RE: Desi Sex Kahani बाली उमर की प्यास
"हुम्म.. कमीज़ उपर उठाओ.. जितना मैने उठाया था..." चाचा ने अभी मेरी सलवार को नही छ्चोड़ा था....
मुझे वैसा ही करना पड़ा... मेरी दानो की कसक एक बार फिर नंगेपन को 'नज़दीक' पाकर बढ़ गयी थी.. और 'वो' फिर से सिर उठाकर खड़े हो गये थे... मेरी छातियो से नीचे और नाभि से उपर का चिकना सपाट और गोरा बदन देख कर चाचा पूरी तरह मस्त हो चले थे और उनके दूसरे हाथ की हरकतें उनकी जांघों के बीच बढ़ गयी थी... जैसे ही उन्होने अपना हाथ वहाँ से हटाया.. 'उनके' पाजामे में तना हुआ तंबू मुझे सॉफ दिखाई देने लगा....
शर्म की हद तक शरमाने के बावजूद मुझे मज़ा भी आ रहा था और डर भी लग रहा था... अचानक 'वो' अपने हाथ को मेरे पेट पर ले आए और प्यार से 'उसको सहलाने लगे..,"मैं जगह जगह दबा कर देखूँगा.. ये बताना कि दर्द कहाँ हो रहा है.. और कहाँ नही....!"
मैने कसमसा कर अपनी जांघों को भींच लिया और सहमति में अपना सिर हिलाया.. जैसे जैसे उनका हाथ उपर जाता गया.. मेरे दिल की धड़कन बढ़ती चली गयी और चूचियो में अकड़न सी आनी शुरू हो गयी...,"अया..." मेरे मुँह से निकल ही गया...
"यहाँ दर्द है क्या?" जब मेरी सिसकी निकली तो उनका हाथ कमीज़ के अंदर घुस कर मेरी चूचियो को छ्छू गया था.. भला तब भी मैं अपनी सिसकी निकालने से कैसे रोक पाती...
उन्होने अपना हाथ वापस नही खींचा बुल्की वहीं अपनी उंगलियों को दायें बायें करके मेरी मखमली चूचियो को थिरकने से लगे.. मेरी आँखें बंद हो गयी थी और साँसें 'आहें' बनकर निकल रही थी.. उन्होने एक बार फिर पूचछा,"यहाँ दर्द है क्या अंजू बेटी...!"
"आ.. नही.. चा...चा.. नी.. छे!" मैं पूरी तरह पिघल चुकी थी....
"कितनी नीचे बेटी?" उन्होने अपना हाथ एक तरफ खिसका कर मेरी बाईं चूची को दबाना शुरू कर दिया था.....
"नीचे चाचा.. यहाँ नही...!" मैने अपना हाथ उपर उठा कर कमीज़ के उपर से ही अपनी छाती को अपने कब्ज़े में ले लिया.. नही तो तब तक पूरी छाती को उनका हाथ लपेट चुका होता....
"ठीक है.. नीचे देखते हैं..."कहकर उन्होने अपनी उंगलियाँ कमीज़ से बाहर निकाली और एक बार फिर से 'पतीले में हाथ डूबा कर देखा...,"हां.. अब ठीक हो गया है.. तेरे पेट की थोड़ी सिकाई (वॉरमिंग) कर देता हूँ...." कहकर उन्होने दूसरे हाथ से मेरी कमर में पकड़े हुए नाडे को छ्चोड़ दिया.. और तुरंत ही मेरी सलवार ढीली होकर नीचे खिसक गयी.. भला हो मेरे पहाड़ जैसे ऊँचे उठे हुए नितंबों का.. जिन्होने सलवार को घुटनो तक आने से रोक लिया.... पर इसके बावजूद आगे से मेरी योनि का पेडू लगभग आधा दिखने लगा था.. मेरी योनि का 'चीरा' मुश्किल से एक इंच नीचे ही रह गया होगा...
मैं गन्गना उठी.. पर कुच्छ कर ना सकी.. चाचा एक हाथ से मेरे दोनो हाथ पकड़े हुए थे और ललचाई आँखों से 'पेडू' को निहार रहे थे........
"नही चाचा..." उनकी नीयत भाँप कर मैं काँप उठी...
"ओह्हो.. फिर वही बात..." चाचा ने आगे कुच्छ नही कहा और अपना दूसरा हाथ गरम पानी में डुबो कर मेरी 'योनि' के पास रख दिया.... मुझे अजीब सी गुदगुदी उठी और मैं सिहर गयी.. एक दो बार और ऐसा करते ही पानी की बूँदें छ्होटी छ्होटी धाराओं का रूप धारण कर मेरी सलवार में घुसने लगी और हल्का गरम पानी टॅप टॅप करके मेरी योनि दरार में से रिसने लगा... मेरा बुरा हाल हो गया... अब मुझे यक़ीनन तौर पर दूसरे इलाज की ज़रूरत महसूस होने लगी थी...,"अया... चच्च्चाआअह्ह्ह!"
"आराम मिल रहा है ना...!" चाचा की लपलपाति जीभ और नज़रें अब सीधी मेरी आधी दिखाई देने लगी मेरी योनि की करारी फांकों पर थी.... मुझे अहसास तक नही हुआ कि कब उन्होने अपना दूसरा हाथ वापस पिछे ले जाकर मेरी सलवार को नितंबों से नीचे सरकाना शुरू कर दिया है.. और अब उनकी उंगलिया मेरे नितंबों की दरार में कुच्छ टटोल रही हैं...
और जब अहसास हुआ.. 'और' अहसास लेने की तमन्ना परवान चढ़ चुकी थी... अब मैं अपनी आँखें बंद किए हुए लगातार बिना हिचके सिसकियाँ ले रही थी.. और उन्होने भी अब सिकाई छ्चोड़ कर पिच्छले हाथ की उंगली से मेरे गुदा द्वार को और आगे वाले हाथ की उंगली से मेरे 'मदनमानी (क्लाइटॉरिस) को कुरेदना शुरू कर दिया था.....
मैने सिसकियों की हुंकार सी भरते हुए अपनी एडियो को उपर उठा लिया...
"मज़ा आ रहा है ना अंजू..! आराम मिल रहा है ना...?" चाचा ने उंगली का दबाव मेरी गुदद्वार पर बढ़ाते हुए पूचछा....
"आआहाआँ.. पूरा... मज़ा आआ.. रहा है चाचा... कुच्छ और करिए ना..!" मैने लरजते हुए लबों से कहा...
"वो वाला करूँ.. क्या?" मेरे पागलपन का अहसास होते ही चाचा ने तपाक से मेरी सलवार नितंबों से नीचे खींची और कुर्सी से नीचे बैठ कर मेरे नितंबों को कसकर अपने हाथों में दबोचे मेरी योनि को होंटो में भींच लिया...
"अया.. चाचा... मैं तो मर गयी..." सिसकते हुए मैं उनकी जीभ को अपनी योनि की फांकों में महसूस करने लगी...
"बता ना... 'वोही' इलाज करूँ क्या तेरा भी......! जो तेरी मम्मी का किया था.. तू तो 'पूरा लेने लायक हो गयी है...साली!" चाचा ने जैसे ही बोलने के लिए अपने होन्ट मेरी योनि से दूर किए.. मुझे ऐसा लगा मानो मेरी मछ्लि किसी ने जल से बाहर निकाल कर फैंक दी... मैने तुरंत चाचा के सिर को पकड़ा और वापस उनके होन्ट 'वहीं; चिपका दिए...
पर शायद चाचा को उतनी जल्दी नही थी जितनी मुझे... 'वो' मुझे तड़पति छ्चोड़ कर अलग हट गये..," तू देखती जा मैं तुझे कितने मज़े देता हूँ... आज तेरी चूत का उद्घाटन करूँगा अंजू.. बड़े प्यार से.. देखना कितने मज़े आएँगे.. तेरी मम्मी भी पूरे मज़े से चुदवा रही थी ना....?"
"जल्दी करो ना चाचा.. बीच में क्यूँ छ्चोड़ दिया..." मैं तड़प कर बोली....
"हाँ हाँ.. अभी करता हूँ ना सब कुच्छ...! जा एक बार सलवार पहन कर तेरी चाची को देख कर आ 'वो' क्या कर रही है...? फिर देता हूँ तुझे सारे मज़े...!" चाचा ने अपना लिंग निकाल कर मुझे दिखाया..," याद है ना तुझे सब कुच्छ... इस'से तेरी मम्मी ने कितने मज़े लिए थे.. याद है कि नही...?"
मैने बिना कोई जवाब दिए फटाफट अपनी सलवार पहनी और बाहर निकल गयी.. पर जैसे ही मैं सीढ़ियों में पहुँची.. मेरा दिल धक से रह गया.. चाची नीचे ही आ रही थी... मंन ही मंन भगवान को मैने कितनी बार याद किया मुझे खुद भी याद नही...
"क्या हुआ अंजू? इतनी देर कैसे लगा दी.. अभी तक तुझे दवाई नही दी उन्होने..." चाची को शायद मेरी उड़ी हुई रंगत देख कर शक हो गया होगा.. तभी वो मुझे लगातार घूरती रही....
"म्म्मे.. मैं तो घर चली गयी थी चाची.. अभी आई हूँ छोटू को बुलाने..." मैने बोलते हुए अपनी हड़बड़ाहट छिपाने की पूरी कोशिश की.. साथ ही नीचे आते हुए ऊँची आवाज़ में बोला ताकि चाचा भी सुन लें....
नीचे आते ही चाची चाचा पर बरस पड़ी..,"यहाँ क्या कर रहे हो जी.. उपर क्यूँ नही आए?"
"वो.. शांति.. वो मैं अख़बार पढ़ रहा था.. थोडा सा!" चाचा ने मेरी बात सुनकर पहले ही अख़बार उठा लिया था....
"देखो जी.. थोड़ा पढ़ो या ज़्यादा.. खम्ख्वह नीचे मत बैठा करो.. उपर आकर पढ़ लो जो भी पढ़ना है....!"
"ओफ्फो.. बच्चों के आगे तो सोच समझ कर बोल लिया करो... चलो.." कहते हुए चाचा अख़बार से अपने पयज़ामे के उभार को ढके हुए चाची के साथ उपर चढ़ने लगे.... मेरी उपर जाने की हिम्मत नही हुई..," छोटू को भेज दो चाची!" मैने नीचे से ही कहा और हाँफती हुई घर भाग आई....
"आअनहाआँ?" किताब खोले बैठी हुई मैं यादों के भंवर में कुच्छ इस तरह खो गयी थी कि जैसे ही पिंकी ने मेरा कंधा हिलाकर मुझे टोका.. मैं हड़बड़ा सी गयी...,"क्क्या है..?"
"नींद आ गयी क्या?" पिंकी ने पूचछा...
"न.नही तो..! पढ़ रही हूँ...!" मैं जैसे सच में ही नींद से जागी थी...
"अच्च्छा? क्या पढ़ रही है बता तो?" पिंकी ने हंसते हुए कहा...
"ये.." बोलना शुरू करते ही जैसे ही मैने नीचे देखा.. मेरी सिट्टी पिटी गुम हो गयी.. मेरी किताब तो वहाँ थी ही नही..,"क्क्या है ये पिंकी? मेरी किताब क्यूँ उठा ली??" मैने बड़बड़ाते हुए अपनी आँखें मली...
"देखा! सो गयी थी ना? तेरी किताब मीनू दीदी ने उठाकर रखी थी.. 5 मिनिट हो गये..!" पिंकी हंसते हुए बोल रही थी...
"दीदी कहाँ हैं?" मैने मीनू की चारपाई को देख कर पूचछा... 'वो' वहाँ नही थी...
"वो उपर गयी हैं.. कुच्छ काम होगा.. जाकर मुँह धो ले.. अब तो बस दो दिन की बात रह गयी.. फिर मज़े ही मज़े.. बहुत दिन की छुट्टिया होंगी..." पिंकी का चेहरा खिल उठा...
"हूंम्म.. तू क्या करेगी छुट्टियो में..?" मैने पूचछा.. यादों का खुमार दिल से उतर चुका था...
"कुच्छ नही.. मैं तो ऐश करूँगी...हे हे" पिंकी हंसते हुए बोली.. और फिर संजीदा हो गयी,"पर मीनू दीदी कह रही हैं कि कंप्यूटर सीख ले... देखूँगी!"
"कहाँ?" मैने पूचछा...
"शहर में.. दीदी अपने साथ ले जाने को बोल रही हैं...!" पिंकी ने चहकते हुए कहा...
सुनकर मैं मायूस हो गयी... मैने उस दिन देखा था.. शहर के लड़कियाँ कैसे अकेली बैठकर लड़कों के साथ गुटार-गू करती रहती हैं... मेरा भी शहर पढ़ने का बड़ा मंन था.. पर 'पापा' के रहते मेरा ये सपना कभी पूरा नही होने वाला था....
"क्या हुआ?" पिंकी ने मेरे चेहरे की मायूसी को पढ़ लिया था..,"दीदी कह रही हैं कि 'वो' तेरे लिए भी पापा से चाचा को कहलवा देंगी...!"
"पापा नही मानेंगे..! मुझे पता है..!" मैने कहा...
"अच्च्छा! क्यूँ नही मानेंगे.. कंप्यूटर तो बहुत काम की चीज़ है.. आज कल तो सबके लिए ज़रूरी हो गया है 'वो!" पिंकी ने मुझे भरोसा सा दिलाया...
"नही... पर..." मैं बोलकर खामोश हो गयी...
"बता ना! क्या बात है..?"
"पापा नही भेजेंगे.. मुझे पता है.. 'जब 'वो' गाँव के स्कूल में नही भेजते तो शहर कैसे भेज देंगे..!" मैने दुखी मंन से बोला...
"पर तुझे 'वो' स्कूल क्यूँ नही भेजते.. क्या बात हो गयी?" पिंकी आकर मेरे कंबल में घुस गयी...
"ववो.. एक दिन क्लास के किसी लड़के ने मेरे बॅग में 'गंदा' सा खत लिख कर डाल दिया था.. 'वो' पापा को मिल गया.. बस तभी से...!" मैने बोल कर अपनी नज़रें झुका ली...
"हाए राम! तूने 'वो' फाड़ कर क्यूँ नही फैंका देखते ही... एक दिन मेरे बाग में भी मुझे लेटर मिला था... मैने तो थोड़ा सा पढ़ते ही टुकड़े टुकड़े करके फैंक दिया था.....!" पिंकी मुझ पर गुस्सा होते हुए बोली...
"मुझे मिलता तभी तो... 'वो' छोटू के हाथ लग गया और उसने पापा को पकड़ा दिया.... उस दिन.." मैं बोल ही रही थी कि तभी मीनू आ गयी और मेरी आवाज़ धीमी होते होते गायब ही हो गयी....
मीनू ने हमारे पास आकर अपने दोनो हाथ कुल्हों पर टीका लिए,"आख़िर तुम्हारे बीच 'ये' चल क्या रहा है..? मेरे जाते ही तुम दोनो पास आकर ख़ुसर फुसर करने लग जाती हो... क्या चक्कर है ये?"
"कुच्छ नही दीदी.. ववो.. अंजू कह रही है कि उसके पापा उसको शहर नही जाने देंगे... यही बात थी.." पिंकी बोलते हुए थोड़ा हड़बड़ा सी गयी...
"वो बाद की बात है.. मैं देख लूँगी.. अभी तुम्हारे 2 पेपर बाकी हैं.. अलग अलग बैठ कर पढ़ाई कर लो.. मैं उपर जा रही हूँ.. 11 बजे आउन्गि.. कोई सी भी सोती मिली तो देख लेना... ठंडा पानी डाल दूँगी आते ही...!" मीनू ने कहा और अपनी किताब उठा कर जाने लगी...
"हम साथ साथ बैठ कर पढ़ रहे हैं दीदी.. एक दूसरे से 'रूप' और 'धातु' सुनकर देख रहे हैं..."पिंकी की ये बात मीनू ने अनसुनी कर दी और उपर चली गयी....
क्रमशः........................
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