RE: Maa ki Chudai ये कैसा संजोग माँ बेटे का
उसने किचन की लाइट्स बंद की और दरवाजे चेक किए कि वो सही से बंद हैं जा नही जबके मैने डीवीडी से फिल्म निकाल कर उसके कवर में डाली और रिमोट्स के साथ दूसरी जगह रखी और सभी एलेकट्रॉनिक उपकर्नो को बंद कर दिया. पिछली बार की अचानक और रूखी समाप्ति के बावजूद, हमारे बीच कोई अटपटापन नही था. सब कुछ सही, सहज और शांत लग रहा था. जब हम ड्रॉयिंग रूम से उठकर कॉरिडोर की ओर चलने लगे तो मेरा दिल थोड़ी तेज़ी से धड़कने लगा. मैं आस लगाए बैठ था कि शायद आज फिर से मुझे हमारी और रातों के चुंबनो की तुलना मे थोड़ा गहरा, थोड़ा ठोस चुंबन लेने को मिलेगा. हमारी पिछली रात जब मेरे पिता घर से बाहर गये हुए थे, बहुत आत्मीयता से गुज़री थी और हमारा सुभरात्रि चुंबन हमारे आमतौर के चुंबनो से ज़्यादा ठोस था. मैं उम्मीद कर रहा था कि अगर पिछली रात से ज़्यादा नही तो कम से कम हमारे चुंबन की गहराई उस रात जितनी तो होगी, मैं उम्मीद कर रहा था कि शायद मुझे उसके मुखरस का स्वाद चखने को मिलेगा जा हो सकता है मुझे उसके होंठो के अन्द्रुनि हिस्से को महसूस करने का मौका भी मिल जाए.
चलते चलते जब हम मेरे बेडरूम के डोर के आगे रुके, तो मेरे दिल की धड़कने बहुत तेज़ हो गयी थीं. मेरी साँसे उखाड़ने लगी थीं. मगर हाए! उसने मुझे कुछ करने का मौका नही दिया. वो मेरे ज़्यादा नज़दीक भी नही आई. मैने ध्यान दिया उसने हमारे बीच एक खास दूरी बनाए रखी थी.
मुझे बहुत निराशा हुई. उसने हमारे बीच आत्मीयता को एक हद्द तक रखने का जो फ़ैसला किया था, मुझे उसका सम्मान करना था. यह मानते हुए कि हम दोनो में ऐसी आत्मीयता संभव नही हो सकती, उसके लिए अपने होंठ सूखे रखना आसान था ताकि वो चुंबन सिरफ़ सुभरात्रि की सूभकामना मात्र होता. मगर फिर भी कम से कम मैं, उसके साथ बिताई उस सुखद रात के आनंद की लहरों में खुद को तैरता महसूस कर सकता था. कम से कम हमारा साथ पहले की तुलना में ज़्यादा अर्थपूर्ण था, ज़्यादा दोस्ताना हो गया था.
वो अपने कमरे में चली गयी और मैं अपने.
सब कुछ सही था. पहले भी कुछ ग़लत घटित नही हुआ था और ना ही अब हुआ था. यह बहुत बड़ी राहत थी के हम ने शाम और रात का अधिकतर समय एक साथ बिताया था और मर्यादा की रेखा ना तो छुई गयी थी, ना ही पार की गयी थी और ना ही उसे मिटाया गया था. और हम ने पूरा समय खूब मज़ा भी किया था!
मैं राहत महसूस कर रहा था और शांति भी कि हम ने मिलकर पूरा समय अच्छे से बिताया था और इस बार उसे ना तो मुझे धकेलना पड़ा था और नही अपने रूम की ओर भागना पड़ा था. हमारा रिश्ता लगता था और भी परिपक्व हो गया था जिसने ठीक ऐसी ही पिछली रात को हुई ग़लतियों से बहुत कुछ सीख लिया था, और साथ ही उन ग़लतियों को नज़रअंदाज़ करना भी सीख लिया था .
कोई पँद्रेह बीस मिनिट बाद मेरे दरवाजे पर दस्तक हुई.
"कम इन" मैं बोला तो उसने दरवाजा खोला और अंदर दाखिल हुई.
उसने कपड़े बदल कर नाइटी पहन ली थी और तभी मुझे एहसास हुया कि हमारी रात भिन्न होने का एक कारण यह भी था कि फिल्म देखने के समय उसने जीन्स और टी-शर्ट पहनी हुई थी ना कि नाइटी जैसे वो आम तौर पर रात को हमारे इकट्ठे समय बिताने के समय पहनती थी.
मैने उसे उस नाइटी में पहले कभी नही देखा था. वो देखने में नयी लग रही थी. वो उसके मम्मो पर बड़ी खूबसूरती से झूल रही थी. नाइटी की डोरियाँ उसे इतनी अच्छे से नही संभाले हुई थीं जितने अच्छे से उसके मम्मे उसे संभाले हुए थे. उसके नंगे काढ़े और अर्धनगन जंघे मेरी आँखो के सामने अपने पुर शबाब पर थी और उसकी पतली सी नाइटी से झँकता उसका गड्राया बदन बहुत कामुक लग रह था.
"मुझे नींद नही आ रही" वो बोली. "मैने सोचा मैं तुम्हारे साथ थोड़ा और समय बिता लूँ"
“मुझे नींद नही आ रही” वो बोली “मैने सोचा क्यों ना तुम्हारे साथ कुछ और समय बिता लूँ”
उसने कहा कि उसे नींद नही आ रही और मेरा ध्यान एकदम से उसकी उस बात पर चला गया जिसमे उसने कहा था के कभी कभी वो इतनी कामोत्तेजित होती है के उसे नींद भी नही आती. क्या यह संभव था कि मेरी माँ उस समय उस पल कामोत्तेजित थी? मैं जानता था अगर वो कामोत्तेजित है तो निश्चित तौर पर मेरी वेजह से है. यह विचार कि मेरी माँ मेरे कारण इतनी कामोत्तेजित है कि वो सो भी नही सकती , ने मेरे अंदर जल रही कामोत्तेजना की आग को और भड़का दिया.
"हां, हां माँ! क्यों नही! मुझे बहुत अच्छा लगेगा. मुझे खुद नींद नही आ रही!" मैने उसे कहा.
“थॅंक्स” उसे मेरे जबाब से काफ़ी खुशी महसूस हुई लगती थी. वो मेरे कंप्यूटर वाली कुर्सी पर बैठ गयी. मुझे ऐसा लगा जैसे वो कुछ परेशान सी है. वो कुर्सी को अपने कुल्हों से दाईं से बाईं और बाईं से दाईं ओर घूमती मेरे कमरे में इधर उधर देख रही थी. मैं अपने बेड पर बैठा बस उसे देख रहा था. वो मुझे नही देख रही थी.
कुछ समय बाद उसने पूछा “तुम्हे फिल्म कैसी लगी?” उसकी साँस थोड़ी सी उखड़ी हुई थी.
“अच्छी थी. मुझे बहुत मज़ा आया” मैने उसे जबाब दिया. मुझे अच्छे से याद था वो सवाल हम कुछ समय पहले ड्रॉयिंग रूम में एक दूसरे से पूछ चुके थे मगर फिर भी मैने उससे पूछा “तुम्हे कैसी लगी माँ”
जब भी वो कुछ बोलती तो उसकी साँस उखड़ी हुई महसूस होती. मेरी साथ भी अब यही समस्या थी, मगर उतनी नही जितनी उसके साथ. जब हम वहाँ खामोशी से बैठे थे तब मुझे ध्यान आया कि उसने मेरे साथ सिरफ़ और ज़्यादा समय ही नही बिताना बल्कि उसके मन में इसके इलावा और भी कुछ था. मगर तकलीफ़ इस बात की थी इस ‘और कुछ’ का कोई सुरुआती बिंदु नही था. मैं कोई ग़लत अंदाज़ा लगाने का ख़तरा उठाना नही चाहता था और वो अंदाज़ा लगाने मैं मेरी मदद करने के लिए अपनी तरफ से कोई संकेत कोई इशारा कर नही रही थी.
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