RE: Desi Sex Kahani बाली उमर की प्यास
बाली उमर की प्यास पार्ट--29
गतान्क से आगे........................
मैं बार बार दीवार पर टॅंगी घड़ी की ओर देख रही थी.. 8:45 होने को थे.. पर पिंकी मेरा पिच्छा छ्चोड़ने को तैयार ही नही थी.. बार बार एक ही सवाल," और क्या बोला वो?"
"बता तो दिया पिंकी.. इस'से ज़्यादा खुल कर मैं नही बता सकती.. ववो.. मुझे घर जाना है एक बार...!" मैने कहा...
"अब क्या करेगी घर जाकर.. खाना तो तूने खा लिया...!" पिंकी बोली...
"तू समझती क्यूँ नही है.. जाने दे मुझे...!" मैं उसके हाथों से अपना हाथ खींचते हुए बोली...
"नही.. पहले सच्ची सच्ची बताओ.. ! क्या करने जा रही हो.. तुम्हे मेरी कसम..!" पिंकी की आवाज़ में मैने उस दिन से पहले कभी इतनी मिठास नही देखी थी...
"वो...!" मैं अपनी आँखों में जहाँ भर की 'मजबूरी' का अहसास समेटे हुए बोली....," यार.. वो ढोलू का नंबर. आज ही पता करना ज़रूरी है... 'वो' जल्द से जल्द पकड़ा जाना चाहिए.. नही तो मीनू मुसीबत में फँस जाएगी....!"
"पर घर से तुझे ढोलू का नंबर. कैसे... ओहू.. अब समझी.. तुम संदीप के पास..!" पिंकी अचरज से बोली...
"क्या करूँ पिंकी..? मजबूरी है... उसने 9:00 बजे का टाइम दिया है...!" मैने मायूसी भरे लहजे में जवाब दिया...
"पर इतनी रात को...!" पिंकी ने दीवार घड़ी की ओर देख कर मुझे घूरा..,"तुझे डर नही लगेगा..? वो फिर से 'वोही' करने की बोलेगा तो...?"
मैने नज़रें झुका ली.. और अपनी बेमिशल अदाकारी का नमूना पेश किया..," क्या करूँ पिंकी... मीनू को बचाने का कोई और रास्ता भी नही है... मेरी तो बात छिपि भी रह सकती है.. पर 'मीनू' को ब्लॅकमेल करने वाला पकड़ा जाना ज़्यादा ज़रूरी है...!"
जैसे ही पिंकी ने प्यार से मेरे हाथ पर हाथ रखा.. जाने कहाँ से मेरी आँखों में नमी सी आ गयी.. हालाँकि अंदर ही अंदर में जल्द से जल्द चौपाल पहुँचने को उतावली थी...
"तू कितनी अच्छि है अंजू.. मीनू के लिए... मीनू को पता है ये बात..!" पिंकी ने अचानक बात बदल कर पूचछा...
"छ्चोड़ अभी.. जाने दे.. मीनू को ये मत बताना कि मैने तुझे कुच्छ बताया है.. 'वो' मना कर रही थी.. तुझे बताने से.." मैं कह कर बाहर निकलने लगी...
"मतलब मीनू को पता तो है ना...?" पिंकी दरवाजे तक मेरे पिछे पिछे आ गयी... पर मैने उसकी बात का कोई जवाब नही दिया और निकल गयी....
मैं घर से कोई 100 गज ही चली होंगी की पिछे से मुझे किसी ने आहिस्ता से आवाज़ दी...,"आन्जुउउ!"
मेरे कदम जहाँ के तहाँ ठिठक गये.. आवाज़ संदीप की थी.. पल भर रुकने के बाद मैं बिल्कुल धीरे चलने लगी... उसने जल्द ही मुझे पकड़ लिया और साथ साथ चलते हुए बोला...,"वापस चलो अंजू.. मेरे पिछे पिछे..!" उसने कहा और पलट कर वापस चलने लगा... उसने दुशाला ओढ़ रखा था...
आसमन्झस से कुच्छ सोचती हुई मैं पलटी और तेज़ी से उसके पास जाकर बोली..," क्या हुआ? आ जाओ ना!"
"कुच्छ नही.. तुम चलो तो सही.. उस'से भी अच्छि जगह है.. बोलो मत.. मेरे पिछे पिछे चलती रहो...
"चौपाल में चलो ना.. वहाँ खूब अंधेरा रहता है...!" मैं बिना बोले ना रह सकी....
"कहा ना बोलो मत... चुप चाप आ जाओ..." संदीप ने कहा और तेज़ी से चलता हुआ मुझसे आगे निकल गया....
थोड़ी और आगे जाने के बाद संदीप एक संकरी सी अंधेरी गली में घुस गया... वहाँ भी चौपाल की तरह घुपप अंधेरा था.. जैसे ही मैं गली में घुसी.. संदीप ने दुशाला खोल मुझे भी अपने साथ ही उसमें लपेट लिया और बुरी तरह मेरे गालों को चूमने लगा.. एक बारगी तो मैने भी तड़प्ते हुए अपने होंटो से सिसकियाँ निकालनी शुरू कर दी थी.. पर जल्द ही में चिंहूक कर बोली..," ये क्या जगह है.. यहाँ प्यार कैसे करेंगे...?"
"अरे मेरी जान.. मैने पूरा प्रोग्राम सेट कर रखा है... वो तो बस मुझसे रुका नही गया.. आओ...!" मुझे अपनी बगल में दबाए हुए वा आगे चलने लगा....
"पर.. पर आगे तो ये गली बंद है ना...!" मैने अपना हाथ उसकी कमर में डाला और उस'से चिपक कर चलती रही...
"तभी तो..! यहाँ किसी का घर ही नही है.. तो आएगा कौन.. आगे मेरे चाचा का घेर ( कॅटल यार्ड ) है... सर्दियों में खाली रहता है.. वहाँ मज़े से 'मज़े' करेंगे....
उसकी बात से मुझे कुच्छ उम्मीद सी बँधी.. साँकरी सी वो गली सिर्फ़ 4-5 प्लॉट्स के लिए बनाई गयी थी.. मुझे नही पता था कि गली में बना हुआ एकमात्र घेर उसके चाचा का है.... बाकी घरों का सिर्फ़ पिच्छवाड़ा ही उस गली में लगता था... जैसे ही घेर आया संदीप करीब 8 फीट उँची दीवार पर हाथों के सहारे चढ़ गया...
"मैं कैसे आउ? मुझसे नही चढ़ा जाएगा..." मैने निराश होकर उसकी तरफ देखा...
"एक मिनिट बस.." कहकर वो दूसरी तरफ कूदा और अंदर से सरिया वाले दरवाजे की कुण्डी खोल दी..," ये अंदर से ही बंद रहता है.. ताला नही लगता...!"
संदीप के दरवाजा खोलते ही मैं उस'से बुरी तरह से लिपट गयी.. वासना की अग्नि में जल रहे मेरे चारों होन्ट 'कमरस' से लबरेज थे.. उपर वाले भी.. और नीचे वाले भी..... जल्द ही उसके गालों को अपने होंटो से गीला करते हुए मैने उसके होन्ट ढूँढ लिए और उन्हे जैसे 'चबाने' ही लगी....
"एक मिनिट शांति रखो जान..." वह हटकर बोला... ," अंदर तो आओ एक बार....."
मैं पहली बार उस जगह पर गयी थी.. एक बरामदे से होकर हम भैंसॉं 'वाले कमरे में घुस गये.. वही घुसकर मुझे पता चला कि उसके साइड में एक और कमरा है जहाँ लाइट जल रही है... अंदर वाला कमरा बाहर वाले कमरे से काफ़ी 'नीचाई' पर था... वो काफ़ी बड़ा कमरा था जिसे 'भूसा' रखने के लिए बनाया गया था... करीब आधा कमरा खाली था और उसमें एक जगह 'अच्छे' से 'प्राल' बिच्छकर उसे एक पुरानी सी चादर से ढका गया था... मैं देखते ही समझ गयी कि ये 'संदीप' का काम' है... मुझमें अचानक मस्ती सी च्छा गयी और में धदाम से उस 'काम्चलाउ बिस्तेर पर ढेर हो गयी... मैने अपने नीचे वाले होन्ट को दाँतों से दबाकर शरारत से संदीप को देख कर जैसे ही मुस्कुराइ वो पागल सा हो गया......
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