desiaks
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मोल की एक औरत
भाग-1
सुबह का समय था. पूरब दिशा से सूरज की उगाई होती दिखाई पड रही थी. पीले रंग का सूरज सोने का गोला प्रतीत होता था और वैसे ही उसकी पीतवर्ण रौशनी भारतबर्ष को स्वर्णिम किये जा रही थी. मानो आज जमकर सोना बरसेगा और सारा भारत मालामाल हो जायेगा. अब कोई इस देश में गरीब नही रहेगा.
लेकिन ऐसा नही था. लोगों के दुःख, उनकी गरीबी, उनका भूखा नंगापन वैसे का वैसा ही था. जबकि ये सोने का गोला सदियों से इस भारतभूमि को स्वर्णिम किये आ रहा था. लगता था ये सोने का गोला एक छलावा मात्र था.
राजगढ़ी गाँव छोटा सा गाँव था. गाँव का नाम नाम वेशक राजगढ़ी था लेकिन यहाँ कभी कोई राजा नही रहा था और न ही किसी राजा ने आजतक इस गाँव की धरती पर अपना कदम रखा था. हाँगाँव में एक ठाकुर साहब जरुर रहते थे. जिनके दादा परदादा अमीर हुआ करते थे. अमीर तो ये ठाकुर साहब आज भी थे लेकिन पहले से ठाट बाट नही थे. पहले नौकर रहता था लेकिन अब सारा काम खुद ही होता था.
ठाकुर साहब का नाम तो कुछ और था लेकिन इन्हें लोग राणाजी कहकर पुकारते थे. इस वक्त गाँव में सबसे अच्छी हालत इन्ही की थी. जब ये नवयुवक थे तब आपसी रंजिस के चलते इन्होने किसी की हत्या कर दी थी. उस हत्या के जुर्म में इन्हें सजा हुई और जब जेल से बाहर निकले तो उम्र आधी गुजर चुकी थी.
घर के इकलौते होने के कारण इनकी शादी होनी जरूरी थी. नही तो वंश मिट ही जाना था. लेकिन इनकी जाति का कोई भी आदमी इनके घर अपनी लडकी देने को तैयार न था. उसमे एक तो इनकी उम्र का कारण था दूसरा वो कुछ दिन पहले ही जेल से निकल कर आये थे.
राणाजी के एक खास दोस्त भी थे. जिनका नाम था गुल्लन. जो उनके जेल जाने से लेकर अब तक साथ रहे थे. राणाजी के पिता तो रहे नही थे. घर में बस एक माँ थीं. सावित्रीदेवी. अब माँ को अपने बेटे की शादी की फ़िक्र थी.
बेटे के जन्म से ले आजतक उसके सिर पर सहरा देखने का अरमान दिल में पाले हुई थी. सारे रिश्तेदारों से अनुनयपूर्वक कहा कि उनके बेटे की शादी किसी भी तरह करा दें लेकिन शादी का दूर दूर तक कोई सुराग नही था. और फिर सावित्रीदेवी ने गुल्लन से भी ये बात कह दी.
गुल्लन रसियों के रसिये थे और जुगाडुओं के जुगाड़े. झटपट बोले, “माताजी आपने मुझसे कह दिया तो समझो राणाजी की शादी हो गयी लेकिन शादी में हर बात मेरी मानी जाएगी और मेरे ही तरीके से ये शादी होगी."
सावित्रीदेवी का चेहरा ख़ुशी से खिल उठा. बोली, "बेटा तुम राणाजी के लिए भाई जैसे हो और मेरे लिए बेटे जैसे. तुम जैसे चाहो वैसे करो. मैं कुछ भी बोलने वाली नहीं लेकिन तुमने कोई लडकी देख रखी है क्या?"
गुल्लन आसमान की तरफ देख बोले, “माता जी मेरी क्या मजाल. ये सब तो वो ऊपर वाला तय करता है. बस आज से आप राणाजी की शादी की फिकर छोड़ दो और अपने भजन पूजा में लग जाओ. आज से मैं हूँ ये सब चिंता करने के लिए." सावित्रीदेवी ख़ुशी से गुल्लन को आशीषे देती रहीं. गुल्लन वहां से उठ सीधे राणाजी के कमरे में जा पहुंचे.
राणाजी पलंग पर लेटे हुए किसी गहरी चिंता में खोये हुए थे. गुल्लन के आने की खबर तक न लगी. गुल्लन ने राणा जी को हिलाते हुए कहा, “अरे कहाँ खो गये राणाजी? आज तो दोस्त की भी कोई खबर न ली.”
राणाजी हडबडा कर उठ बैठे और गुल्लन को देख प्यार से बोले, "आओ गुल्लन मियां. आओ बैठो. अरे तुम्हारा ही तो इन्तजार हो रहा था. और बताओ क्या चल रहा है आज कल?"
गुल्लन उनकी बात को एक तरफ करते हुए बोले, "चलना वलना छोडिये राणाजी और माता जी और इस घर के बारे में सोचिये. मुझे बताइए आप शादी को कब तैयार हैं? उसी हिसाब से मैं अपना हिसाब किताब बनाऊँ.”