RE: Desi Sex Kahani बाली उमर की प्यास
बाली उमर की प्यास पार्ट--5
गतांक से आगे.......................
पिंकी के घर जाकर पढ़ते हुए मुझे हफ़्ता भर हो गया था.. तरुण भी तब तक मेरी उस हरकत को पूरी तरह भूल कर मेरे साथ हँसी मज़ाक करने लगा था.. पर मैं इतना खुलकर उस'से कभी बोल नही पाई.. वजह ये थी कि मेरे मन में चोर था.. मैं तो उसका चेहरा देखते ही गरम हो जाती थी और घर वापस आकर जब तक नींद के आगोश में नही समा जाती; गरम ही रहती थी...
मंन ही मंन मीनू और उसके बीच 'कुच्छ' होने के शक का कीड़ा भी मुझे परेशान रखता था..मीनू उस'से इतनी बात नही करती थी.. पर दोनो की नज़रें मिलते ही उनके चेहरों पर उभर आने वाली कामुक सी मुस्कान मेरे शक को और हवा दे जाती थी.. शकल सूरत और 'पुत्थे चूचियो' के मामले में मैं मीनू से 20 ही थी.. फिर भी जाने क्यूँ मेरी तरफ देखते हुए उसकी मुस्कान में कभी वो रसीलापन नज़र नही आया जो उन्न दोनो की नज़रें मिलने पर अपने आप ही मुझे अलग से दिख जाता था...
सच कहूँ तो पढ़ने के अलावा वो मुझमें कोई इंटेरेस्ट लेता ही नही था.... मैने यूँही एक दिन कह दिया था," रहने दो.. अब मुझे दर नही लगता.. रोज जाती हूँ ना..." उस के बाद तो उसने मुझे वापस घर तक छ्चोड़ना ही छ्चोड़ दिया...
ऐसे ही तीन चार दिन और बीत गये..
मेरा घर पिंकी के घर से करीब आधा किलोमेटेर दूर था.. लगभग हर नुक्कड़ पर स्ट्रीट लाइट लगी थी.. इसीलिए सारे रास्ते रोशनी रहती थी.. सिर्फ़ एक लगभग 20 मीटर रास्ते को छ्चोड़ कर... वहाँ गाँव की पुरानी चौपाल थी और चौपाल के आँगन में एक बड़ा सा नीम का पेड़ था (अब भी है). स्ट्रीट लाइट वहाँ भी लगी थी.. पर चौपाल से ज़रा हटकर.. उस पेड़ की वजह से गली के उस हिस्से में घुप अंधेरा रहता था...
वहाँ से गुज़रते हुए मेरे कदमों की गति और दिल की धड़कन अपने आप ही थोड़ी बढ़ जाती थी.. रात का समय और अकेली होने के कारण अनहोनी का डर किसके मॅन में नही पैदा होगा... पर 3-4 दिन तक लगातार अकेली आने के कारण मेरा वो डर भी जाता रहा...
अचानक एक दिन ऐसा हो गया जिसका मुझे कभी डर था ही नही... पर जब तक 'उसकी' मंशा नही पता चली थी; मैं डारी रही.. और पसीना पसीना हो गयी....
हुआ यूँ की उस दिन जैसे ही मैने अपने कदम 'उस' अंधेरे टुकड़े में रखे.. मुझे अपने पिछे किसी के तेज़ी से आ रहे होने का अहसास हुआ... मैं चौंक कर पलट'ने ही वाली थी की एक हाथ मजबूती से मेरे जबड़े पर आकर जम गया.. मैं डर के मारे चीखी.. पर चीख मेरे गले में ही घुट कर रह गयी... अगले ही पल उसने अपने हाथ का घेरा मेरी कमर के इर्द गिर्द बनाया और मुझे उपर उठा लिया....
मैं स्वाभाविक तौर पर डर के मारे काँपने लगी थी.. पर चिल्लाने या अपने आपको छुड़ाने की मेरी हर कोशिश नाकाम रही और 'वो' मुझे ज़बरदस्ती चौपाल के एक बिना दरवाजे वाले कमरे में ले गया...
वहाँ एक दम घुपप अंधेरा था... मेरी आँखें डर के मारे बाहर निकालने को थी.. पर फिर भी कुच्छ भी देखना वहाँ नामुमकिन था.. जी भर कर अपने आपको छुड़ाने की मशक्कत करने के बाद मेरा बदन ढीला पड़ गया.. मैं थर-थर काँप रही थी....
अजीबोगरीब हादसे से भौचक्क मेरा दिमाग़ जैसे ही कुच्छ शांत हुआ.. मुझे तब जाकर पता चला की माम'ला तो कुच्छ और ही है.. 'वो' मेरे पिछे खड़ा मुझे एक हाथ से सख्ती से थामे और दूसरे हाथ से मेरे मुँह को दबाए मेरी गर्दन को चाटने में तल्लीन था...
उसके मुझे यहाँ घसीट कर लाने का मकसद समझ में आते ही मेरे दिमाग़ का सारा बोझ गायब हो गया... मेरे बदन में अचानक गुदगुदी सी होने लगी और मैं आनंद से सिहर उठी...
मैं उसको बताना चाहती थी कि जाने कब से मैं इस पल के लिए तड़प रही हूँ.. मैं पलट कर उस'से लिपट जाना चाहती थी... अपने कपड़े उतार कर फैंक देना चाहती थी... पर वो छ्चोड़ता तभी ना....!
मेरी तरफ से विरोध ख़तम होने पर उसने मेरी कमर पर अपनी पकड़ थोड़ी ढीली कर दी.... पर मुँह पर उसका हाथ उतनी ही मजबूती से जमा हुआ था... अचानक उसका हाथ धीरे धीरे नीचे सरकता हुआ मेरी सलवार में घुस गया.. और कछि के उपर से मेरी योनि की फांकों को ढूँढ कर उन्हे थपथपाने लगा... इतना मज़ा आ रहा था कि मैं पागल सी हो गयी.. होंटो से मैं अपने मनोभाव प्रकट कर नही पा रही थी.. पर अचानक ही जैसे मैं किसी दूसरे ही लोक में पहुँच गयी.. मेरी आँखें अधखुली सी हो गयी... कसमसकर मैने अपनी टाँगें चौड़ी करके जांघों के बीच 'और' जगह बना ली... ताकि उसके हाथो को मेरी 'योनि-सेवा' करने में किसी तरह की कोई दिक्कत ना हो... और जैसे ही उस'ने मेरी कछी के अंदर हाथ डाल अपनी उंगली से मेरी योनि का छेद ढूँढने की कोशिश की.. मैं तो पागल ही हो गयी... मेरी सिसकी मेरे गले से बाहर ना आ सकी.. पर उसको अपने भावों से अवगत करने के लिए मैने अपना हाथ भी उसके हाथ के साथ साथ अपनी सलवार में घुसा दिया........
मेरे हाथ के नीचे दबे उसके हाथ की एक उंगली कुच्छ देर तक मेरी योनि की दरार में उपर नीचे होती रही.. अपने हाथ और पराए हाथ में ज़मीन आसमान का अंतर होने का मुझे आज पहली बार पता चला.. आनंद तो अपने हाथ से भी काफ़ी आता था.. पर 'उस' के हाथ की तो बात ही अलग थी..
मेरी चिकनी योनि की फांकों के बीच थिरकति हुई उसकी उंगली जैसे ही योनि के दाने को छ्छूती.. मेरा बदन झंझणा उठता.. और जैसे ही चिकनाहट से लबालब योनि के छेद पर आकर उसकी उंगली ठहरती.. मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती.. मेरा दिमाग़ सुन्न हो जाता और मेरी सिसकी गले में ही घुट कर रह जाती....
मुझे यकीन हो चला था कि आज इस कुंवारे छेद का कल्याण हो कर रहेगा.. मेरी समझ में नही आ रहा था कि वो आख़िर इतनी देर लगा क्यूँ रहा है.. मेरी बेसब्री बढ़ती जा रही थी.. अपनी जांघों को मैं पहले से दुगना खोल चुकी थी और मेरे लिए खड़ा रहना अब मुस्किल हो रहा था...
अचानक उसने अपना हाथ बाहर निकाल लिया... मेरा दिल बल्लियों पर आकर अटक गया.. अब मैं उसके आगे बढ़ने की उम्मीद कर रही थी... और ऐसा हुआ भी... अगले ही पल उसने मेरी सलवार का नाडा खोला और मेरी सलवार नीचे सरका दी.. मेरी नंगी जांघों के ठंड से ठिठुर रहे होने का मुक़ाबला मेरे अंदर से उठ रही भीसन काम~लपटों से हो रहा था.. इसीलिए मुझे ठंड ना के बराबर ही लग रही थी...
अचानक उसने मेरी कछी भी नीचे सरका दी... और इसके साथ ही मेरे चिकने नितंब भी अनावृत हो गये.. उसने एक अपना हाथ नितंबों के एक 'पाट' पर रखा और उसको धीरे धीरे दबाने लगा.. मुझे यकीन था कि अगर वहाँ प्रकाश होता तो मेरे नितंबों की गोलाई, कसावट और उठान देखकर वो पागला जाता.. शायद अंधेरे की वजह से ही वो अब तक संयम से काम ले पा रहा था..
मुझे वहाँ भी मज़ा आ रहा था पर आगे योनि की तड़प मुझे सहन नही हो रही थी.. मैं 'काम' जारी रखने के इरादे से अपना हाथ नीचे ले गयी और 'योनि' फांकों पर हाथ रख कर धीरे धीरे उन्हे मसल्ने लगी..
मेरे ऐसा करने से शायद उसको मेरे उत्तेजित होने का अहसास हो गया... मेरे नितंबो से कुच्छ देर और खेलने के बाद वो रुक गया और एक दो बार मेरे मुँह से हाथ ढीला करके देखा... मेरे मुँह से लंबी लंबी साँसे और सिसकियाँ निकलते देख वो पूरी तरह आश्वस्त हो गया और उसने अपना हाथ मेरे मुँह से हटा लिया....
कामंध होने के बावजूद, उसको जान'ने की जिग्यासा भी मेरे मंन में थी.. मैने अपनी योनि को सहलाना छ्चोड़ धीरे से उस'से कहा,"मुझे बहुत मज़ा आ रहा है.. पर कौन हो तुम?"
जवाब देना तो दूर, उसने तो मेरे मुँह को ही फिर दबा लिया.. मैने हल्क प्रतिरोध भरो गून-गून की तो उसने हाथ हटाकर मेरी बात फिर सुन ली," ठीक है.. मैं कुच्छ नही पूछ्ति.. पर जल्दी करो ना.. मुझे बहुत मज़ा आ रहा है..." मुझे तो आम खाने से मतलब था.. जो कोई भी था.. मेरे जीवन का प्रथम नारी अहसास मुझे करा ही रहा था.. बहुत सुखद तरीके से....
मेरे ऐसा कहने पर शायद वह बे-फिकर हो गया और मेरी कमीज़ के नीचे से कुल्हों को पकड़ कर नीचे बैठ गया... उसकी गरम गरम साँसे अब मेरी जांघों के बीच से जाकर मेरी योनि की फांकों को फड़फड़ने को विवश कर रही थी....
कुच्छ देर बाद उसने अपना एक हाथ मेरे कुल्हों से निकल कर मेरी पीठ को आगे की और दबाया... मैं उसका इशारा समझ गयी और खड़ी खड़ी आगे झुक कर अपनी कोहनियाँ सामने छ्होटी सी दीवार पर टीका ली.. ऐसा करने के बाद मेरे नितंब पिछे की और निकल गये..
उसने अपना मुँह मेरे नितंबों के बीच घुसा दिया और मेरी योनि को अपने होंटो से चूमा.. मैं कसमसा उठी.. इतना आनंद आया कि मैं बयान नही कर सकती.. मैने अपनी जांघों को और खोल कर मेरे उस अंजान आशिक की राहें आसान कर दी..
कुच्छ देर और चूमने के बाद उसने मेरी पूरी योनि को अपने मुँह में दबोच लिया.. आनंद के मारे में छॅट्पाटा उठी.. पर वह शायद अभी मुझे और तड़पाने के मूड में था....
वह जीभ निकाल कर योनि की फांकों और उनके बीच की पतली सी दरार को चाट चाट कर मुझे पागल करता जा रहा था.. मेरी सिसकियाँ चौपाल के लंबे कमरे के कारण प्रतिधवनीत होकर मुझ तक ही वापस आ रही थी.. उसकी तेज हो रही साँसों की आवाज़ भी मुझे सुनाई दे रही थी.. पर बहुत धीरे धीरे....
आख़िरकार तड़प सहन करने की हद पार होने पर मैने एक बार और उस'से सिसकते हुए निवेदन किया......," अब तो कर दो ना! कर दो ना प्लीज़!"
मुझे नही पता उसने मेरी बात पर गौर किया या नही.. पर उसकी जीभ का स्थान फिर से उसकी उंगली ने ले लिया... दाँतों से रह रह कर वो मेरे नितंबो को हुल्के हुल्के काट रहा था....
जो कोई भी था... पर मुझे ऐसा मज़ा दे रहा था जिसकी मैने कल्पना भी कभी नही की थी.. मैं उसकी दीवानी होती जा रही थी, और उसका नाम जान'ने को बेकरार....
अचानक में उच्छल पड़ी.. मेरी योनि के छेद में झटके के साथ उसकी आधी उंगली घुस गयी... पर मुझे अचानक मिले इस दर्द के मुक़ाबले मिला आनंद अतुलनीय था.. कुच्छ देर अंदर हुलचल मचाने के बाद जब उसकी उंगली बाहर आई तो मेरी योनि से रस टपक टपक कर मेरी जांघों पर फैल रहा था.... पर मेरी भूख शांत नही हुई....
अचानक उसने मुझे छ्चोड़ दिया.. मैने खड़ी होकर उसकी तरफ मुँह कर लिया.. पर अब भी सामने किसी के खड़े होने के अहसास के अलावा कुच्छ दिखाई नही पड़ रहा था....
अपनी कमर के पास उसके हाथों की हुलचल से मुझे लगा वा अपनी पॅंट उतार रहा है... पर मैं इतनी बेकरार हो चुकी थी कि पॅंट उतारने का इंतजार नही कर सकती थी.. मैने जिंदगी में तीन-चार लिंग देखे थे... मैं जल्द से जल्द उसके लिंग को छ्छू कर देख लेना चाहती थी और जान लेना चाहती थी कि उसका साइज़ मेरी छ्होटी सी कुँवारी मच्चळी के लिए उपयुक्त है या नही.... मैं अपना हाथ अंदाज़े से उसकी जांघों के बीच ले गयी...
अंदाज़ा मेरा सही था.. मेरा हाथ ठीक उसकी जांघों के बीच था... पर ये क्या? उसका लिंग तो मुझे मिला ही नही....
मेरी आँखें आसचर्या में सिकुड गयी... अचानक मेरे दिमाग़ में एक दूसरा सवाल कौंधा..," कहीं....?"
और मैने सीधा उसकी चूचियो पर हाथ मारा... मेरा सारा जोश एक दम ठंडा पड़ गया," छ्हि.. तुम तो लड़की हो!"
वह शायद अपनी पॅंट को खोल नही बुल्की, अपनी सलवार को बाँध रही थी.. और काम पूरा होते ही वह मेरे सवाल का जवाब दिए बिना वहाँ से गायब हो गयी....
मेरा मॅन ग्लानि से भर गया.. मुझे पता नही था कि लड़की लड़की के बीच भी ये खेल होता है.... सारा मज़ा किरकिरा हो गया और आख़िरकार आज मेरी योनि का श्री गणेश होने की उम्मीद भी धूमिल पड़ गयी.. और मेरी लिसलीसी जांघें घर की और जाते हुए मुझे भारी भारी सी लग रही थी....
घर आकर लेट ते हुए मैं ये सोच सोच कर परेशान थी कि मैं उसको पहले क्यूँ नही पहचान पाई.. आख़िर जब उसने मुझे पकड़ कर उपर उठाया और मुझे चुपाल में ले गयी.. तब तो उसकी चूचिया मेरी कमर से चिपकी ही होंगी... पर शायद डर के चलते उस वक़्त दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया होगा....
अगले दिन मैने सुबह बाथरूम में अपनी अधूरी प्यास अपनी उंगली से बुझाने की कोशिश की.. पर मैं ये महसूस करके हैरान थी कि अब मेरे हाथ से मुझे उतना मज़ा भी नही आ रहा था जितना आ जाता था... मेरा दिमाग़ खराब हो गया.. अब मेरी योनि को उसके 'यार' की जल्द से जल्द ज़रूरत थी.. पर सबसे बड़ा सवाल जिसने मुझे पूरे दिन परेशान रखा; वो ये था कि आख़िर वो थी कौन?
शाम को टूवुशन के लिए जाते हुए जैसे ही मैं चौपाल के पास से गुज़री, मेरे पूरे बदन में पिच्छली रात की बात याद करके झुरजुरी सी उठ गयी. बेशक वो लड़की थी, पर मैने पता चलने से पहले आनंद सागर में जिस तरह डुबकियाँ सी लगाई थी.., उन्हे याद करके मेरा जिस्म एकद्ूम अकड़ गया.....
उस दिन मैं टूवुशन पर तरुण से भी ज़्यादा उस लड़की के बारे में सोचती रही.. रोज़ की तरह ही चाची 10 बजे चाय लेकर आ गयी.. उनके आते ही पिंकी तरुण के सामने से उठकर भाग गयी," बस! मम्मी आ गयी! इसका मतलब सोने का टाइम हो गया... है ना मम्मी?"
चाची उसकी बात सुनकर हँसने लगी,"निकम्मी! तू पूरी कामचोर होती जा रही है.. देख लेना अगर नंबर. कम आए तो..!"
"हां हां... ठीक है.. देख लेना! अब मैं थोड़ी देर रज़ाई में गरम हो लूँ.. जाते हुए मुझे ले चलना मम्मी!" पिंकी ने शरारत से कहा और रज़ाई में दुबक गयी...
"ये दोनो पढ़ाई तो ठीक कर रही हैं ना; तरुण?" चाची ने पूचछा....
"हां; ठीक ठाक ही करती हैं चाची..." तरुण ने कहकर तिरछि नज़रों से मीनू को देखा और हँसने लगा....
"हमें मीनू की चिंता नही है बेटा! ये तो हमारी होनहार बेटी है.." चाची ने प्यार से मीनू के गाल को पकड़ कर खींचा तो वो भी तरुण की तरफ ही देख कर मुस्कुराइ...," हमें तो छ्होटी की चिंता है.. जब तुम पढ़ाते हो.. तभी किताबें खोलती है.. वरना तो ये एक अक्षर तक नही देखती...!"
"अच्च्छा! मैं चलती हूँ चाची!" मैने कहा और कप को ट्रे में रख कर उठ खड़ी हुई..
"ठीक है अंजू बेटी! ज़रा संभाल कर जाना!" चाची ने कहा...
मुझे ठीक से याद नही आ रहा कि असली वजह क्या थी.. पर मैं दरवाजे से ही वापस मूड गयी थी उस दिन," वो... एक बार छ्चोड़ आते..!" मैने तरुण की और देखते हुए हुल्के से कहा...
"क्यूँ?....... क्या हो गया? रोज़ तो अकेली चली जाती थी.." तरुण ने पूचछा....
"पता नही क्यूँ? आज डर सा लग रहा है..." मैने जवाब दिया....
"अरे यहीं सो जाओ ना बेटी... वैसे भी ठंड में अब कहाँ बाहर निकलॉगी.. मैं फोन कर देती हूँ.. तुम्हारी मम्मी के पास..." चाची ने प्यार से कहा....
"नही चाची.. कोई बात नही; मैं छ्चोड़ आता हूँ..." कहकर तरुण तुरंत खड़ा हो गया....
जाने क्यूँ? पर मैं तरुण की बात को अनसुना सा करते हुए वापस चारपाई पर आकर बैठ गयी," ठीक है चाची.. पर आप याद करके फोन कर देना.. नही तो पापा यहीं आ धँकेंगे.. आपको तो पता ही है..."
"अर्रे बेटी.. अपने घर कोई अलग अलग थोड़े ही हैं.. अगर ऐसी कोई बात होती तो वो तुम्हे यहाँ टूवुशन पर भी नही भेजते.. मैं अभी उपर जाते ही फोन कर देती हूँ.... तुम आराम से सो जाओ.. पिंकी और मीनू भी यहीं सो जाएँगी फिर तो... तुम बेटा तरुण...." चाची रुक कर तरुण की और देखने लगी....
"अरे नही नही चाची.. मैं तो रोज चला ही जाता हूँ.. उस दिन तो.. मुझे बुखार सा लग रहा था.. इसीलिए..." तरुण ने अपना सा मुँह लेकर कहा....
"मैं वो थोड़े ही कह रही हूँ बेटा.. तुम तो हमारे बेटे जैसे ही हो.. मैं तो बस इसीलिए पूच्छ रही हूँ कि अगर तुम्हे ना जाना हो तो एक रज़ाई और लाकर दे देती हूँ..." चाची ने सफाई सी दी.....
"नही.. मुझे तो जाना ही है चाची... बस.. मीनू को एक 'सॉनेट' का ट्रॅन्स्लेशन करवाना है....
"ठीक है बेटा.. मैं तो चलती हूँ... " चाची ने कहा और फिर मीनू की और रुख़ किया," दरवाजा ठीक से बंद कर लेना बेटी, अपने भैया के जाते ही..!"
मीनू ने हां में सिर हिलाया.. पर मैने गौर किया.. मेरे यहाँ रुकने की कहने के बाद दोनो के चेहरों का गुलाबी रंग उतर गया था.....
क्रमशः ..................
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