RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
आशा दफ्तर में बैठी अशोक के टेलीफोन काल का इन्तजार करती रही ।
लगभग साढे बारह बजे सिन्हा अपने आफिस में से निकला और आशा से बोला - “मैं जा रहा हूं । शाम को मैंने एक जरूरी काम से लोनावला जाना है, इसलिये अब लौट कर नहीं आऊंगा । तुम भी चाहो तो आज जल्दी छुट्टी कर लेना ।”
“राइट, सर ।” - आशा बोली ।
सिन्हा चला गया ।
शाम को तीन बजे के करीब अशोक का टैलीफोन आया ।
“हाय, बेबी ।” - टेलीफोन पर अशोक का उत्साहपूर्ण स्वर सुनाई दिया ।
“अशोक ।” - आशा व्यग्र स्वर में बोली - “तुम कहां से बोल रहे हो । मैं कल से तुम्हारे टैलीफोन का इन्तजार कर रही हूं ।”
“कोई खास बात हो गई है क्या ?”
“मैं तुम एक बहुत जरूरी बात करना चाहती हूं । तुम अभी यहां आ सकते हो ?” - आशा ने एक उचटती हुई दृष्टि हीरे की अंगूठी पर डालते हुए प्रश्न किया ।
“इस वक्त तो आ पाना असम्भव है आशा । देखो, अर्चना माथुर मुझसे मिली थी । उसने लोनावला में एक फार्म खरीदा है और वहां एक छोटा सा बंगला भी बनवाया है । आज वह कुछ फिल्मी लोगों को वहां पार्टी दे रही है । अर्चना ने मुझे बताया है कि लोनावला वाली पार्टी के लिये तुम्हें पहले ही आमन्त्रित कर चुकी है मैं पांच बजे तुम्हारे लिये गाड़ी भेज दूंगा । शोफर तुम्हें लोनावला ले जायेगा । फिर वहीं बातें होगी ।”
“तुम खुद नहीं आ सकते ?”
“नहीं, आशा । मैं बहुत बहुत माफी चाहता हूं । मैं यहां एक बहुत जरूरी काम से जेपी के साथ फंसा हुआ हूं ।”
“लेकिन मैं लोनावाला नहीं जाना चाहती ।”
“अरे, चलो । बहुत मजा आयेगा ।”
“तुम वाकई यहां नहीं आ सकते ।”
“नहीं । अगर आ सकता होता तो तुम से झूठ बोलता ?”
आशा चुप रही ।
“तो फिर लोनावला चल रही हो न ?” - अशोक ने व्यग्र स्वर में पूछा ।
“अच्छा ।” - आशा बोली ।
“फाइन । ड्राइवर पांच बजे गाड़ी से घर पहुंच जायेगा । मैं तुम्हें लोनावला में ही मिलूंगा । तब तक के लिये बाई ।”
“बाई ।” - आशा बोली और उसने रिसीवर रख दिया ।
पूरे पांच बजे शोफर आशा को लेने पहुंच गया ।
पौने सात बजे शोफर ने लोनावला में अर्चना माथुर के फार्म हाउस के सामने ला खड़ी की ।
बंगले के सामने गाड़ियों का ताता लगा हुआ था । काफी मेहमान आ चुके थे और काफी अभी चले आ रहे थे । भीतर रेडियोग्राम में से फूटती स्वर लहरियों के साथ मेहमानों के गगन भेदी अट्टाहास गूंज रहे थे । जिनमें जेपी की आवाज सबसे ऊंची थी ।
“आ गई तुम ?” - अर्चना माथुर ने एक गोल्डन जुबली मुस्कराहट के साथ आशा का स्वागत किया ।
“हां ।” - आशा बोली - “अशोक कहां है ?”
“अशोक अभी नहीं आया है ।” - अर्चना माथुर ने बताया - “तुम भीतर चलो । अशोक भी अभी आता ही होगा । ज्यों ही वह आयेगा मैं उसे तुम्हारे पास भेज दूंगी ।”
“अच्छा ।” - आशा अनमने स्वर से बोली ।
“आओ तुम्हें भीतर छोड़ आऊं ।” - अर्चना उसका हाथ थामती हुई बोली ।
भीतर शराब के दौर चल रहे थे । क्या औरतें क्या आदमी सब पी रहे थे, खा रहे थे और बेतहाशा हंस रहे थे । एक कोने में जेपी अपनी अलग महफिल जमाये बैठा था ।
“जेपी, आशा आई है ।” - अर्चना माथुर उसे जेपी के सामने ले जाकर बोली ।
“अच्छा !” - जेपी आशा को देखता हुआ बोला - “बड़ी खुशी की बात है ।”
जेपी ने अपनी बगल में से एक लड़की को दूसरी ओर धकेल दिया और खाली स्थान को अपनी हथेली से थपथपाता हुआ बोला - “आओ, आशा, बैठो ।”
आशा एक क्षण हिचकिचाई और फिर निश्चयपूर्ण स्वर से बोली - “मैं इधर बैठती हूं सेठ जी ।”
और वह जेपी की महफिल के झुंड से हटकर रेडियोग्राम के समीप पड़े एक खाली सोफे पर बैठ गई ।
जेपी सेठ ने एक आह भरी और बोला - “मर्जी तुम्हारी । अशोक अभी आता होगा ।”
अशोक द्वार के समीप खड़ा अर्चना माथुर से बातें कर था । आशा उसके समीप पहुंच गई ।
“हल्लो, आशा ।” - अशोक प्रसन्न स्वर से बोला ।
“हल्लो ।” - आशा के होंठों पर एक फीकी सी मुस्कराहट आ गई ।
“मैं हटूं यहां से ।” - अर्चना माथुर बोली - “मैं क्यों कबाब में हड्डी बनूं ।”
और अर्चना वहां से हट गई ।
अशोक ने आशा का हाथ थामा और इमारत से बाहर निकल आया । इमारत के सामने फार्म की हद के पास एक पेड़ के नीचे एक बेच पड़ा था । दोनों उस बेच पर आ बैठे ।
“क्या बात थी ?” - अशोक मुस्कराता हुआ बोला - “क्या जरूरी बात करना चाहती थी तुम मुझसे ?”
अशोक के आने से पहले जिस बात को वह कम से कम एक हजार बार अपने मन में दोहरा चुकी थी, वह एकाएक उसकी जुबान पर नहीं आई ।
“क्या बात है ?” - अशोक ने फिर पूछा ।
“अशोक ।” - आशा जी कड़ा करके बोली - “मैं तुम्हारी अंगुठी तुम्हें लौटाना चाहती हूं ।”
और उसने अंगूठी को ऊंगली में से उतारने का उपक्रम किया ।
अशोक ने उसका हाय थाम कर उसे अंगूठी उतारने से रोक दिया ।
“क्या बात हो गई है ?” - अशोक ने पूछा ।
“अशोक ।” - आशा भर्राये स्वर से बोली - “मैं तमसे मुहब्बत नहीं करती । मैं तुमसे शादी कर नहीं सकती । इसलिये मैं तुम्हारी अंगूठी तुम्हें लौटाना चाहती हूं ।”
“कोई नई बात हो गई है क्या ?”
“नहीं ।”
अशोक एक क्षण चुप रहा और फिर बोला - “एक बात बताओ ।”
“क्या ?”
“तुम्हारी जेपी से तो कोई बात नहीं हुई ? इस विषय में तुम्हारी जेपी से तो कोई झड़प नहीं हो गई है ?”
“नहीं ।” - आशा कठिन स्वर से बोली ।
“तो फिर एकाएक इतनी बेरुखी क्यों दिखा रही हो ?”
“मैं बेरूखी नहीं दिखा रही हूं । मैं यह बात तुम्हें इसलिये कह रही हूं क्योंकि मैं तुम्हें किसी गलतफहमी में नहीं रखना चाहती ।”
“मुझे कोई गलतफहमी नहीं है, आशा लेकिन, जैसा कि मैं तुम्हें पहले भी कह चुका हूं, मैं कहना चाहता हूं कि तुम इतनी गम्भीर बात का फैसला इतनी जल्दबाजी में ना करो ।”
“मैंने यह फैसला जल्दबाजी में नहीं कया है । मैंने बहुत सोच समझकर यह निर्णय किया है कि मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती ।”
“लेकिन क्यों ? क्या तुम मुझ से मुहब्बत नहीं करती, इसलिये या तुम किसी और से मुहब्बत करती हो ?”
“मैं किसी और से मुहब्बत करती हूं ।” - आशा धीरे से बोली ।
एकाएक अशोक ने आशा का हाथ छोड़ दिया । उसने विस्फरित नेत्रों से आशा की ओर देखा ।
“किससे ?” - उसने पूछा - “कौन है वो ?”
“अमर ।” - आशा के मुंह से केवल एक शब्द निकला ।
“अमर कौन है ? कहां है ? क्या करता है ?”
“तुम अमर को नहीं जानते । वह कहां है और क्या करता है यह मुझे नहीं मालूम । मैंने अभी उसे अभी तलाश करना है और अगर तुम्हारी यह अंगूठी मेरी उंगली में रही तो मैं उसे कभी तलाश नहीं कर पाऊंगी ।”
अशोक कर्ई क्षण चुप रहा ।
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