RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“नौबत ही नहीं आई । वैसे मैं भी बड़ी भयभीत थी कि पता नहीं अगली बार बूढा क्या शरारत करे । शायद गुंडों का सहारा ले और मुझे किसी और प्रकार की मुश्किल में डालने की कोशिश करे । उन दिनों मैंने चुपचाप दूसरी नौकरी तालाश करनी आरम्भ कर दी थी । लेकिन तभी भगवान ने सारे बखेड़े का सबसे आसान हल निकाल दिया ।”
“क्या ?”
“बूढे का हार्ट फेल हो गया । वह दफ्तर में ही टें हो गया ।”
“और फिर दफ्तर बेटे के हाथ में आ गया ?”
“हां ।”
“और अब बेटा भी तुझ पर आशिक है ?”
“वह है ।”
“लेकिन तुम नहीं हो ?”
“नहीं ।”
“क्यों ।”
“क्योंकि उसकी लाइन आफ एक्शन भी लगभग वैसी ही है जैसी उसके बाप की थी ।”
“हर्ज क्या है ! बाप तो बूढे होते हैं लेकिन बेटे तो जवान होते हैं ।”
“हर्ज है मुझे हर्ज दिखाई देता है । मुझे गन्दी नीयत वाले मर्द पसन्द नहीं हैं ।”
“नीयत तो दुनिया के हर मर्द के गन्दी होती है लेकिन पैसा किसी किसी के पास होता है ।”
“मुझे पैसे की इतनी चाह नहीं है ।”
सरला कुछ क्षण विचित्र नेत्रों से आशा को घूरती रही और फिर यूं गहरी सांस लेकर बोली, जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गई हो - “हाय वे मेरे या रब्बा ।”
“क्या हो गया !” - आशा केतली उठा कर अपने कप में दुबारा चाय उढ़ेलती हुई बोली - “भगवान क्यों याद आने लगा है तुम्हें ?”
“आशा !” - सरला तनिक गम्भीर स्वर से बोली - “सोच रही हूं कि तुम्हारे सिन्हा साहब या उनके बाप जैसे मर्द मुझ से क्यों नहीं टकराते ?”
“तुम्हें उनकी गन्दी हरकतों से कोई ऐतराज नहीं है ?”
“कोई ऐतराज नहीं है, बशर्ते वे अगले दिन मुझे जौहरी बाजार या मुम्बा देवी ले जाकर मेरी मनपसन्द का हीरों का हार खरीद लेने के अपने वादे पर पूरे उतरें ।”
“और अगर वे अपना वादा पूरा न करें ?”
“कोर्ई और तो अपना वादा पूरा करेगा । सारे ही तो बेइमान नहीं होते ।”
“तुम्हें तजुर्बे करते रहने में कोई ऐतराज दिखाई नहीं देता ?”
“नहीं ।” - सरला सहज स्वर में बोली - “आशा, जिंदगी उतनी छोटी नहीं जितनी दार्शनिक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं और जवानी भी मेरे ख्याल से काफी देर टिकती है ।”
“मुझे ऐतराज है ।” - आशा तनिक कठोर स्वर में बोली ।
“क्या ऐतराज है ?”
“मैं कोई ऐक्सपैरिमैन्ट की चीज नहीं जो किसी निजी ध्येय तक पहुंचने की खातिर जिस तिस की गोद में उछाली जाऊं ।”
“क्या हर्ज है अगर जिस तिस की गोद में उछाल मंजिल तक पहुंचने के लिये शार्टकट सिद्ध हो जाये ।”
“मेरी मंजिल इतनी दुर्गम नहीं है कि मैं हर अनुचित परिस्थिति से समझौता करने वाली भावना को मन में पनपने दूं । मैं आसमान पर छलांग नहीं लगाना चाहती ।”
“लेकिन मैं तो आसमान पर छलांग चाहती हूं ।”
“ठीक है लगाओ । कौन रोकता है ? अपनी जिंदगी जीने का हर किसी का अपना अपना तरीका होता है लेकिन एक बात तुम लिख लो ।”
“क्या ?”
“जब कोई इनसान बहुत थोड़ी मेहनत से बहुत बड़ा हासिल करने की कोशिश करता है या वह गलत और भविष्य में दुखदाई साबित होने वाले तरीकों से ऐसी पोजीशन पर पहुंचने की कोशिश करता है, जहां पहुंच कर मजबूती से पांव टिकाये रह पाने की काबलियत उसमें नहीं है तो उसका नतीजा बुरा ही होता है ।”
“तुम बेहद निराशावादी लड़की हो ।” - सरला ने अपना निर्णय सुना दिया ।
“यह बात नहीं है । मैं तो...”
“छोड़ो” - सरला बोर सी होती हुई बोली - “तुम्हारी ये बातें तो मुझे भी निराशावादी बना देंगी और मुझे जो हासिल है, मैं उसी से सन्तुष्ट होकर बैठ जाऊंगी ।”
“और वास्तव में आजकल तुम हो किस फिराक में ?”
“मैं आजकल बहुत ऊंची उड़ाने भरने की कोशिश कर रही हूं और, सच आशा, अगर मेरा दांव लग गया तो मैं वक्त से बहुत आगे निकल जाऊंगी ।”
“किस्सा क्या है ?”
“सच बता दूं ?” - सरला शरारत भरे स्वर से बोली । एक क्षण के लिये जो गम्भीरता उसके स्वर में थी वह एकाएक गायब हो गई थी ।
“और क्या मेरे से झूठ बोलोगी ?”
“आजकल मैं एक बड़े रईस आदमी के पुत्तर को अपने पर आशिक करवाने की कोशिश कर रही हूं ।” - सरला रहस्य पूर्ण स्वर में बोली ।
“आशिक करवाने की कोशिश कर रही हो !” - आशा हैरानी से बोली - “क्या मतलब ?”
“हां और क्या ! आशिक ही करवाना पड़ेगा उसे खुद आशिक होने के लिये तो उसे बम्बई की फिल्म इन्डस्ट्री में हजारों लड़कियां दिखाई दे जायेंगी ।”
“फिर भी वह तुम पर आशिक हो जायेगा ?”
“होगा कैसे नहीं खसमांखाना !” - सरला विश्वासपूर्ण स्वर में बोली - “मैं बहुत मेहनत कर रही हूं उस पर ।”
“लेकिन अभी तुम बम्बई की फिल्म इन्डस्ट्री की हजारों लड़कियों का जिक्र कर रही थी....”
“वे सब मेरे जैसी होशियार नहीं हैं ।” - सरला आत्मविश्वास पूर्ण स्वर में बोली - “मर्द की ओर विशेष रूप से कच्चे चूजों जैसे नये नये नातजुर्बेकार छोकरों को फांसने के जो तरीके मुझे आते हैं, वे उन हजार खसमाखानियों को नहीं आते जो उस छोकरे को फांसने के मामले में मेरी कम्पीटीटर बनी हुई हैं या बन सकती हैं । मैं बहुत चालाक हूं ।”
“तुम तो यूं बात कर रही हो जैसे चालाक होना भी कोई यूनीवर्सिटी की डिग्री हो ।”
“बम्बई में तो डाक्टरेट है । तुम्हारी बी ए की डिग्री के मुकाबले में मेरी यह तजुर्बे की डिग्री ज्यादा लाभदायक है । तुम तो जिन्दगी भर सिन्हा साहब के दफ्तर में या ऐसे ही किसी और साहब के दफ्तर में टाइप राइटर के ही बखिये उधेड़ती रह जाओगी लेकिन मेरी जिन्दगी में कहीं भी पहुंच जाने की अन्तहीन सम्भावनायें हैं ।”
“और बरबाद हो जाने की भी अन्तहीन सम्भावनायें हैं ।”
“आशी” - सरला उसकी बात को अनसुनी करके ऐसे स्वर में बोली जैसे कोई ख्वाब देख रही हो - “शायद किसी दिन तुम्हें सुनाई दे कि तुम्हारी सरला बहुत बड़ी हीरोइन बन गई है या किसी करोड़पति सेठ की बीवी या बहू बन गई है और अब नेपियन सी रोड के महलों जैसे विशाल बंगले में रहती है और...”
“या शायद” - आशा उसकी बात काट कर बोली - “किसी दिन मुझे यह सुनाई दे कि सरला खड़ा पारसा में अपने लगभग मुर्दा शरीर पर धज्जियां लपेटे बिजली के खम्बे से पीठ लगाये फुटपाथ पर बैठी, भीख मांग रही है या वह रात के दो बजे खार की सोलहवीं सड़क पर खड़ी किसी भूले भटके ग्राहक का इन्तजार कर रही है या वह किसी सरकारी हस्पताल के बरामदे में पड़ी किसी बीमारी से दम तोड़ रही है या बरसों के गन्दे समुद्री पानी में एक औरत की लाश के अवशेष पाये गये हैं जो कभी सरला थी या...”
इतनी भयानक बातें सुनकर भी सरला के चेहरे पर शिकन नहीं आई ।
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