जैसे ही भाभी को लगा की कहीं कुछ गलत है वो मुझसे अलग हो गईं, और उनके अलग होने के कुछ क्षण तक मैं बस उन्हें ही देखे जा रहा था की तभी माँ ने कमरे में प्रवेश किया| मैं घबरा गया और अपनी आँखें बंद कर लीन और ऐसे जताया जैसे मैं सो रहा हूँ| भाभी एक हाथ से पंखा कर रही थी, तभी माँ ने पूछा "बेटा यहाँ गर्मी है बहार चौतरे पर आ जाओ|भाभी ने कहा की,
"मानु सो रहा है अगर मैं उठूंगी तो ये जाग जायेगा|"
तभी बत्ती आ गई, और माँ ने कहा "शुक्र है बत्ती आ गई"| रात को खाना खाने से पहले मैंने भाभी से कहा, "आप नेहा को सुला देना फिर हम दुबारा पप्पी करेंगे"| मेरे उस भोलेपन पर भाभी को हंसी आ गई और उन्होंने हाँ में अपना सर हिल दिया| खाना खाने से पहले सभी आपस में बात कर रहे थे परन्तु मेरे मन में दोपहर में हुई घटना ने तूफ़ान मचा रखा था| मैं चाहता था की काश घर में सब बेसुध सो जाएं और मैं और भाभी बस एक दूसरी की बाँहों में चुंबन करते हुए लीन हो जाएं| रात्रि भोज के बाद पिताजी ने टी.वी पर पिक्चर लगा दी और हम सभी बिस्तर पर लेट गए और सभी टी.वी देखने लगे| सोने की व्यवस्था कुछ इस प्रकार थी :
मेरे पिताजी और चन्दर का बिस्तरा जमीन पर लगा था और पलंग पर माँ, मैं, भाभी और नेहा थे| हम सभी इसी कतार में लेते थे और सभी का ध्यान टी.वी की तरफ था| मैं टी.वी देखने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था, मेरा ध्यान तो केवल भाभी पर था| परन्तु कमरे में जल रही तुबलाइट के कारन मैं कुछ नहीं कर सकता था| मैं बाथरूम जाने के बहाने से उठा और बहार चला गया| जब मैं वापस आया तो मैंने तुबलाइट बंद कर दी| पिताजी ने मुझे टोका, "लाइट क्यों बंद कर दी?"| मैं सकपका गया और लड़खड़ाते हुए जवाब दिए,"पिताजी …लाइट बंद करके थिएटर वाला मजा आएगा"| वे कुछ नहीं बोले और मैं वापस आकर पानी जगह लेट गया| कुछ क्षण तो मैं कुछ नहीं बोला जब मैंने देखा की सबका ध्यान टी.वी. पर है तो मैंने भाभी की तरफ मुंह किया और खुसफुसते हुए कहा:
"भाभी नेहा को सुला दो"|
भाभी :"नहीं मानु काकी देख लेंगी!!!"
मैं: "नहीं कोई नहीं देख पायेगा, लाइट बंद है|"
भाभी: "अगर काकी इधर घूम गईं तो बहुत बुरा होगा, तुम्हारी बहुत पिटाई होगी और मेरी बहुत बदनामी होगी| आज नहीं, फिर कभी कर लेना|"
मैं गुस्से में आग बबूला हुआ जा रहा था| मैंने फिर भी एक कोशिश की और कहा :
"अच्छा एक पप्पी तो दे दो?"
भाभी: "नहीं मानु बात को समझो, कोई देख लेगा|"
अब मेरे सब्र का बाँध टूट चूका था और गुस्से मेरे सर पर चढ़ चूका था| परन्तु मैं कर कुछ नहीं सकता था| मैंने गुस्से में मुंह घुमाया और दूसरी तरफ करवट ले कर सो गया| उन्होंने अपना हाथ मेरी कमर रख के मुझे मानाने की कोशिश की पर मैं कहाँ मानने वाला था| मैंने उनका हाथ झटक दिया और जोर से सब से बोला:
"शुभ रात्रि, मैं सो रहा हूँ|"
पिताजी ने डांटते हुए कहा: "क्यों क्या हुआ? इतने दिन से तूफ़ान मचाया हुआ था की पिक्चर देखनी है और अब जब पिक्चर आ गई तो सोना है?" मैंने कोई जवाब न देना सही समझा और ऐसा दिखाया की मुझे बहुत जोर से नींद आ रही हो| मन ही मन मैं भाभी को कोस रहा था की उन्होंने क्यों मुझे रोका, सारा मूड ख़राब कर दिया|
अगले दिन सुबह हुई, पर मैं अब भी भाभी से बात नहीं कर रहा था| उन्होंने एक-दो बार मुझे इशारे से बुलाया भी, पर मैंने गुस्से से उनके तरफ देखा पर बोला कुछ नहीं| ये मेरा तरीका था उन्हें ये याद दिलाने का की कल रात को आपने मेरे साथ धोका किया! सुबह नाश्ता करने के पश्चात समय था भाभी और भैया को स्टेशन छोड़ने जाने का| जैसे ही पिताजी ने कहा की जल्दी तैयार हो जाओ, मेरा तो जैसे गाला ही सुख गया| मेरी शकल पे बारह बज गए और मैं अपने ही भावों को छुपा न पाया, पिताजी को मेरे भावों को पढ़ने में ज्यादा देर नहीं लगी पर उन्होंने मेरे इन भावों का अंदाजा ठीक वैसे ही लगाया जैसे की कोई आम इंसान किसी अपने के जाने पर लगाता है| उन्हें लगा की मुझे भाभी और भैया के जाने का बहुत दुःख हो रहा है, क्योंकि उनकी नजर में मैं दोनों को ही प्यार करता था| पर वे नहीं जानते थे की मेरा प्यार केवल भाभी के लिए था, भैया के साथ तो मैं केवल इसलिए खेलता था की कहीं उन्हें मेरी भाभी के प्रति भावनाओं पर शक न हो जाये| चन्दर भैया ने मुझे आगे बढ़ कर गले लगा लिया जैसे उन्हें भी यकीन था की पिताजी जो कह रहे हैं| भैया कहने लगे, " अरे मानु भैया दुखी न हो, हम फिर आएंगे| नहीं तो आप गावों आ जाना हमसे मिलने"| मेरी आँखों में आंसूं छलक आये थे और मेरी नजरें भाभी पर टिकी थीं| उनके चेहरे से साफ़ नजर आ रहा था की वे अंदर से कितनी उदास हैं| पर उन्हें अपने भावों को छुपाने की कला में महारत थी, इसलिए की इससे पहले की कोई उनके उदास चेहरे को देख पाता उन्होंने अपने आपको संभालते हुए एक झूठी मुस्कान दी| उनकी ट्रैन 2 बजे की थी और अब स्टेशन के लिए निकलने का समय था, मैंने जिद्द की, कि मैं भी जाऊँगा| पिताजी ने हार मानते हुए कहा ठीक है, हम पांचों घर से निकल चले| पिताजी और भैया आगे चल रहे थे और आपस में कुछ बात कर रहे थे, पीछे मैं, भाभी और उनकी गोद में नेहा थी| मैंने भाभी का हाथ पकड़ा हुआ था और जैसे-जैसे हम ऑटो रिक्शा स्टैंड तक पहुंचे मेरा दबाव उनके हाथ पर गहर्रा होता जा रहा था| ऐसा लगता था जैसे मैं उन्हें रोक लूँ और अपने साथ घर वापस ले जाऊँ| पिताजी ने रिक्शा किया और ऑटो रिक्क्षे में हम कुछ इस प्रकार बैठे:
सबसे पहले भाभी बैठीं फिर मैं अंदर घुसा फिर चन्दर भैया और मैं उनकी गोद में बैठ गया और अंत में पिता जी बैठ गए| मैंने फिर से भाभी का हाथ पकड़ लिया और आंसूं से भरी नजरों से उनकी और देखने लगा| अब उनसे भी बर्दाश्त करना मुश्किल था, उन्होंने अपने सीधे हाथ से मेरी आँख से आंसूं पोछे| अब उनकी आँखों में भी आंसूं छलक आये थे, अब मेरी बारी थी उन्हें पोछने की| मैंने उनके आंसूं पोछे और गर्दन न में हिलाते हुए नहीं रोने का संकेत दिया| पूरे रास्ते में उनका हाथ पोछते हुए भाई की गोद में बैठा था और अंदर ही अंदर अपने आप को कोस रहा था की क्यों मैंने रात में बेवकूफी की| पर अब पछताने से क्या होने वाला था, हम स्टेशन पर पहुंचे और उन्हें ट्रैन में बैठाया| कुछ ही क्षण में ट्रैन चल पड़ी और मैं स्टेशन पर खड़ा उन्हें अलविदा कहता रहा| यूँ तो बहुत से लोग स्टेशन आते हैं परन्तु मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मेरी आत्मा का एक टुकड़ा मुझसे दूर जा रहे है और मैं उसे चाह के भी नहीं रोक सकता| मेरी बाद किस्मती की उस दिन के पश्चात न तो उनका दुबारा शहर आना हुआ और न ही हमारा गावों जाना हुआ|