RE: Kamukta Story कांटों का उपहार
सूरजभान की आँखें खुशी से बरस पड़ी. राधा से मिलने की चाह में तड़प उठे. कुच्छ देर बाद नर्स के जाते ही उन्होने अपने समीप की रोगी से पुछा, - "भैया, क्या तुम बता सकते हो लखनऊ के लिए यहाँ से कितने बजे की ट्रेन है?"
"हां" रोगी ने कहा. - "रात के 9 बजे. क्यों किसी को जाना है क्या?"
"नही बस यूँही पुच्छ लिया." उन्होने करवट लेते हुए एक आह भारी. फिर सोचा. लखनऊ से रामगढ़ है ही कितनी दूर. उन्हे इसी वक़्त निकल जाना चाहिए. क्या पता ऐसी अवस्था में कल सुबह डॉक्टर उन्हे छुट्टी ही ना दे. जीवन की कुच्छ ही साँसे शेष रह गयी है. राधा की बाहों में उनका दम निकले उन्हे और क्या चाहिए. जीते जी उनके पापों का प्रयशचित तो हो जाएगा. राधा से मिलने के लिए उनकी बाहें फड़कने लगी. उन्होने घड़ी में समय देखा अभी 9 बजने में काफ़ी वक़्त था. बेचैनी से बार बार घड़ी की तरफ देखते हुए रात के 8 बजने का इंतेज़ार करने लगे. 8 बजते ही वह बिस्तर से उठ बैठे. सारे मरीज सो चुके थे. पहाड़ी इलाक़ा होने के कारण रात जल्दी ही घनी हो जाती थी. उन्होने अपनी नज़र दौड़ाई. एक भी नर्स वॉर्ड में नही थी. वह दबे पावं पलंग से उतरे. उनका गरम ओवर कोट और अन्य कपड़े स्टोर रूम में बंद थे. उनके बदन पर इस वक़्त अस्पताल के ही साधारण कपड़े थे. ठंड अधिक थी, ठंड से बचने के लिए उन्होने अस्पताल का ही कंबल अपने शरीर पर लपेट लिया. बाहर निकले तो ठंडी हवाएँ सुई की नोक की तरह उनके बदन पर चुभने लगी. फिर भी उन्होने रुकना उचित नही समझा. एक पल भी देर कर देने से जीवन उन्हे धोखा दे सकता था. आकाश पर रह रह कर बिजली कौंध जाती थी. तब दूर दूर की पहाड़ियाँ भी चमक उठती थी. सूरजभान अपने को संभाल कर स्टेशन की तरफ बढ़ गये. परंतु कुच्छ ही दूर चले थे कि वर्षा की तूफ़ानी झड़ी उनके उपर छा गयी. उनका शरीर ठंड से ठिठुरने लगा. परंतु वह फिर भी बढ़ते गये. स्टेशन पहुँचे तो उनके शरीर की कंपकंपी ज्वर बनकर उन पर छा चुकी थी. अपने आपको भीगे कंबल से लपेट कर वह तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठ गये.
गाड़ी चली तो उनके शरीर की कंपकंपी और बढ़ गयी. उनके दाँत किटकिटाने लगे. खाँसी का दौरा पड़ गया. डिब्बे पर बैठे दूसरे यात्रियों ने उन्हे बहुत घृणा से देखा और अपने नथुनो पर कपड़े रख लिए. खाँसी के साथ उनके मूह से निकले खून के छींटे कॉमपार्टमेंट के फर्श पर बिखर गये थे.
"तुमको तपेदिक है क्या?" एक यात्री ने उन्हे देखकर क्रोध से पुछा.
उन्होने बड़ी कठिनाई से हां के इशारे पर गर्दन हिला दिया.
"तुमको इसी डिब्बे में बैठना था." दूसरे यात्री ने मूह बिचका कर कहा, - "अगले स्टेशन पर उतरकर दूसरे डिब्बे में चले जाना."
"शट-अप." वह बहुत ज़ोर से चीखे. इतने ज़ोर से कि सभी आश्चर्य से उन्हे देखने लगे. जब गाड़ी लखनऊ स्टेशन पर रुकी तो रात के दो बज चुके थे. प्लतेफोर्म पर उतरे तो वर्षा ज़ोरों पर थी. कॉमपार्टमेंट के अंदर बंद रहने के कारण कंबल काफ़ी सुख चुका था. इसलिए उन्होने इसे ठीक से बदन पर लपेट लिया और बाहर निकले. बाहर निकल कर वर्षा की परवाह किए बिना ही टॅक्सी वालों की तरफ बढ़ गये. सभी अपनी कार का शीशा चढ़ाए सो रहे थे. उन्होने एक टॅक्सी पर ज़ोर की थपकी दी. ड्राइवर की आँख खुली. उसने दरवाज़े का शीशा कुच्छ नीचे किया.
"रामगढ़ ले चलो भैया." उन्होने ड्राइवर से विनती की.
"अभी." ड्राइवर ने उनकी अवस्था को गौर से देखा. - "अभी तो वर्षा के कारण उधर का रास्ता खराब होगा. उस तरफ रात में चलना ख़तरे से खाली नही है."
"तुमको जीतने भी पैसे चाहिए मैं वहाँ पहुँचते ही दे दूँगा." उन्होने फिर से विनती की, - "बस मुझे वहाँ की हवेली पहुँचा दो."
"हवेली?"
"हां, मैं राजा सूरजभान सिंग हूँ."
"राजा सूरजभन सिंग." ड्राइवर ने इस बार और भी गौर से देखा. बहुत ध्यान से उपर से नीचे तक. फिर एक ज़ोरदार ठहाका लगाया. - "हा...हा...हा... राजा सूरजभान सिंग." फिर वह थोड़ा क्रोध में आया, - "चल भाग यहाँ से. खमखा ही मेरी नींद हराम कर दी. पागल कहीं का."
सूरजभान सिंग को उस पर बहुत तेज़ गुस्सा आया. परंतु फिर अपनी वर्तमान स्थिति का ध्यान करके उन्होने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी. वह दूसरे टॅक्सी की तरफ बढ़ गये. तभी उन्हे एक तांगा खड़ा दिखाई दिया. परंतु उसका चालक कहीं दिखाई नही दिया. वह शायद तांगा खड़ा करके कहीं को चला गया था. सूरजभान ने अपनी दृष्टि चारों और घुमाई. उन्हे कोई भी दिखाई नही दिया. अचानक ही वह लपक कर तांगे में चढ़ गये. घोड़े पर चाबुक बरसाई और तांगा भगा दिया. पीछे किसी का शोर सुनाई दिया. पर उन्होने पिछे पलट कर देखा तक नही.
कुच्छ ही दूर चले थे की उनका शरीर ठंड से बेजान होने लगा. लगाम को थामे रखना मुश्किल हो गया. तूफ़ानी बारिस के थपेड़ों से उनका शरीर शिथिल हो रहा था. अचानक ही तांगे का पहिया किसी खड्डे से टकराया. उनका संतुलन बिगड़ा. वह खुद को संभाल नही पाए. कलाबाज़ियाँ खाते हुए कीचड़ पर गिरे. गिरते ही उनका शरीर सुन्न हो गया. उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह फिर से उठ नही पाएँगे. उनका दम निकल जाएगा. परंतु पूरी शक्ति बटोर कर फिर से खड़े हुए और पैदल ही रामगढ़ की तरफ चल दिए.
कुच्छ दूर चलते ही उनकी साँसे उखाड़ने लगी. उन्होने एक जगह खड़े होकर दम साधा और देखा - दूर बहुत दूर उनकी हवेली धुंधली धुंधली दिखाई पड़ रही है. उनके मुखड़े पर खुशी की लहर दौड़ गयी. एक ही झटके में उन्होने चाहा कि लपक कर हवेली पहुँच जाएँ. उन्होने तेज़ तेज़ कदम बढ़ाने शुरू किए. परन्तु कुच्छ ही दूर चलते ही उनके पग लड़खड़ा गये. उन्होने महसूस किया उनकी शक्ति उन्हे जवाब दे रही है. एक बार फिर उन्होने इसे समेटने का प्रयत्न किया. परंतु होंठ केवल भिच कर रह गये. वह नाकाम रहे. मानो अब उनके शरीर में गरम खून की एक बूँद भी ना बची हो. उनका गला सुख गया, दिल बैठने लगा. वह लड़खड़ाए...उन्होने एक पग आगे बढ़ाया परंतु फिर वहीं नागफनी के एक पौधे के कुछ दूर गिर पड़े. बड़ी कठिनाई से उन्होने अपनी गर्दन हवेली की ओर घुमाई. अंधेरा छाँट रहा था. हवेली की उपरी मंज़िले स्पस्ट दिखाई पड़ रही थी. उनके दिल को सख़्त ठेस लगी. नदी के किनारे आकर भी वह डूब गये. बड़ी बड़ी घनी पलकों पर आँसू छलक आए. होठ खुल गये. उन्हे गहरी गहरी साँसे आने लगी. कीचड़ से लथ-पथ प्यास से उनके होंठ सूखने लगे. आस-पास गढ्ढो में पानी होने के पश्चात भी उन्हे एक बूँद पानी देने वाला कोई नही था. और वह इसके लिए तरसते रह गये.
अचानक ही उनकी नज़रों के सामने उनकी वास्तविकता घूम गयी. शानदार हवेली...राजमहल...आगे पिछे सिपाही...पहरेदार...हरे भरे खेत - खलिहान...और इन्हे के बीच राधा से पहली मुलाक़ात...फिर दूसरी मुलाक़ात.
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