RE: Maa ki Chudai ये कैसा संजोग माँ बेटे का
मैं अपनी पुरानी दिनचर्या की ओर लौट गया और अपना सारा समय फिर से अपने कंप्यूटर पे बिताने लगा. अब आधी रात तक टीवी देखने में वो मज़ा ही नही था जैसा पहले आया करता था. माँ को मेरे फ़ैसले की मालूमात नही थी. पहले ही दिन जब उसने मुझे ड्रॉयिंग रूम से नदारद पाया तो वो मेरे रूम में मुझे देखने को आई.
"आज टीवी नही देखोगे क्या"
"नही, मुझे अपना प्रॉजेक्ट पूरा करना है" मैने बहाना बनाया.
"ओह!" वो थोड़ी निराश लगी, कम से कम मुझे तो ऐसा ही जान पड़ा.
कहने के लिए और कुछ नही था, मगर वो अभी जाना नही चाहती थी. वो बेड के किनारे पर बैठ गयी और टेबल पर से एक मॅगज़ीन उठाकर उसके पन्ने पलटने लगी. मैं बिज़ी होने का नाटक करता रहा, और वो चुपचाप मॅगज़ीन में खोई रही. कुछ देर बाद मैने उसे मॅगज़ीन वापस रखते सुना. "ठीक है, मैं चलती हूँ" वो खड़ी होकर बोली.
मैने अपनी कुर्सी उसकी ओर घुमा ली और कहा, "मेरा काम लगभग ख़तम हो चुका है माँ, अगर तुम चाहो तो थोड़ी देर में हम टीवी देखने चलते हैं"
"नही, नही. तुम पढ़ाई करो" उसने जबाब दिया और मेरी तरफ आई. अब यह हिस्सा कुछ अर्थ लिए हुए था.
शायद मेरा ये अंदाज़ा ग़लत हो के मुझे ड्रॉयिंग रूम में टीवी देखते ना पाकर वो थोड़ा निराश हो गयी थी, मगर जब वो मुझसे विदा लेने के समय चुंबन लेने आई तो मैने उसके हाव भाव में एक निस्चय देखा और इस बार मेरे मान में कोई संदेह नही था जैसे ज़ुबानी विदा की जेगह वो चुंबन लेकर कोई बात जताना चाहती थी.
मैं थोड़ा आगे को झुक गया और उसके गुडनाइट चुंबन का इंतेज़ार करने लगा. आम तौर पर वो थोड़ा सा झुक कर अपने होंठ मेरे होंठो से छुया देती थी. उसके हाथ उसकी कमर पर होते थे. मगर उस रात उसने अपना दायां हाथ मेरे बाएँ कंधे पर रखा और फिर मुझे वो चुंबन दिया या मेरा चुंबन लिया. मैने इसे महज इतेफ़ाक़ माना और इसे कोई गुप्त इशारा समझ कर इसका कोई दूसरा अर्थ नही निकाला. कारण यह था कि मैं कुर्सी पर बैठा हुआ था ना के सोफे पर, इसीलिए उसे बॅलेन्स के लिए मेरे कंधे पर हाथ रखना पड़ा था. मगर वो चुंबन आज कुछ अलग तरह का था, इसमे कोई शक नही था.
यह कोई बहहुत बड़ी बात नही थी, मगर मुझे लगा कि वो हमारे इकट्ठे बैठने, साथ साथ टीवी देखने की आस लगाए बैठे थी, उसे किसी के साथ की ज़रूरत थी. शायद वो हमारे आधी रात तक ड्रॉयिंग रूम के साथ की आदि हो गयी थी और मेरे वहाँ ना होने पर उससे रहा नही गया था. मुझे उसके चुंबन से उसकी निराशा झलकती दिखाई दी.
तभी वो ख़याल मेरे मन मे आया था.
अगर उसके लिए चुंबन का एहसास बदलना संभव था तो मेरे लिए भी संभव था चाहे किसी और तरीके से ही सही.
जितना ज़्यादा मैं इस बारे में सोचता उतना ही ज़्यादा इसके नतीजे को लेकर उत्तेजित होता गया. जब से मैने उसे कहते सुना था कि वो चुदवाने के लिए तड़प रही है तबसे मेरे अंदर एक ज्वाला सी धधक रही थी. उस ज्वाला की लपटें और भी तेज़ हो जाती जब वो मेरे साथ अकेली आधी रात तक टीवी देखती थी. उसकी फोन वाली बातचीत से मैं जानता था के वो कभी कभी इतनी उत्तेजित होती थी कि उसे रात को नींद नही आती थी. मुझे लगता था कि जब जब वो आधी रात को टीवी देखने आती थी उसकी वोही हालत होती होगी, चाहे मेरे कारण नही मगर अती कामोत्तेजना की हालत में तो वो होती ही थी.
अगर उस दिन भी उसकी वोही हालत थी जब वो मेरे साथ थी तो क्या वो मेरी ओर हसरत से देखेगी? जैसे मैं उसकी ओर देखता था? क्या उसके हृदय मैं भी वोही आग जल रही थी जो मेरे दिल में जल रही थी? क्या यह संभव था कि उसके अंदर की आग को प्रोक्ष रूप से और भड़का दिया जाए ताकि कम से कम वो मेरी ओर किसी दूसरी भावना से देख सके जैसे मैं उसकी ओर देखता था? क्या मैं उसके दिमाग़ में वो विचार डाल सकता था कि मैं उसकी समस्याओ के समाधान की एक संभावना हो सकता हूँ, चाहे वो सिरफ़ एक विचार होता इससे ज़्यादा कुछ नही.
मेरे लिए इन सवालों के जबाब जानने का कोई साधन नही था, मेरा मतलब कि अगर मैं शुरुआत भी करता तो कहाँ से. केयी बार मुझे लगता जैसे मैं उसकी बैचैनि को उसकी अकुलाहट को महसूस कर सकता हूँ मगर वो सिर्फ़ एक अंदाज़ा होता. मैं यकीन से कुछ नही कह सकता था. कोई ऐसा रास्ता नही था जिससे एक इशारा भर ही मिल जाता कि वो कैसे महसूस करती है.
उसके चुंबन ने उसकी कुछ भावनाओ से बग़ावत ज़रूर की थी मगर उनका उस सब से कोई वास्ता नही था जो मैं जानना चाहता था. ज़रूर उसे निराशा हुई थी जब मैं उसका साथ देने के लिए वहाँ नही था मगर वो प्रभाव एक मनोवैग्यानिक था. उसे मेरा साथ अच्छा लगता था इसलिए उसका निराश होना संभव था जब उसका बेटा उसे कंपनी देने के लिए वहाँ मोजूद नही था. मैं उसे किसी और वेजह से निराश देखना चाहता था. चाहे एक अलग तरीके से ही सही मगर मैं एक ज़रूरत पूरी कर रहा था, एक बेटे की तेरह नही बल्कि एक मर्द की तरह. मैं वो जानना चाहता था. मैं महसूस करना चाहता था कि जिस्मानी ज़रूरत पूरी करने की संभावना हमारे बीच मोजूद थी, चाहे वो सिर्फ़ एक संभावना होती और हम उस पर कभी अमल ना करते.
|