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RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 24
रवि पिछ्ले 25 मिनिट से झरने के निकट पत्थरों पर बैठा कंचन का इंतेज़ार कर रहा था.
कल वो इसी जगह मिलने की बात कहकर गयी थी. पर रवि को इंतेज़ार करते लगभग आधा घंटा बीत जाने के बाद भी वो अभी तक नही आई थी.
रवि उल्लू की तरह गिरते झरने को टकटकी लगाए घुरे जा रहा था. उसके मानस्पटल पर कभी रोमीयो, कभी फरहाद तो कभी मजनू और रांझा की अनदेखी ताश्वीरें घूम रही थी. इसलिए नही की वो अपनी तुलना उन महान प्रेमियों से कर रहा था, बल्कि इसलिए की आज सही मायने में उनके दर्द का एहसास उसे हुआ था.
आज उसने जाना था कि जुदाई क्या होती हा?, तन्हाई में बैठकर अपने सनम का इंतेज़ार करना क्या होता है? आज वो ये जान गया था कि क्यों प्यार करने वाले अपने कपड़े फाड़ लेते हैं?. क्यों पागलों की तरह गलियों में घूमते हैं? क्यों तन्हाई में बैठकर पत्थरों पर सर पटकते हैं?
क्योंकि आज उसे भी प्यार हो गया था. आज उसे भी किसी का इंतेज़ार करना पड़ रहा था.
उसने आज से पहले किताबों में, फिल्मों में और दोस्तों से इन महान प्रेमियों के बारे में बहुत कुच्छ देखा सुना और पढ़ा था. लेकिन कभी उनके सच्चे प्यार की तड़प को महसूस नही कर सका था. उसे महसूस होता भी तो कैसे? बिना जले जैसे जलन का ग्यान नही होता. वैसे ही बिना प्यार किए प्यार की तड़प का एहसाह नही होता. इस बात पर किसी शायर ने कहा है.
"वही महसूस करते हैं खलिश दर्द ए मोहब्बत की.
जो अपने से बढ़कर किसी को प्यार करते हैं."
आज उसे भी उस दर्द से दो चार होना पड़ गया था. वो पत्थरों पर बैठा कभी अपने बाल नोच रहा था तो कभी झुँझलाकर पिछे देखता जा रहा था.
इस बार भी वो झंझलाहट से भरकर अपनी गर्दन जैसे ही पिछे घुमाया उसकी आँखें खुशी से चमक उठी. उसे कंचन गिरती पड़ती पत्थरों से बचती बचाती अपनी औउर आती दिखाई दी. वो खुशी से पत्थरों पर खड़ा हो गया और कंचन को देखने लगा.
कंचन नीले रंग की सलवार कमीज़ पहनी हुई थी. उन कपड़ों में बहुत सुंदर लग रही थी. दुपट्टा गले से लिपटकर पिछे झूल रहा था. टाइट कुरती में उसके पर्वत शिखर अपनी आकर में साफ़ दिखाई पड़ रहे थे.
कंचन हाफ्ति हुई रवि के पास आकर खड़ी हो गयी. फिर रवि को देखकर धीरे से मुस्कुराइ.
"क्या टाइम हो रहा है?" रवि ने अपनी कलाई में बँधी घड़ी कंचन को दिखाते हुए पूछा. - "पिछ्ले आधे घंटे से पागलों की तरह यहाँ बैठा तुम्हारा इंतेज़ार कर रहा हूँ. तुम्हे तो मेरी कोई फिक़र ही नही है. क्या यही प्यार है तुम्हारा." रवि के शब्दों में ना चाहते हुए भी क्रोध समा गया था.
कंचन रवि के मूह से निकले कठोर शब्दों से सहम गयी. उसने सोचा भी नही था कि यहाँ आते ही उसे अपने साजन से ऐसी झिड़की सुनने को मिलेगी. जब वो घर से निकली थी तब दिल में हज़ारों उमंगे थी, रास्ते भर चहकति हुई, मन में हज़ार अरमान सजाती हुई आई थी. पर यहाँ आते ही उसके मन में अरमानो के जितने भी फूल खिले थे वो सब एक झटके में मुरझा गये. वो धीमे स्वर में रवि से बोली -"ग़लती हो गयी साहेब. मुझे माफ़ कर दो. बुआ ने किसी काम से रोक लिया था." ये कहते हुए कंचन की गर्दन शर्मिंदगी से नीचे झुक गयी.
कंचन का उतरा हुआ चेहरा देखकर रवि को अपनी भूल का एहसाह हुआ. उसका सारा गुस्सा एक पल में गायब हो गया. उसका मन ये सोचकर ग्लानि से भर गया कि बिना कारण जाने उसने कंचन को डाँट पिला दी.
वह धीरे से कंचन के पास आया.
कंचन अब भी गर्दन झुकाए खड़ी थी.
उसने अपने हाथ से उसकी ठोडी को छुआ और उसका चेहरा उपर उठा लिया. कंचन की आँखें गीली हो चली थी. उसकी पलकों के बीच मोती जैसी दो बूंदे चमक उठी थी. उसकी आँखों में आँसू देखकर रवि खुद से झल्लाया. दिल में आया अपनी इस ग़लती पर अपना सर पत्थरों पर मार दे. उससे ऐसी नादानी हुई कैसे? वह उसकी आँखों से आँसू पोछ्ता हुआ बोला - "मुझे माफ़ कर दो कंचन, मैं आइन्दा तुमपर कभी गुस्सा नही करूँगा. प्रॉमिस. तुम चाहो तो मैं अपनी इस ग़लती के लिए कान पकड़कर उठक बैठक लगा सकता हूँ. पर प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो और एक बार प्यार से मुस्कुरा दो."
रवि की इन बातों से कंचन सच में मुस्कुरा उठी. उसके अंदर की सारी पीड़ा क्षन्भर में दूर हो गयी. वह अपनी झिलमिलाती आँखों से रवि का चेहरा ताकने लगी. फिर याचनपूर्ण लहजे में बोली - "साहेब, मुझे कोई भी कष्ट दे देना, पर मुझसे कभी अलग मत होना. मैं आपके बगैर जी नही सकूँगी."
"तो क्या मैं जी सकूँगा तुम्हारे बगैर?" रवि ने ये कहते हुए उसके माथे को चूम लिया. - "आओ....वहाँ बैठते हैं."
रवि ने अपने बाईं और खड़े एक विशाल पेड़ की ओर इशारा किया फिर उसका हाथ पकड़कर उस और बढ़ता चला गया. पेड़ के नीचे एक बड़ा सा समतल पत्थर बिच्छा हुआ था. पत्थर इतना बड़ा था कि 3 आदमी आराम से सो सकते थे. पत्थेर से दो कदम आगे गहरी खाई थी. रवि पेड़ की जड़ से पीठ टिका कर बैठ गया. कंचन उससे थोड़ी आगे होकर बैठी और वहाँ से दूर तक फैली फूलों की घाटी को देखने लगी.
वैसे तो कंचन पहले भी इस खूबसूरती को देख चुकी थी. पर आज उसके देखने में अंतर था. आज उसे इन हसीन वादियों में प्यार का रंग घुला हुआ दिखाई पड़ रहा था. वह जिधर भी नज़र घुमाती सभी पेड़, पत्ते, पौधे, फूल उसे हँसते खिलखिलाते नज़र आ रहे थे.
सूरज क्षितिज की ओर बढ़ रहा था. वातावरण में लालिमा फैलती जा रही थी. सांझ की लालिमा से यह घाटी और भी सुंदर होती जा रही थी.
कंचन सब कुच्छ बिसार कर खोई हुई थी. उसे यह भी होश नही था कि उसके पिछे बैठा रवि उसे कब से एक टक देखे जा रहा है.
रवि भी उसके सुंदर मुखड़े को देखते हुए सब कुच्छ भुला बैठा था. तभी कंचन उसकी ओर पलटी.
रवि को यूँ अपनी ओर देखते पाकर उसकी आँखों में शर्म उभर आई. वो धीरे से शरमा कर बोली - "क्या देख रहे हो साहेब?"
"वही जो तुम देख रही हो." रवि ने उसके चेहरे पर अपनी निगाह जमाए हुए कहा.
"मैं तो इस घाटी की सुंदरता देख रही थी." कंचन मुस्कुराइ - "लेकिन आप तो....!" उसने बात अधूरी छोड़ दी और अपनी नज़रें नीची कर ली..
"तो मैने ग़लत क्या बोला है. मैं भी तो सुंदरता ही देख रहा था."
"धत्त....!" कंचन शरमाई.
"सच कहता हूँ कंचन. तुम्हारी जैसी सुंदर लड़की सारे संसार में ना होगी." रवि उसकी सुंदरता में खोता हुआ बोला.
"आप 1 नंबर के झूठे हैं." कंचन अपनी खूबसूरत आँखें रवि के चेहरे पर टिकाकर बोली - "मैं जानती हूँ मैं ज़्यादा सुंदर नही हूँ. मैं तो निक्की जितनी भी सुंदर नही हूँ. और शहर में तो मुझसे भी सुंदर - सुंदर लड़कियाँ रहती होंगी. कभी कभी मैं सोचती हूँ आप शहर जाकर मुझे भूल तो नही जाएँगे."
"आहह....ये तुमने क्या कह दिया कंचन? तुम्हे ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम्हे छोड़ दूँगा?" रवि खिसक कर उसके समीप जाता हुआ बोला - "क्या तुम्हे मुझपर भरोसा नही है? यदि ऐसा है तो फिर मैं तब तक शहर नही जाउन्गा. जब तक तुम्हे अपनी पत्नी ना बना लूँ. अब तुमसे शादी करने के बाद तुम्हे अपने साथ लेकर ही शहर जाउन्गा."
"लेकिन मा जी?" क्या उनके बगैर शादी करेंगे आप?
"मा को भी यहीं बुला लेता हूँ." रवि उसके गालो को थाम कर बोला.
रवि की बातों से कंचन का चेहरा खिल गया. उसने अपना सर रवि के कंधे पर रख कर अपनी आँखें बंद कर ली.
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RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
रवि ने एक हाथ से कंचन का कंधा थाम लिया और दूसरे हाथ से उसके बालों को सहलाता रहा. उसे अपनी किशोरवस्था के वो पल याद आने लगे जब उसके दोस्त उसका मज़ाक उड़ाया करते थे. वह अपने अकेले पन से कितना घबराया घबराया रहता था. तब उसने कभी नही सोचा था कि कोई लड़की उससे भी प्यार कर सकती है. कोई उसकी भी दीवानी हो सकती है. लेकिन आज किस्मत ने कंचन से उसको मिलाकर उसकी सारी शिकायतों को दूर कर दिया था. कभी कभी उसे लगता था वो कोई गहरी नींद सो रहा है, अभी आँख खुलेगी और सब कुच्छ ख़त्म हो जाने वाला है.
उसे कंचन पर बेहद प्यार आ रहा था. वह खुद को उसके प्यार का ऋणी समझ रहा था. उसने कंचन को देखा. वह अभी भी आँखें बंद किए हुए उसके कंधे पर सर रखे पड़ी थी.
उसने प्यार से उसके सर को चूम लिया.
चुंबन के एहसास से कंचन का ध्यान भी भंग हुआ. शायद वो भी किसी विचारों में लीन थी. वह धीरे से बोली - "साहेब, मा जी कब आएँगी?"
"आज ही मैं उन्हे फोन करके सब कुच्छ बता देता हूँ. और उन्हे यहाँ आने के लिए आग्रह करता हूँ." रवि उसके गालों को सहलाते हुए बोला - "उनके आते ही हम जल्द से जल्द विवाह सुत्र में बँध जाएँगे."
"मा जी. मुझ जैसी गाओं की लड़की को अपनी बहू तो स्वीकार करेंगी ना?" कंचन ने फिर से चिन्तीत होकर कहा.
"तुम मा की चिंता क्यो कर रही हो? वो पुराने ज़माने की संस्कारों वाली औरत हैं. उन्हे ज़्यादा तड़क भड़क पढ़ी लिखी हाइ प्रोफाइल लड़की नही चाहिए. उन्हे तुम्हारी जैसे सुशील शर्मीली संस्कारों वाली बहू चाहिए. उन्हे अपनी बहू में सिर्फ़ 2 गून चाहिए. पहला वो लड़की घर के लोगों की इज़्ज़त करे, दूसरा घर का काम करे, ठीक से घर का ख्याल रखे और अपने हाथों से खाना बनाकर उन्हे खिलाए. मा हमेशा अपने हाथों से खाना बनाकर खाती आई हैं. उन्हे अपनी बहू के हाथ से खाना खाने का बहुत शौक है. बस . अब इतना तो तुम्हे आता ही होगा?" ये कहकर उसने कंचन को देखा.
कंचन ने हां में सर हिला दी. पर अंदर ही अंदर उसे रोना आ रहा था. उसने अपनी सारी उमर चिंटू के साथ खेलने कूदने में बीताई थी. कभी कभार ही घर का कोई काम करती थी. और रही बात खाना बनाने की तो उसे सिर्फ़ चाय के अतिरिक्त कुच्छ भी ना आता था. रवि की बातें सुनकर वह चिंता से भर उठी थी. दिल कर रहा था अभी भाग कर घर जाए और बुआ से खाना बनाना सीखे.
"अरे हां.....!" अचानक रवि चौंक कर कहा - "खाने से मुझे याद आया. गाओं की लड़कियाँ जब अपने साजन से मिलने आती है तो साथ में उनके खाने के लिए हलवा, पूरी.....नही पूरी नही, खिचड़ी......नही खिचड़ी भी नही.........हां याद आया खीर.......खीर लेकर आती हैं. तुम लेकर नही आई?"
कंचन की मुसीबत और बढ़ गयी एक तो वो पहले इस चिंता से परेशान थी कि उसे खाना बनाना नही आता, अब रवि के लिए रोज़ खीर बनाकर कैसे लाएगी?
उसके समझ में नही आ रहा था कि वो रवि को क्या जवाब दे. अगर वो ये कहती है कि कल खीर बनाकर लाएगी तो उसे रोज़ ही खीर लाना पड़ेगा. और अगर ये कहती है कि उसे खीर बनाना नही आता तो कहीं रवि नाराज़ ना हो जाए.
"क्या सोच रही हो?" रवि ने उसे टोका. "तुम्हे खीर तो बनाना आता है ना? मुझे बचपन से ही खीर बहुत पसंद है."
"हां आता है साहेब, मैं कल आपके लिए खीर बनाकर लाउन्गि." कंचन बोल तो दी. पर बोलने के बाद गहरी चिंता में पड़ गयी. - "साहेब, अब मैं घर जाउ? बुआ ने जल्दी घर आने को कहा था."
रवि ने कंचन को देखा. उसके चेहरे पर परेशानी के भाव थे, पर वो उसका सही कारण नही जान सका. उसने मुस्कुरा कर कहा - "ओके. लेकिन कल जल्दी आना और खीर लाना मत भूलना."
"जी." कंचन ने हामी में सर हिलाया. फिर जाने के लिए उठ खड़ी हुई.
रवि भी जूते पहनकर खड़ा हो गया. फिर साथ साथ दोनो उपर आने लगे. अचानक रवि ने कंचन से कहा - "अरे ये तो ग़लत बात हो गयी, हमारी प्रेम की पहली मुलाक़्क़त पूरा होने को है और हमने एक दूसरे को कोई निशानी तक नही दी."
"निशानी?" कंचन चौंक कर पलटी. उसने सवालिया नज़रों से रवि को देखा.
"मैने किताबों में पढ़ा है, प्रेम की पहली मुलाक़ात में प्रेमी एक दूसरे की किस करके प्रेम की निशानी देते हैं, चुंबन के बिना प्रेम अधूरा माना जाता है. लेकिन हमने तो किस किया ही नही"
कंचन रवि की बात से शरमा गयी. और नीचे देखने लगी.
"क्या हुआ?" रवि उसके चेहरे को दोनो हाथों से भर कर उपर उठाते हुए पुछा. - "अगर तुम्हारी इच्छा ना हो तो कोई ज़बरदस्ती नही."
कंचन को लगा अगर आज उसने इनकार किया तो कहीं ऐसा ना हो उसके प्रति रवि का प्रेम कम हो जाए. - "मैने मना कब किया है साहेब." ये कहकर उसने शर्म से अपनी आँखें बंद कर ली.
रवि ने उसके चेहरे को देखा, जहाँ शरम के साथ समर्पण का भी बहुत गहरा छाप चढ़ा हुआ था. उसने अपना चेहरा झुकाया और कंचन के काँपते होंठो पर अपने होंठों को रख दिए.
कंचन का पूरा शरीर काँप गया. वह रवि की बाहों में सिमट सी गयी.
रवि ने एक लंबा चुंबन लेने के बाद उसके होंठों से अपने होंठ अलग किए. फिर कंचन की आँखों में झाँका. उसकी आँखों में शर्म और उतेज्ना से लाल हो गयी थी.
"अब मिलन पूरा हुआ." रवि मुस्कुरकर कहा. "अब तुम घर जा सकती हो."
कंचन कुच्छ देर भारी पलकों से रवि को देखती रही फिर एकदम से मूडी और अपने रास्ते भागती चली गयी.
रवि उस और मूड गया जिधर उसकी बाइक थी. वह जैसे ही अपनी बाइक के पास आया. उसके पैरो तले से ज़मीन निकल गयी.
निक्की अपनी जीप में बैठी उसका इंतजार कर रही थी. जिस जगह रवि और कंचन खड़े होकर किस कर रहे थे. वो जगह जीप से ज़्यादा दूर नही थी. वहाँ से थोड़ा नीचे उतरते ही निक्की उन्हे साफ देख सकती थी.
रवि बाइक तक आया. फिर निक्की को देखा. उसकी आँखें शोला उगल रही थी. चेहरा गुस्से से फट पड़ने को तैयार था.
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अपडेट 25
रवि उसकी आग उगलती आँखें और गुस्से से भरी सूरत देखकर समझ गया कि निक्की ने उसे कंचन के साथ देख लिया है.
इस तरह अपनी चोरी पकड़े जाने से उसकी सिट्टी-पिटी गुम हो गयी थी. लेकिन उसने अपनी घबराहट निक्की पर ज़ाहिर नही होने दिया. उसने लापरवाही से निक्की को देखते हुए कहा - "निक्की जी, आप यहाँ, इस वक़्त?"
"मुझे आप मत कहो." निक्की गुस्से से चीखी. - "जब मैं तुम्हे पसंद ही नही तो फिर ये झूठे सम्मान किस लिए?"
उसके गुस्से को देखकर रवि हैरान रह गया. उसने सोचा भी नही था कि निक्की उसपर इस तरह भड़क सकती है. लेकिन वो उसके गुस्से की परवाह किए बिना बोला - "मैं कुच्छ समझा नही."
"नही समझे?" निक्की व्यंग से मुस्कुराइ. फिर उसी कुटिलता के साथ बोली - "अगर तन्हाई में छुप्कर पाप करना ही था तो मुझे ठुकराकर मेरा अपमान किस लिए किया था?"
"क्या बकवास कर रही हो तुम?" रवि की सहनशक्ति जवाब दे गयी. वह अपने स्थान से खड़े खड़े चीखा.
निक्की की बातों का मतलब समझते ही उसे तेज़ गुस्सा आया था. उसे इस बात का गुस्सा नही था कि निक्की ने उसे चरित्रहीन कहा था, उसे गुस्सा इस बात का था कि निक्की ने उस मासूम, दिल की भोली, बेकसूर कंचन के दामन पर कीचड़ उछाल्ने की कोशिश की थी. जो उसकी दोस्त भी थी.
"अगर ये बकवास है तो तुम दोनो यहाँ अकेले में क्या कर रहे थे?" निक्की ने चुभती नज़रों से उसे घूरा.
"मैं तुम्हारे किसी भी सवाल का जवाब देने के लिए विवश नही हूँ." रवि ने उसे दो टुक जवाब दिया और बाइक की तरफ मूड गया.
"ये क्यों नही कहते, तुम्हारे पास सफाई देने के लिए शब्द ही नही बचे हैं." निक्की ने उसे मुड़ते देख खीजकर कहा.
उसकी बातों से चिढ़कर रवि पलटा. पर गुस्से की अधिकता में कुच्छ कह नही पाया. बस दाँत पीस कर रह गया. द्वेष भावना से पीड़ित नारी को कोई समझाए भी तो कैसे. उनके अक़ल पर ऐसा पत्थेर पड़ा होता है कि लाख कोशिश कर लो पर वो पत्थेर नही हटा-ती. उसने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी.
रवि एक व्यंग भरी मुस्कुराहट निक्की पर छोड़ता हुआ वापस अपनी बाइक की ओर बढ़ गया.
निक्की रवि के इस उपेक्षित (नेग्लिजेंट्ली) व्यवहार को सह ना सकी. वह गुस्से से जीप से उतरी और लपक कर उस तक पहुँची. - "मैं पूछती हूँ.....ऐसा क्या है कंचन में जो मुझमें नही? क्या मैं सुंदर नही? क्या मैं जवान नही? देखो मुझे और बताओ. क्या कमी है मुझमें?" ये कहते हुए निक्की ने उसके सामने अपनी छातियाँ तान दी.
उसके ऐसा करने से सफेद टीशर्ट में कसे उसके बूब्स अपने पूरे आकार का प्रदर्शन कर उठे.
ना चाहते हुए भी रवि की निगाहें उसके पर्वत की तरह उठे बूब्स पर चली गयी. उसके उभरे हुए बूब्स को अपनी आँखों के इतने समीप महसूस कर रवि का पूरा शरीर सिहर उठा. पर दूसरे ही पल उसने अपनी नज़रों को बूब्स से हटा लिया.
"तुम में सबसे बड़ी कमी यह है कि तुम वासना से पीड़ित लड़की हो." रवि ने निक्की की आँखों में तैरती वासनात्मक लहरों को देखते हुए कहा - "तुम अपनी तुलना कंचन से कर भी कैसे सकती हो?"
"मैं वासना से पीड़ित हूँ तो तुम क्या हो? तुम भी तो कुच्छ देर पहले किसी की गर्म बाहों में पड़े हुए थे." निक्की जलकर बोली - "तुम मेरे सामने साधु बनते हो और मेरी पीठ पिछे अइय्यासियाँ करते हो. क्या मैं नही जानती?"
"बंद करो अपनी ये बकवास." रवि गुस्से से चीखा. - "मुझपर ना सही पर थोड़ा बिसवास कंचन पर तो रखो."
"वो तो भोली है तुम्हारी बातों में आ गयी होगी. लेकिन इतना याद रखो....तुमने मुझे ठुकराकर किसी और को अपनाया तो मैं तुम्हे चैन से रहने नही दूँगी." निक्की अपने दाँत चबाते हुए बोली.
रवि के प्रति उसकी तड़प अब केवल शारीरिक सुख भर का नही रह गया था. अब वो रवि को अपने पति के रूप में हासिल करना चाहती थी. लेकिन आज रवि का झुकाव खुद की बजाए कंचन की ओर देखकर वह गुस्से से भर उठ थी.
वो खुद को कंचन के मुक़ाबले हर दृष्टि से बेहतर समझती थी. कंचन ना तो उसकी जितनी पढ़ी लिखी थी, ना ही उसकी जितनी धनी थी, ना उसका घर उसके घर से बड़ा था, ना वो निक्की से अच्छे कपड़े पहनती थी, ना तो निक्की से बेहतर बात करने का ढंग जानती थी. रवि उसका मेहमान था उसके घर रहता था उसका ख़ाता था. फिर भी वो उसके बजाए कंचन से प्यार करता था. निक्की का अहंकारी नारी स्वाभाव इसी बात से दुखी था.
वो कंचन को अपना दुश्मन नही समझ रही थी, लेकिन वो इस बात को सह नही पा रही थी कि जो कंचन सदा उसकी मोहताज रही, जिस कंचन को उसने झोपडे से उठाकर हवेली में स्थान दिया. जिसके साथ उसने अपनी थाली बाटी, जिसके लिए उसने हर फ़र्क को मिटाया, आज वही कंचन उस पर भारी पड़ रही थी. उसका अभिमानी मन इसी बात से आहत था.
रवि ने उससे अधिक उलझना ठीक नही समझा. वो पलटा और अपनी बाइक पर जा बैठा.
"कहाँ जा रहे हो?" निक्की उसकी कलाई पकड़कर गुर्राई.
"तुम्हे रात यही गुजारनी हो तो शौक से गुजारो. मैं अपने रास्ते चला." वह बोला और बाइक की चाभी घुमाया.
"तुम ऐसे नही जा सकते." निक्की फुफ्कारी.
"तो....?" रवि ने आश्चर्य से घूरा.
"तुम्हे मुझे भी होठों पर वैसा ही किस करना होगा जैसा तुमने कंचन को किया था." ये कहते हुए निक्की ने अपने होंठों को उसके होंठों के करीब ले गयी.
"हरगिज़ नही." रवि ने इनकार में अपनी गर्दन हिलाई.
"रवि." निक्की किसी नागिन की तरह फुफ्कारी. - "मैं अपनी कसम खाकर कहती हूँ. अगर तुमने मुझे किस ना किया तो मैं अभी इसी वक़्त अपनी जीप सहित इस पहाड़ी से नीचे कूद जाउन्गि."
"मज़ाक बंद करो और घर चलो." रवि ने विचलित होकर कहा. उसे निक्की के चेहरे की सख्ती अंदर तक हिला गयी थी.
"तुम्हे लग रहा है मैं मज़ाक कर रही हूँ." निक्की दाँत पीसती हुई बोली. उसकी आँखों के शोले भड़क उठे - "तो ठीक है, अगर तुम मेरी बातों की सच्चाई परखना ही चाहते हो तो एक क़दम यहाँ से आगे बढ़कर दिखाओ. मैं अगर इस पहाड़ी से ना कूदी तो मैं ठाकुर जगत सिंग की बेटी नही." वो चट्टान की तरह ठोस शब्दों में बोली - "लेकिन याद रखो रवि. तुम्हे अपनी इस भूल पर ज़िंदगी भर अफ़सोस होगा. क्योंकि मैं मज़ाक नही करती."
रवि सर से पावं तक काँप गया. उसने ध्यान से निक्की को देखा. निक्की इस वक़्त बेहद गुस्से में थी. उसकी आँखों में गुस्से के साथ साथ एक गहरे दर्द की परत भी चढ़ि हुई थी. रवि मनोचिकित्सक (साइकॉलजिस्ट) था उसे समझते देर नही लगी कि निक्की को अगर उसने और आहत किया तो ये सचमुच में अपनी जान दे देगी.
प्यार में अपमानित स्त्री, काम-अग्नि में जलता देह कुच्छ भी कर सकता है. वो एक बार पहले भी निक्की का नाज़ुक मौक़े पर तिरस्कार कर चुका था. रवि नही चाहता था कि उसकी एक भूल से कोई बड़ी आफ़त उसके गले पड़े. उसकी ग़लती से निक्की को कुच्छ हुआ तो वो ठाकुर साहब को क्या जवाब देगा? क्या बीतेगी ठाकुर साहब पर जब उन्हे ये मालूम होगा कि जिस इंसान को वो डॉक्टर जानकार अपनी पत्नी का इलाज़ कराने लाए थे उसने खूनी बनकर उन्ही की बेटी का खून कर दिया.
रवि इस एहसास से पुनः काँप उठा. उसने विवशता से अपने होंठ चबाने शुरू कर दिए. उसे अपने बचाव का कोई भी मार्ग दिखाई नही दे रहा था.
उसने निक्की को देखा वो अभी भी उसके सर पर सवार थी. वो अपनी जलती हुई आँखों से उसे घुरे जा रही थी.
"ठीक है." रवि बुझा बुझा सा बोला - "लेकिन इसके बाद तुम कोई भी बहस नही करोगी और सीधा हवेली लौट जाओगी?"
"मुझे मंज़ूर है." निक्की अपने होंठों पर विजयी मुस्कुराहट लाते हुए बोली.
रवि ने जवाब में अपने होंठ उसकी ओर बढ़ा दिए. निक्की ने उसके गर्दन को पिछे से पकड़ा और अपने होंठों को उसके होंठों से मिला दिया. फिर किसी पके हुए आम की तरह उसके होंठों को चूसने लगी. रवि के पूरे शरीर में तेज़ सनसनाहट भरती चली गयी. निक्की के शरीर की गर्मी उसके मूह के रास्ते उसके शरीर में उतरने लगी. उसकी आँखें नशे में बंद होने लगी. उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वो किसी और ही दुनिया में पहुँच गया हो.
निक्की होंठ चूसने के मामले में महारत रखती थी. वो उसी प्रकार धीरे धीरे उसके होंठों को चुस्ती रही. फिर पूर्ण तृप्ति के बाद वो रवि से अलग हुई.
निक्की के अलग होते ही रवि ने नशे में बंद होती अपनी भारी पलकें खोलकर उसे देखा. उसके चेहरे में जीत की खुशी थी तो वहीं उसके होंठ अपनी कामयाबी पर गर्व से मुस्कुरा उठे थे.
रवि की गर्दन शर्म से झुक गयी. वह कुच्छ देर यूँही उसके चेहरे को देखता रहा. निक्की उसे देखकर मुस्कुराती रही. रवि ने उसकी ओर से अपनी गर्दन घूमाकर बाइक को एक जोरदार किक मारी. अभी वो आगे बढ़ना ही चाहता था कि निक्की की आवाज़ उसके कानो से टकराई. - "ठहरो."
"अब क्या हुआ?" रवि ने सवालिया नज़रों से उसे घूरा.
"तुमने ये तो बताया ही नही कि किसका स्वाद-सुगंध अच्छा था? इस शहरी गुलाब का या उस पहाड़ी फूल का?" निक्की के होठों पर मुस्कुराहट थी.
रवि उसकी ओर देखकर व्यंग से मुस्कुराया. फिर बोला - "शहर के गमलों में खिलने वाले किसी भी फूल में वो सुगंध कहाँ? जो पहाड़ी के आँचल पर खिले फूलों में होती है?"
उसकी इस कटाक्ष (इनसिन्युयेशन) से निक्की का पूरा शरीर अपमान से सुलग उठा. लेकिन इससे पहले कि वो रवि को कोई जवाब देती. रवि एक झटके से आगे बढ़ चुका था. निक्की गुस्से से उसे जाते हुए देखती रही.
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अपडेट 26
कंचन जब तक अपने घर पहुँची, सांझ ढल चुकी थी. सांता बुआ ने रात का खाना पकने के लिए मिट्टी के चूल्हे में आग लगा चुकी थी.
सुगना अभी भी घर नही लौटा था. चिंटू शायद अंदर पढ़ाई कर रहा था.
कंचन शांता को ढूँढती अंदर रसोई तक आई. शांता पतीले में चावल पकने के लिए पानी भर रही थी. उसने शांता को पुकारा - "बुआ....आज क्या बना रही हो खाने में?"
कंचन की आवाज़ से शांता ने पलटकर उसे देखा. उसकी आँखों में अभी भी वही सवाल था. साथ ही चेहरे पर थोड़ी बेचैनी भी व्याप्त थी. - "क्यों पुच्छ रही है? तुम्हे तो मेरे हाथ का बना हर चीज़ अच्छा लगता है?"
"बुआ....!" कंचन अपनी उंगलियों में दुपट्टा घूमाते हुए बोली - "बुआ आज खीर बनाओ ना. मेरा मन आज खीर खाने का हो रहा है."
"खीर...?" शांता ने आश्चर्य से उसे देखा - "लेकिन खीर के लिए सामान कहाँ है?"
"तो ले आओ ना बुआ. जो सामान चाहिए. आज मेरा बड़ा मन हो रहा है...." कंचन तपाक से बोली. और फिर अपनी उग्लियों में दुपट्टा घुमाने लगी.
शांता ने हैरानी से कंचन को देखा. आज उसे कंचन कुच्छ अज़ीब सी लग रही थी. इतनी बेचैनी खाने के लिए उसके मन में कभी नही होती थी. जो बना के दे दिया वो खा लेती थी. पर आज जाने क्यों वो खीर खाने के लिए इतनी ज़ोर दे रही है?
शांता मन में सोचने लगी - अभी इसकी उमर ही कितनी हुई है, सिर्फ़ शरीर से बड़ी हुई है. अक़ल तो अभी भी बच्चों जितनी ही है. शायद इसने किसी के घर में खीर बनते देखा हो. और इसका खीर खाने का मन मचला हो. -"आज तुझे खीर खाने की इतनी अधिरता क्यों है भला? शांता ने पुछा.
"बहुत दिन हो गये हैं ना इसलिए....!" कंचन भोलेपन से बोली - "क्या....नही बनाओगी बुआ?"
"बनाउन्गि कैसे नही. तू जो इतनी प्यार से बोल रही है." शांता ने मुस्कुराते हुए कहा - "कुच्छ चीज़ें बताती हूँ....उसे बनिये की दुकान से लेती आ."
कंचन ने हां में गर्दन हिलाई. फिर शांता की बताई चीज़ों को याद कर तेज़ी से आँगन के दरवाज़े से बाहर निकल गयी. तब तक शांता दूसरे कामो में व्यस्त हो गयी.
लगभग 30 मिनट बाद कंचन लौटी. उसके हाथ में थेले भर का सामान था. उसे देखकर शांता की आँखें हैरत से चौड़ी हो गयी. - "इतना सारा क्या उठा लाई तू?"
शांता ने तो उसे एक दिन का सामान लाने को कहा था. पर कंचन तो दूर की सोच कर गयी थी और पूरे हफ्ते भर का सामान उठा लाई थी. वो बुआ से बोली - "अभी ले आई तो अच्छा किया ना बुआ." फिर कभी खाने का मन हुआ तो?"
"तो तब ले आती." शांता ने थेले का सामान जाँचते हुए कहा. - "अब ये रखे रखे खराब नही हो जाएँगा?"
कंचन खामोश हो गयी. अब वो कैसे समझाती बुआ को कि उसे अब रोज़ ही खीर खाने का मन होने वाला है.
उसे उदास देख सांता बोली - "अच्छा ही किया बेटी जो तू ले आई. रोज़ रोज़ दुकान जाने से समय हर्ज़ होता है. अब जब भी तेरा मन खीर खाने का करे मुझे बता देना मैं बना दिया करूँगी."
शांता कंचन से थेला लेकर उससे सामान निकालने लगी. उससे कभी कंचन की उदासी नही देखी जाती थी. बिन मा की लड़की को वो उदास देख भी कैसे सकती थी. बचपन से ऐसे ही उसकी ज़रा ज़रा सी बातों का ख्याल करती आई थी. जैसे वो उसी की कोख से जन्मी हो. शांता कभी कभार चिंटू पर बरस पड़ती थी तो कभी उसकी शरारत पर मार भी देती थी, पर कंचन को कभी भूल से भी नही डाँट'ती थी. आज भी वो उसके उदास चेहरे को देख तड़प उठी थी.
कंचन अभी भी शांता के पिछे खड़ी उसे सामान निकालते देख रही थी.
शांता ने उसे खड़ा देखा तो मुस्कुराकर बोली - "बेटी...मैं खीर बना दूँगी. थोड़ी देर तक तू चिंटू के साथ बैठकर पढ़ाई कर. खीर बनते ही मैं तुम्हे बुला लूँगी."
"मैं तुम्हे खीर बनाते देखना चाहती हूँ बुआ." कंचन ने आग्रह किया. - "खीर कैसे बनाई जाती है.....मैं सीखना चाहती हूँ."
"क्यों सीखना चाहती है?" शांता ने पुछा - "क्या तुम्हे ये लगता है मैं तुम्हे फिर कभी खीर बनाकर नही खिलाउन्गि?."
"ऐसी बात नही है बुआ. मैं अब घर के सारे काम सीखना चाहती हूँ. तुमने तो मुझे अभी तक कुच्छ भी नही सिखाया." कंचन ने शिकायत की.
उसे सच में इस बात का दुख था कि बुआ ने उसे कभी घर का कोई काम करने नही दिया. खाना बनाना नही सिखाया. कुच्छ नही तो खीर ही बनाना सीखा देती. कम से कम वो अपने हाथों से बनाई खीर तो रवि को खिला सकती थी.
वहीं शांता खड़े खड़े उसे हैरत से देखे जा रही थी. उसे आज कंचन के स्वाभाव में काफ़ी परिवर्तन दिखाई दे रहा था. पहले खीर खाने के लिए उतावलापन और अब घर के कामो के प्रति लगाव....."कुच्छ तो हुआ है इसे." वह मन में सोची.
"ये तुम्हे अचानक से घर के कामों को सीखने का मन क्यों हुआ?" शांता ने मुस्कुराते हुए पुछा.
"जो ना सीखी तो......जब मैं ससुराल जाउन्गि तब मेरी सास मुझे डाँट नही लगाएगी? कहेंगी नही कि....मुझे घर का कोई काम नही आता."कंचन बिना रुके कहती रही. - "तब तुम्हारी कितनी बदनामी होगी बुआ? फिर सास मुझे घर से भी निकाल देंगी. इसलिए अब मैं रोज़ आपके साथ खाना बनाना सीखूँगी और घर के दूसरे काम भी."
भोली कंचन की भोली बातें सुनकर एक ओर जहाँ शांता मंद मंद मुस्कुरा रही थी तो वही दूसरी ओर इस बात से चकित भी थी कि आज कंचन को इतनी सारी बातें कहाँ से सीखने को मिल गयी. पहले तो ये कभी इस तरह की बातें नही करती थी
"क्यों हंस रही हो बुआ.?" शांता को हँसते देख कंचन के चेहरे पर लाज की लाली फैल गयी.
"ऐसे ही." शांता ने मुस्कुराकर जवाब दिया. फिर उसके झुके चेहरे को ठोडी से पकड़कर उठाते हुए आगे बोली. - "वो सब तो ठीक है, मैं तुम्हे सब सिखा दूँगी. पर तुम्हारे मन में ये सास का डर भरा किसने?"
कंचन के आगे रवि का चेहरा घूम गया. पर बुआ से उसके बारे में कह ना सकी. लाज की गठरी बनी खामोशी से शांता को देखती रही.
"ठीक है रहने दे मत बता. आ मेरे साथ बैठ, तुझे आज खीर बनाकर दिखाती हूँ. फिर अपनी ससुराल में बनाना अपनी सास के लिए." शांता ये कहते हुए कंचन का हाथ पकड़कर चूल्हे तक ले गयी. फिर उसे एक एक करके सारी विधि बताने लगी और कंचन उसके बताए अनुसार खीर बनाने लगी.
कंचन पूरे ध्यान से शांता की बताई बातों को मन में उतारती रही. कंचन इस काम में ऐसी खोई कि चिंटू के बार बार बुलाने पर भी उसके पास नही गयी. रोज़ इस वक़्त वो चिंटू को पढ़ाती थी, पर आज उसने भाई की तरफ देखा तक नही.
अंततः ! कंचन की मेहनत पूरी हुई और उसकी मीठी खीर बनकर तैयार हुई.
इतने में सुगना भी लौट आया था. आँगन में पावं धरते ही खीर की सुगंध उसकी नाक से टकराई.
"ओह्ह्ह......तो आज घर में खीर बनाई जा रही है." सुगना नाक सूंघते हुए चूल्हे तक आया. -"बड़ी अच्छी सुगंध आ रही है."
"सुगंध कैसे नही आएगी भैया. कंचन के हाथ का बना जो है." शांता ने पानी का लौटा सुगना को देते हुए कहा.
"क्या.....!" सुगना का मूह से खुशी से भरा स्वर निकला. उसने कंचन को देखा जो होठों में मुस्कुराहट और आँखों में शर्म लिए पिता की ओर देखे जा रही थी. - "ये जान कर तो मेरी भूख दुगुनी हो गयी है. मैं खाना तो थोड़ी देर में खाउन्गा.....पर अभी थोड़ी सी खीर कटोरी में ले आ. ज़रा देखूं तो मेरी बेटी ने कैसी खीर बनाई है."
सुगना के कहने की देरी थी और कंचन खीर निकालने दौड़ पड़ी. रसोई से कटोरी लाकर उसमे खीर भरी और सुगना को पकड़ा दी. फिर सुगना के खाने के बाद अपनी प्रसंसा सुनने के लिए पास ही खड़ी हो गयी.
सुगना ने चम्मच से खीर उठाकर अपने मूह में लिया. फिर अपनी जीभ चलाते हुए उसने कंचन को देखा जो टकटकी लगाए उसी को देख रही थी. उसके मन में हज़ारों शंकाए थी......जाने बापू को खीर कैसी लगी होगी. कहीं ऐसा ना हो बापू नाराज़ हो जायें. लेकिन अगले ही पल उसकी सारी शंकाए बेजान साबित हुई.....जब उसकी नज़र सुगना के होंठों पर फैलती मुस्कुराहट पर पड़ी.
"बापू बताओ ना खीर कैसी लगी?" कंचन से और ना रहा गया. उसके मन में अपनी मेहनत का परिणाम जान'ने की उत्सुकता चरम पर थी.
"स्वादिष्ट....बेहद स्वादिष्ट !" सुगना गदगद होकर बोला - "मुझे तो बिस्वास ही नही हो रहा है कि मेरी बेटी इतनी अच्छी खीर बना सकती है."
कंचन भाव-विभोर हो गयी. अपने बापू के मूह से अपने हाथ से बनाई खीर की प्रसंसा सुनकर उसका रोम रोम पुलकित हो उठा. मन मयूर की तरह नाचने को हुआ. पर पिता का ध्यान करके अपनी खुशी अपने दिल में दबा गयी.
उसकी खुशी केवल इसलिए नही थी कि उसने अच्छी खीर बनाई थी और उसके पिता ने उसकी सराहना की थी. उसकी खुशी का कारण था रवि.....! वो ये सोचकर खुश हो रही थी कि कल वो अपने प्रीतम को अपने साहेब को अपने हाथों से खीर बनाकर खिला सकेगी. उसके मूह से अपने लिए सच्ची प्रसंसा सुनेगी. उसे इस बात की खुशी थी कि अब वो रवि को अपना सकेगी. कहने को तो उसने सिर्फ़ खीर बनानी सीखी थी....पर कोई उसकी नज़र से देखे तो जान पाए कि उसकी उस खीर में कितनी भावनाएँ छिपि हुई थी.
*****
रवि जब हवेली पहुँचा तो निक्की भी उसके पिछे पिछे हवेली में दाखिल हुई.
हॉल में ठाकुर साहब के साथ दीवान जी बैठे हुए थे. वे आपस में कुच्छ बातें कर रहे थे जब रवि ने उन्हे हाथ जोड़कर ग्रीट किया.
रवि और निक्की को एक साथ बाहर से आते देख ठाकुर साहब की आँखें खुशी से मुस्कुरा उठी. - "आओ रवि, हम तुम्हारा ही इंतेज़ार कर रहे थे. तुमसे कुच्छ आवश्यक बातें करनी है." ठाकुर साहब रवि से संबोधित हुए.
रवि की आँखें आश्चर्य से सिकुड गयी. पास ही खड़ी निक्की की ओर नज़र घूमी तो उसके होंठों पर एक विषैली मुस्कान थिरकते पाया. उसने फिर से अपनी नज़रों का रुख़ ठाकुर साहब के चेहरे पर किया. उनके चेहरे पर गहरे संतोष का भाव था. रायपुर आने के बाद आज पहली बार उसने ठाकुर साहब को इतना प्रसन्न देखा था. लेकिन उनके संतोष का कारण उसकी समझ से परे था.
क्रमशः...............................................
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अपडेट 27
रवि जब हवेली पहुँचा तो निक्की भी उसके पिछे पिछे हवेली में दाखिल हुई.
हॉल में ठाकुर साहब के साथ दीवान जी बैठे हुए थे. वे आपस में कुच्छ बातें कर रहे थे जब रवि ने उन्हे हाथ जोड़कर नमस्ते किया.
रवि और निक्की को एक साथ बाहर से आते देख ठाकुर साहब की आँखें खुशी से मुस्कुरा उठी. - "आओ रवि, हम तुम्हारा ही इंतेज़ार कर रहे थे. तुमसे कुच्छ आवश्यक बातें करनी है." ठाकुर साहब रवि से संबोधित हुए.
रवि की आँखें आश्चर्य से सिकुड गयी. पास ही खड़ी निक्की की और नज़र घूमी तो उसके होंठों पर एक विषैली मुस्कान थिरक्ते पाया. उसने फिर से अपनी नज़रों का रुख़ ठाकुर साहब के चेहरे पर किया. उनके चेहरे पर गहरे संतोष का भाव था. रायपुर आने के बाद आज पहली बार उसने ठाकुर साहब को इतना प्रसन्न देखा था. लेकिन उनके संतोष का कारण उसके समझ से परे था.
"बैठो रवि. खड़े क्यों हो?" ठाकुर साहब रवि को खड़ा देख बैठने का इशारा किए.
"जी धन्यवाद." रवि ठाकुर साहब को उत्तर देकर धीमे कदमो से चलते हुए सोफे पर जाकर बैठ गया. फिर सवालिया नज़रों से ठाकुर साहब की ओर देखा - "कहिए मुझसे किस समबन्ध में बात करना चाहते थे आप?" रवि ने पुछा.. उसके चेहरे पर निक्की के साथ हुई झड़प का तनाव अभी भी फैला हुआ था.
"बात आप ही से संबंधित है रवि." ठाकुर साहब बोले - "आप जब से इस हवेली में आए हैं. हमारे लिए हर चीज़ शुभ होती जा रही है. सच कहूँ तो अब हमें ऐसा लगने लगा है जैसे हमारी हर खुशी आपसे होकर ही जाती है"
"मैं कुच्छ समझा नही....? आप कहना क्या चाहते हैं?" रवि चौंकते हुए कहा.
"रवि बात यह है कि.....!" ठाकुर साहब बात अधूरी छोड़कर अपने स्थान से उठ खड़े हुए. फिर चहलकदमी करते हुए एक स्थान पर खड़े हो गये और कुच्छ सोचने लगे.
उन्हे खड़ा होता देख दीवान जी भी सोफा छोड़ दिए. लेकिन रवि अपनी जगह बैठा ठाकुर साहब की ओर देखता रहा. ठाकुर साहब उसकी ओर पीठ किए खड़े थे और उनके दोनो हाथ पिछे बँधे हुए थे.
"दर-असल....हम निक्की का विवाह करना चाहते हैं." ठाकुर उसी अवश्था में खड़े खड़े बोले. वो जो कुच्छ भी कहना चाहते थे उसके लिए सीधे मूह रवि से बात करना उन्हे सहज नही लग रहा था.
"ये तो बहुत खुशी की बात है ठाकुर साहब." रवि जबर्जस्ति मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा. उसने एक सरसरी निगाह निक्की पर डाली जो उसी की ओर देख रही थी.
"आप ठीक कह रहे हैं रवि." ठाकुर साहब रवि की तरफ पलटकर बोले - "ये वाक़ई खुशी की बात है, लेकिन हमारी खुशी अभी अधूरी है, ये तभी पूरी होगी जब इसमे आपकी मर्ज़ी भी शामिल हो जाएगी."
"म....मेरी मर्ज़ी?" रवि हकलाया. - "मैं कुच्छ समझा नही. आप किस मर्ज़ी की बात कर रहे हैं?"
"रवि, हमे ज़्यादा घुमा फिरकर बात करना नही आता." ठाकुर साहब रवि की घबराहट को नज़र-अंदाज़ करते हुए बोले - "असल बात यह है कि हम निक्की के लिए आपकी रज़ामंदी चाहते हैं. हमें निक्की के लिए जैसा वर चाहिए था वो सारे गूण आप में हैं. सच तो यह है रवि कि जिस दिन आपने राधा के सामने दामाद होने का नाटक किया....उसी दिन से हम भी आपको दामाद के रूप में देखने लगे हैं. अब अगर आपको ऐतराज़ ना हो तो, हम इस रिश्ते को पक्का करना चाहते हैं."
रवि सोच में पड़ गया ! उसने सोचा भी नही था कि ठाकुर साहब उसे इस तरह लपेटे में लेंगे. रवि असमंजस में पड़ गया. वो ठाकुर साहब को सब के सामने ना कहकर उनका अपमान नही करना चाहता था. और हां वो कह नही सकता था.
"क्या हुआ रवि? किस सोच में पड़ गये?" अचानक ठाकुर साहब की आवाज़ से रवि चौंका. ठाकुर साहब की नज़रें उसपर गढ़ी हुई थी.
"ठाकुर साहब, मैं आप सब की बहुत इज़्ज़त करता हूँ, प्लीज़....मेरी बात का बुरा मत मानीएगा." रवि ने नम्र स्वर मे ठाकुर साहब से कहा -"मैं इस वक़्त आपके इस सवाल का जवाब नही दे सकता. मेरी कुछ मजबूरियाँ हैं. मुझे थोड़ा वक़्त चाहिए." उसने एक सरसरी सी निगाह निक्की पर डालकर आगे बोलने लगा - " फिलहाल मैं आपसे एक बात की इज़ाज़त चाहता हूँ. मैं अपनी मा को यहाँ बुलाना चाहता हूँ....अगर आप लोगों को कोई परेशानी ना हो तो?"
"कोई बात नही रवि, हमें कोई जल्दी नही है. आप ठीक से विचार कर लीजिए फिर हमें बता दीजिएगा?" ठाकुर साहब उसकी झेंप मिटाते हुए बोले - "अब रही बात आपकी माताजी के आने की तो उन्हे ज़रूर बुलाए....उनसे मिलने की इच्छा तो हम भी रखते हैं. उनसे मिलकर हम बेहद खुश होंगे."
"आपका धन्यवाद....ठाकुर साहब." रवि ने खड़ा होते हुए कहा - "मैं कल ही मा को फोन करके यहाँ बुला लेता हूँ."
"रवि बाबू." अचानक से दीवान जी बोले - "मैं दो एक दिन में किसी काम से शहर जाने वाला हूँ. अगर आप उचित समझे तो आपकी माताजी मेरे साथ ही आ जाएँगी. मेरे होते उन्हे कोई परेशानी भी नही होगी."
"इससे अच्छी बात और क्या होगी दीवान जी. उनके अकेले आने को लेकर मैं चिंतित था. पर अब मेरी चिंता दूर हो गयी." रवि ने दीवान जी का आभार प्रकट किया.
"ठीक है रवि, अब आप जाइए आराम कीजिए. अब हम इस संबंध में आपकी माताजी के आने के बाद ही बात करेंगे." ठाकुर साहब रवि से बोले.
"जी...बहुत अच्छा, नमस्ते." रवि हाथ जोड़ते हुए ठाकुर साहब और दीवान जी को प्रणाम किया. फिर एक नज़र निक्की पर डालकर सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया.
"आपको क्या लगता है दीवान जी? क्या रवि इस रिश्ते के लिए हां कहेगा?"" रवि के जाने के बाद ठाकुर साहब सोफे पर बैठते हुए दीवान जी से पुच्छे.
"वो हां नही कहेगा पापा !" दीवान जी से पहले निक्की बोल पड़ी.
निक्की की बात पर दीवान जी और ठाकुर साहब एक साथ चौंक कर उसकी तरफ पलटे. दोनो की नज़रें एक साथ निक्की के चेहरे पर पड़ी. उसके चेहरे पर उदासी के घने बादल मंडरा रहे थे. वो बेबसी से अपने होंठों को काट रही थी.
निक्की की ऐसी हालत देखकर दोनो ही भौचक्के से रह गये. निक्की अपने होंठों को चबाते हुए आगे बोली - "रवि की पसंद मैं नही हूँ पापा. उसकी पसंद कंचन है." इतना कहकर निक्की ने अपनी गर्दन घुमा ली. जैसे उसे भय था कि कहीं उसकी आँखें पीड़ा से ना छलक पड़े. वो अपने पिता को अपने आँसू नही दिखाना चाहती थी.
"ये तुम क्या कह रही हो निक्की?" ठाकुर साहब घायल नज़रों से निक्की की ओर देखते हुए बोले.
"यही सच है पापा, इसे स्वीकार कर लीजिए. रवि से अब इस समबन्ध में बात करना बेकार है. उसके सपने उसके अरमान.....इस हवेली में रहने वाली निक्की के लिए नही, उस झोपडे में रहने वाली कंचन के लिए हैं." ये कहते हुए निक्की का स्वर भारी हो गया. उसे अपने आँसू छुपाना मुश्किल जान पड़ने लगा. - "मैं अपने कमरे में जा रही हूँ पापा." निक्की बोली और तेज़ी से सीढ़ियों की तरफ बढ़ गयी.
ठाकुर साहब और दीवान जी पत्थेर की मूर्ति बने उसे जाते हुए देखते रहे.
"ये सब अचानक क्या हो गया दीवान जी?" होश में आते ही ठाकुर साहब दीवान जी से बोले - "हमारे पिछे इतना सब कुच्छ होता रहा और हमें इसकी खबर ही ना हुई."
"इसका ग्यान तो मुझे भी नही था सरकार....पर आप निश्चिंत रहें. बात अभी भी बन सकती है." दीवान जी ठाकुर साहब को दिलाषा देते हुए बोले - "बस मुझे इस वक़्त निक्की बेटा से मिलने की इज़ाज़त दीजिए. मैं पहले उनके दिल का हाल जान लूँ."
"जाइए.....दीवान जी, जाकर निक्की को देखिए. मेरी तो कुच्छ भी समझ में नही आ रहा है. पता नही क्यों खुशी हमें रास नही आती." ठाकुर साहब हताश होकर बोले.
"मेरे होते....इस बार खुशी दरवाज़े से नही लौटेगी सरकार....! आप हिम्मत ना हारें." दीवान जी ने उन्हे फिर से आश्वासन दिया - "मैं पहले निक्की बेटा से मिल लूँ फिर आप से बात करता हूँ." इतना कहकर दीवान जी निक्की के कमरे की तरफ बढ़ गये.
दरवाज़े पर पहुँचकर दीवान जी ने धीरे से दरवाजे को हाथ लगाया तो दरवाज़ा खुलता चला गया. दीवान जी की नज़र अंदर पहुँची. निक्की बिस्तर पर औंधे मूह पड़ी हुई थी.
"निक्की बेटा." दीवान जी दरवाज़े से ही बोले. उनकी आवाज़ से निक्की पलटी, दरवाज़े पर खड़े दीवान जी पर नज़र पड़ी तो बिस्तर पर उठकर बैठ गयी.
"निक्की बेटा....हमें बताइए.....पूरी कहानी बताइए.....आपके, रवि और कंचन के बीच जो कुच्छ भी है वो सब हमें बताइए." दीवान जी अधिरता के साथ बोले.
"वे दोनो एक दूसरे से प्यार करते हैं अंकल...." निक्की दीवान जी की ओर देखकर भारी स्वर में बोली - "मैं अपनी आँखों से उन दोनो का मिलन देख चुकी हूँ."
"पर तुम क्या चाहती हो बेटा?" दीवान जी निक्की के सर पर हाथ फेरते हुए बोले - "कोई कुच्छ भी चाहे....पर होगा वही जो तुम चाहोगी. ये मेरा वचन है." अचानक दीवान जी की आवाज़ में कठोरता उभरी.
निक्की ने आश्चर्य से दीवान की ओर देखा. उनकी बूढ़ी आँखों में भी इस वक़्त चिंगारी दहक उठी थी. निक्की उनकी आँखों में झाँकते हुए धीरे से बोली - "मैं कंचन का बुरा नही चाहती अंकल.....पर मैं रवि के बगैर नही जी सकती. शुरू में मैं रवि को पसंद नही करती थी पर पता नही क्यों मैं जितना उससे दूर होने की कोशिश करती.....वो मुझे उतना ही मेरे करीब महसूस होता. धीरे धीरे मैं कब उससे प्यार करने लगी मैं नही जान पाई. इसका एहसास मुझे उस दिन हुआ जब आपके और पापा के मूह से रवि से अपनी विवाह की बात सुनी. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. रवि किसी और का हो चुका था."
"उसे तुम्हारा ही होना है निक्की" दीवान जी निक्की के सर को अपने पेट से सटा कर उसके बालों को सहलाते हुए बोले. - "वो किसी और का हो ही नही सकता. मैं उसे किसी और का होने नही दूँगा." दीवान जी जबड़े भिचकर बोले.
"अंकल....." निक्की दीवान जी के गुस्से से भरे शब्द सुनकर काँप उठी. -" क्या आप.....कंचन को हानि पहुँचाएंगे. वो मेरी दोस्त है.....इसमे उसका कोई कुसूर नही, वो तो ये भी नही जानती कि मैं रवि से प्यार करती हूँ."
निक्की के मूह से सहमा सा स्वर सुनकर दीवान जी मुस्कुराए. - "आप चिंता मत कीजिए निक्की बेटा. हम भी कंचन का बुरा नही चाहते.....और उसका बुरा करने की तो हम सोच भी नही सकते. पर कुच्छ ऐसा ज़रूर करेंगे कि....रवि कंचन को छोड़कर आपके पास चला आए."
"क्या ये संभव है अंकल....?" निक्की ने आश्चर्य से दीवान जी की और देखा. - "रवि कंचन से बहुत प्यार करता है. वो उसे कभी नही छोड़ेगा."
"आप उसकी चिंता मत करो बेटा....!" दीवान जी धीरे से मुस्कुराए. फिर निक्की का चेहरा अपने हाथों में लेकर उसकी आँखों में झाँकते हुए बोले - "बस आप एक वादा करो कि जब तक हम शहर से नही लौट आते.....तब तक आप अपनी ओर से कोई भी कदम नही उठाएँगे. जो कुच्छ रवि और कंचन के बीच चल रहा है चलने दीजिए. आप सिर्फ़ मुक्दर्शक बने देखते रहिए."
"ठीक है अंकल...." निक्की ने दीवान जी की बात पर हामी भरी - "आप जैसा कहते हैं मैं वैसा ही करूँगी. मैं आपके शहर से लौट के आने तक कुच्छ नही करूँगी. पर आप जल्दी लौटकर आईएगा."
"बिल्कुल बेटा.....सिर्फ़ तीन चार दिन लगेंगे मुझे. लेकिन एक और बात का भी ध्यान रखें. इस कमरे में आपके और मेरे बीच जो भी बातें हुई....उसके बारे में मालिक को मत बताना." दीवान जी ने सरगोशी की - "अगर मालिक पूछें तो आप कह देना.....जिसमें रवि और कंचन की खुशी है उसी में आपकी भी खुशी है. आप उनके रिश्ते से खुश हैं. मालिक तो पहले से ही बहुत दुखी हैं.....आपके दुख की भनक भी उन्हे लगी तो वे टूट जाएँगे. आप सदा उनके सामने मुस्कुराते रहिएगा."
"जी....समझ गयी अंकल..." निक्की ने सहमति में अपनी गर्दन हिलाई.
"ओके बेटा....अब मैं चलता हूँ. अपना ख्याल रखना." ये कहकर दीवान जी निक्की के कमरे से बाहर निकल गये.
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अपडेट 29
इस वक़्त दिन के तीन बजे हैं. शांता अपने कमरे में बिछि चारपाई पर लेती गहन चिंता में डूबी हुई है. शांता की सोच का आधार वो हादसा है जो बिरजू के साथ नदी के रास्ते में पेश आया था.
वह सोच रही थी कि आज वो कैसे बहक गयी. वो इतनी बेबस कैसे हो गयी कि बिरजू जैसा बदनाम इंसान उसके अंगो को छुता रहा....मसलता रहा और वो उसका विरोध तक ना कर सकी. वो इतनी कमज़ोर तो पहले ना थी.....फिर आज वो इतनी कमज़ोर कैसे हो गयी कि एक पराया इंसान उसके साथ मनमानी करता रहा और वो उसे मनमानी करने देती रही."
शांता बुरी औरत नही थी. वह एक अच्छे चरित्र की महिला थी. उसने अपनी जवानी के दिनो में भी कभी ऐसा घृणित काम नही किया था, यही कारण था कि आज की घटना को याद करके उसकी आत्मा लाहुलुहान हुई जा रही थी. पर इसमे उसका कोई दोष नही था. आख़िर वो भी हाड़ माँस की बनी हुई थी. भावनाए उसकी भी मचलती थी. वह भी किसी को पा लेना चाहती थी. उसका शरीर भी किसी मर्द के शरीर के नीचे दबकर पीसना चाहता था. ये प्राकृतिक ज़रूरत थी....इसमे उसका वश नही था.
शांता पिच्छले 8 सालों से शारीरिक सुख से वंचित थी. एक युवा शरीर आख़िर कब तक भूखा रह सकता था. उसे कभी ना कभी तो टूटना ही था.
वह 28 साल की थी जब उसका पति उसे छोड़ गया था. उसका व्याह पड़ोस के गाओं में रहने वाले दिनेश चौधरी से हुआ था. उस वक़्त दिनेश की माली हालत बहुत अच्छी थी. शांता के साथ साथ सुगना भी इस रिश्ते से प्रसन्न था.
विवाह के कुच्छ ही दिनो बाद दिनेश एक साथ कयि बुरी आदतों का शिकार हो गया. शराब के साथ साथ बाहरी औरतों का स्वाद भी लेने लगा. एक बार इन चीज़ों में जो डूबा तो उसे काम-काज का भी होश नही रहा. नतीज़ा ये निकला कि उसकी माली हालत बिगड़ने लगी. देखते ही देखते साल दो साल के अंदर उसके पास कुच्छ भी नही बचा. ना घर ना कारोबार. लेकिन शराब की आदत अब भी बनी हुई थी. घर की बिगड़ती हालत और पति की आदतों से तंग आकर शांता अपने भाई के घर चली आई. शांता के घर छोड़कर जाने के बाद दिनेश भी उसके पीछे पीछे अपनी ससुराल आ धमका और वहीं रहने लगा. लेकिन ससुराल में भी उसकी आदत नही सुधरी. यहाँ भी शराब और औरतों का रस्पान करता रहा. सुगना उसकी आदतों से परिचीत था पर बेहन का ख्याल करके वह भी ज़्यादा नही बोलता था. पर एक दिन उसकी और दिनेश की जमकर लड़ाई हो गयी. परिणामस्वरूप सुगना ने उसकी जी भर पीटाई कर दी. सरे आम हुई अपनी पीटाई से आहत होकर दिनेश शांता को छोड़कर चला गया. वो जाने से पहले शांता को ये कहकर गया कि अब वो कभी लौटकर नही आएगा. लेकिन उस वक़्त शांता ने उसकी बातों को गंभीरता से नही लिया. उसे लगा सांझ ढले तक जब दिनेश का गुस्सा और नशा उतरेगा तो वो घर लौट आएगा. पर ऐसा हुआ नही. उस दिन का गया दिनेश आज तक लौटकर नही आया था. कोई नही जानता था कि वो कहाँ गया? और कब आएगा?. वो ज़िंदा भी है या नही ये भी एक रहस्य बना हुआ था. शांता पिच्छले 8 सालों से विधवाओं जैसी ज़िंदगी जी रही थी. जब दिनेश शांता को छोड़कर गया तब चिंटू 2 साल का था और शांता 28 साल की थी.
28 साल की भरी जवानी में पति के बगैर जीना क्या होता है ये शांता ही जानती थी. उसने एक एक दिन बिस्तर पर किस तरह गुज़ारे थे....ये कोई उसकी जैसी औरत ही समझ सकती है. वह मजबूत इरादों वाली औरत थी. लेकिन पिच्छले कुच्छ दिनो से वह खुद को बहुत कमज़ोर समझने लगी थी. शायद बढ़ती उमर के साथ उसका अकेलापन अब उसे और तड़पाने लगा था.
शांता अपने इन्ही विचारों में गुम थी कि अचानक किसी के पुकारने की आवाज़ से वह चौंकी. उसकी नज़र दरवाज़े की ओर उठी तो वहाँ कंचन को खड़ा पाया. उसके चेहरे पर उलझन के भाव थे. उसकी आँखों में एक सवाल था और होंठ कुच्छ कहने के लिए फद्फडा रहे थे. - "क्या हुआ कंचन? कोई परेशानी है? कुच्छ चाहिए तुम्हे? यहाँ आओ." शांता ने एक साथ कयि प्रश्न पुच्छ डाले.
कंचन भीतर आई. फिर बुआ को देखकर धीरे से मुस्कुराकर बोली - "बुआ, तुम कहीं जाने वाली हो इस वक़्त?"
"नही तो. क्यों पुच्छ रही है? क्या कोई काम था?" शांता चारपाई पर उठकर बैठते हुए बोली.
"तुम कहती थी ना बुआ....मैं कभी घर पर नही रहती इसलिए तुम कहीं जा नही पाती हो. अभी मैं घर पर हूँ....तुम्हे इस वक़्त कहीं जाना हो तो जा सकती हो." कंचन किसी नन्हे बचे की तरह मासूमियत के साथ बोली.
उसकी बातों से शांता के होंठ मुस्कुरा उठे. वह प्यार से कंचन को देखते हुए बोली - "नही बेटी मैं कहीं नही जा रही. मैं बहुत थक चुकी हूँ इसलिए आराम करना चाहती हूँ. तुम जाकर अपने कमरे में आराम करो. मैं इस वक़्त कहीं नही जाना चाहती."
शांता की बातों से कंचन का चेहरा उतर गया. कंचन के उतरे चेहरे पर शांता की नज़र पड़ी. पर इस वक़्त शांता अलग ही चिंता में डूबी हुई थी. कंचन के चेहरे पर छाई उदासी को वो नही देख पाई. वह वापस चारपाई पर लेट गयी.
कंचन कुच्छ देर यूँही व्याकुलता के साथ खड़ी सोचती रही फिर एक नज़र शांता पर डालकर बाहर निकल गयी. बाहर बरामदे में आकर वो बेचैनी से टहलने लगी. रह रहकर उसकी नज़र मिट्टी की दीवार पे तंगी घड़ी की ओर जा रही थी. घड़ी की सुइयों की खट्ट-खट्ट.....उसके सीने में दस्तक देकर उसके दिले की धड़कानों को बढ़ाती जा रही थी.
उसे 5 बजे रवि से मिलने जाना था. वह रवि को आज अपने हाथों से बनाई खीर खिलाना चाहती थी. पर समस्या यह थी कि शांता के होते वो खीर नही बना सकती थी. यदि शांता ने उसे खीर बनाते देख लिया तो तरह तरह के सवाल पुच्छने लगेगी. किंतु खीर तो उसे बनाना ही था. बिना खीर के वो रवि से मिलने नही जा सकती थी.
कंचन इसी उधेड़बुन में बरामदे के चक्कर काट'ती रही. कुच्छ देर बाद वो फिर से शांता के कमरे के दरवाज़े तक गयी. उसने अंदर झाँका. शांता आँखें बंद किए चारपाई पर एक और करवट लिए सो रही थी. शांता को सोता देख कंचन के दिमाग़ में तेज़ी से विचार कौंधा. उसने धीरे से शांता के रूम का दरवाज़ा भिड़ा दिया फिर खीर बनाने की सारी सामग्री निकाल कर आँगन में आ गयी. कुच्छ ही देर में उसने चूल्हा भी जला लिया. जब तक चूल्हे में आग पकड़ती तब तक वह दूसरे कार्यों में लग गयी. उसने तय कर लिया था कि शांता के जागने से पहले ही वह खीर बना लेगी. वह तेज़ी से अपने हाथ चला रही थी. साथ ही मन ही मन यह प्रार्थना करती जा रही थी कि आज उसकी बुआ को कुम्भकर्न की नींद लग जाए. और 5 बजे से पहले उसकी आँख ना खुले.
लगभग 1 घंटे की मेहनत के बाद कंचन ने खीर बना ली. फिर उसने खीर को एक छोटे से बर्तन में रखकर बाकी सारे बर्तन धोने बैठ गयी. ताकि बुआ को ये पता ना चले कि उसने खीर बनाई है.
सारे काम निपटने के बाद उसने घड़ी में टाइम देखा 4:15 बज चुके थे. शांता अभी भी गहरी नींद सो रही थी. उसने आँगन में आकर आकाश की ओर देखा. आकाश की और नज़र जाते ही उसका दिल धक्क सा कर उठा. आकाश से सुर्य गायब हो चुका था. और उसकी जगह काले बादलों ने अपनी चादर फैलानी शुरू कर दी थी.
कंचन परेशान हो गयी. अभी रवि से मिलने जाने में 45 मिनिट का समय बाकी था. अगर उससे पहले वर्षा शुरू हो गयी तो उसे बड़ी परेशानी होने वाली थी. वह असहनी भाव से आकाश को देखती रही. खीर बनाने के बाद जो खुशी उसके चेहरे पर छाई थी अब वो छ्ट चुकी थी, अब उसकी जगह उदासी के बादल छाने लगे थे. कंचन उदास मन से बरामदे में आई और बेचैनी के साथ टहलने लगी. रह रहकर उसकी नज़र घड़ी की ओर जाती. आज घड़ी की सूइयां भी जैसे थम सी गयी थी.
कंचन एक बार फिर आँगन में मौसम का हाल देखने गयी. आकाश की ओर देखते ही उसका मुख सुखकर पतला हो गया. आकाश में लहराते काले बादल और भी घने हो गये थे. वह सोच में पड़ गयी - "अब मुझे साहेब से मिलने चले जाना चाहिए....कहीं ऐसा ना हो बारिस शुरू हो जाए.....और बारिस की शोर से बुआ जाग जाए. ऐसी हालत में बुआ मुझे घर से बाहर जाने नही देगी. हां यही ठीक रहेगा....इससे पहले की बारिस शुरू होकर मेरी भावनाओ पर पानी फेरे मैं इसी वक़्त निकल जाती हूँ."
कंचन तेज़ी से किचन तक आई. पहले उसने खीर का डब्बा उठाकर अपने दुपट्टे के अंदर छुपाया. फिर शांता के कमरे के अंदर निगाह डाली. शांता अभी भी सो रही थी. कंचन ज्यों का त्यों दरवाज़ा धीरे से बंद करके आँगन में आ गयी. चिंटू खेलने बाहर गया हुआ था. कंचन आँगन के दरवाज़े को धीरे से भिड़ा कर तेज़ी से घाटी की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ गयी.
कुच्छ ही देर में कंचन उस स्थान पर पहुँच गयी जहाँ वह रोज़ रवि से मिला करती थी. वह झरने के किनारे स्थित उसी पत्थेर पर बैठ गयी जिसपर रोज़ ही बैठकर गिरते झरने को देखा करती थी. उसके बदन में इस वक़्त गुलाबी रंग की कुरती और उसी रंग की पाजामी थी. उसके हाथों में खीर का वही डब्बा था जिसे वा रवि के लिए घर से लेकर आई थी.
कंचन पत्थेर पर बैठी बार बार पिछे मुड़कर देखती जा रही थी. उसे रवि का बेसब्री से इंतेज़ार था. बार बार वह खीर के डब्बे को देखती और मंद मंद मुस्कुराती. साथ ही ये भी सोचती जा रही थी कि पता नही उसका बनाया खीर रवि को पसंद आएगा भी या नही. खीर बनाने के बाद कंचन ने उसे चखा था. उसकी बनाई खीर रात में बुआ के निर्देश पर बनाई खीर जितनी स्वदिस्त नही लगी थी. जल्दबाज़ी में कंचन से खीर उतनी अच्छी नही बन सकी थी.....जितनी अच्छी रात वाली खीर थी.
खीर के साथ साथ एक और चिंता कंचन को परेशान किए जा रही थी. उसकी दूसरी चिंता आकाश में मंडराते काले बादल थे जो तेज़ी के साथ वातावरण को अपनी चपेट में लेटे हुए उसे भयानक रूप प्रदान करते जा रहे थे. तेज़ हवाओं की साय साय और मौसम के बदलते तेवर से कंचन का नन्हा सा दिल बैठा जा रहा था.
अभी वह गर्दन उठाए आकाश में उड़ते बादलों को देख ही रही थी कि वर्षा की दो मोटी बूंदे उसके चेहरे पर आकर गिरी. फिर देखते ही देखते बूँदा- बाँदी भी शुरू हो गयी.
कंचन जहाँ खड़ी थी उससे थोड़ी दूर खोहनुमा बड़ा सा पत्थेर था. पत्थेर इतना बड़ा था कि उसके नीचे दर्ज़नो आदमी बारिस से अपना बचाव कर सकते थे. कंचन का मन उस पत्थर की आड़ में जाने को हुआ पर अगले ही पल इस विचार ने उसके पावं रोक दिए कि अगर इस वक़्त साहेब आ गये और उसे ना देख पाए तो कहीं ऐसा ना हो कि साहेब निराशा में वापस लौट जाएँ. वे तो यही समझेंगे कि बारिस की वजह से कंचन आई नही होगी. ऐसे में उसका मिलन साहेब से नही हो सकेगा.
कंचन वहीं खड़ी रही. उसने पत्थेर की शरण लेने का विचार त्याग दिया.
बारिश की बूंदे अब तेज़ होने लगी थी. कंचन को खीर की चिंता हुई, कहीं ऐसा ना हो बारिस में भीगकार उसका खीर ठंडा हो जाए. उसने अपना दुपट्टा गले से उतारकर खीर के डब्बे को अच्छी तरह से लपेटने लगी. फिर एक नज़र रास्ते की ओर डालकर उसी पत्थेर पर उकड़ू बैठ गयी. वह खीर के डब्बे को अपनी कोख में छुपाये हुए थी. उसे खुद के भीगने की चिंता नही थी....उसे चिंता थी तो खीर की. उसे ये भी चिंता नही थी कि इस तरह भीगने से वो बीमार पड़ सकती है.....उसे चिंता थी तो इस बात की कि कहीं भीगने से खीर ठंडा ना हो जाए......कहीं खीर के ठंडा होने से उसका स्वाद ना बिगड़ जाए. कहीं साहेब ये ना कह दे कि कंचन तुम्हे खीर बनाना नही आता. उसे इस वक़्त खुद से ज़्यादा खीर की चिंता थी. वह उसी प्रकार बैठी बारिस में भीगति रही.
वर्षा अपने पूरे यौवन पर पहुँच चुकी थी. मूसलाधार बारिस और बहती तेज़ हवाओं की साईं साईं से वातावरण संगीतमय हो उठा था. लेकिन बारिस का यह संगीत इस वक़्त कंचन को बिल्कुल भी अच्छा नही लग रहा था. वह तो बारिस की ठंड और तेज़ हवाओं के थपेड़ों से मरी जा रही थी. हवाओं के साथ पानी की छीटें जब उसके शरीर से आकर टकराते तो उसे ऐसा प्रतीत होता मानो किसी ने उसके शरीर में एक साथ सैंकड़ो सुई चुभो दी हों. उसका शरीर ठंड से सिकुड़ता जा रहा था. पूरे बदन में तेज़ कंपकंपी सी हो रही थी. दाँत ऐसे बज रहे थे जैसे वे अभी जबड़े से निकलकर बाहर आ जाएँगे.
पूरे एक घंटे तक कंचन उसी पत्थेर पर बैठी भीगति बारिस की मार सहती रही. एक घंटे तक वर्षा धरती को जलमग्न करने के बाद चली गयी. बारिस के रुकते ही कंचन काँपते पैरों के साथ खड़ी हुई. फिर आँखों में अपने साहेब को देखने की आस लिए उस रास्ते की तरफ निगाह डाली, जिस और से रवि आने वाला था. पर रवि दूर दूर तक कहीं दिखाई नही दिया. उसकी आँखें पीड़ा से गीली हो गयी. उसका साहेब अभी तक नही आया था.
एक तो बारिस की मार, उसपर रवि का ना आना. कंचन को अंदर तक पीड़ा पहुँचती चली गयी. वह काफ़ी देर तक टक-टॅकी लगाए उसी रास्ते की और देखती रही. उसका मन निराशा से भरता जा रहा था. उसे लगने लगा था कि उसके साहेब अब नही आएँगे. वे इतनी बारिस में यहाँ आने की मूर्खता नही दिखाएँगे. साहेब उसकी तरह दीवाने नही हैं जो ऐसे मौसम में उससे मिलने आएँगे. पर दूसरा मन ये कह रहा था कि साहेब ज़रूर आएँगे. वो तुमसे प्यार करते हैं, वो तुम्हे इस तरह नही सता सकते, तू थोड़ा इंतजार कर वो ज़रूर आएँगे.
कंचन अपने गीले वस्त्रो में चिपकी पुनः उसी पत्थेर पर बैठ गयी. सर को घुटनों पर रखा और सिसक पड़ी. उसे इस वक़्त ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसका सब कुच्छ छीन लिया हो.......जैसे वो पूरी तरह से लूट चुकी हो.......उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वो बीच सागर में अकेली किसी नाव में बैठी डूब रही हो पर कोई उसे बचाने वाला नही. कंचन ठंड से कांपति सिसकती रही.
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