RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
डॉली अपनी पीड़ाओं को न दबा सकी और बोली- 'कुछ नहीं रखा जीने में। हर पल दुर्भाग्य का विष पीने से तो बेहतर है कि जीवन का गला घोंट दिया जाए! मिटा दिया जाए उसे।'
'आपका दुर्भाग्य...?'
'यही कि अपनों ने धोखा दिया। पहले हृदय से लगाया और फिर पीठ में छुरा भोंक दिया। बेच डाला मुझे। पशु समझकर सौदा कर दिया मेरा।'
'अ-आप...।'
डॉली सिसक पड़ी। सिसकते हुए बोली- 'मैं पूछती हूं आपसे। मैं पूछती हूं-क्या मुझे अपने ढंग से जीने का अधिकार न था? क्या मैं क्या मैं आपको पशु नजर आती हूं?'
'नहीं डॉलीजी! नहीं।' जय ने तड़पकर कहा 'आप पशु नहीं हैं। संसार की कोई भी नारी पशु नहीं हो सकती और यदि कोई धर्म, कोई संप्रदाय और कोई समाज नारी को पशु समझने की भूल करता है-उसका सौदा करता है तो मैं ऐसे धर्म, समाज और संप्रदाय से घृणा करता हूं।'
डॉली सिसकती रही।
जय ने सहानुभूति से कहा- 'डॉलीजी! आपके इन शब्दों और इन आंसुओं ने मुझसे सब कुछ कह डाला है। मैं जानता हूं-दुर्भाग्य आपको शहर से उठाकर गांव ले गया। वहां कोई अपना होगा-उसने आपको आश्रय दिया और फिर आपका सौदा कर दिया। इस क्षेत्र में ऐसा ही होता है-लोग तो अपनी बेटियों को बेच देते हैं-फिर आप तो पराई थीं और जब ऐसा हुआ तो आप रात के अंधेरे में रामगढ़ से चली आईं। सोचा होगा-दुनिया बहुत बड़ी है-कहीं तो आश्रय मिलेगा। कहीं तो कोई होगा-जिसे अपना कह सकेंगी।'
डॉली की सिसकियां हिचकियों में बदल गईं।
एक पल रुककर जय फिर बोला- 'मत रोइए डॉलीजी! मत रोइए। आइए-मेरे साथ चलिए।'
'न-नहीं।'
'भरोसा कीजिए मुझ पर। यकीन रखिए संसार में अभी मानवता शेष है। आइए-आइए डॉलीजी!' जय ने आग्रह किया।
डॉली के हृदय में द्वंद्व-सा छिड़ गया।
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