hotaks444
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[size=small]अपडेट 1
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मेरा नाम अफ़ताब है | मेरी उम्र इस वक़्त 27 साल है | मैं एक गोरा चिट्टा तंदरुस्त बांका जवान हूँ और इस वक़्त अपनी फैमिली के साथ मैं कराची में रहता हूँ |
आज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ , उस का आगाज़ पाकिस्तान के सूबे पंजाब के शहर गुजरात सिटी के पास वाकीया एक छोटे से गाँव में हुआ |
आज से चंद साल पहले ज़मींदारा कॉलेज गुजरात से ग्रेजुएट करने के बाद जब मुझे एक जानने वाले की मेहरबानी से लाहौर में एक प्राइवेट कंपनी में जॉब मिली तो मैं अपने गाँव को खुदा हाफ़िज़ कह कर लाहौर चला आया और अपने दो दोस्तों के साथ एक फ्लैट में रहने लगा |
मुझे लाहौर में जॉब शुरू किए अभी तक़रीबन 6 महीने ही हुए थे कि गाँव से आने वाली एक मनहूस खबर ने मेरे दिल को तोड़ दिया |
खबर यह थी कि गुजरात शहर से अपने गाँव जाते हुए मेरे अब्बू के ट्रेक्टर का एक ट्रक से एक्सीडेंट हो गया है और इस एक्सीडेंट में मेरा 23 साला छोटा भाई इजाज़ और मेरे 55 साला अब्बू चौधरी क़ादिर दोनो का इंतकाल हो गया था |
यह खबर 50 साल से कुछ ऊपर मेरी अम्मी फख़ीरा और मेरी 24 साला छोटी बहन संध्या के लिए तो बुरी थी ही | मगर उन दोनों के साथ मेरे लिए ज्यादा बुरी इसलिए थी कि ना सिर्फ़ अब मुझे लाहौर जैसी बड़ी सिटी को छोड़ कर वापिस अपने गाँव जाना पड़ गया था बल्कि साथ ही साथ अपने वालिद की सारी ज़मीन की देखभाल और अपने घर को संभालने की सारी ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर आन पड़ी थी |
बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेटर में ग्रॅजुयेशन करने के बाद खेतीबाड़ी करने को मेरी हरगिज़ दिल नही था |
मगर अपने वालिद का एकलौता बेटा रह जाने की वजह से अपनी ज़मीन की देखभाल चाहे मजबूरी में ही सही अब मुझे ही करनी थी |
इसलिए अपने भाई और वालिद के कफ़न दफ़न के बाद मैंने अपनी ज़मीन को संभाल लिया और अब मैं पिछले 6 महीने से दिन रात खेती बाड़ी में मसरूफ़ हो गया |
वैसे तो अपनी ज़िंदगी में मेरे वालिद हमारी ज़मीन पर ज्यादातर सब्ज़िया ही उगाते थे | मगर उनकी मौत के बाद मैंने कोई अलग फसल लगाने के लिए सोचा और चंद दूसरे लोगों से स्लाह मशवरा करने के बाद मैंने अपनी ज़मीन पर गन्ना लगा दिया |
अगस्त के महीने में गन्ने की फसल खड़ी तो हो गई मगर इसके बावजूद उसे काटने के लिए मुझे एक महीना और इंतज़ार करना था |
इस दौरान चूँकि फसल की रखवाली के इलावा मुझे खेतों पर और कोई काम नही था | इसलिए मैंने अपने कुछ नौकरों को कुछ टाइम के लिए छुट्टी दे दी और सिर्फ़ रात की निगरानी के लिए दो आदमियों को रख लिया | जोकि रात को डेरे पर रहते और सुबह होते ही अपने घर वापिस चले जाते |
चूँकि हमारी ज़मीन हमारे गाँव के बाकी लोगों की ज़मीनों और मकानों से काफ़ी हट कर दूर थी | इसलिए मैं एक बार जब अपने घर से निकल कर अपनी ज़मीन पा आ जाता तो फिर मेरी घर वापसी शाम से पहले नही होती थी |
गन्ने की काशत के बाद अब मेरी रुटीन यह बन गई थी कि सुबह सुबह डेरे पर चला आता और मैं सारा दिन अपने उस डेरे पर बैठकर अपने खेतों की निगरानी करता जिसे मेरे वालिद ने अपनी ज़िन्दगी में बनाया था |
अब्बू ने यह डेरा हमारी सारी ज़मीन के बिल्कुल सेंटर में बनाया था | जिसमें दो कमरे बने हुए थे |
उन दोनो कमरों में से एक में ट्यूबवेल लगा हुआ था जिससे मैं अपनी सारी फसल को पानी देता था | इस कमरे की छत की उचाई कम थी |
जबकि दूसरा कमरा आराम करने के लिए बनाया गया था और इस कमरे की छत ट्यूबवेल वाले कमरे से काफ़ी उँची थी |
ट्यूबवेल वाले कमरे की पिछली तरफ लकड़ी की एक सीड़ी लगी हुई थी जिसके ज़रिये ऊपर चढ़कर ट्यूबवेल की छत पर जाया जा सकता था |
यहाँ पर एक रोशनदान भी बना हुआ था जोकि आराम करने वाले बड़े कमरे को हवादार बनाने के लिए था |
इस रोशनदान पर लकड़ी की एक छोटी सी खिड़की लगी हुई थी जो हमेशा बंद ही रहती | जबकि रोशनदान के बाहर की तरफ स्टील की एक जाली भी लगी हुई थी |
इस रोशनदान की बनावट कुछ इस तरह की थी कि अगर कोई इंसान ट्यूबवेल की छत पर खड़े होकर बड़े कमरे के अंदर झाँकता तो कमरे के अंदर मौजूद लोगों को बाहर खड़े शक्स की मौजूदगी का इल्म नही हो सकता था |
ट्यूबवेल की छत पर भी एक सीढ़ी रखी हुई थी | जिसके जरिए आराम वाले कमरे की उँची छत पर चढ़ा जा सकता था |
इस छत से चूँकि हमारी पूरी ज़मीन पर नज़र रखी जा सकती थी | इसलिए दिन में अक्सर मैं सीढ़ियों के जरिए ऊपर चला जाता और छत पर बैठ कर अपनी फसल की हिफ़ाज़त करता रहता |
हर रोज़ दोपहर में मेरी छोटी बहन संध्या मेरे लिए घर से खाना लाती और जब तक मैं खाने से फ़ारिग ना हो जाता वो भी मेरे साथ ही कमरे में सामने वाली चारपाई पर बैठ कर अपने मोबाइल फोन से खेलती रहती |
जब मैं खाना खा कर फारिग हो जाता तो संध्या बर्तन समेट कर घर वापिस चली जाती और मैं कमरे में जा कर आराम कर लेता |
यह रुटीन पिछले दो महीने से चल रही थी | कभी कभार ऐसा भी होता कि संध्या की जगह मेरी अम्मी रुखसाना मेरे लिए खाना ले आतीं |
लाहौर से वापिस अपने गाँव आ कर अब पिछले 6 मंथ से मेरी ज़िंदगी एक ही डगर पर चल रही थी | जिसकी वजह से मैं अब थोड़ा बोर होने लगा था और मेरी इस बोरियत की सब से बड़ी वजह चूत से महरूमी थी |
असल में लाहौर में काम के दौरान मैंने अपने रूम मेट्स के साथ मिल कर बड़ी उम्र की दो गश्तियों का बंदोबस्त कर लिया था और फिर जितना अर्सा मैं वहाँ रहा, हफ्ते में कम से कम दो दफ़ा तो उन औरतों में से एक की चूत का ज़ायक़ा चख़ ही लेता था |
इस लिए यह ही वजह थी कि गाँव में आकर मैं औरत के मज़े से महरूम हो गया था |
वैसे तो मैंने डेरे पर दो तीन नंगी फोटोस वाले मैग्ज़िनस छुपा कर रखे हुए थे जिनको मैं लाहौर से अपने साथ लाया था |
इसलिए जब भी मेरा दिल चाहता तो मैं मौका पाकर डेरे पर बने कमरे में जाता और चारपाई पर लेट कर उन मैग्ज़िनस में मौजूद लड़कियों की गंदी फोटोस को देख देखकर मुट्ठ लगाता और अपने जिस्म की आग को हल्का कर लेता था |
बेशक़ मैं मुट्ठ लगा कर फ़ारिग तो हो जाता मगर मेरे लौड़े को औरत की चूत का ऐसा नशा लग चूका था कि अब मेरे लौड़े को एक गरम फुद्दी की शिद्दत से तलब हो रही थी |
मेरा लौड़ा मेरी शलवार में सुबह सुबह खड़ा होकर हर रोज़ किसी गरम फुद्दी की माँग करता मगर मैं थप्पड़ मार मार कर अपने लौड़े को खामोश कर देता था |
वो कहते हैं ना कि “सौ साल बाद तो रुड़ी की भी सुनी जाती है” बिल्कुल यह मेरे साथ हुआ कि जिस गरम और प्यासी चूत की मेरे लौड़े को तलाश थी |
वो उसे मेरी बहन संध्या की सहेली ज़ाकिया की शकल में आख़िर एक दिन मिल ही गई |
ज़ाकिया वैसे तो मेरी बहन संध्या से उम्र में एक साल बड़ी थी मगर गाँव में हमारे घर साथ साथ होने की वजह से उन दोनो में बचपन ही से बहुत अच्छी दोस्ती थी |
जबकि स्कूल की पहली क्लास से लेकर मेट्रिक तक इकट्ठे एक ही क्लास में पड़ने की वजह से जवान होते होते उन दोनो की दोस्ती ज्यादा गहरी होती चली गई |
मेरी बहन की सहेली होने की हैसियत से ज़ाकिया का अक्सर हमारे घर आना जाना लगा रहता था |
ज़ाकिया जब भी मेरी बहन संध्या को मिलने हमारे घर आती तो संध्या उसे लेकर अपने कमरे में चली जाती | जहाँ दोनो सहेलियाँ बैठ कर काफ़ी देर तक गपशप करती रहती थीं |
ज़ाकिया चूँकि उम्र में संध्या से एक साल बड़ी थी | इसलिए उसके घर वालों को उसकी शादी की शायद कुछ ज्यादा ही जल्दी थी |
यही वजह थी कि जिन दिनों मैं जिम्मीदारा कॉलेज में ब.ए. कर रहा था तो उसी दौरान ज़ाकिया की शादी हो गई |
उसके सुसराल वाले चूँकि मुल्तान के पास एक गाँव में रहते थे इसलिए शादी के बाद ज़ाकिया हमारे गाँव से रुखसत हो कर अपने शोहर के साथ मुल्तान में रहने लगी |
अब जिन दिनों मेरा लौड़ा किसी औरत की फुद्दी में जाने के लिए तडप रहा था तो उनी दिनों ज़ाकिया अपने माँ बाप को मिलने अपने गाँव वापिस आई तो उस दौरान वो मेरी बहन संध्या को भी मिलने हमारे घर चली आई |
उस दिन मैं भी इतफ़ाक से डेरे से जल्दी घर वापिस आ गया था | इसलिए संध्या के साथ ज़ाकिया के साथ मेरी भी मुलाक़ात हो गई |
मैंने उस दिन ज़ाकिया को तक़रीबन दो साल बाद देखा तो उस को देखती ही मैं उसके हुस्न का दीवाना हो गया |
ज़ाकिया शादी के इन दो सालों में लड़की से एक भरपूर औरत बन चुकी थी | उसकी कमीज़ में से उसके गोल गोल मोटे मुम्मे बहुत ही मज़ेदार नज़र आ रहे थे | जिनको देखते ही मेरे मुँह में पानी आ गया था |
जबकि ज़ाकिया की शलवार में पोषीदा उस की लम्बी गुंदाज राणों को देखते ही मेरा लौड़ा उस की राणों के दरमियाँ मौजूद चूत के बारे में सोचकर एकदम मेरी शलवार में हिलने लगा था |
संध्या और ज़ाकिया हमारे घर के सेहन में ही बैठकर आपस में बातों में मशगुल हो गईं थी | जबकि इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए मैं इस दौरान ज़ाकिया के जिस्म को भूखी नजरों से देखाने में लगा रहा |
ज़ाकिया ने संध्या से बातों के दौरान अपने जिस्म पर पड़ने वाली मेरी गरम नजरों को महसूस तो कर लिया था | मगर उसने अपने चेहरे से मुझे यह महसूस नही होने दिया कि मेरा यूँ ताड़ना उसे अच्छा लगा है या नही |
दूसरे दिन दोपहर को मैं डेरे के कमरे में चारपाई पर लेट कर आराम कर रहा था तो संध्या मेरे लिए खाना ले कर आई तो उस दिन मेरी बहन संध्या के साथ उस वक़्त ज़ाकिया भी थी | ज़ाकिया को यूँ दुबारा अपने सामने देख कर मेरे लौड़े में एक अजीब सी हलचल मच गई |
मैं जब खाना खाने बैठा तो संध्या और ज़ाकिया सामने वाली चारपाई पर बैठ कर आपस में बातें करने लगा |
इस दौरान मैंने महसूस किया कि संध्या से बातों के दौरान ज़ाकिया चोरी चोरी मेरी तरफ भी देख रही थी |
इस दौरान मेरी नज़र एक दो दफ़ा ज़ाकिया की नज़र से मिली | तो उसकी नजरों में मेरे लिए जो हवस का पैगाम था उसे पड़ना मेरे लिए कुछ मुश्किल नही था |
“हाईईईईईईईईई लगता है कि ज़ाकिया भी मेरी तरह चुदाई की आग में जल रही है” अपनी बहन की सहेली की आखों में चुदाई की प्यास देख कर मेरे दिल में ख्याल आया और मेरी शलवार में मेरा लौड़ा गरम हो गया |
मैं रोटी से फारिग हुआ तो संध्या ने बर्तन उठाए और ज़ाकिया को साथ लेकर घर चली गई | जबकि मैं चारपाई पर लेट कर ज़ाकिया के बारे में सोचने लगा |
दूसरे दिन ज़ाकिया फिर मेरी बहन संध्या के साथ मुझे रोटी देने आई | उस दिन खाने के बाद संध्या ने बर्तन समेटे और उन्हें धोने के लिए अकेली ही बाहर ट्यूबवेल की तरफ चली गई | जिसकी वजह से अब कमरे में सिर्फ़ मैं और ज़ाकिया ही रह गए थे |
संध्या के बाहर जाते ही मैंने मौका गनीमत जाना और ज़ाकिया की तरफ देखा तो वो भी मेरी तरफ ही देख रही थी |
“तुम्हारा शोहर कैसा है ज़ाकिया” ज़ाकिया को अपनी तरफ देखते ही मैंने अपने आप में हिम्मत पैदा की और अपनी चारपाई सरकाकर उसके नज़दीक होते हुए यह सवाल कर दिया |
“ठीक हैं वो” ज़ाकिया ने जवाब तो दिया मगर मुझे अपने नज़दीक आते देख ज़ाकिया एकदम घबरा गई और उस की साँसें ऊपर नीचे होने लगीं |
“तू खुश तो है ना उसके साथ” मैंने ज़ाकिया के करीब होते हुए उसके नरम हाथ को अपने हाथ में पकड़ते हुए पूछा |
ज़ाकिया ने कोई जवाब नही दिया तो मेरा हौसला बढ़ा और मैंने उस की कमर में हाथ डाल कर उसके गुंदाज जिस्म को अपने करीब खींच लिया | अब उसका जिस्म मेरे जिस्म से जुड़ गया और हम दोनो के मुँह एक दूसरे के आमने सामने आ गए |
“छोड़ो मुझे संध्या आती ही होगी” अपने आपको मेरी बाहों के घेरे में आते देखकर ज़ाकिया एकदम घबरा गई और मेरी बाहों से निकलने की कोशिश करते हुए बोली |
ज़ाकिया की बात को नज़रअंदाज़ करते हुए मैंने अपने मुँह को आगे बढ़ाया और अपने होंठ ज़ाकिया के गरम होंठों पर रख दिए |
एक लम्हे के लिए ज़ाकिया ने छुडवाने की नाकाम सी कोशिश की मगर इसके साथ ही उसने अपने मुँह को खोला तो मेरी ज़ुबान उसके मुँह में दाखिल हो कर उसकी ज़ुबान से टकराने लगी |
आज इतने महीने बाद एक औरत के जिस्म को छूने और लबों को चाटते हुए मुझे बहुत मज़ा आया तो मैंने मस्ती में आते हुए ज़ाकिया के जिस्म के गिर्द अपनी बाहों को कसा | जिसकी वजह ज़ाकिया का जिस्म मेरे जिस्म के साथ चिमटता चला गया और साथ ही उसके गुंदाज मुम्मे मेरी छाती में दबते चले गए |
इससे पहले के मैं और आगे बढ़ता ज़ाकिया ने एकदम मुझे धक्का देते हुए अपने आपको मेरे बाजुओं की ग्रिफ्त से अलग किया और फिर जल्दी से कमरे के दरवाज़े के पास जाकर कांपती आवाज़ में बोली “तुम्हे तमीज़ होनी चाहिए कि शादीशुदा औरतों से कैसे पेश आते हैं” |
“अगर एक चांस दो तो मैं तुम्हे बता सकता हूँ कि शादीशुदा औरतों के साथ पेश आने की मुझे कितनी तमीज़ है, वैसे अब दुबारा कब मिलोगी मुझे” ज़ाकिया की बात का जवाब देते हुए मैंने उसकी तरफ देख कर बेशर्मी से शलवार में खड़े हुए अपने लौड़े पर हाथ फेरा और उससे सवाल किया |
“कल, इसी वक़्त और इसी जगह” मेरी इस हरकत पर ज़ाकिया ने शर्माते हुए एकदम अपनी नज़रें नीचे कीं और फिर मेरी बात का जवाब देते हुए तेज़ी के साथ कमरे से बाहर निकल गई |
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मेरा नाम अफ़ताब है | मेरी उम्र इस वक़्त 27 साल है | मैं एक गोरा चिट्टा तंदरुस्त बांका जवान हूँ और इस वक़्त अपनी फैमिली के साथ मैं कराची में रहता हूँ |
आज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ , उस का आगाज़ पाकिस्तान के सूबे पंजाब के शहर गुजरात सिटी के पास वाकीया एक छोटे से गाँव में हुआ |
आज से चंद साल पहले ज़मींदारा कॉलेज गुजरात से ग्रेजुएट करने के बाद जब मुझे एक जानने वाले की मेहरबानी से लाहौर में एक प्राइवेट कंपनी में जॉब मिली तो मैं अपने गाँव को खुदा हाफ़िज़ कह कर लाहौर चला आया और अपने दो दोस्तों के साथ एक फ्लैट में रहने लगा |
मुझे लाहौर में जॉब शुरू किए अभी तक़रीबन 6 महीने ही हुए थे कि गाँव से आने वाली एक मनहूस खबर ने मेरे दिल को तोड़ दिया |
खबर यह थी कि गुजरात शहर से अपने गाँव जाते हुए मेरे अब्बू के ट्रेक्टर का एक ट्रक से एक्सीडेंट हो गया है और इस एक्सीडेंट में मेरा 23 साला छोटा भाई इजाज़ और मेरे 55 साला अब्बू चौधरी क़ादिर दोनो का इंतकाल हो गया था |
यह खबर 50 साल से कुछ ऊपर मेरी अम्मी फख़ीरा और मेरी 24 साला छोटी बहन संध्या के लिए तो बुरी थी ही | मगर उन दोनों के साथ मेरे लिए ज्यादा बुरी इसलिए थी कि ना सिर्फ़ अब मुझे लाहौर जैसी बड़ी सिटी को छोड़ कर वापिस अपने गाँव जाना पड़ गया था बल्कि साथ ही साथ अपने वालिद की सारी ज़मीन की देखभाल और अपने घर को संभालने की सारी ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर आन पड़ी थी |
बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेटर में ग्रॅजुयेशन करने के बाद खेतीबाड़ी करने को मेरी हरगिज़ दिल नही था |
मगर अपने वालिद का एकलौता बेटा रह जाने की वजह से अपनी ज़मीन की देखभाल चाहे मजबूरी में ही सही अब मुझे ही करनी थी |
इसलिए अपने भाई और वालिद के कफ़न दफ़न के बाद मैंने अपनी ज़मीन को संभाल लिया और अब मैं पिछले 6 महीने से दिन रात खेती बाड़ी में मसरूफ़ हो गया |
वैसे तो अपनी ज़िंदगी में मेरे वालिद हमारी ज़मीन पर ज्यादातर सब्ज़िया ही उगाते थे | मगर उनकी मौत के बाद मैंने कोई अलग फसल लगाने के लिए सोचा और चंद दूसरे लोगों से स्लाह मशवरा करने के बाद मैंने अपनी ज़मीन पर गन्ना लगा दिया |
अगस्त के महीने में गन्ने की फसल खड़ी तो हो गई मगर इसके बावजूद उसे काटने के लिए मुझे एक महीना और इंतज़ार करना था |
इस दौरान चूँकि फसल की रखवाली के इलावा मुझे खेतों पर और कोई काम नही था | इसलिए मैंने अपने कुछ नौकरों को कुछ टाइम के लिए छुट्टी दे दी और सिर्फ़ रात की निगरानी के लिए दो आदमियों को रख लिया | जोकि रात को डेरे पर रहते और सुबह होते ही अपने घर वापिस चले जाते |
चूँकि हमारी ज़मीन हमारे गाँव के बाकी लोगों की ज़मीनों और मकानों से काफ़ी हट कर दूर थी | इसलिए मैं एक बार जब अपने घर से निकल कर अपनी ज़मीन पा आ जाता तो फिर मेरी घर वापसी शाम से पहले नही होती थी |
गन्ने की काशत के बाद अब मेरी रुटीन यह बन गई थी कि सुबह सुबह डेरे पर चला आता और मैं सारा दिन अपने उस डेरे पर बैठकर अपने खेतों की निगरानी करता जिसे मेरे वालिद ने अपनी ज़िन्दगी में बनाया था |
अब्बू ने यह डेरा हमारी सारी ज़मीन के बिल्कुल सेंटर में बनाया था | जिसमें दो कमरे बने हुए थे |
उन दोनो कमरों में से एक में ट्यूबवेल लगा हुआ था जिससे मैं अपनी सारी फसल को पानी देता था | इस कमरे की छत की उचाई कम थी |
जबकि दूसरा कमरा आराम करने के लिए बनाया गया था और इस कमरे की छत ट्यूबवेल वाले कमरे से काफ़ी उँची थी |
ट्यूबवेल वाले कमरे की पिछली तरफ लकड़ी की एक सीड़ी लगी हुई थी जिसके ज़रिये ऊपर चढ़कर ट्यूबवेल की छत पर जाया जा सकता था |
यहाँ पर एक रोशनदान भी बना हुआ था जोकि आराम करने वाले बड़े कमरे को हवादार बनाने के लिए था |
इस रोशनदान पर लकड़ी की एक छोटी सी खिड़की लगी हुई थी जो हमेशा बंद ही रहती | जबकि रोशनदान के बाहर की तरफ स्टील की एक जाली भी लगी हुई थी |
इस रोशनदान की बनावट कुछ इस तरह की थी कि अगर कोई इंसान ट्यूबवेल की छत पर खड़े होकर बड़े कमरे के अंदर झाँकता तो कमरे के अंदर मौजूद लोगों को बाहर खड़े शक्स की मौजूदगी का इल्म नही हो सकता था |
ट्यूबवेल की छत पर भी एक सीढ़ी रखी हुई थी | जिसके जरिए आराम वाले कमरे की उँची छत पर चढ़ा जा सकता था |
इस छत से चूँकि हमारी पूरी ज़मीन पर नज़र रखी जा सकती थी | इसलिए दिन में अक्सर मैं सीढ़ियों के जरिए ऊपर चला जाता और छत पर बैठ कर अपनी फसल की हिफ़ाज़त करता रहता |
हर रोज़ दोपहर में मेरी छोटी बहन संध्या मेरे लिए घर से खाना लाती और जब तक मैं खाने से फ़ारिग ना हो जाता वो भी मेरे साथ ही कमरे में सामने वाली चारपाई पर बैठ कर अपने मोबाइल फोन से खेलती रहती |
जब मैं खाना खा कर फारिग हो जाता तो संध्या बर्तन समेट कर घर वापिस चली जाती और मैं कमरे में जा कर आराम कर लेता |
यह रुटीन पिछले दो महीने से चल रही थी | कभी कभार ऐसा भी होता कि संध्या की जगह मेरी अम्मी रुखसाना मेरे लिए खाना ले आतीं |
लाहौर से वापिस अपने गाँव आ कर अब पिछले 6 मंथ से मेरी ज़िंदगी एक ही डगर पर चल रही थी | जिसकी वजह से मैं अब थोड़ा बोर होने लगा था और मेरी इस बोरियत की सब से बड़ी वजह चूत से महरूमी थी |
असल में लाहौर में काम के दौरान मैंने अपने रूम मेट्स के साथ मिल कर बड़ी उम्र की दो गश्तियों का बंदोबस्त कर लिया था और फिर जितना अर्सा मैं वहाँ रहा, हफ्ते में कम से कम दो दफ़ा तो उन औरतों में से एक की चूत का ज़ायक़ा चख़ ही लेता था |
इस लिए यह ही वजह थी कि गाँव में आकर मैं औरत के मज़े से महरूम हो गया था |
वैसे तो मैंने डेरे पर दो तीन नंगी फोटोस वाले मैग्ज़िनस छुपा कर रखे हुए थे जिनको मैं लाहौर से अपने साथ लाया था |
इसलिए जब भी मेरा दिल चाहता तो मैं मौका पाकर डेरे पर बने कमरे में जाता और चारपाई पर लेट कर उन मैग्ज़िनस में मौजूद लड़कियों की गंदी फोटोस को देख देखकर मुट्ठ लगाता और अपने जिस्म की आग को हल्का कर लेता था |
बेशक़ मैं मुट्ठ लगा कर फ़ारिग तो हो जाता मगर मेरे लौड़े को औरत की चूत का ऐसा नशा लग चूका था कि अब मेरे लौड़े को एक गरम फुद्दी की शिद्दत से तलब हो रही थी |
मेरा लौड़ा मेरी शलवार में सुबह सुबह खड़ा होकर हर रोज़ किसी गरम फुद्दी की माँग करता मगर मैं थप्पड़ मार मार कर अपने लौड़े को खामोश कर देता था |
वो कहते हैं ना कि “सौ साल बाद तो रुड़ी की भी सुनी जाती है” बिल्कुल यह मेरे साथ हुआ कि जिस गरम और प्यासी चूत की मेरे लौड़े को तलाश थी |
वो उसे मेरी बहन संध्या की सहेली ज़ाकिया की शकल में आख़िर एक दिन मिल ही गई |
ज़ाकिया वैसे तो मेरी बहन संध्या से उम्र में एक साल बड़ी थी मगर गाँव में हमारे घर साथ साथ होने की वजह से उन दोनो में बचपन ही से बहुत अच्छी दोस्ती थी |
जबकि स्कूल की पहली क्लास से लेकर मेट्रिक तक इकट्ठे एक ही क्लास में पड़ने की वजह से जवान होते होते उन दोनो की दोस्ती ज्यादा गहरी होती चली गई |
मेरी बहन की सहेली होने की हैसियत से ज़ाकिया का अक्सर हमारे घर आना जाना लगा रहता था |
ज़ाकिया जब भी मेरी बहन संध्या को मिलने हमारे घर आती तो संध्या उसे लेकर अपने कमरे में चली जाती | जहाँ दोनो सहेलियाँ बैठ कर काफ़ी देर तक गपशप करती रहती थीं |
ज़ाकिया चूँकि उम्र में संध्या से एक साल बड़ी थी | इसलिए उसके घर वालों को उसकी शादी की शायद कुछ ज्यादा ही जल्दी थी |
यही वजह थी कि जिन दिनों मैं जिम्मीदारा कॉलेज में ब.ए. कर रहा था तो उसी दौरान ज़ाकिया की शादी हो गई |
उसके सुसराल वाले चूँकि मुल्तान के पास एक गाँव में रहते थे इसलिए शादी के बाद ज़ाकिया हमारे गाँव से रुखसत हो कर अपने शोहर के साथ मुल्तान में रहने लगी |
अब जिन दिनों मेरा लौड़ा किसी औरत की फुद्दी में जाने के लिए तडप रहा था तो उनी दिनों ज़ाकिया अपने माँ बाप को मिलने अपने गाँव वापिस आई तो उस दौरान वो मेरी बहन संध्या को भी मिलने हमारे घर चली आई |
उस दिन मैं भी इतफ़ाक से डेरे से जल्दी घर वापिस आ गया था | इसलिए संध्या के साथ ज़ाकिया के साथ मेरी भी मुलाक़ात हो गई |
मैंने उस दिन ज़ाकिया को तक़रीबन दो साल बाद देखा तो उस को देखती ही मैं उसके हुस्न का दीवाना हो गया |
ज़ाकिया शादी के इन दो सालों में लड़की से एक भरपूर औरत बन चुकी थी | उसकी कमीज़ में से उसके गोल गोल मोटे मुम्मे बहुत ही मज़ेदार नज़र आ रहे थे | जिनको देखते ही मेरे मुँह में पानी आ गया था |
जबकि ज़ाकिया की शलवार में पोषीदा उस की लम्बी गुंदाज राणों को देखते ही मेरा लौड़ा उस की राणों के दरमियाँ मौजूद चूत के बारे में सोचकर एकदम मेरी शलवार में हिलने लगा था |
संध्या और ज़ाकिया हमारे घर के सेहन में ही बैठकर आपस में बातों में मशगुल हो गईं थी | जबकि इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए मैं इस दौरान ज़ाकिया के जिस्म को भूखी नजरों से देखाने में लगा रहा |
ज़ाकिया ने संध्या से बातों के दौरान अपने जिस्म पर पड़ने वाली मेरी गरम नजरों को महसूस तो कर लिया था | मगर उसने अपने चेहरे से मुझे यह महसूस नही होने दिया कि मेरा यूँ ताड़ना उसे अच्छा लगा है या नही |
दूसरे दिन दोपहर को मैं डेरे के कमरे में चारपाई पर लेट कर आराम कर रहा था तो संध्या मेरे लिए खाना ले कर आई तो उस दिन मेरी बहन संध्या के साथ उस वक़्त ज़ाकिया भी थी | ज़ाकिया को यूँ दुबारा अपने सामने देख कर मेरे लौड़े में एक अजीब सी हलचल मच गई |
मैं जब खाना खाने बैठा तो संध्या और ज़ाकिया सामने वाली चारपाई पर बैठ कर आपस में बातें करने लगा |
इस दौरान मैंने महसूस किया कि संध्या से बातों के दौरान ज़ाकिया चोरी चोरी मेरी तरफ भी देख रही थी |
इस दौरान मेरी नज़र एक दो दफ़ा ज़ाकिया की नज़र से मिली | तो उसकी नजरों में मेरे लिए जो हवस का पैगाम था उसे पड़ना मेरे लिए कुछ मुश्किल नही था |
“हाईईईईईईईईई लगता है कि ज़ाकिया भी मेरी तरह चुदाई की आग में जल रही है” अपनी बहन की सहेली की आखों में चुदाई की प्यास देख कर मेरे दिल में ख्याल आया और मेरी शलवार में मेरा लौड़ा गरम हो गया |
मैं रोटी से फारिग हुआ तो संध्या ने बर्तन उठाए और ज़ाकिया को साथ लेकर घर चली गई | जबकि मैं चारपाई पर लेट कर ज़ाकिया के बारे में सोचने लगा |
दूसरे दिन ज़ाकिया फिर मेरी बहन संध्या के साथ मुझे रोटी देने आई | उस दिन खाने के बाद संध्या ने बर्तन समेटे और उन्हें धोने के लिए अकेली ही बाहर ट्यूबवेल की तरफ चली गई | जिसकी वजह से अब कमरे में सिर्फ़ मैं और ज़ाकिया ही रह गए थे |
संध्या के बाहर जाते ही मैंने मौका गनीमत जाना और ज़ाकिया की तरफ देखा तो वो भी मेरी तरफ ही देख रही थी |
“तुम्हारा शोहर कैसा है ज़ाकिया” ज़ाकिया को अपनी तरफ देखते ही मैंने अपने आप में हिम्मत पैदा की और अपनी चारपाई सरकाकर उसके नज़दीक होते हुए यह सवाल कर दिया |
“ठीक हैं वो” ज़ाकिया ने जवाब तो दिया मगर मुझे अपने नज़दीक आते देख ज़ाकिया एकदम घबरा गई और उस की साँसें ऊपर नीचे होने लगीं |
“तू खुश तो है ना उसके साथ” मैंने ज़ाकिया के करीब होते हुए उसके नरम हाथ को अपने हाथ में पकड़ते हुए पूछा |
ज़ाकिया ने कोई जवाब नही दिया तो मेरा हौसला बढ़ा और मैंने उस की कमर में हाथ डाल कर उसके गुंदाज जिस्म को अपने करीब खींच लिया | अब उसका जिस्म मेरे जिस्म से जुड़ गया और हम दोनो के मुँह एक दूसरे के आमने सामने आ गए |
“छोड़ो मुझे संध्या आती ही होगी” अपने आपको मेरी बाहों के घेरे में आते देखकर ज़ाकिया एकदम घबरा गई और मेरी बाहों से निकलने की कोशिश करते हुए बोली |
ज़ाकिया की बात को नज़रअंदाज़ करते हुए मैंने अपने मुँह को आगे बढ़ाया और अपने होंठ ज़ाकिया के गरम होंठों पर रख दिए |
एक लम्हे के लिए ज़ाकिया ने छुडवाने की नाकाम सी कोशिश की मगर इसके साथ ही उसने अपने मुँह को खोला तो मेरी ज़ुबान उसके मुँह में दाखिल हो कर उसकी ज़ुबान से टकराने लगी |
आज इतने महीने बाद एक औरत के जिस्म को छूने और लबों को चाटते हुए मुझे बहुत मज़ा आया तो मैंने मस्ती में आते हुए ज़ाकिया के जिस्म के गिर्द अपनी बाहों को कसा | जिसकी वजह ज़ाकिया का जिस्म मेरे जिस्म के साथ चिमटता चला गया और साथ ही उसके गुंदाज मुम्मे मेरी छाती में दबते चले गए |
इससे पहले के मैं और आगे बढ़ता ज़ाकिया ने एकदम मुझे धक्का देते हुए अपने आपको मेरे बाजुओं की ग्रिफ्त से अलग किया और फिर जल्दी से कमरे के दरवाज़े के पास जाकर कांपती आवाज़ में बोली “तुम्हे तमीज़ होनी चाहिए कि शादीशुदा औरतों से कैसे पेश आते हैं” |
“अगर एक चांस दो तो मैं तुम्हे बता सकता हूँ कि शादीशुदा औरतों के साथ पेश आने की मुझे कितनी तमीज़ है, वैसे अब दुबारा कब मिलोगी मुझे” ज़ाकिया की बात का जवाब देते हुए मैंने उसकी तरफ देख कर बेशर्मी से शलवार में खड़े हुए अपने लौड़े पर हाथ फेरा और उससे सवाल किया |
“कल, इसी वक़्त और इसी जगह” मेरी इस हरकत पर ज़ाकिया ने शर्माते हुए एकदम अपनी नज़रें नीचे कीं और फिर मेरी बात का जवाब देते हुए तेज़ी के साथ कमरे से बाहर निकल गई |