RE: Desi Sex Kahani बाली उमर की प्यास
बाली उमर की प्यास पार्ट--37
गतान्क से आगे..................
"क्या हुआ?" मुझे अचानक बज़ुबान होते देख पिंकी ने चाहक कर पूचछा...
"कुच्छ नही.. तूने चलने की तैयारी कर ली...?" मैने बात बदल दी....
"हाँ.. दीदी ने सारा सामान पॅक कर दिया होगा.. क्यूँ?" पिंकी ने जवाब देकर सवाल किया....
"बस ऐसे ही... कल से तो हम हॉस्टिल में रहेंगे.. 'दिल' तो लग जाएगा ना वहाँ?" मैने यूँही पूचछा
"हाँ.. दिल लगने में क्या दिक्कत है... हम दोनो तो साथ रहेंगे ही..." पिंकी के कहते कहते ही उनका घर आ गया था...
मीनू दरवाजे पर ही इंतजार करती मिली...,"मम्मी पापा आ गये..सुनो! मैने पापा को ये बोला है कि तुम दोनो शिखा के घर गये हो.. समझ गये ना?"
"हाँ ठीक है.. ये लो! पाकड़ो अपने पैसे...!" पिंकी ने मुट्ठी में दबाकर रखे नोट मीनू को पकड़ा दिए...
"क्या हुआ? अब भी नही मिला क्या?" मीनू ने पूचछा...
"मिला था.. उसने लिए ही नही...!" पिंकी चटखारा सा लेकर बोली...
"बेशर्म.. तू देती तो वो लेता कैसे नही... भूखी कहीं की..." मीनू ने कहा और पैसे पकड़ लिए...
"मैं चलती हूँ दीदी... अपना सामान रख लूँ... सुबह जल्दी निकलना है...!" मैने उदास मन से कहा....
"चल ठीक है.. आ..आ.. एक मिनिट.. सुन?" मीनू ने मुझे वापस बुलाया....
"हाँ दीदी..?"
"ववो.. अब वो आदमी फोन तो उठा ही नही रहा.. क्या करें?" मीनू ने पूचछा...
"छ्चोड़ो ना.. जब फोन उठा ही नही रहा तो हमें क्या दिक्कत है.. अपना पीचछा तो छ्छूट गया ना!" मैने कहा....
"नही.. मेरा मतलब... तेरे जाने के बाद उसके फिर फोन आने शुरू हो गये तो मैं क्या करूँगी.. यही सोच रही थी...!" मीनू बोली....
"आप मानव के पास फोन कर देना.. अब मैं क्या बताऊं दीदी..?" मैने हाथ मलते हुए कहा.....
मीनू ने मायूसी में सिर हिलाया...,"चल ठीक है... कुच्छ हुआ तो मैं तुझे बता दूँगी..."
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घर जाकर मैने सीढ़ियाँ चढ़ते हुए जैसे ही एक मर्दाना आवाज़ सुनी.. मेरा दिल दहल गया! आवाज़ सुन्दर की थी.. एक पल को तो मेरे दिमाग़ में वापस भागने का ख़याल आया था.. पर ये सोचकर कि अपने ही घर से कब तक भागूंगी.. मैने वापस नीचे जाकर मम्मी को आवाज़ दी..,"मुमययययययी!" मुझे पापा था पापा घर पर नही होंगे.....
मम्मी ने सीढ़ियों से झँकते हुए मुझे घूरा...,"उपर आ तू, कमिनि!"
मैने डरते डरते 'ना' मैं सिर हिला दिया.. मुझे मम्मी से नही सुन्दर से डर लग रहा था..,"एक बार नीचे आ जाओ!"
"तू आ रही है या मैं नीचे आकर तेरी धुनाई करूँ..?" मम्मी ने और भी गुस्से मैं कहा..
"पर मम्मी...!" मैं बोलती बोलती बीच में ही बंद हो गयी और सहमी हुई धीरे धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगी...
"हराम-जादि ... क्यूँ हमारी नाक कटाती फिर रही है.. घर में भी नही टीका जाता तुझसे..." मम्मी सीढ़ियों में आकर खड़ी हो गयी थी.. जैसे ही मैं उनकी पहुँच में आई.. वो मुझे बालों से पकड़ कर खींचते हुए उपर ले गयी... मम्मी शायद भूल गयी थी कि नाक काटने की 'ये' कला मैने उनसे ही सीखी थी...
पर मैं सुन्दर के कारण चुपचाप खड़ी रही... सुन्दर बाहर ही चारपाई पर बैठा हुआ मुझे घूर रहा था...उसके सिर पर पट्टी बँधी हुई थी..."मैने तो तेरी शर्म कर ली चाची.. वरना अब तक तो मैं इसकी गांद मार लेता साली की...!"
"बता.. क्या चक्कर है तेरा उस 'लुच्चे' संदीप के साथ...,"मम्मी उसकी बातों को अनसुना करते हुए मुझ पर बरस पड़ी... ज़्यादा जवानी चढ़ आई है क्या?.......... बोल.. बोलती क्यूँ नही... आने दे तेरे पापा को.. आज तेरी खैर नही...!" मम्मी अनाप शनाप बके जा रही थी...
मेरे कानो पर जू तक ना रैंग्ती अगर सुन्दर वहाँ नही होता... सिर्फ़ सुन्दर के कारण ही मैं चुप थी... मैं सिर झुकाए खड़ी रही...
"देख लो चाची.. कितनी भोली बनकर खड़ी है अब... जैसे इसको तो कुच्छ पता ही ना हो इन बातों का... वहाँ तो 'रंडियों' की तरह संदीप के साथ... मैं तो कहता हूँ मेरी मान ही लो चाची... कल ही लेकर आ जा इसको खेतों में..." सुन्दर ने कहा और हाथ बढ़कर मुझे पकड़ने की कोशिश की.. मैं तुरंत पीछे हट गयी...
"देखता हूँ कब तक फड़फड़ाएगी तू.. तेरे बाप के आने का टाइम हो रहा है वरना अभी पकड़ कर चो... बेहन्चोद ने मेरा सिर फोड़ दिया... " सुन्दर ने मुझे घूरते हुए कहा और फिर मम्मी की ओर देखने लगा..," तेरे कहने से रुका हूँ चाची... अब बोल जल्दी.. मुझे जाना भी है.....!"
"थोड़े दिन रुक जा सुन्दर.. आजकल टाइम नही लगता..." मम्मी ने बेशर्मी से कहा...
"मैं तेरी नही इसकी बात कर रहा हूँ.. सोच लेना.. बाद में मत कहना कि बताया नही था.. छ्चोड़ूँगा नही इसको मैं चोदे बिना..." सुन्दर जाता जाता जाने क्या क्या बक गया.....
" क्या है ये सब...? शर्म तो आती नही तुझे...? कुच्छ तो सोचा होता अपने बारे में...!" सुन्दर के जाते ही मम्मी का लहज़ा नरम पड़ गया....
"मैं भी बहुत पछ्ता रही हूँ मम्मी.. आइन्दा कुच्छ ग़लत नही करूँगी.. आपकी कसम..!" मैने दबे स्वरों में कहा....
"आइन्दा नही करूँगी कुच्छ...!" मम्मी ने मुँह बनाकर मेरी नकल उतारी..,"अब ये तुझे छ्चोड़ेगा तब ना... कल से मेरे पिछे पड़ा है.. कह रहा है नही तो पूरे गाँव में उड़ा देगा बात... बता अब मैं क्या बोलूं इसको.." मम्मी ने कहा और टॅपर टॅपर आँसू बहाने लगी.....
मैं बहुत कुच्छ बोलना चाहती थी.. पर 'वो जैसी भी थी.. मा थी मेरी.. बिना कुच्छ बोले मैने उनको चारपाई पर बिठाया और उनके आँसू पौच्छने लगी... जाने क्या सोच कर उन्होने मुझे गले से लगा लिया... शायद जवानी में की गयी ग़लतियों का 'जुंग' लगा पानी अब जाकर अपनी बेटी के लिए उनकी आँखों से निकला था.... बेटी, जिसको उन्होने अपने जैसी ही बना दिया.. समय से भी पहले! शायद उन्हे इस बात का बखूबी अहसास भी हो चला था.... पर अब पछ्तये होत क्या......
अगली सुबह पिंकी के पापा ही हम दोनो को लेकर गुरुकुल के लिए निकल लिए थे... 'वहाँ' जाकर उन्होने हमारे दाखिले की सभी फॉरमॅलिटीस पूरी की और ऑफीस में बैठे एक क्लर्क ने हमारे अड्मिशन की रसीद समेत छत्रावास के नियम क़ानूनो से भरा एक पर्चा हमें पकड़ा दिया...
"देखो बेटी..." चाचा पर्चे में से पढ़ पढ़ कर हमें समझाने लगे..," इस चारदीवारी के अंदर ही तुम्हे अब रहना है... इसके अंदर ही तुमहरा स्कूल, हॉस्टिल, खेलने का मैदान और खाने का मेस वग़ैरह है.. तुम्हे यहाँ पढ़ने और खेलने के अलावा कोई काम नही.. मंन लगाकर पढ़ना.. ठीक है...?" चाचा बोलते ही जा रहे थे कि पिंकी अचानक रोने लगी....
"धात पागल.. रो क्यूँ रही है..? अंजलि भी तो तेरे साथ है ना...?" चाचा ने उसको लड़ाते हुए कहा...
"पर मम्मी... मम्मी के बिना मेरा दिल कैसे लगेगा पापा..! मेरा दिल नही लगेगा यहाँ...!" पिंकी सुबक्ते हुए बोली....
"तू तो पागल है एकदम... देख तेरे जैसी कितनी लड़कियाँ हैं यहाँ... जिधर देखो उधर लड़की.. इन्न सबकी क्या मम्मिया नही हैं.. बस.. चुप कर.. सबके साथ प्यार से रहना और मॅन लगाकर पढ़ना... अपने आप दिल लग जाएगा...! अंजू को ही देख ले.. ये भी तो नही रो रही..." चाचा उसको प्यार करते हुए बोले....
"आप फिर कब आओगे...?" पिंकी ने अपने आँसू पौछ्ते हुए पूचछा....
"बेटी.. हफ्ते में एक बार ही मिल सकते हैं यहाँ... मैं हर रविवार को आ जाया करूँगा.. तेरी मम्मी को भी साथ ले अवँगा... यहाँ बस वही 2 आकर मिल सकते हैं जिसका फोटो यहाँ लगा हो.. इनके रिजिस्टर में... ओह्ह तेरे की... अंजू! फोटो लाई है मम्मी पापा का.... यहाँ चाहिए था.....!" चाचा ने अफ़सोस सा जताते हुए पूचछा....
"कोई बात नही चाचा.. आप अपना ही लगा देना..!" मैं बोल ही रही कि अचानक गुरुकुल में एक जाने पहचाने चेहरे को देख कर मैं चौंक पड़ी... 'वही' प्रिन्सिपल मेडम एक लड़की के साथ हम'से थोड़ी दूर एक लड़की के साथ खड़ी बातें कर रही थी... उसकी नज़र मुझ पर ही थी......
"फोन देना चाचा एक बार....!" मुझे मीनू को इस बारे में बताना उचित लगा... चाचा से फोन लेकर में धीरे धीरे टहलती हुई उनसे थोड़ी दूर आ गयी...
"हेलो!" मीनू की आवाज़ घर वाले फोन पर उभरी....
"मैं हूँ दीदी,.. अंजू!" मैने जल्दी जल्दी में कहा....
"अच्च्छा.. पहुँच गये क्या?" मीनू ने पूचछा...
"हाँ.. दाखिला भी हो गया... सुन.. 'वो' प्रिन्सिपल मेडम गुरुकुल में आई हुई हैं... उनकी लड़की शायद यहीं पढ़ती है....!" मैने बताया...
"तो..? उसका क्या है?" मीनू ने फिर पूचछा....
"पता नही.. पर मानव को ये बात बता देना.. शायद कुच्छ काम आ जाए.. बस इसीलिए किया था... अब रखती हूँ.. चाचा जा रहे हैं..." मैने कहा और फोन काट दिया.....
"ठीक है ना बेटी... आराम से रहना और मन लगाकर पढ़ाई करना... मैं यहाँ तुम दोनो के नाम से 'खर्चा' जमा करवा रहा हूँ... चाहिए तो यहाँ आकर ले लेना...." मेरे फोन रखते ही चाचा मेरे पास आकर मुझे समझाने लगे....
हम दोनो ने सहमति में सिर हिलाया.. चाचा उसके बाद एक खिड़की पर जाकर खड़े हो गये..,"इनका हॉस्टिल का कमरा बताना भाई...!" चाचा ने अंदर बैठे क्लर्क को पर्चियाँ देकर पूचछा...
"हुम्म.. पिंकी मलिक.. रूम नंबर. 13 और आ..आ..आ.. अंजलि रूम नंबर. 44!" क्लर्क ने पर्चियाँ वापस बाहर कर दी....
"पर.. भाई साहब.. ये दोनो बहने हैं... इनको तो एक ही कमरा देना चाहिए था..." चाचा थोड़े चिंतित होकर बोले....
"कोई बात नही चाचा.. बाद में अड्जस्ट हो जाएँगी.. आप चिंता मत करो..!" अंदर से आवाज़ आई...
चाचा थोड़े मायूस से लगने लगे..," कोई बात नही बेटी... अपनी मेडम को बोलकर इकट्ठी हो जाना.. ठीक है ना... चलो तुम्हारा सामान रखवा देता हूँ....
चाचा हमें लेकर हॉस्टिल के गेट पर पहुँचे ही थे कि वहाँ बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला ने उन्हे रोक दिया...," आप वापस जाइए...!"
"पर.. पर मैं इनका सामान तो ढंग से रखवा देता एक बार...!" चाचा ने कहा...
"आदमी हॉस्टिल के अंदर अलोड नही हैं.. आप वापस जाइए.. यहाँ लड़कियाँ बहुत हैं... अपने आप रखवा देंगी सामान...!" महिला ने चाचा को सॉफ मना कर दिया....
"कोई बात नही बेटी.. 2 दिन बाद ही तो रविवार है.. अब तुम जाओ.. मैं चलूं अब?"
"मम्मी को ले आना पापा.. और मीनू को भी...!" पिंकी एक बार फिर रोने लगी थी....
"बस चुप कर अब.. ले आउन्गा.. एक दो दिन में तो तेरा यहाँ इतना मंन लग जाएगा कि तू हमें याद भी नही करेगी..." चाचा की आँखें भी नम होने को थी.. उन्होने हम दोनो के सिर पर हाथ रखा और मुड़कर जाने लगे...
जब तक चाचा आँखों से औझल नही हो गये.. पिंकी रॉनी सूरत बनाए वहीं खड़ी रही...
"चलें उपर...?" मैने पिंकी के कंधे पर हाथ रखा....
पिंकी ने अपना सिर हिलाया और सामान उठा लिया....
"ओये होये.. नयी चिड़िया... कौनसा घौसला है...?" हम उपर पहुँचे ही थे कि एक लड़की ने इसी जुमले से हमारा स्वागत किया था...
"क्क्या?" हम समझ नही पाए..
"सब समझ जाओगी कन्याओ.. चिंता मा कुरूव!" लड़की ने अट्टहास सा करते हुए पिंकी के गाल को उमेथ दिया..,"कमरा नंबर. कौनसा है लाडो?"
"13 और 44!" जवाब मैने दिया...
"गयी भैंस पानी में... 44 किसका है?" उसने हंसते हुए पूचछा...
"मेरा..." मैं उसकी और गौर से देखती हुई बोली....
"तू तो गयी.. सुन.. जाते ही सीमा मेडम के चरणों में गिर जाना.. हो सकता है तुझ पर रहम आ जाए.. वरना तो तेरी खैर नही.. खैर मुझे क्या.. 13 इधर, 44 उधर.. भगवान तुम दोनो का भला करे...! लड़की ने कहा और नीचे भाग गयी....
उसकी बातें सुन कर हमें डर सा लगने लगा था...,"चल.. पहले तेरा सामान रखवा देती हूँ...!" मैने कहा और हम दोनो 13 नंबर. कमरे की और चल पड़े....
दरवाज़ों पर लिखे अधलिखे नंबर. पढ़ते पढ़ते हम दोनो जाकर रूम नंबर. 13 के सामने खड़े हो गये.. जैसे ही हमने कमरे के अंदर झाँका; वहाँ पहले से ही डेरा जमाए बैठी लड़कियों ने हमें ऐसे घूरा जैसे हम किसी दूसरे ग्रह से उतर कर अचानक वहाँ टपक पड़े हों....
"हाँ! क्या है?" एक मोटी सी थुलथुली लड़की हमें अपने कमरे के सामने खड़े देख कर गुर्राय...
पिंकी तो उसी पल सहम सी गयी थी.. जवाब देने की हिम्मत मैने ही की..," हमारा नया दाखिला हुआ है...!"
"तो?" उस लड़की के साथ ही एक और लड़की दरवाजे तक आई और अपने कूल्हे मतकाते हुए बोली..,"आरती उतारनी है क्या?" उनकी आवाज़ रुला देने वाली थी...
"नही वववो... ये कमरा मिला है.. इसीलिए...!" मैने हड़बड़ते हुए आधी अधूरी बात कही...
"यहाँ एक ही बिस्तर खाली है.. दूसरा मैने अपनी बेहन के लिए रोक रखा है.. वो कुच्छ दिन बाद आएगी यहाँ... चलो जाओ.. किसी और कमरे का नंबर. ले लो...!" लड़की ने जैसे हमें दुतकार सा दिया...
"नही नही.. यहाँ तो पिंकी को ही रहना है.. मुझे तो 44 मिला है...!" मेरा भी दिल सा बैठा जा रहा था...
"क्या? .... 44!" लड़की कहकर मूडी और अंदर वाली लड़कियों के साथ खिलखिलाकर हंस पड़ी...," बेचारी!"
"कोई बात नही.. एक को रहना है तो आ जाओ.. रख लो सामान अंदर.. रखने दो यार पुष्पा...!" अंदर बैठी लड़कियों में से एक ने मोटी लड़की को कहा...
वो लड़की अब तक हंस रही थी..,"अर्रे.. रख लो.. मैं कब मना कर रही हूँ... मुझे तो इस 44 वाली की दया आ रही है.. बेचारी.. हे हे हे हे...!"
पिंकी ने नज़रें उठाकर मेरी आँखों में देखा... मैने अपना सामान बाहर ही रख दिया और पिंकी के साथ अंदर आ गयी...
कमरे में कुल मिलकर 6 तख्त थे... चारों कोनो पर उन्न चार लड़कियों ने कब्जा जमाया हुआ था... बीच वाले 2 ही खाली थे... मैने कुच्छ सोच कर जैसे ही दीवार के साथ वाले तख्त के पास पिंकी का सामान रखवाया तो पुष्पा बरस पड़ी..,"ज़्यादा स्यानी मत बन.. चुपचाप वो दूसरा तख्त ले ले.. मैने बताया था ना.. यहाँ मेरी बेहन आएगी...!"
हम में से कोई कुच्छ नही बोला.. हुमने चुपचाप जाकर दरवाजे के ठीक सामने वाले तख्त पर बिस्तर लगाना शुरू कर दिया... अलमारी भी हमें ऐसी मिली जिस पर कुण्डी तक नही थी... पर क्या करते...? वो सब पुरानी खिलाड़ी थी और हमें तब तक हॉस्टिल के 'असली' नियम पता नही थे...
जैसे तैसे करके मैने पिंकी का सामान सेट करवाया और हम दोनो बाहर निकल आए.... पिंकी अब तक जाने कैसे अपने आपको रोके हुए थी.. जैसे ही वा बाहर निकली.. फुट फुट कर रोने लगी..," मैं नही रहूंगी यहाँ... मुझे घर जाना है...!"
"बस कर पिंकी.. चिंता मत कर.. हम मेडम से इनकी शिकायत करेंगे.. चुप हो जा अब.. मेरी तो सोच.. मुझे तो '44' मिला है... यहाँ ऐसा हाल है तो 'वहाँ' क्या होगा... चल.. मेरा सामान रखवा दे एक बार... फिर सीमा मेडम से बोल कर हम दोनो कमरा बदल लेंगे...!" मैने पिंकी को दिलासा देने की कोशिश की....
"नही.. पहले मुझे घर फोन करना है...!" पिंकी अब तक बिलख रही थी....
"ठीक है.. आजा.. नीचे एस.टी.डी. देखी थी मैने.. तू चुप तो हो जा..!" मैने अपना सामान उठाया और पिंकी का हाथ पकड़ कर वापस नीचे आ गयी....
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"यहाँ तो ताला लगा है...!" एस.टी.डी. के सामने जाते ही पिंकी ने कहा....
"तू ठहर एक मिनिट... मैं पूछ्ति हूँ...!" मैने पिंकी से कहकर अपना सामान नीचे रखा और मुड़कर पास से गुजर रही एक लड़की को टोका,"दीदी.. ये कब खुलेगी...?"
"लड़की ने मेरी तरफ सरसरी नज़र से देखा और चलते चलते ही बोली...,"नयी आई है क्या?"
"हां दीदी...!" मैं पिंकी को वहीं छ्चोड़ कर उसके साथ साथ चलने लगी...
"ये नही खुलती... ये हमेशा बंद ही रहती है..." शुक्र था वो लड़की कम से कम मेरी बात सुन तो रही थी.. चलते चलते ही...
"क्यूँ?" मैं उसका पीचछा करती रही...
"एक लड़की भाग गयी थी यहाँ से...अपने आशिक के साथ... बाद में पता चला उनकी गुटरगूं एस.टी.डी. पर ही होती थी.. तब से बंद है.. मोबाइल पर भी बॅन है..."
"हमें घर पर एक फोन करना था... अब कैसे करें...?" मैने हताश होकर पूचछा...
"2 रास्ते हैं... या तो प्रिन्सिपल मेडम के पास जाओ या फिर 44 नंबर. में.. चल अब.. बहुत हो गया...!" लड़की ने मुझे लगभग दुत्कार्ते हुए कहा...
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"चल पिंकी.. ऑफीस में चलते हैं..!" मैने अपना सामान वहीं छ्चोड़ा और पिंकी का हाथ पकड़ कर ऑफीस में ले गयी....
"मे आइ कम इन, मॅ'म!" मैने ऑफीस के बाहर से ही पूचछा....
प्रिन्सिपल मॅ'म फोन पर ही लगी हुई थी.. करीब 5 मिनिट बाद उन्होने फोन रखा और हमारी सुध ली..,"क्या है बेटा..?" उनकी आवाज़ बड़ी मधुर थी..
"जी.. मॅ'म.. ववो.. हमें घर पर फोन करना था....!" मैने पिंकी के साथ अंदर घुसकर कहा...
"कब आए हो घर से....?"
"जी आज ही.. हमारा नया दाखिला हुआ है....!" मैने जवाब दिया....
"ऐसी क्या बात रह गयी.. घर से सारी बातें करके आनी चाहिए थी ना...?"
"ज्जई.. लेकिन.. वो इसके रूम वाली लड़कियाँ अच्छि नही हैं...!" मैने झट से कह दिया....
प्रिन्सिपल आँखें बंद करके शुरू हो गयी..," बुरा जो देखन मैं चला; बुरा ना मिल्या कोए... जो मॅन झाँका आपनो; मुझसे बुरा ना कोए...!!! बेटी.. बुराई बाहर नही हमारे अपने अंदर होती है.. हमारे चारों और का वातावरण हमारी परच्छाई मात्र है.. हम जैसा व्यवहार दूसरो के साथ करेंगे, वैसा ही दूसरे हमारे साथ करेंगे... अपने आपको अच्च्छा बनाओ.. दुनिया खुद-ब-खुद अच्छि दिखने लगेगी.. समझी! बुराई उन्न लड़कियों में नही.. खुद हमारे अंदर है.. ये मान कर चलो और अपने अंदर की बुराई को जड़ समेत उखाड़ फैंको.. फिर देखो.. दुनिया कितनी सुंदर है.. आआहा...!"
"पर मॅ'म.. हम तो आज ही आए हैं.. उन्होने आते ही लड़ाई वाली बातें करनी शुरू कर दी... हमने तो कुच्छ कहा भी नही था...." मैने कह तो दिया.. पर इसके साथ ही प्रिन्सिपल मॅ'म का सत्संग एक बार फिर शुरू हो गया..
"यही तो! ये दुर्भावना लेकर ही तो हम अपने इर्द गिर्द दुश्मन खड़े कर लेते हैं.. क्यूँ नही कहा तुमने कुच्छ.. कहना चाहिए था ना... माफी माँग लेते... अब तुम कहोगी की हमारी ग़लती ही नही थी तो माफी किस बात की... यहीं तो आज कल के बच्चे भूल कर जाते हैं... गाँधी जी का सहिष्णुता, प्रेम और अहिंसा का पाठ क्या सिखाता है बोलो... अहिंसा परमो धर्मा! प्रेम ही ईश्वर है बेटी.. लड़ाई वाली बातें क्या होती हैं..बोलो! गुस्से के गरम लोहे पर विनम्रता का ठंडा पानी डालो.. कोई गाली दे तो मुस्कुरकर निकल जाओ.. कोई थप्पड़ मारे तो अपना दूसरा गाल भी आगे कर दो.. गाँधी जी ने यही सिखाया है ना...?"
अफ.. झेलने की भी कोई हद होती है.. मेरी सारी हदें पार हो गयी थी.. दिल में तो आ रहा था कि आगे बढ़कर 'ये' चाँते वाला एक्सपेरिमेंट मॅ'म पर ही कर के देख लूँ.. मैं थोड़ा झल्ला कर बोली..," पर मॅ'म.. उनको भी सिख़ाओ ना यही बातें... आप हमें एक फोन कर लेने दो बस!"
"मेरे पास एक यही काम बचा है कि मैं दिन भर आप लोगों के फोन करवाती रहूं.. है ना..?" मॅ'म की सहिष्णुता मेरे एक कटाक्ष के साथ ही जाने कहाँ चली गयी थी..," छुट्टी के बाद आना.. चलो अब!"
मैं मायूसी से पिंकी के साथ बाहर आ गयी.. बाहर आते ही पिंकी बोली..,"मेडम जी कितने प्यार से समझाती है ना?"
मैं पिंकी को घूरते हुए झल्ल्ल कर बोली...,"तू समझ गयी ना सब कुच्छ?"
"हां!" पिंकी ने अपनी गर्दन हिलाते हुए स्वीकार किया...
"तो अब तो फोन करने की कोई ज़रूरत नही होगी..? अब तो तू समझ ही गयी है..." मैने व्यंग्य किया..
सुनते ही पिंकी का चेहरा लटक गया..,"नही.. फोन तो करना है.. मैं उस कमरे में नही रहूंगी...!"
"44 नंबर... चल वहीं देखते हैं कौनसी एस.टी.डी. है....?" मैने अपना सामान उठाते हुए कहा और हम वापस उपर चल पड़े.....
क्रमशः.....................
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