desiaks
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बदले में सुन्दरी कौशल्यादेवी के सर में तेल डालती. बालों में मालिश करती और घर का एकाध और छोटा मोटा काम भी कर देती थी. जैसे चावल और दाल से कंकड़ बीनना. चूल्हे पर पोता मिटटी का लेप चढ़ाना आदि. पागल सी दिखने वाली सुन्दरी कौशल्या देवी के पास ऐसी कोई हरकत न करती थी जिससे उन्हें जरा भी ये लगे कि वो पागल है. और न ही कोई बात ही इस तरह की करती थी.
कौशल्यादेवी का लड़का छोटू सुन्दरी से बहुत मजाक मस्ती करता लेकिन मजाल थी की सुन्दरी गुस्सा भी हो जाती. वो बैठी बैठी सिर्फ हफ्फ' कह हसने लगती. जबकि अन्य लोगों के साथ उसका व्यवहार इस तरह का नही होता था.
सुन्दरी कौशल्या देवी को जीजी कहती थी और कौशल्या देवी के बच्चे सुन्दरीको चाची कहकर पुकारते थे जबकि सुन्दरी उनकी बिरादरी से बहुत छोटी बिरादरी की थी. लेकिन कौशल्यादेवी ने जाति के कारण कभी भी सुन्दरी को नही तिरिस्कारा था.
जो भी सब्जी बनाती तो उसमे से सुन्दरी को जरुर देती थी. सुन्दरी भी रोज इस बात का इन्तजार करती थी. गजब का रिश्ता था सुन्दरी का इस घर से. न कभी इस घर से नाराज हुई और न ही आना छोड़ा था.
शाम के बाद का समय था. राणाजी और उनकी नई दुल्हन माला खाना खा चुके थे. सावित्री देवी भी खाना खा अपने कमरे में जा चुकी थीं. राणाजी ने कमरे में जल रही लेम्प को थोडा हल्का किया और पलंग पर लेट गये लेकिन माला अभी तक खड़ी खड़ी उन्हें देख ही रही थी.
राणाजी ने आश्चर्य से कहा, "माला क्या हुआ. आज सोओगी नही क्या?" माला कल की अपेक्षा आज राणाजी के साथ सोने में हिचकिचा रही थी. कल तो नींद के जोर से ये परवाह न की लेकिन आज सब ध्यान था. आज तक वो अपने माँ के साथ ही सोती आई थी. या फिर अपने दो छोटे छोटे भईयों के साथ. राणाजी की उम्र उसे उनको अपना पति मानने में थोड़ी हिचकिचाहट पैदा कर रही थी.
राणाजी के सवाल से हडबडा कर माला बोली, “नही सोना तो है लेकिन आपके साथ सोने में मुझको शर्म आती है. क्या हम जमीन पर सो जाय?"
राणाजी ने अपना सर पीटा और मुस्कुराते हुए बोले, "अरे वावली मेरे साथ नही सोओगी तो किसके साथ सोओगी? आखिर मैं तुम्हारा पति हूँ. तुमसे शादी कर तुम्हें यहाँ लाया हूँ फिर तुम मेरे साथ नहो सोओगी तो किसके साथ सोओगी. आओ जल्दी से सो जाओ. वैसे ही रात बहुत हो गयी है."
माला न चाहते हुए भी राणाजी के बगल में सहमी सी लेट गयी. राणाजी की समझ में न आता था कि किस तरह वे अपनी ग्रहस्थी की शुरुआत इस लडकी के साथ करें. कैसे वो उस लडकी को अपनी पत्नी की तरह मान उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें. क्योंकि राणाजी नही चाहते थे कि वो माला के साथ कोई भी ऐसा व्यवहार करे जिससे उसके कोमल मन को कोई भी ठेस पहुंचे. लेकिन ये सब एक न एक दिन तो उन्हें करना ही था.
राणाजी ने माला की तरफ करवट ली और बोले, "माला तुम मेरी तरफ करवट कर के लेटो न. मैं थोड़ी बात भी कर लूँगा तुम्हारे साथ.” माला का दिल धुकुर धुकुर कर रहा था लेकिन राणाजी से ज्यादा डर भी उसे नही लगता था.
दिन में आई जमुना ने भी बहुत सारी बातें उसे बता दी थी. इसकारण उन बातों को मन में सोच उसे थोड़ी सकुचन हो रही थी. माला ने न चाहते हुए भी राणाजी तरफ करवट ले लिया. राणाजी उसे ही देखे जा रहे थे और वो राणाजी को.
राणाजी की आँखों में माला के लिए मोहब्बत थी परन्तु माला सिर्फ उन्हें अपना पति मान रही थी जिसके मायने उसके लिए ये नही थे कि पति से प्रेम भी किया जा सकता है या नही. क्योंकि प्रेम तो उसे राणाजी से दूर दूर तक नही था. और राणाजी से डर लगने का कारण भी यही था. क्योंकि जहाँ किसी को किसी से प्यार होता है वहां डर की गुंजयास बहुत ही कम होती है. माला को क्या पता था कि अब उसे अपने इसी पति से प्रेम करना पड़ेगा. वो तो अपने मन में ये समझे बैठी थी कि उसका प्रेमी कोई उसका हमउम्र ही होगा.
अचानक राणाजी ने माला का हाथ अपने हाथों में ले लिया. माला का दिल तो धड़का. साथ में पूरे शरीर में सिरहन दौड़ गयी. मानो उसे किसी अनहोनी आशंका ने आ घेरा हो. राणाजी ने माला के हाथ को अपने होठों से चूम लिया. तब तो माला पत्थर की हो गयी लेकिन सहमी हुई लडकी जानबूझ कर भी अपना हाथ राणाजी के हाथ से छुड़ा न सकी. __ या तो ये राणाजी के प्रति उसका आदर था या फिर उनसे लगने वाला अनजाना डर. जिसके वश हो वो पल पल अपने आप को राणाजी के हवाले करती रही. एक सत्रह साल की नादान लडकी और उसके साथ यह सब. कोई सोच भी नही सकता कि उसका मन उस वक्त क्या सोचता होगा. जिसका शरीर अभी खुद एक बच्चे जैसा था वो इस वक्त राणाजी से अपनी कोख में एक बच्चे का बीज रोप चुकी थी.
कौशल्यादेवी का लड़का छोटू सुन्दरी से बहुत मजाक मस्ती करता लेकिन मजाल थी की सुन्दरी गुस्सा भी हो जाती. वो बैठी बैठी सिर्फ हफ्फ' कह हसने लगती. जबकि अन्य लोगों के साथ उसका व्यवहार इस तरह का नही होता था.
सुन्दरी कौशल्या देवी को जीजी कहती थी और कौशल्या देवी के बच्चे सुन्दरीको चाची कहकर पुकारते थे जबकि सुन्दरी उनकी बिरादरी से बहुत छोटी बिरादरी की थी. लेकिन कौशल्यादेवी ने जाति के कारण कभी भी सुन्दरी को नही तिरिस्कारा था.
जो भी सब्जी बनाती तो उसमे से सुन्दरी को जरुर देती थी. सुन्दरी भी रोज इस बात का इन्तजार करती थी. गजब का रिश्ता था सुन्दरी का इस घर से. न कभी इस घर से नाराज हुई और न ही आना छोड़ा था.
शाम के बाद का समय था. राणाजी और उनकी नई दुल्हन माला खाना खा चुके थे. सावित्री देवी भी खाना खा अपने कमरे में जा चुकी थीं. राणाजी ने कमरे में जल रही लेम्प को थोडा हल्का किया और पलंग पर लेट गये लेकिन माला अभी तक खड़ी खड़ी उन्हें देख ही रही थी.
राणाजी ने आश्चर्य से कहा, "माला क्या हुआ. आज सोओगी नही क्या?" माला कल की अपेक्षा आज राणाजी के साथ सोने में हिचकिचा रही थी. कल तो नींद के जोर से ये परवाह न की लेकिन आज सब ध्यान था. आज तक वो अपने माँ के साथ ही सोती आई थी. या फिर अपने दो छोटे छोटे भईयों के साथ. राणाजी की उम्र उसे उनको अपना पति मानने में थोड़ी हिचकिचाहट पैदा कर रही थी.
राणाजी के सवाल से हडबडा कर माला बोली, “नही सोना तो है लेकिन आपके साथ सोने में मुझको शर्म आती है. क्या हम जमीन पर सो जाय?"
राणाजी ने अपना सर पीटा और मुस्कुराते हुए बोले, "अरे वावली मेरे साथ नही सोओगी तो किसके साथ सोओगी? आखिर मैं तुम्हारा पति हूँ. तुमसे शादी कर तुम्हें यहाँ लाया हूँ फिर तुम मेरे साथ नहो सोओगी तो किसके साथ सोओगी. आओ जल्दी से सो जाओ. वैसे ही रात बहुत हो गयी है."
माला न चाहते हुए भी राणाजी के बगल में सहमी सी लेट गयी. राणाजी की समझ में न आता था कि किस तरह वे अपनी ग्रहस्थी की शुरुआत इस लडकी के साथ करें. कैसे वो उस लडकी को अपनी पत्नी की तरह मान उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें. क्योंकि राणाजी नही चाहते थे कि वो माला के साथ कोई भी ऐसा व्यवहार करे जिससे उसके कोमल मन को कोई भी ठेस पहुंचे. लेकिन ये सब एक न एक दिन तो उन्हें करना ही था.
राणाजी ने माला की तरफ करवट ली और बोले, "माला तुम मेरी तरफ करवट कर के लेटो न. मैं थोड़ी बात भी कर लूँगा तुम्हारे साथ.” माला का दिल धुकुर धुकुर कर रहा था लेकिन राणाजी से ज्यादा डर भी उसे नही लगता था.
दिन में आई जमुना ने भी बहुत सारी बातें उसे बता दी थी. इसकारण उन बातों को मन में सोच उसे थोड़ी सकुचन हो रही थी. माला ने न चाहते हुए भी राणाजी तरफ करवट ले लिया. राणाजी उसे ही देखे जा रहे थे और वो राणाजी को.
राणाजी की आँखों में माला के लिए मोहब्बत थी परन्तु माला सिर्फ उन्हें अपना पति मान रही थी जिसके मायने उसके लिए ये नही थे कि पति से प्रेम भी किया जा सकता है या नही. क्योंकि प्रेम तो उसे राणाजी से दूर दूर तक नही था. और राणाजी से डर लगने का कारण भी यही था. क्योंकि जहाँ किसी को किसी से प्यार होता है वहां डर की गुंजयास बहुत ही कम होती है. माला को क्या पता था कि अब उसे अपने इसी पति से प्रेम करना पड़ेगा. वो तो अपने मन में ये समझे बैठी थी कि उसका प्रेमी कोई उसका हमउम्र ही होगा.
अचानक राणाजी ने माला का हाथ अपने हाथों में ले लिया. माला का दिल तो धड़का. साथ में पूरे शरीर में सिरहन दौड़ गयी. मानो उसे किसी अनहोनी आशंका ने आ घेरा हो. राणाजी ने माला के हाथ को अपने होठों से चूम लिया. तब तो माला पत्थर की हो गयी लेकिन सहमी हुई लडकी जानबूझ कर भी अपना हाथ राणाजी के हाथ से छुड़ा न सकी. __ या तो ये राणाजी के प्रति उसका आदर था या फिर उनसे लगने वाला अनजाना डर. जिसके वश हो वो पल पल अपने आप को राणाजी के हवाले करती रही. एक सत्रह साल की नादान लडकी और उसके साथ यह सब. कोई सोच भी नही सकता कि उसका मन उस वक्त क्या सोचता होगा. जिसका शरीर अभी खुद एक बच्चे जैसा था वो इस वक्त राणाजी से अपनी कोख में एक बच्चे का बीज रोप चुकी थी.