यहीं पढ़ोगी ना अंजू? पापा बता रहे थे...!" मीनू ने एक नज़र मुझको देखा और मुस्कुरा दी....
"हां... दीदी!" मैने कहा और पिंकी के साथ चारपाई पर बैठ गयी..," यहीं पढ़ाते हैं क्या वो!"
जवाब पिंकी ने दिया," हां.. उपर टी.वी. चलता रहता है ना... वहाँ शोर होता है...इसीलिए यहीं पढ़ते हैं हम! तुम स्कूल क्यूँ नही आती अब.. सब टीचर्स पूछ्ते रहते हैं.. बहुत याद करते हैं तुम्हे सब!"
हाए! क्या याद दिला दिया पिंकी ने! मैं भी तो उन्न दीनो को याद कर कर के तड़पति रहती थी.. टीचर्स तो याद करते ही होंगे! खैर.. प्रत्यक्ष में मैं इतना ही बोली," पापा कहते हैं कि एग्ज़ॅम्स का टाइम आ रहा है... इसीलिए घर रहकर ही पढ़ाई कर लूँ...
"सही कह रही हो.. मैं भी पापा से बात करूँगी.. स्कूल में अब पढ़ाई तो होती नही..." पिंकी ने कहा....
"कब तक पढ़ाते हैं वो.." मैने पूचछा....
"कौन भैया? वो तो देर रात तक पढ़ाते रहते हैं.. पहले मुझे पढ़ाते हैं.. और जब मुझे लटके आने शुरू हो जाते हैं हे हे हे...तो दीदी को... कयि बार तो वो यहीं सो जाते हैं...!" पिंकी ने विस्तार से जानकारी दी....
मीनू ने हमें टोक दिया," यार.. प्लीज़! अगर बात करनी है तो बाहर जाकर कर लो.. मैं डिस्टर्ब हो रही हूँ..."
पिंकी झट से खड़ी हो गयी और मीनू की और जीभ दिखा कर बोली," चल अंजू.. जब तक भैया नही आ जाते.. हम बाहर बैठते हैं...!"
हम बाहर निकले भी नही थे कि तरुण आ पहुँचा... पिंकी तरुण को देखते ही खुश हो गयी," नमस्ते भैया..!"
सिर्फ़ पिंकी ने ही नमस्ते किए थे.. मीनू ने नही.. वो तो चारपाई से उठी तक नही... मैं भी कुच्छ ना बोली.. अपना सिर झुकाए खड़ी रही....
तरुण ने मुझे नीचे से उपर तक गौर से देखा.. मुझे नही पता उसके मॅन में क्या आया होगा.. पर उस दिन में उपर से नीचे तक कपड़ों से लद कर गयी थी.. सिर्फ़ उसको खुश करने के लिए... उसने स्कर्ट पहन'ने से मना जो किया था मुझे..
"आओ बैठो!" उसने सामने वाली चारपाई पर बैठ कर वहाँ रखा कंबल औध लिया.. और हमें सामने बैठने का इशारा किया...
पिंकी और मैं उसके सामने बैठ गये.. और वो हमें पढ़ाने लगे.. पढ़ाते हुए वो जब भी कॉपी में लिखने लगता तो मैं उसका चेहरा देखने लगती.. जैसे ही वह उपर देखता तो मैं कॉपी में नज़रें गाड़ा लेती... सच में बहुत क्यूट था वो.. बहुत स्मार्ट था!
उसको हमें पढ़ते करीब तीन घंटे हो गये थे.. जैसा कि पिंकी ने बताया था.. उसको 10:00 बजते ही नींद आने लगी थी," बस भैया.. मैं कल सारा याद कर लूँगी.. अब नींद आने लगी है...."
"तेरा तो रोज का यही ड्रम्मा है... अभी तो 10:30 भी नही हुए..." तरुण ने बड़े प्यार से कहा और उसके गाल पकड़ कर खींच लिए... मैं अंदर तक जल भुन गयी.. मेरे साथ क्यूँ नही किया ऐसा.. जबकि मैं तो अपना सब कुच्छ 'खिंचवाने' को तैयार बैठी थी... खैर.. मैं सब्र का घूँट पीकर रह गयी.....
"मैं क्या करूँ भैया? मुझे नींद आ ही जाती है.. आप थोड़ा पहले आ जाया करो ना!" पिंकी ने हंसते हुए कहा.. ताज्जुब की बात थी उसको मर्द के हाथ अपने गालों पर लगने से ज़रा सा भी फ़र्क़ नही पड़ा.. उसकी जगह मैं होती तो... काश! मैं उसकी जगह होती....
"ठीक है.. कल अच्छे से तैयार होकर आना.. मैं टेस्ट लूँगा.." कहते हुए उसने मेरी तरफ देखा," तुम क्यूँ मुँह फुलाए बैठी हो.. तुम्हे भी नींद आ रही है क्या?"
मैने उसकी आँखों में आँखें डाली और कुच्छ देर सोचने के बाद उत्तर दिया.. इशारे से अपना सिर 'ना' में हिलाकर... मुझे नींद भला कैसे आती.. जब इतना स्मार्ट लड़का मेरे सामने बैठा हो....
"तुम्हे पहले छ्चोड़ कर आउ या बाद में साथ चलोगि..." वह इस तरह बात कर रहा था जैसे पिच्छली बातों को भूल ही गया हो.. किस तरह मुझे तड़पति हुई छ्चोड़ कर चला आया था घर से... पर फिर भी मुझे उसका मुझसे उस घटना के बाद 'डाइरेक्ट' बात करना बहुत अच्च्छा लगा....
"आ.. आपकी मर्ज़ी है...!" मैने एक बार फिर उसकी आँखों में आँखें डाली....
"ठीक है.. चलो तुम्हे छ्चोड़ आता हूँ... पहले.." वह कहकर उठने लगा था की तभी चाची नीचे आ गयी," अरे.. रूको! मैं तो चाय बनाकर लाई थी की नींद खुल जाएगी.. पिंकी तो खर्राटे ले रही है..."
चाची ने हम तीनो को चाय पकड़ा दी और वहीं बैठ गयी..," अंजू! अगर यहीं सोना हो तो यहाँ सो जाओ! सुबह उठकर चली जाना... अब रात में कहाँ जाओगी.. इतनी दूर..."
"मैं छ्चोड़ आउन्गा चाची.. कोई बात नही..." तरुण चाय की चुस्की लेता हुआ बोला....
"चलो ठीक है.. तुम अगर घर ना जाओ तो याद करके अंदर से कुण्डी लगा लेना.. मैं तो जा रही हूँ सोने... उस दिन कुत्ते घुस गये थे अंदर..." चाची ने ये बात तरुण को कही थी.. मेरे अचरज का ठिकाना ना रहा.. कितना घुल मिल गया था तरुण उन्न सबसे.. अपनी जवान बेटी को उसके पास छ्चोड़ कर सोने जा रही हैं चाची जी... और उपर से ये भी छ्छूट की अगर सोना चाहे तो यहीं सो सकता है... मैं सच में हैरान थी... मुझे डाल में कुच्छ ना कुच्छ तो होने का शक पक्का हो रहा था... पर मैं कुच्छ बोली नही....
"आए पिंकी.. चल उपर...!" चाची ने पिंकी के दोनो हाथ पकड़ कर उसको बैठा दिया... पिंकी इशारा मिलते ही उसके पिछे पिछे हो ली.. जैसे उसकी आदत हो चुकी हो....
"चलो!" तरुण ने चाय का कप ट्रे में रखा और खड़ा हो गया... मैं उसके पिछे पिछे चल दी....
रास्ते भर हम कुच्छ नही बोले.. पर मेरे मन में एक ही बात चक्कर काट रही थी..," अब मीनू और तरुण अकेले रहेंगे... और जो कुच्छ चाहेंगे.. वही करेंगे....
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अगले दिन मैने बातों ही बातों में पिंकी से पूचछा था," मीनू कहाँ सोती है?"
"पता नही.. पर शायद वो भी उपर ही आ जाती हैं बाद में.. वो तो हमेशा मुझसे पहले उठ जाती हैं... क्यूँ?" पिंकी ने बिना किसी लाग लपेट के जवाब दे दिया...
"नही, बस ऐसे ही.. और तुम?" मैने उसकी बात को टाल कर फिर पूचछा....
"मैं.. मैं तो कहीं भी सो जाती हूँ.. उपर भी.. नीचे भी... तुम चाहो तो तुम भी यहीं सो जाया करो.. फिर तो मैं भी रोज नीचे ही सो जाउन्गि.. देखो ना कितना बड़ा कमरा है..." पिंकी ने दिल से कहा....
"पर.. तरुण भी तो यहाँ सो जाता है ना.. एक आध बार!" मेरी छानबीन जारी थी...
"हां.. तो क्या हुआ? यहाँ कितनी चारपाई हैं.. 6!" पिंकी ने गिन कर बताया...
"नही.. मेरा मतलब.. लड़के के साथ सोने में शर्म नही आएगी क्या?" मैने उसका मॅन टटोलने की कोशिश की....
"धात! कैसी बातें कर रही हो.. 'वो' भैया हैं.. और मम्मी पापा दोनो कहते हैं कि वो बहुत अच्छे हैं.. और हैं भी..मैं भी कहती हूँ!" पिंकी ने सीना तान कर गर्व से कहा....
मेरी समझ में कुच्छ नही आ रहा था.. मैं खड़ी खड़ी अपना सिर खुजाने लगी थी.. तभी मीनू नीचे आ गयी और मैने उसको चुप रहने का इशारा कर दिया....
क्रमशः ..................
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