desiaks
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मेरा नाम डॉक्टर संजीव है। मैं मूलरूप से असम के एक गांव प्रीतपुरा का निवासी हूँ। प्रीतपुरा गांव में जंगली आदिवासी लोग रहते हैं। जो कि शहर से करीब 150 किलोमीटर दूर स्थित है।
मेरे पिता भी एक डाक्टर थे जो गांव के लोगों का इलाज जड़ी-बूटी से किया करते थे। लेकिन मेरे पैदा होने के बाद उन्होंने गांव छोड़ दिया और शहर में आकर बस गए।
मेरी शिक्षा-दीक्षा असम के दिसपुर शहर में पूरी हुई। पिताजी डाक्टरी के पेशे से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने मुझे भी डाक्टर बनाने के लिए मेरा दाखिला लन्दन में कर दिया।
मैं लन्दन विश्वविद्यालय से डाक्टरी की डिग्री हासिल की और वापस अपने शहर दिसपुर आ गया लेकिन मेरा मन दिसपुर में नहीं लग रहा था क्योंकि लंदन में पढ़ार्इ के दौरान मेरी कर्इ अच्छी लड़कियां दोस्त बन गई थीं और कर्इ लड़कियों के साथ मैंने शारीरिक संबंध भी बनाए थे।
जिससे मेरा मन भी अब लड़कियों के साथ ही काम करने में लगता था।
काफी दिनों तक मैं खाली समय बैठा रहा। फिर मैंने डाक्टरी में शोध करने का विचार बनाया और मैंने दिसपुर शहर में ही स्त्रियों के शोध के सब्जेक्ट से एडमीशिन ले लिया। जहाँ मैंने स्त्रियों के जननांग, गुप्त रोग, प्रसव, नि:सन्तान संबंधित कर्इ प्रकार के शोध किए।
इस दौरान रोज मुझे स्त्रियों के जननांग को छूने को मिलता। तरह तरह के सवाल जवाब पूछने को मिलते।
मेरे साथ एक लड़की भी शोध कर रही थी तो अब मेरे मन भी लगने लगा था, मैं प्रसन्न रहने लगा।
शोध के दौरान तो कर्इ बार लड़कियों से खूब तफरीह होती थी, लड़कियों की बुर एवं दूध में हाथ लगाकर उन्हें छेड़ता और कहता लाओ तुम्हारी ‘वो’ चैक करूँ कि मासिक धर्म समय से क्यों नहीं आ रहा।
इसी तरह मेरे शोध का समय भी पूरा हो गया और पेपर की डेट आ गई, पेपर होने के बाद मुझे डिग्री भी मिल गई।
फिर मैंने दिसपुर में अपना क्लीनिक खोलने का विचार बनाया लेकिन दिसपुर जैसे छोटे शहर में बहुत से क्लीनिक पहले ही खुले हुए थे..
तो पिताजी ने सलाह दी- बेटा क्यों न तुम अपना क्लीनिक प्रीतपुरा गांव में खोलो। क्योंकि गांव अभी शहर के हिसाब से बहुत पिछड़ा हुआ है वहाँ पर कोर्इ क्लीनिक भी नहीं है। लोगों को इलाज के लिए 150 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। या तो वहीं किसी अनपढ़ डाक्टरों के हाथों इलाज कराना पड़ता है। जिससे कर्इ बार लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ती है। अगर तुम अपना क्लीनिक वहीं पर खोल लोगे.. तो साथ में अपनी जमीन की देखभाल भी हो जाया करेगी।
मैंने पिताजी बात मान ली और अगले दिन ही बस पकड़ कर अपने गांव प्रीतपुरा आ गया।
पिताजी भी साथ में गांव आ गए।
मैं पहली बार गांव पहुँचा तो देखा कि गांव में चारों ओर जंगल ही जंगल है। हर तरफ हरे भरे खेत और खेतों के बीच में ही लोग अपनी झोपड़ी बनाकर रहते हैं, दूर-दूर तक कोर्इ नजर नहीं आ रहा।
पिताजी गांव पहुँचते ही लोग डॉक्टर बाबू कहकर हाथ-पैर जोड़ने लगे, वे सभी कहने लगे- जब से आप गए हैं। गांव का इलाज करने वाला कोर्इ नहीं है। कर्इ लोग इलाज के अभाव में अपनी जान गवां चुके हैं।
पिताजी ने सांत्वना देते हुए कहा- अब चिंता करने की कोर्इ बात नहीं है।
वे मुझे लेकर घर की ओर चल दिए। मैंने पहली बार अपना घर देखा। घर बहुत बड़ा बना हुआ था, जिसमें कर्इ सारे कमरे बने हुए थे। लेकिन किसी के न रहने के कारण पूरा अस्त-व्यस्त था।
मेरे पिता भी एक डाक्टर थे जो गांव के लोगों का इलाज जड़ी-बूटी से किया करते थे। लेकिन मेरे पैदा होने के बाद उन्होंने गांव छोड़ दिया और शहर में आकर बस गए।
मेरी शिक्षा-दीक्षा असम के दिसपुर शहर में पूरी हुई। पिताजी डाक्टरी के पेशे से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने मुझे भी डाक्टर बनाने के लिए मेरा दाखिला लन्दन में कर दिया।
मैं लन्दन विश्वविद्यालय से डाक्टरी की डिग्री हासिल की और वापस अपने शहर दिसपुर आ गया लेकिन मेरा मन दिसपुर में नहीं लग रहा था क्योंकि लंदन में पढ़ार्इ के दौरान मेरी कर्इ अच्छी लड़कियां दोस्त बन गई थीं और कर्इ लड़कियों के साथ मैंने शारीरिक संबंध भी बनाए थे।
जिससे मेरा मन भी अब लड़कियों के साथ ही काम करने में लगता था।
काफी दिनों तक मैं खाली समय बैठा रहा। फिर मैंने डाक्टरी में शोध करने का विचार बनाया और मैंने दिसपुर शहर में ही स्त्रियों के शोध के सब्जेक्ट से एडमीशिन ले लिया। जहाँ मैंने स्त्रियों के जननांग, गुप्त रोग, प्रसव, नि:सन्तान संबंधित कर्इ प्रकार के शोध किए।
इस दौरान रोज मुझे स्त्रियों के जननांग को छूने को मिलता। तरह तरह के सवाल जवाब पूछने को मिलते।
मेरे साथ एक लड़की भी शोध कर रही थी तो अब मेरे मन भी लगने लगा था, मैं प्रसन्न रहने लगा।
शोध के दौरान तो कर्इ बार लड़कियों से खूब तफरीह होती थी, लड़कियों की बुर एवं दूध में हाथ लगाकर उन्हें छेड़ता और कहता लाओ तुम्हारी ‘वो’ चैक करूँ कि मासिक धर्म समय से क्यों नहीं आ रहा।
इसी तरह मेरे शोध का समय भी पूरा हो गया और पेपर की डेट आ गई, पेपर होने के बाद मुझे डिग्री भी मिल गई।
फिर मैंने दिसपुर में अपना क्लीनिक खोलने का विचार बनाया लेकिन दिसपुर जैसे छोटे शहर में बहुत से क्लीनिक पहले ही खुले हुए थे..
तो पिताजी ने सलाह दी- बेटा क्यों न तुम अपना क्लीनिक प्रीतपुरा गांव में खोलो। क्योंकि गांव अभी शहर के हिसाब से बहुत पिछड़ा हुआ है वहाँ पर कोर्इ क्लीनिक भी नहीं है। लोगों को इलाज के लिए 150 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। या तो वहीं किसी अनपढ़ डाक्टरों के हाथों इलाज कराना पड़ता है। जिससे कर्इ बार लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ती है। अगर तुम अपना क्लीनिक वहीं पर खोल लोगे.. तो साथ में अपनी जमीन की देखभाल भी हो जाया करेगी।
मैंने पिताजी बात मान ली और अगले दिन ही बस पकड़ कर अपने गांव प्रीतपुरा आ गया।
पिताजी भी साथ में गांव आ गए।
मैं पहली बार गांव पहुँचा तो देखा कि गांव में चारों ओर जंगल ही जंगल है। हर तरफ हरे भरे खेत और खेतों के बीच में ही लोग अपनी झोपड़ी बनाकर रहते हैं, दूर-दूर तक कोर्इ नजर नहीं आ रहा।
पिताजी गांव पहुँचते ही लोग डॉक्टर बाबू कहकर हाथ-पैर जोड़ने लगे, वे सभी कहने लगे- जब से आप गए हैं। गांव का इलाज करने वाला कोर्इ नहीं है। कर्इ लोग इलाज के अभाव में अपनी जान गवां चुके हैं।
पिताजी ने सांत्वना देते हुए कहा- अब चिंता करने की कोर्इ बात नहीं है।
वे मुझे लेकर घर की ओर चल दिए। मैंने पहली बार अपना घर देखा। घर बहुत बड़ा बना हुआ था, जिसमें कर्इ सारे कमरे बने हुए थे। लेकिन किसी के न रहने के कारण पूरा अस्त-व्यस्त था।