raj sharma story कामलीला
07-17-2020, 11:57 AM,
#25
RE: raj sharma story कामलीला
वह थोड़ी तेज़ गति से हाथ ऊपर-नीचे करने लगी तो चाचा ने कमर चलानी बन्द कर दी।
अब शीला के हाथ की हरारत चाचा को जो भी फीलिंग दे रही हो लेकिन उसके लिंग की हरारत शीला के जिस्म में ऐसी सनसनाहट पैदा कर रही थी कि उसकी योनि में अजीब सी हलचल होने लगी थी।
शायद उसका दिमाग इस बारे में कुछ भी नही सोच रहा था लेकिन पुरुष संसर्ग को तरसा उसका शरीर खुद अपनी तरफ से प्रतिक्रिया दे रहा था।
ऐसी हालत में उसे शर्म भी आ रही थी और डर भी लग रहा था कि दरवाज़ा खुला था, कहीं कोई भाई बहन नीचे न आ जाएं और उसे यह करते देख लें।
उसके अवचेतन में कहीं नैतिकता के कांटे भी सुरक्षित थे जो उसके दिमाग के एक हिस्से को कचोट रहे थे कि वह उसका सगा चाचा था और यह अनुचित था… अनैतिक था।
पर विकल्प क्या था?
शर्म, डर, झिझक के अहसास और नैतिक-अनैतिक की दिमाग में चलती बहस के बीच उसका हाथ तेज़ी से हरकत करता रहा और उसने महसूस किया कि चाचा के मुंह से अब जो आहें निकल रही थीं वे आनन्द भरी थीं।
फिर जब उसका तेज़ी से चलता हाथ थकने की कगार पर पहुंच गया तो उसने महसूस किया कि चाचा की कमर फिर चलने लगी है और वह जैसे शीला के हाथ के बने छल्ले को योनि समझ कर भेदन करने लगा हो।
और फिर वह अकड़ गया।
एकदम ज़ोर से उसका लिंग फूला था और उसके छेद से सफ़ेद धातु की बड़ी सी पिचकारी ऐसी छूटी थी कि सीधे शीला के कपड़ों पे आई थी।
उसने हड़बड़ा कर लिंग छोड़ दिया था।
पर उसी पल झटके से चाचा ने सीधे हाथ से उसे पकड़ लिया था और उसे ऊपर नीचे करने लगा… वीर्य की कुछ और पिचकारियां छूटी थीं जो इधर उधर गिरीं थी।
और यह ऐसी तेज़ी से हुआ था कि वह चाह कर भी उसके हाथ को रोक नहीं पाई थी और चाचा ने अंत में सख्ती से हाथ से दबोच लिया था और अब वह उसकी मुट्ठी में कैद ठुनक रहा था।
फिर मुट्ठी ढीली पड़ी तो उसने चाचे का हाथ लिंग से दूर किया और गौर से लिंग को देखने लगी जिसकी तनी और चमकती त्वचा अब ढीली पड़ने लगी थी।
उसके देखते देखते वह सिकुड़ कर उतना छोटा हो गया जितना साफ़ करने में वह देखती थी।
फिर उठी, चाचा की सफाई के लिये रिज़र्व रखा कपड़ा बाथरूम से गीला किया, पहले खुद पर आये वीर्य को साफ़ किया और फिर चाचा को साफ़ करने लगी।
चाचा अब आँखें बन्द किये ऐसे पड़ा था जैसे सो गया हो।
हाथ की पुंछ गई क्रीम उसने एक बार और लगाई।
अच्छे से साफ़ कर चुकने के बाद शीला ने उसका पजामा ऊपर खिसकाया और उसे सोता छोड़ कर अपने कमरे में आकर लेट गई।
अब जल्दी नींद नहीं आनी थी, जो हुआ था पहली बार था लेकिन लिंग और हाथ के घर्षण ने उसकी सुप्त पड़ी इच्छाओं में ऐसी हलचल मचाई थी कि शरीर का एक एक हिस्सा जैसे टीस रहा था, कसक रहा था।
उसने अपनी योनि को छूकर देखा, वह भी चिपचिपी हुई पड़ी थी जैसे बही हो, जबकि उसके बहने का उसे अहसास भी नहीं हुआ था।
शरीर अपनी ज़रूरत खुद समझता है और उसके हिसाब से स्वतः ही प्रतिक्रिया देता है, चाहे आप दिमाग से उसकी तरफ ध्यान दें, न दें।
उस रात बड़ी मुश्किल से उसे नींद आई।
अगले दिन रोज़ जैसी दिनचर्या रही और कोई ऐसी बात नही हुई जो काबिले ज़िक्र हो। उस रोज़ चाचा जल्दी ही सो गया था इसलिये कोई अतिरिक्त परेशानी सामने न आई।
वह रानो को यह बात बताना चाहती थी मगर कोशिश करके भी हिम्मत ना जुटा पाई।
बहरहाल उसके अगला दिन भी वैसे ही गुज़र गया जैसे आमतौर पर उनके गुज़रते थे लेकिन उसके अगली रात चाचा को फिर वही हाजत महसूस हुई।
और इस बार उसने खुद से करना नहीं शुरू किया बल्कि ‘ईया-ईया’ की पुकार लगा कर उसे बुलाया था।
पहले उसे लगा शायद कोई ज़रूरत हो लेकिन जब उसके पास पहुंची तो वह पजामा खिसकाए, लिंग निकाले पड़ा था।
इस बार उसने हाथ नहीं लगाया था और उसे ऐसी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहा था जैसे कह रहा हो कि तुम करो, जैसे किया था।
उसकी मानसिक अवस्था किसी अबोध बच्चे जैसी थी, जिसे कोई चीज़ या क्रिया अच्छी लगी तो वह चाहता है कि वह बार बार वैसी ही हो।
पहले उसके जले हाथ की वजह से मज़बूरी में शीला ने जो किया था, आज वही वह चाहता था कि शीला ही करे। अब यह तो जगज़ाहिर बात है कि अपने हाथ के हस्तमैथुन से ज्यादा मज़ा दूसरे के हाथ से आता है और इतना फर्क तो अविकसित दिमाग के बावजूद उसे समझ में आता था।
वह उलझन में पड़ गई कि उसने अनजाने में चाचा को एक नया रास्ता दिखा कर सही किया था या गलत? क्या अब वह इसी चीज़ की इच्छा बार-बार नहीं करेगा कि हर बार उसका हस्तमैथुन शीला ही करे।
चाचा ने उसे फिर पुकारा तो उसने कदम बढ़ाये।
डर आज भी इस बात का था कि कोई देख न ले। उसने एहतियातन दरवाज़े को बंद करके सिटकनी लगा दी।
कमरे में वेंटिलेशन के लिए एक बड़ा सा रोशनदान था और एक बिना पल्ले वाली खिड़की थी जो आँगन में खुलती थी। उसपे पर्दा पड़ा रहता था मगर आवाज़ें तो बाहर जाती ही थीं।
दिमाग में फिर नैतिक-अनैतिक की अंतहीन सी बहस शुरू हो गई पर लड़खड़ाते कदम चाचा के बिस्तर तक जाकर ही रुके।
वह चाचा को देखते शर्माई, झिझकी लेकिन चाचा को न उसकी मनोदशा का अहसास था और न ही समझ। वह बस कल जैसा सुख चाहता था।
शीला ने कपकपाते हाथ से उसके लिंग को पकड़ ही लिया और चाचे की आँख बन्द हो गई।
अभी उसमें इतना तनाव नहीं आया था जितना उसने कल देखा था लेकिन जब उसने उसे ऊपर नीचे सहलाना शुरू किया तो वह वैसे ही कठोर होता गया जैसे कल था।
सहलाते सहलाते उसके दिमाग में चलती सही-गलत, नैतिक-अनैतिक की बहस कमज़ोर पड़ती गई और उसका ध्यान अपने जिस्म में पैदा होती सनसनाहट और लहरों की ओर जाने लगा।
वह रात में ब्रा नहीं पहनती थी, नीचे पैंटी होती थी और ऊपर से नीचे तक लंबी नाइटी।
स्वतःस्फूर्त तौर पर सीधे हाथ को चाचे के लिंग पर चलाते उसका बायां हाथ अपने वक्ष-स्थल पर चला गया और उसके मुंह से ‘सी’ निकल गई।
ऐसा पहली बार नहीं था… उसने पहले भी अपने वक्षों को अकेली रातों में जागते-सुलगते दबाया था, सहलाया था पर शायद उसे वह फील नहीं मिला था जो आज हाथ लगाने पर मिला।
ऐसा क्यों?
जो हो रहा है, वह तो गलत है न… उसका दिमाग जानता है कि यह गलत है, फिर उसका शरीर इसे क्यों नहीं महसूस कर रहा?
क्यों नहीं इसका प्रतिकार कर रहा?
क्यों एक गलत और अनैतिक कार्य पर ऐसा रिस्पॉन्स दे रहा जो विपरीतलिंगी शरीरों के घर्षण पर तब देना चाहिए जब घर्षण जायज़ हो, नैतिक हो, सामाजिक रूप से स्वीकार्य हो।
ज़ाहिर है यह नैतिक अनैतिक के नियम इंसानों ने बनाये थे शरीरों ने नहीं, वे तो वैसी ही प्रतिक्रिया देते हैं जैसी उन्हें ऐसी किसी भी स्थिति में देनी चाहिये।
उसे चाचा के लिंग पर हाथ चलाते अपने स्तनों का मर्दन मज़ा दे रहा था तो क्या उसे नहीं लेना चाहिये, उसे खुद को रोक लेना चाहिये।
बचपन के संस्कारों का असर था कि नैतिकता के पैरोकार दिमाग ने उसे अपेक्षित रूप से रुकने की सलाह दी… फिर एक चोर रास्ता भी सुझाया कि अभी रुक जाना, थोड़ी देर में रुक जाना, क्या हो जायेगा इतनी देर में।
पर यह थोड़ी देर का वक्त ख़त्म होने को न हुआ।
फिर सहज रूप से, बेखयाली में ही, अपनी मुट्ठी में दबे चाचे के लिंग को अपने पूरे शरीर में महसूस करते उसका बायां हाथ वक्ष से उतर कर नीचे पहुंच गया और अपनी योनि को दबाने-भींचने लगा।
और इस स्पर्श ने उसमे जो आग पैदा की तो ये सही, नैतिक, समाज में स्वीकार्य टाइप जो पिलर उसने दिमाग में खड़े कर रखे थे… सब धड़धड़ा कर धराशाई हो गये।
नाइटी उसे बाधा लगी तो उसने नाइटी को समेट कर ऊपर खींचा और पैंटी के ऊपर से ही अपनी योनि को मसलने लगी।
अजीब सा नशा दिमाग पर हावी होता गया।
उसे अच्छा… बेहद अच्छा लग रहा था और वह बस ऐसे ही इसे महसूस करते रहना चाहती थी। इसके सिवा बाकी बातें उसके दिमाग से निकल गईं।
उसकी सोचों का घोड़ा वहां रुका जहां चाचा ने स्खलन की दशा में ज़ोर की ‘आह’ भरते हुए कमर ऊपर उठा दी थी और वीर्य की पहली पिचकारी फिर उसी के ऊपर आई।
लेकिन कल के अनुभव से उसे पता था कि उसे छोड़ना नहीं था… वह तब तक हाथ चलाती रही जब तक वीर्य निकलना बन्द नहीं हो गया।
फिर उसने लिंग को आज़ाद कर दिया… वह कुछ कुछ देर में ऐसे ठुनक रहा था जैसे कोई दम तोड़ता सांप, या जीव मद्धम होते क्रम में झटके लेता है।
इस वीर्यपात ने उसका ध्यान भटका दिया था जिससे उसकी अपनी उत्तेजना का पारा चरम तक पहुंचते पहुंचते रह गया था।
तीव्र अनिच्छा के बावजूद उसने उठ कर चाचा को साफ़ किया और उसे निश्चल पड़ा छोड़ कर अपने कमरे में चली आई।
आज जो अनुभव मिला था वह नया था, अप्रतिम था मगर उस अनुभव ने उसमे ऐसी बेचैनी पैदा कर दी थी जिसने उसे लगभग पूरी रात न सोने दिया।
अगले दो दिन सामान्य गुज़रे… चाचा कोई नार्मल तो था नहीं कि जो चीज़ अच्छी लगती है वह सिर्फ अच्छा लगने के लिए रोज़ करे, बल्कि तभी करता था जब उसका शरीर इसकी ज़रूरत समझता था।
बस इस बीच वह सोचती रही थी कि क्या सही था क्या गलत… क्या नैतिक था और क्या अनैतिक और जो सही और नैतिक था तो क्यों था और गलत और अनैतिक था तो क्यों था।
हर गुज़रते दिन के साथ उसके अंदर एक दूसरी शीला का अस्तित्व पैदा होता जा रहा था जो बाग़ी थी, जो स्थापित मान्यताओं, परम्पराओं और मर्यादाओं से लड़ जाना चाहती थी, उन्हें तोड़ देना चाहती थी।
आखिर क्या दिया था इन सबने उसे… क्या सिर्फ इसलिए उसे अपने शरीर का सुख प्राप्त करने से रोका जा सकता था कि वह लोगों द्वारा अपेक्षित एक योग्य वधू के मानदंडों पर पूरी नहीं उतरती?
तो वह या उस जैसी हज़ारों लाखों ऐसी औरतें जो ऐसा अभिशप्त जीवन जीने पर मजबूर हैं, उन्हें अपनी इच्छाओं की तिलांजलि दे देनी चाहिये?
पर दिमाग के सोचे को क्या शरीर भी समझता है? समझता है तो क्यों ऐसी प्रतिक्रियाएं देता है जो सामाजिक नियमों के हिसाब से वर्जित हैं?
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RE: raj sharma story कामलीला - by desiaks - 07-17-2020, 11:57 AM

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